कैम्पसों में बढ़ती पुलिस मौजूदगी – आख़िर किस बात का डर है उन्हें?
कुल मिलाकर इस सारी कवायद का मक़सद यही है कि छात्रों को और कैम्पसों को मरघट की शान्ति से भर दिया जाय। कहीं कोई आवाज़ न उठाये; कहीं लोग एक-दूसरे से मिलें नहीं और आपसी संवाद और सम्बन्ध न कायम करें; कोई हक़ की बात न करे; सब शान्त रहें! यही चाहत है इस व्यवस्था और प्रशासन की। लेकिन पुलिस का डण्डा छात्रों को डराकर उनकी नौजवानी को कुचल नहीं सकता। छात्रों-युवाओं में एक सहज न्यायबोध होता है। उसे ऐसे किसी भोंडे प्रयास से कुचला नहीं जा सकता। साथ ही, छात्रों के राजनीतिकरण को भी रोकना इस व्यवस्था के बूते की बात नहीं। अंततः कैम्पस के भीतर या कैम्पस के बाहर नौजवानों को अपनी ज़िन्दगी की जद्दोजहद से यह समझ लेना है कि संगठित हुए बग़ैर उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा। कैम्पसों को छावनियों में तब्दील करने की तमाम कोशिशों के बावजूद छात्र अपनी यह फ़ितरत नहीं भूल सकते-अन्याय के विरुद्ध विद्रोह न्यायसंगत है!