छात्रों द्वारा शिक्षकों के नाम एक खुला पत्र

हाल ही में लखनऊ विश्वविद्यालय प्रशासन ने अपना ग़ैर-जनतान्त्रिक रुख़ एक बार फिर दिखला दिया। लखनऊ विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने अकादमिक विषयों पर विचार-विमर्श चक्र की शुरुआत की। यह विचार-विमर्श चक्र डीन छात्र कल्याण की आज्ञा से शुरू किया गया। लेकिन बाद में इस विचार-विमर्श चक्र को प्रॉक्टर ने ग़ैर-कानूनी घोषित करके इसमें शामिल होने वाले दो छात्रों को निलम्बित कर दिया। इस पर शिक्षकों के नाम छात्रों द्वारा एक पत्र जारी किया गया, जिसे हम यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं। – सम्पादक

आदरणीय शिक्षकगण,

इससे पहले कि हम अपनी परेशानी, व्यथा और चिन्ता आपसे साझा करें, हम यह कहना चाहते हैं कि अपने स्कूली दिनों से लेकर आज तक जब भी हमें पाठ्यक्रम की पढ़ाई से लेकर जीवन के किसी भी क्षेत्र में मार्गदर्शन की ज़रूरत हुई है, तो हमने आपकी तरफ सिर उठाकर देखा है, और हर-हमेशा आपने हमें उचित राह दिखायी है।

हम लोग बी.ए. (प्रथम वर्ष) के छात्र हैं, और पाक्षिक तौर पर विश्वविद्यालय के भीतर हम एक विचार-विमर्श और अध्ययन चक्र का आयोजन करते थे। इसकी शुरुआत हमने सितम्बर माह से की थी, और अब तक विभिन्न राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय महत्त्व के विषय जैसे – “उभरता हुआ भारत: किसका विकास, कैसा विकास”, “साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज”, “आरक्षण: पक्ष, विपक्ष और तीसरा पक्ष”, “नक्सल समस्या का समाधान” पर इस चक्र का आयोजन कर चुके हैं। इस समूह में नियमित भागीदारी करने वाले छात्रों को हमने ‘स्टूडेण्ट्स डिस्कशन फ़ोरम’ का नाम दे दिया था। इस आयोजन को करने की मूल प्रेरणा हमें विश्वविद्यालय से ही प्राप्त हुई। अपने स्कूली दिनों से ही हमने विश्वविद्यालय की एक ऐसी जगह के रूप में कल्पना की थी, जहाँ हमें शिक्षकों और सहपाठियों के बीच एक ऐसा परिवेश मिलेगा जिसमें हम अपना सम्पूर्ण बौद्धिक विकास कर सकेंगे। हमें उम्मीद थी कि यहाँ पर हमारी बौद्धिक गतिविधियों का दायरा महज़ क्लासरूम और परीक्षा-कक्ष तक सीमित नहीं रह जायेगा, बल्कि सही मायने में वैश्विक हो जायेगा, जैसा कि ‘विश्वविद्यालय’ शब्द में स्वयं ही निहित है। विश्वविद्यालय में दाखि़ल होने के बाद विभिन्न विषयों पर लेक्चर लेते हुए हमें कई शिक्षकों द्वारा अपने बीच विचार-विमर्श, डिबेट-डिस्कशन इत्यादि की संस्कृति विकसित करने की सलाह दी गयी। हमें स्वयं भी यह समझ में आया कि विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं से लेकर, भविष्य में देश और समाज का एक ज़िम्मेदार नागरिक बनने के लिए हमें इस तरह का प्रयास करना चाहिए। इस सम्बन्ध में विश्वविद्यालय के विभिन्न पदाधिकारियों से बात करने के बाद पता लगा कि यहाँ ऐसा कोई मंच नहीं है। हमने तय किया कि हम स्वयं इसके लिए पहल करेंगे, ताकि न सिर्फ हमें बल्कि भविष्य में विश्वविद्यालय के अन्य छात्रों को भी इसका लाभ मिल सके। हमने इस प्रस्ताव को अधिष्ठाता छात्र कल्याण के सामने रखा और वे इसके लिए राजी हो गये। चूँकि प्रो. राकेश चन्द्रा अधिष्ठाता छात्र कल्याण होने के साथ दर्शनशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष भी हैं, तो उन्होंने हमें दर्शनशास्त्र विभाग का सेमिनार रूम इस आयोजन के लिए इस्तेमाल करने की अनुमति दे दी। जल्दी ही विभिन्न विभागों के छात्र (हालाँकि मात्रा में कम ही) इस चक्र में हिस्सा लेने लगे और प्रो. राकेश चन्द्रा ने स्वयं भी दो बार इस चर्चा में हिस्सा लिया। इस प्रकार ‘स्टूडेण्ट्स डिस्कशन फ़ोरम’ की शुरुआत हो गयी।

