प्रोजेक्ट पेगासस : शासक वर्ग का हाइटेक निगरानी तन्त्र और उसके अन्तरविरोधों का ख़ुलासा
अविनाश
कुर्सी ख़तरे में है
तो प्रजातन्त्र ख़तरे में है
कुर्सी ख़तरे में है तो
देश ख़तरे में है
कुर्सी ख़तरे में है तो दुनिया ख़तरे में है
कुर्सी न बचे तो
भाड़ में जाये
प्रजातन्त्र देश और दुनिया
– गोरख पाण्डेय
अभी हाल ही में हुए ‘पेगासस प्रोजेक्ट’ ख़ुलासे से भारत की फ़ासीवादी मोदी सरकार और दुनिया की कई निरंकुश तानाशाह सरकारों द्वारा अपने राजनीतिक विरोधियों, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, जनपक्षधर वकीलों, जनता के पक्ष में मजबूती से खड़े बुद्धिजीवियों और नागरिकों की हाईटेक जासूसी का भण्डाफोड़ हुआ। पेगासस जासूसी काण्ड तब सामने आया जब पेगासस स्पाइवेयर बनाने वाली इज़रायली टेक फ़र्म एन.एस.ओ. के ही व्हिसलब्लोवर ने फ़्रांस आधारित जनपक्षधर पत्रकारों के एक समूह ‘फॉर्बिडेन स्टोरीज़’ को 50 हज़ार से ज़्यादा फ़ोन नम्बरों की एक सूची मुहैया करवायी, जिनकी पेगासस स्पाइवेयर द्वारा या तो जासूसी की जा चुकी थी या की जा रही है या भविष्य में की जायेगी। िद गार्जियन, ले मोण्ड, वाशिंगटन पोस्ट, िद वायर, फ्रण्टलाइन समेत दुनियाभर के 17 जाने-माने मीडिया संस्थानों की लैब में इन नम्बरों की जाँच की गयी और इस जासूसी का पर्दाफ़ाश हुआ। ‘द वायर’ के मुताबिक़ भारत सरकार ने 2017 से 2019 के दौरान तक़रीबन 300 भारतीयों की जासूसी की है। आनन्द तेलतुम्बड़े, पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा, कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकार प्रशान्त किशोर, केन्द्रीय मन्त्री अश्वनी वैष्णव, पूर्व मुख्य न्यायधीश और भाजपा राज्यसभा सांसद रंजन गोगोई व इन पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिला, एम के वेणु, सिद्धार्थ वरदराजन, रोहिणी सिंह, स्वाति चतुर्वेदी सहित क़रीब 40 जनपक्षधर पत्रकारों, कांग्रेस नेता राहुल गाँधी, प्रियंका गाँधी, प्रफुल्ल पटेल सहित भाजपा के फ़ासीवादी एजेण्डे की पोल पट्टी खोलने वाले तमाम राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों, बुद्धिजीवियों, विपक्षी नेताओं और यहाँ तक की अपनी ही पार्टी के विरोधी ब्लॉक के मन्त्रियों और नौकरशाहों आदि के फ़ोन की पेगासस के ज़रिये जासूसी की जा रही थी। कुर्सी के जाने का डर पहले भी राज करने वाली तमाम पार्टियों को रहा है। सत्ता बचाने के लिए ये पार्टियाँ जाति-धर्म-भाषा-क्षेत्र आदि के नाम पर नफ़रत के बीज बोने से लेकर एक हद तक जासूसी भी करवाती रही हैं लेकिन फ़ासीवादी मोदी सरकार ने इस मामले में पिछले सभी रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिये हैं। इसके अलावा दुनिया के स्तर पर फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों, पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री इमरान खान, दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति काईरिल रामाफोसा सहित कई देशों के प्रमुखों की जासूसी की जा रही थी।
