Category Archives: छात्र आन्‍दोलन

कैम्पसों में बढ़ती पुलिस मौजूदगी – आख़िर किस बात का डर है उन्हें?

कुल मिलाकर इस सारी कवायद का मक़सद यही है कि छात्रों को और कैम्पसों को मरघट की शान्ति से भर दिया जाय। कहीं कोई आवाज़ न उठाये; कहीं लोग एक-दूसरे से मिलें नहीं और आपसी संवाद और सम्बन्ध न कायम करें; कोई हक़ की बात न करे; सब शान्त रहें! यही चाहत है इस व्यवस्था और प्रशासन की। लेकिन पुलिस का डण्डा छात्रों को डराकर उनकी नौजवानी को कुचल नहीं सकता। छात्रों-युवाओं में एक सहज न्यायबोध होता है। उसे ऐसे किसी भोंडे प्रयास से कुचला नहीं जा सकता। साथ ही, छात्रों के राजनीतिकरण को भी रोकना इस व्यवस्था के बूते की बात नहीं। अंततः कैम्पस के भीतर या कैम्पस के बाहर नौजवानों को अपनी ज़िन्दगी की जद्दोजहद से यह समझ लेना है कि संगठित हुए बग़ैर उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा। कैम्पसों को छावनियों में तब्दील करने की तमाम कोशिशों के बावजूद छात्र अपनी यह फ़ितरत नहीं भूल सकते-अन्याय के विरुद्ध विद्रोह न्यायसंगत है!

मेहनतकश जनसमुदाय से एकता बनाने के लिए क्रान्तिकारी छात्रों-युवाओं को कुछ ठोस क़दम उठाने होंगे!

हमारा यह ठोस सुझाव है कि कैम्पसों से, छुट्टियों के दौरान ऐसे छात्रों की टोलियाँ बनाकर मज़दूर बस्तियों में जाना चाहिये। वहाँ रुककर उत्पादन कार्य में भी कुछ भागीदारी करनी चाहिए। दिहाड़ीकरण-ठेकाकरण के इस समय में कुछ न कुछ मज़दूरी का काम मिल ही जाता है। इसके साथ ही मज़दूरों को, मज़दूर स्त्रियों को और उनके बच्चों को पढ़ाने का और इसी दौरान देश-दुनिया-समाज का ज्ञान देने का काम करना चाहिये, स्वास्थ्य-सफ़ाई आदि के अभियान चलाने चाहिये, युवा मज़दूरों और मज़दूरों के युवा बेटों को खेलकूद और सांस्कृतिक कार्रवाइयों के दौरान शिक्षित और संगठित करना चाहिये। उन्हें क्रान्तिकारियों और क्रान्तियों के इतिहास से परिचित कराना चाहिये। छुट्टियाँ समाप्त होने के बाद भी, बीच-बीच में जाकर इस प्रक्रिया को चलाते रहा जा सकता है। ऐसे उन्नत क्रान्तिकारी चेतना वाले छात्र छात्रवास और किराये की जगहें छोड़कर यदि मज़दूर बस्तियों में ही रह सकें तो और भी अच्छा है। इसी प्रक्रिया में उन्हें मज़दूरों की जीवन स्थितियों की गहरी जानकारी होगी और एक दिन उनकी भूमिका मज़दूर संगठनकर्ता की बनने लगेगी।