इसी क्रम में हमने पिछले 3 दिसम्बर को ‘भ्रष्टाचार: क्या कोई हल सम्भव है?’ विषय पर विचार-विमर्श चक्र आयोजित करने का तय किया। इसके पहले हम छात्रों को इस आयोजन की सूचना देने के लिए क्लास रूमों में जाकर छात्रों से बात करते थे। इस बार हमारी राय बनी कि इस तरह सूचना देने से न हम ज़्यादातर छात्रों तक बात पहुँचा पाते हैं, और साथ ही क्लास भी बाधित हो जाती है। इसलिए हम ए-4 पेपर पर कम्प्यूटर से टाइप करके यह सूचना उन जगहों पर चस्पा कर देंगे जहाँ पर अधिक से अधिक छात्र इसे पढ़ सकें। इसी के फलस्वरूप हमने यह सूचना कुछ छात्रावासों के नोटिस बोर्ड पर, कुछ विभागों के नोटिस बोर्ड पर और एक-दो जगह जहाँ कोई नोटिस बोर्ड नहीं था, वहाँ दीवालों पर चस्पा कर दी। इसके बाद 4 दिसम्बर, 2010 को इस फ़ोरम के दो छात्रों (शिवार्थ, बी.ए. प्रथम) व एक अन्य, जिनका नाम इस चस्पा किये गये सूचना-पत्र पर दर्ज था, को तत्काल प्रभाव से विश्वविद्यालय से निलम्बित कर दिया गया और अनियतकाल के लिए रद्द कर दिया गया। 7 दिसम्बर, 2010 को हमने प्रशासन के समक्ष यह बात रखी कि यह आयोजन पूर्णतया एक अकादमिक प्रचार करना नहीं, बल्कि महज़ सूचना देना था। इसको दीवारों पर चस्पा करने के लिए भी हम इसीलिए मजबूर हुए, क्योंकि विश्वविद्यालय में छात्रों के लिए कोई सार्वजनिक नोटिस बोर्ड नहीं है। इसके बाद हम लगातर प्रॉक्टर, डीन स्टूडेण्ट्स वेल्फ़ेयर, चीफ प्रवोस्ट के सामने उपस्थित होकर अपनी बात रख चुके हैं; लेकिन 50 दिन बीत जाने के बाद भी हमें कोई जवाब नहीं मिला है। उल्टे एक पूर्णतया अकादमिक और बौद्धिक गतिविधि के आयोजन को अपराध करार देकर हमारे साथ अपराधियों जैसा व्यवहार किया जा रहा है और मानसिक उत्पीड़न किया जा रहा है। आज की स्थिति यह है कि हमारा निलम्बन रद्द होना तो दूर, भविष्य में ऐसी कोई पहल लेने के पहले कोई भी छात्र दस दफ़ा सोचने के लिए मज़बूर होगा।

ऐसे में हम अपने विश्वविद्यालय के शिक्षकों और गुरुजनों से कुछ मुद्दों पर दिशा-सन्धान और मार्गदर्शन चाहेंगे। सर्वप्रथम, क्या विश्वविद्यालय के भीतर एक अकादमिक और उच्च गुणवत्ता वाला बौद्धिक वातावरण तैयार करने के लिए स्वयं प्रशासन को विचार-विमर्श, डिबेट-डिस्कशन, गोष्ठी-परिचर्चा इत्यादि गतिविधियाँ जिसमें छात्रों की व्यापक भागीदारी हो, आयोजित करने की पहल नहीं करनी चाहिए? क्या ऐसी गतिविधियों के अभाव में न सिर्फ छात्र बल्कि शिक्षक भी शोध-अनुसन्धान जैसे क्रिया-कलापों में पिछड़ नहीं जायेंगे और क्या यह विश्वविद्यालय की हत्या करना जैसा नहीं होगा? दूसरे अगर प्रशासन स्वयं ऐसी पहल नहीं कर रहा है, और कुछ छात्र, जिन्होंने अभी-अभी विश्वविद्यालय में दाखि़ला लिया है, अपने स्तर पर इसके लिए प्रयास करते हैं, तो क्या प्रशासन सहित पूरे विश्वविद्यालय समुदाय की यह ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित करें? क्या विचार-विमर्श और अध्ययन चक्र जैसी गतिविधियों के आयोजन हेतु सूचना चस्पा करने के लिए 50 दिनों का निलम्बन दण्डस्वरूप दिया जाना उचित है? क्या यह दण्डात्मक कार्यवाही सीधे-सीधे हमारी ‘अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’ के मौलिक अधिकार को बाधित नहीं करती?

हम आपके समक्ष मार्गदर्शन की अपील लेकर आये हैं, हमें रास्ता सुझाइये कि हम किस प्रकार अपना निलम्बन रद्द करायें, प्रशासन के इस निरंकुश रवैये का सामना करें, अपने बौद्धिक क्रियाकलाप जारी रखते हुए पाठ्यक्रम की पढ़ाई भी सुचारु रूप से जारी रख सकें।

सधन्यवाद, शिवार्थ पाण्डेय बी.ए. (प्रथम वर्ष), सूरज सिंह बी.ए. (प्रथम वर्ष), शाहिल अली बी.ए. (प्रथम वर्ष),

अंजूलता बी.ए. (प्रथम वर्ष), शिवा बी.ए. (प्रथम वर्ष), मो- तलत अंसारी बी.ए. (प्रथम वर्ष) 18 जनवरी, 2011

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2011

 

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