पेगासस एक स्पाइवेयर है। स्पाइवेयर ऐसे ख़तरनाक सॉफ्टवेयर वायरस होते हैं जिसे दूर बैठा व्यक्ति उपयोगकर्ता की जानकारी के बिना केवल एक ईमेल, मिस्ड कॉल, व्हाट्सऐप सन्देश के ज़रिये उसके स्मार्टफ़ोन या कम्प्यूर में इंस्टाल कर उपयोगकर्ता के क्रिया-कलापों पर निगरानी रख सकता है।
आख़िर ये स्पाइवेयर सिस्टम में प्रवेश कैसे करता है? हर प्रकार के कोड, ऑपरेटिंग सिस्टम या सॉफ्टवेयर में अलग-अलग तरह के बग्स (दोष) होते हैं। ये बग्स दो तरह के होते हैं। पहले, जो उपयोगकर्ता के अनुभव (user experience) को ख़राब करते हैं, इसमें किसी प्रकार की दिक्कत नहीं होती। इसे सॉफ्टवेयर बनाने वाली कम्पनी सॉफ्टवेयर अपडेट कर ठीक कर देती है। दूसरे सुरक्षा सम्बन्धित बग्स होते हैं, जिनमें से बहुत सारे बग्स के बारे में सॉफ्टवेयर बनाने वाली कम्पनी को भी नहीं पता होता है और इसी का इस्तेमाल कर स्पाइवेयर डिवाइस को निशाना बनाता है। इस पूरी प्रक्रिया को ‘ज़ीरो डे अटैक’ के नाम से जाना जाता है। एक बार स्पाइवेयर उपयोगकर्ता के सिस्टम में प्लाण्ट करने के बाद लोकेशन, कॉल डीटेल, ईमेल, व्हाट्सऐप, फोटो, वीडियो, नेटवर्क विवरण, फ़ोन नम्बर, बैंक अकाउण्ट, राशन कार्ड, बीमा, बिजली से सम्बन्धित जानकारियों के साथ ही व्यक्तियों के आदतों और रुचियों से सम्बन्धित जानकारियाँ जैसे इण्टरनेट सर्फिंग की आदतें, ब्राउज़िंग हिस्ट्री, पसन्दगी-नापसन्दगी, कॉल आदि व्यक्तिगत सूचनाओं को इकठ्ठा कर मनमर्ज़ी तरीके से इस्तेमाल किया जा सकता है। स्पाइवेयर उपयोगकर्ता की गैर-जानकारी में और फ़ोन बन्द होने की स्थिति में भी कैमरा ऑन कर फोटो और वीडियो ले सकता है, माइक्रोफ़ोन के ज़रिये बातचीत को रिकॉर्ड कर सकता है, लोकेशन ट्रेस कर सकता है। मतलब स्पाइवेयर के ज़रिये आपकी हर एक गतिविधि पर आपके चाहे बगैर कोई निगरानी कर सकता है और आपको भनक तक नहीं लगेगी। फ़ोन या सिस्टम में स्पाइवेयर की उपस्थिति आम तौर पर उपयोगकर्ताओं से छिपी रहती है। लेकिन अब तक के ज्ञात लगभग सभी स्पाइवेयर (फिंशफिशर, पैकेज़शेपर आदि) आम तौर पर कम्प्यूटर, फ़ोन और इण्टरनेट आदि की स्पीड धीमी कर देते हैं। डिवाइस की बैटरी तेज़ी से डिस्चार्ज होने लगती है लेकिन पेगासस स्पाइवेयर की खास बात यह है कि-
1. यह सिस्टम या स्मार्टफ़ोन के स्पीड को धीमा नहीं करता है और बैटरी भी तेज़ी से डिस्चार्ज नहीं होती, जिससे उपयोगकर्ता को इसके अटैक का अन्दाज़ा भी नहीं हो पाता है।