कैम्पसों का बदलता वर्ग चरित्र और छात्र-युवा आन्दोलन की चुनौतियाँ

लेकिन हमें कैम्पस को छोड़ नहीं देना होगा। वहाँ हमें आम मध्यवर्ग और निम्न-मध्यवर्ग के उन तमाम युवाओं को संगठित करना होगा जो किसी तरह कैम्पस में पहुँच पा रहे हैं। इसके साथ ही हमें उच्च और खाते-पीते मध्यवर्ग के उन नौजवानों को भी खोजना होगा जो इस हद तक संवेदनशील और न्यायप्रिय हैं कि अपने वर्ग हितों का त्याग करके अपने सपनों और आकांक्षाओं को इस देश की उस बहुसंख्यक आम मेहनतकश आबादी के सपनों और आकांक्षाओं के साथ जोड़ सकते हैं, जो उनके अस्तित्व की भी हर शर्त को पूरा कर रही है लेकिन जो उनकी तरह अपने बच्चों को कॉलेजों-कैम्पसों में नहीं भेज सकती। हमारा मानना है कि हमारे देश ने ऐसे नौजवानों को पैदा करना अभी बन्द नहीं किया है। और भारत में इन्‍क़लाब के किसी भी प्रोजेक्ट की तैयारी में आज शुरुआती दौर में ऐसे नौजवानों की बेहद ज़रूरत है जो सक्षम संगठनकर्ता की भूमिका को निभा सकें; जिनके पास इतिहास, समाज और विज्ञान का ज्ञान हो। ऐसे में कैम्पस से आने वाले, अपने वर्ग से अलग होकर मेहनतक़श वर्गों के पक्ष में आकर खड़े होने वाले इन युवाओं की एक ख़ास भूमिका बन जाती है। ऐसे छात्रों को हमें लगातार कैम्पस में जोड़ना होगा और उन्हें लेकर मज़दूर बस्तियों, निम्न-मध्यवर्गीय कालोनियों, कारख़ाना गेटों आदि पर जाना होगा और शहीदे-आज़म भगतसिह के उसी सन्देश पर अमल करना होगा कि आज देश के छात्रों-युवाओं को क्रान्ति के सन्देश को लेकर इस देश की मज़दूर बस्तियों, गाँव की जर्जर झोंपड़ियों, कारख़ानों आदि में जाना होगा। कैम्पस में और उसके बाहर भी, छात्र-युवा आन्दोलन की केन्द्रीय माँग आज एक ही हो सकती है – ‘सबको समान एवं निःशुल्क शिक्षा और सबको रोज़गार।’ इससे कम हम किसी माँग को भी सुधारवादी और उदारवादी मानते हैं। इस मुद्दे पर होने वाला संघर्ष ही हमें आगे की राह दिखायेगा। इस माँग पर छात्र-युवा आन्दोलन ही हमें और बुनियादी मुद्दों तक लेकर जायेगा। आज के समय का सही संघर्ष इसी माँग को लेकर हो सकता है।

छात्रों के जनवादी अधिकारों पर एक ख़तरनाक हमला

कहने के लिए लिंगदोह कमेटी के सुझावों का मक़सद छात्र राजनीति की सफाई करना है और उसे राजनीतिक कुरीतियों से बचाना है। लेकिन दरअसल यह छात्र राजनीति को साफ करने के नाम पर साधारण छात्रों की व्यापक आबादी को राजनीति से दूर करने की साजि“श है। यह छात्रों के जनवादी अधिकारों पर हमला है। जिस तरह लोकसभा और विधानसभा चुनावों में आचार संहिता का तमाम चुनावी पार्टियों और अपराधी उम्मीदवारों के लिए कोई मतलब नहीं है और आचार संहिता के प्रावधानों से बच निकलने के चोर रास्ते तलाश लिये जाते हैं, उसी तरह छात्र संघ चुनावों में भी ये सुझाव छात्र राजनीति को तो साफ नहीं कर पायेंगे, हाँ, छात्रों के वास्तविक प्रतिनिधियों के लिए छात्र संघ के मंच का इस्तेमाल कर पाना जरूर थोड़ा और मुश्किल बना देंगे। और यही इन सिफारिशों का असली मक़सद भी है।

दिल्ली विश्वविद्यालय में पुलिस दमन के विरोध में छात्रों का जोरदार आन्दोलन

लेकिन इस आंशिक विजय के बावजूद अच्छी बात यह रही कि सारे चुनावबाज इस क्रम में पूरी तरह बेनकाब हो गये और आम छात्रों के बीच उनकी काफी लानत–मलामत हुई। इस आन्दोलन की विजय इस बात में निहित नहीं है कि सारी माँगें पूरी हुईं या नहीं हुईं। इसके विजय की असली कसौटी यह थी कि- (1) कोई भी पुलिस अधिकारी अब ऐसी हरकत करने से पहले सौ बार सोचेगा; (2) छात्रों की निगाह में दलाल चुनावबाज छात्र संगठनों का चरित्र बिल्कुल साफ हो गया। दिशा छात्र संगठन को मानसरोवर के छात्रों का पूरा समर्थन मिला।

Reservation Support, Opposition and Our Position

when the ruling class hurls the bait of reservation in employment or higher education, the students and unemployed youth belonging to middle class and upper castes, who are already dependent on jobs for their livelihood think that the “dalits” and backward castes are now even robbing them off their remaining opportunities of employment with the aid of the crutches of reservation. They are unable to perceive this ground reality that in fact the opportunities for employment have dwindled away so much that even if the reservation is completely brought to an end, not all the unemployed from the upper castes will get employment. Similarly the youth belonging to “dalit” and backward castes fail to realise that if the percentage of reservation is raised a little more and if it is implemented in an honest and effective manner, even then not even fifty percent of unemployed youth from “dalit” and the backward castes will obtain employment. Whatever meagre opportunities for employment will be available to them, even their benefits will primarily be reaped by an exceedingly small population of “dalits” who have joined middle class and people belonging to economically, socially and politically influential backward castes; and the vast majority of population living their lives as proletariat-semi proletariat will obtain almost nothing from it.