2. अन्य सभी स्पाइवेयर को किसी दूसरे सिस्टम या स्मार्टफ़ोन में इंस्टाल करने के लिए भेजे गये लिंक पर क्लिक न होने की स्थिति में यह इंस्टाल नहीं किया जा सकता है लेकिन पेगासस स्पाइवेयर ‘ज़ीरो क्लिक टेक’ पर काम करता है। पेगासस स्पाइवेयर को इंस्टाल करने के लिए उपयोगकर्ता द्वारा किसी भी क्लिक की कोई ज़रूरत नहीं है। एक व्हाट्सऐप सन्देश या ईमेल या मिस्ड कॉल के ज़रिये ये टार्गेट सिस्टम में इंस्टाल हो जाता है।
3. पेगासस स्पाइवेयर में ख़ुद को ख़त्म कर लेने (self destruction) की क्षमता है। किसी टार्गेट डिवाइस में प्लाण्ट पेगासस ज़रूरी सूचना लेने के बाद यह ख़ुद ही ख़त्म हो जाता है या फिर कमाण्ड सेण्टर से सम्पर्क टूट जाने पर भी यह स्पाइवेयर ख़ुद-ब-ख़ुद ख़त्म हो जाता है। मतलब साफ़ है कि फोरेंसिक जाँच में भी इसके ज़रिये होने वाली जासूसी को पकड़ पाना बहुत मुश्किल है।
4. दुनिया भर में आज के समय में लगभग सभी लोग android और ios प्लेफॉर्म इस्तेमाल करते हैं। पहले इस तरह के ख़तरों से ios को सुरक्षित माना जाता था लेकिन इस स्पाइवेयर ने एप्पल के इस दावे की धज्जियाँ उड़ा दी है। पेगासस हर प्लेटफॉर्म पर काम करता है और इसीलिए दुनिया का हर व्यक्ति इसकी ज़द में है।
5. पेगासस स्पाइवेयर डिवाइस पर अपना पूर्ण आधिपत्य क़ायम कर लेता है जैसे व्हाट्सऐप, सिग्नल, टेलीग्राम सन्देश या कॉल कहने के लिए ‘एण्ड टू एण्ड एनक्रिप्टेड’ होता है (हालाँकि ऐसे मामले भी आ चुके है जब इसमें भी घुसपैठ हो चुकी है)। मतलब यह कि सन्देश भेजने वाले और पाने वाले के बीच कोई तीसरा इसको नहीं पढ़ सकता है। लेकिन यह बात पेगासस के लिए सही नहीं है। एक बार पेगासस का अटैक होने के बाद कण्ट्रोल सेण्टर पर बैठा व्यक्ति उपयोगकर्ता के फ़ोन से जो चाहे पढ़ सकता है, रिकॉर्ड कर सकता है, मनचाही चीज़ उपयोगकर्ता के फ़ोन में डाल सकता है और किसी डेटा को इण्टरसेप्ट कर सकता है। यानी पेगासस उपयोगकर्ता से ज़्यादा डिवाइस को कण्ट्रोल करने लगता है और उपयोगकर्ता को इसकी भनक तक नहीं लगती।
इन्हीं वजहों से पेगासस स्पाइवेयर को अब तक का सबसे उन्नत और सबसे ख़तरनाक जासूसी स्पाइवेयर माना जा रहा है। पेगासस स्पाइवेयर को विकसित करनेव वाली टेक फ़र्म एन.एस.ओ. सीधे इज़रायली ख़ुफिया विभाग की देख-रेख में काम करती है। एन.एस.ओ. का दावा है कि वह पेगासस केवल सरकारों को बेचतीं है, इसे किसी निजी व्यक्तियों या संस्थाओ को नहीं दिया जाता है। भारत, यूएई, बहरीन, सऊदी अरब, कज़ाखिस्तान, मेक्सिको, मोरक्को, अज़रबैजान सहित दुनिया के 50 देश इस स्पाइवेयर के ग्राहक हैं। लगभग इन सभी देशों में निरंकुश सत्ता है। पेगासस प्रोजेक्ट के इस खुलासे से पूरी तरह साफ़ हो गया है कि इसका इस्तेमाल सरकार द्वारा अपने ही देश के नागरिकों, बुद्धिजीवियों और सरकार के ख़िलाफ़ उठने वाली हर आवाज़ की जासूसी और दमन के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। हमारे देश की फ़ासिस्ट मोदी सरकार सुरक्षा के नाम पर जनता को संगठित करने वालों के बारे में सबकुछ जान लेना चाहती है। समय-समय पर सत्ता के ख़िलाफ़ उठने वाले जनआन्दोलनों से बौखलायी फ़ासीवादी सत्ता का काम यहाँ के लोकल इण्टेलिजेंस से लेकर केन्द्रीय इण्टेलिजेंस और रॉ जैसी खुफिया एजेन्सी तथा गाँवों-मोहल्ले-कस्बों-शहरों में इनके करोड़ों फ़ासिस्ट कैडरों से नहीं चल पा रहा है इसीलिए पेगासस जैसे स्पाइवेयर पर लाखों-करोड़ों खर्च किये जा रहे हैं। 2016 में पेगासस के ज़रिये 10 लोगों की जासूसी का खर्च 9 करोड़ था। इसके अलावा क़रीब 4.84 करोड़ 10 फ़ोन को हैक करने और 3.75 करोड़ प्रति व्यक्ति सॉफ्टवेयर इंस्टालेशन का खर्च था। इस हिसाब से 2016 में मोदी सरकार ने अपने 300 नागरिकों की जासूसी के लिए लगभग 2700 करोड़ खर्च किया। पेगासस स्पाइवेयर का भारत में सरकार कब से इस्तेमाल कर रही है, इसकी कोई पुख़्ता जानकारी अब तक नहीं है। लेकिन 2016 में हुए खुलासे से ही मानें तो केवल जासूसी पर यह सरकार लगभग 1.5 लाख करोड़ रुपए स्वाहा कर चुकी है।
पेगासस जासूसी को मोदी सरकार न तो पूरी तरह नकार रही है और न ही स्वीकार कर रही है क्योंकि दोनों ही स्थितियों में मोदी सरकार फँस जायेगी। अगर सरकार नकार रही है तो सवाल खड़ा होगा कि जासूसी किसने करवायी क्योंकि एन.एस.ओ. तो स्पाइवेयर केवल सरकारों को बेचती है और अगर मान लेती है तो मोदी सरकार की पूरे देश में छीछालेदर हो जायेगी। इसलिए सरकार केवल इतना कहकर पतली गली से निकल जाना चाहती है कि उसने कोई अवैध इण्टरसेप्शन नहीं किया है। बल्कि उसने जो किया है, क़ानूनसम्मत तरीक़े से किया है। पेगासस जासूसी का मामला 2017-2019 के बीच का है और इसी दौरान मोदी सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय (एनएससीएस) के बजट में क़रीब 10 बार बढ़ोत्तरी की, और इस अवधि में एनएससीएस का बजट आवण्टन 33.17 करोड़ रुपये से बढकर 333.58 करोड़ रुपये हो गया।
पेगासस स्पाइवेयर के ज़रिये जासूसी की जानकारी दुनिया को पहली बार 2016 में यूएई के मानवाधिकार कार्यकर्ता अहमद मंसूर को मिल रहे सन्दिग्ध सन्देशों का टोरण्टो विश्वविद्यालय के सिटीजन लैब के जानकारों और साइबर सुरक्षा फ़र्म लुकआउट की मदद से की गयी जाँच के बाद हुयी। उसके बाद हर साल साइबर जासूसी का मामला सामने आता रहा है। अभी कुछ सालों पहले ही व्हाट्सऐप ने ख़ुद दुनियाभर के लाखों उपभोक्ताओं के ख़िलाफ़ पेगासस स्पाइवेयर के साइबर अटैक की जानकारी दी थी।
भारत में क़ानूनी और गैर क़ानूनी सरकारी जासूसी कोई नयी बात नहीं!