क्रान्तिकारी छात्र राजनीति से घबराये हुक़्मरान

अगर छात्रसंघ को ख़त्म किया जाता है तो यह एक फ़ासिस्ट और अलोकतांत्रिक कदम होगा। छात्र कहीं भी आवाज़ उठाएँगे तो उन्हें कुचला जाएगा और चुनावबाज पार्टियों के लग्गुओं-भग्गुओं का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, मगर कैम्पसों में एक मुर्दा शान्ति छा जाएगी। छात्रसंघ की गन्दी राजनीति का इलाज छात्रसंघ को ख़त्म करके करना वैसा ही है जैसे कि बीमार की बीमारी का इलाज करने की बजाय बीमार को ही ख़त्म कर दिया जाय। कोशिश यह होनी चाहिए कि कैम्पस में मौजूद क्रान्तिकारी ताकतें आगे बढ़कर छात्रसंघ की कमान अपने हाथ में ले लें।

छात्र-नौजवान नयी शुरुआत कहाँ से करें?

आज कैम्पस केन्द्रित छात्र आन्दोलनों की सम्भावनाएँ वस्तुगत तौर पर भी कम हो गयी हैं। छात्र आन्दोलन और नौजवान आन्दोलन के संयुक्त रूप में एक छात्र-युवा आन्दोलन के रूप में संगठित होने की अनुकूल परिस्थितियाँ अब पहले हमेशा से अधिक तैयार हैं और उसे व्यापक मेहनतकश अवाम के पूँजी-विरोधी संघर्षों से सीधे जोड़ देने की सम्भावनाएँ भी पहले से अधिक पैदा हो गयी हैं। पूरे समाज से लेकर कैम्पस तक में आये संरचनागत बदलावों के चलते, क्रान्तिकारी छात्र आन्दोलन के पुराने जड़ीभूत, बद्धमूल साँचे और खाँचे को पूरी तरह से बदल देना होगा और उपरोक्त बदलावों के मद्देनज़र एक नये कार्यक्रम के आधार पर नयी शुरुआत करनी होगी।

छात्र-नौजवान नयी शुरुआत कहाँ से करें?

भगतसिंह ने जो भविष्य-स्वप्न देखा था, उसे मुक्ति की परियोजना में ढालने और अमली जामा पहनाने का काम अभी भी हमारे सामने एक यक्ष प्रश्न के रूप में खड़ा है। क्या अब भी हम उस आह्वान की अनसुनी करते रहेंगे? क्रान्तिकारी तूफ़ानों में उड़ान भरने के लिए अपने पंखों को तोलने के वास्ते भविष्य मुक्तिकामी युवा दिलों का आह्वान कर रहा है। गर्वीले गरुड़ और तूफ़ानी पितरेल इस आह्वान की अनसुनी क़तई नहीं कर सकते।

किस चीज़ का इन्तज़ार है? और कब तक? दुनिया को तुम्हारी ज़रूरत है!

ज़रूरत है ऐसे बहादुर, विचारसम्पन्न नौजवानों की, जो इस काम को अंजाम देने के लिए आगे आयें। यह तो सभी महसूस करते हैं कि उनके माँ-बाप को उनकी ज़रूरत है। जो लोग यह महसूस करते हैं कि समाज को उनकी ज़रूरत है, वे ही इतिहास बदलने के औज़ार गढ़ते हैं और परिवर्तनकामी जनता के हिरावल बनते हैं। आज एक बार फ़िर सब कुछ नये सिरे से शुरू करना है और इसके लिए कोई मसीहा धरती पर नहीं आयेगा। बदलाव की तैयारी आम जनता के कुछ बहादुर युवा सपूत ही शुरू करेंगे। ऐसे ही लोग सच्चे युवा हैं। उनकी संख्या ही बहुसंख्या है। पर अभी वे निराशा या ‘क्या करें क्या न करें’ की दुविधाग्रस्त मानसिकता से ग्रस्त हैं। सही है, कि हार के समय थोड़ी निराशा आ जाती है। लेकिन कब तक मेरे भाई? अब तो उबरने का समय आ चुका है? इसके संकेतों को पहचानने की कोशिश तो करो! क्या हज़ार ऐसे कारण नहीं है कि हम विद्रोह करें और क्या इनमें से चन्द एक ही काफ़ी नहीं हैं कि हम अपनी तैयारी अभी से शुरू कर दें? क्या एकमात्र रास्ता यही नहीं बचा है कि हम अन्याय के विरुद्ध लड़ें और छिटपुट न लड़ें बल्कि अपनी लड़ाई को सामाजिक क्रान्ति की सीढ़ियाँ बना दें।