भारत में सरकार द्वारा अपने ही नागरिकों की जासूसी कोई नयी बात नहीं है बल्कि एक हद तक तो भारत का संविधान और क़ानून भी सरकारों को यह अधिकार प्रदान करता है। औपनिवेशिक काल में अंग्रेज़ी सत्ता द्वारा भारतीयों की जासूसी के लिए बनाये गये भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम-1885 की धारा 5(2) आज़ादी के बाद नेहरू के नेतृत्व में सत्तासीन भारतीय पूँजीपति वर्ग ने जस का तस अपना लिया। जिसके तहत केन्द्र और राज्य सरकार को आपातकाल में या लोक सुरक्षा के हित में फ़ोन सन्देश को प्रतिबन्धित करने, टेप करने और निगरानी रखने का अधिकार है। इसके लिए गृह मन्त्रालय से पूर्व इजाज़त लेने का प्रावधान है। लेकिन इस अधिनियम में लोक सुरक्षा का कोई मानक नहीं तय है। ज़ाहिरा तौर पर जिसकी सरकार होती है, गृह मन्त्रालय भी उसी की मुट्ठी में होता है। इसलिए सरकारें आज़ादी के बाद से ही लोक सुरक्षा के नाम पर सत्ता सुरक्षा के लिए अपने राजनीतिक विरोधियों, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं आदि को इसका निशाना बनाती रही हैं। सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा-69 केन्द्र सरकार, राज्य सरकार और केन्द्र सरकार की 10 एजेंसियों (आईबी, एनआईए, सीबीआई, रॉ, एनसीबी, केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड, प्रवर्तक निदेशालय, राजस्व खुफिया निदेशालय, सिग्नल इण्टेलिजेंस निदेशालय और पुलिस आयुक्त, दिल्ली) को किसी भी कम्प्यूटर में बनाये गए,रखे गए, भेजे गये या प्राप्त किये गये किसी प्रकार के डेटा को इण्टरसेप्ट, मॉनिटर या डिसक्रिप्ट करने का अधिकार देती है। इस क़ानून के इस्तेमाल के लिए कुछ शर्तें भी हैं, लेकिन भारत के हर क़ानून की तरह ही ये शर्तें भी इतनी अस्पष्ट हैं कि सरकारों के पास ये क़ानूनी अधिकार अपने ख़िलाफ़ और दूरगामी तौर पर मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ उठने वाली आवाज़ों के दमन का औज़ार बन जाती है। इस तरह भारत में नागरिकों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं की जासूसी के लिए क़ानूनी मान्यता मिली हुई है। इन क़ानूनी हथकण्डों के अलावा भी राज्यसत्ता जासूसी के लिए तमाम गैरक़ानूनी तरीके भी अपनाती रही है। इण्डियन एक्सप्रेस द्वारा आरटीआई से प्राप्त की गयी सूचना के अनुसार गृह मन्त्रालय 2012 में हर रोज़ औसतन 250-300 फ़ोन के इण्टरसेप्शन की अनुमति दे रहा था। गृह सचिव के लिए यह सम्भव ही नहीं है कि एक दिन में इतनी बड़ी संख्या की जाँच कर पाये। ऐसे में बिना किसी जाँच पड़ताल के लोगों के फ़ोन का इण्टरसेप्शन धड़ल्ले से होता रहा है। याद रहे की यह सब कांग्रेस के शासन काल में भी हो रहा था। फ़ासीवादी भाजपा के शासन में यह पहले से भी कई गुना बढ़ चुका है।
सरकार द्वारा निजता के मौलिक अधिकार की धज्जियां उड़ाते हुए लोगों की जासूसी क़ानूनी और गैरक़ानूनी तरीके से करती ही रहती है, लेकिन इसके अलावा भाजपा सरकार ने कॉम्प्रिहेंसिव मॉनटरिंग सिस्टम, नेटग्रेड, नेत्र और इस जैसे तमाम सिस्टम ईज़ाद कर इण्टरनेट के ज़रिये बड़ी संख्या में लोगों की पसन्दगी-नापसन्दगी, आदतों, ज़रूरतों आदि का डेटा इकठ्ठा करने के लिए ख़ुद का निगरानी तन्त्र विकसित कर चुकी है। आज कल हर मोबाइल एप्लिकेशन कैमरा, माइक्रोफ़ोन, सम्पर्क सूची, लोकेशन से लेकर फोटो, वीडियो आदि की जासूसी की अनुमति इंस्टालेशन के समय ही ले लेती है, हर वेबसाइट बेहतर अनुभव के नाम पर कुकी पढ़ने की अनुमति ले लेती है। सूचना-प्रसारण के क्षेत्र में हो रहे विकास से दुनिया के स्तर पर ‘ग्लोबल सर्विलान्स कैपिटलिज़्म’ का पूरा तन्त्र खड़ा हो चुका है जो एक तरफ पूँजीवादी बाज़ार की सेवा में लगा हुआ है तो दूसरी ओर यह राज्यसत्ता के लिए बड़े पैमाने पर लोगों पर निगरानी क़ायम करने और पूँजीवादी राज्यसत्ता के ख़िलाफ़ उठने वाली हर आवाज़ को कैद करने का साधन बन चुका है। ये पूरा तन्त्र न केवल बाज़ार के हितों की निगरानी करता है बल्कि यह बाज़ार के सांस्कृतिक अनुकूलन का माध्यम भी है। जिसका इस्तेमाल ये कम्पनियाँ लोगों की क्षमता, रुचि आदि का ध्यान रखकर अपने उत्पादों का प्रचार करती हैं। ग्लोबल सर्विलान्स कैपिटलिज़्म के इस जमाने में डेटा की ख़रीद-फ़रोख्त का एक पूरा बाज़ार विकसित हो चुका है। केवल डेटा इकठ्ठा और डेटा को श्रेणीबद्ध करने में बहुत सी कम्पनियाँ लगी हुई है। इन कम्पनियों से सरकारें डेटा ख़रीद कर चुनाव प्रचार में इस्तेमाल करती है (जिसका भण्डाफोड़ कैमब्रिज एनालिटिका के मसले में हो चुका है) और निजी कम्पनियाँ अपने उत्पाद को बेचने के मक़सद से।
अब सवाल यह खड़ा होता है कि जब निगरानी का इतना विशाल तन्त्र पूरी दुनिया के स्तर पर खड़ा है और अपनी ज़रूरतों के हिसाब से दुनिया भर की सरकारें और बाज़ार के मद्देनज़र बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से लेकर देशी कम्पनियाँ इसका इस्तेमाल करती रही हैं तो अचानक पेगासस जासूसी मामले का इतना शोर क्यों है? ऐसा इसलिए क्योंकि इस घटना से पूँजीवादी लुटेरों के बीच की आपसी अन्तरविरोध से पर्दा उठ गया है और पूँजीवादी व्यवस्था की नंगई जगज़ाहिर हो गयी है। पूँजीवादी व्यवस्था कोई एकाश्मी व्यवस्था नहीं है। इसमे पूँजीपतियों और इनके विभिन्न गुटों के बीच आर्थिक हितों को लेकर लगातार टकराहट की स्थिति बनी रहती है। पूँजीवादी लुटेरों के बीच यह आर्थिक अन्तरविरोध राजनीतिक तौर पर इनका प्रतिनिधित्व करने वाली तमाम पूँजीवादी पार्टियों और एक पार्टी की भीतर के विभिन्न धड़ों के आपसी अन्तरविरोध के रूप में प्रतिबिम्बित होता है। पेगासस जासूसी मामले में यह अन्तरविरोध स्पष्ट रूप में खुल कर सामने आ गया है और इसीलिए इसका इतना शोर है। भारत सहित पूरी दुनिया में पेगासस का निशाना ज़्यादातर पत्रकार, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता आदि जनपक्षधर लोग बनाये गये लेकिन साथ ही साथ इस बार जासूसी की जद में विपक्षी पार्टियों के नेता (राहुल और प्रियंका गाँधी) और यहाँ तक की सत्ताधारी पार्टी के दूसरे धड़े के नेता (अश्वनी वैष्णव, प्रह्लाद पटेल), वो नौकरशाह जो सरकार की हाँ में हाँ नहीं मिलाते है, भी आ गये हैं। इस प्रकार पेगासस प्रोजेक्ट के खुलासे से पूँजीवादी राज्यसत्ता और पूँजीपतियों के विभिन्न धड़ों और फ़ासीवादी भाजपा के भीतर के विभिन्न गुटों के आपसी अन्तरविरोध सामने आने लगे। वहीं दूसरी ओर अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर साम्राज्यवादी लुटेरों के बीच का अन्तरविरोध भी फूट पड़ा है। पेगासस स्पाइवेयर के ज़रिये फ़्रांस के राष्ट्रपति के फ़ोन की जासूसी से फ़्रांस का बुर्ज़ुआ वर्ग नाराज़ है। इस खुलासे के बाद एक बार फिर राफेल की फ़ाइल खुल गयी है। राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पूँजीपति वर्ग के आपसी अन्तरविरोध भड़क उठने की वजह से पेगासस का मसला इतना उछाल पर है।
अगर मसला राज्यसत्ता बनाम नागरिक हितों के लिए लड़ने वाले राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं का होता तो मुद्दा इतना तूल नहीं पकड़ता। ‘आर्सेनल’ की भीमा कोरेगाँव मामले पर आई तीन रिपोर्टों से इसे समझा जा सकता है। यह रिपोर्ट साफ़-साफ़ बताती है कि भीमा कोरेगाँव केस में यूएपीए के तहत जेल में बन्द रोना विल्सन और सुरेन्द्र गाडगिल के कम्प्यूटर में मालवेयर के ज़रिये “प्रधानमन्त्री के हत्या की साज़िश” का फर्ज़ी दस्तावेज़ डाला गया था। आनन्द तेलतुम्बड़े, गौतम नौलखा, और अभी हाल ही में फ़ासिस्ट सत्ता के न्याय व्यवस्था के हाथों हत्या के शिकार हुए फ़ादर स्टेन स्वामी ने भी अपनी गिरफ़्तारी से पहले यही बात कही थी। सत्ता जबरिया जनता के पक्ष में मजबूती से खड़े इन बुद्धिजीवियों और राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं को माओवादी साबित करने में लगी हुई है, लेकिन इस घटना का शोर राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय मीडिया में नहीं के बराबर है। ऐसा क्यों है? क्योंकि मामला राज्य बनाम जनता के हितों में आवाज़ उठाने वाले लोगों की है।
राजसत्ता के अस्तित्व में आने, सुदृढ़ीकरण और बदलते स्वरूप के साथ-साथ ही जननिगरानी का एक पूरा तन्त्र विकसित होता गया है। पूँजीवाद मुनाफे की गिरती हुई दर के ढाँचागत संकट का शिकार है और हर विकास के साथ-साथ यह संकट और गहराता जाता है। आर्थिक स्तर पर गहराते इन संकटों में राजनीतिक संकटों की आहट होती है और इसलिए इसी के साथ-साथ जन निगरानी का तन्त्र ज़्यादा से ज़्यादा हाईटेक होता जाता है। सरकार हर जनआन्दोलन और जनता को संगठित करने में लगे व्यक्तियों और ग्रुपों के बारे में उनकी योजनाओं के बारे में सब कुछ जान लेना चाहती है और किसी भी सम्भावित ख़तरा पैदा होने की स्थिति में फर्ज़ी मुक़दमे, गिरफ़्तारियाँ, जान से मरवा देने आदि का हथकण्डा अपनाती है। लेकिन सत्ता यह बात भूल जाती है कि अब तक की कोई भी व्यवस्था अपने तमाम दमन के बावजूद भी अजर-अमर नहीं रही है और न ही वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था है। तकनीकी विकास के साथ साथ जैसे-जैसे राज्यसत्ता का निगरानी तन्त्र विकसित होगा और उसी अनुपात में या कई मौकों पर उससे ज़्यादा क्रान्तिकारी चेतना विकसित होगी। इसलिए एक दिन ऐसा ज़रूर आएगा कि तमाम हाइटेक से हाइटेक जासूसी और दमन का उन्नत से उन्नत तन्त्र किसी काम नहीं आएगा। जन तूफ़ान उठेगा और वर्तमान शोषणकारी व्यवस्था इतिहास के कूड़ेदान में पड़ी होगी।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2021
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