जनवादी अधिकारों पर बढ़ता फ़ासीवादी हमला और कैम्पसों में घटता जनवादी स्पेस

सम्पादकीय

वर्तमान फ़ासीवादी दौर में जनता के लम्बे संघर्षों से हासिल सीमित जनवादी अधिकारों पर हमला बोल दिया गया है। जिस अनुपात में जनता के जनवादी अधिकार छीने जा रहे हैं, उसी अनुपात में विश्वविद्यालयों/उच्च शिक्षण संस्थानों में जनवादी स्पेस भी ख़त्म किया जा रहा है। इंसाफ़पसन्द और जागरूक छात्र-युवा इस स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ़ हैं और सीमित पैमाने पर ही सही लेकिन इसके ख़िलाफ़ संघर्षरत हैं। लेकिन इस तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि बहुत से छात्रों-युवाओं के लिए यह बहुत अहम मसला नहीं है या कम से विश्वविद्यालय के बाहर होने वाली घटनाओं के प्रति वे उतने गम्भीर नहीं हैं। ऐसे भी छात्र-युवा हैं जो फ़ासीवादी प्रचार के प्रभाव में पत्रकारों, लेखकों, कलाकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं के दमन पर ख़ुश तक होते होंगे। जबकि जनता के जनवादी अधिकारों पर बढ़ता फ़ासीवादी हमला और कैम्पसों का घटता जनवादी स्पेस आम छात्रों के भविष्य के लिए बहुत ख़तरनाक होगा और हो रहा है। ऐसे में हम छात्रों-युवाओं को बहुत ठण्डे दिमाग़ से कुछ बेहद ज़रूरी सवालों पर सोचने के लिए मजबूर करना चाहते हैं।
सबसे पहले तो यह कि आख़िर जनता को जो भी जनवादी अधिकार मिले थे वे क्यों छीने जा रहे हैं और कैम्पसों में घटते जनवादी स्पेस का इससे क्या सम्बन्ध है? दूसरे, जनवादी अधिकारों के छीने जाने और कैम्पसों में घटते जनवादी स्पेस से छात्रों-युवाओं के भविष्य पर क्या फ़र्क़ पड़ेगा? तीसरे, इन अधिकारों के हिफ़ाज़त के लिए छात्रों-युवाओं को क्या करना चाहिए?
जनता के जनवादी अधिकारों पर बढ़ते हमलों को समझने के लिए हम एक निगाह पूँजीवादी व्यवस्था में बुर्जुआ वर्ग व बुर्जुआ पार्टियों के आपसी रिश्तों और चुनाव प्रक्रिया पर डालते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था में चुनाव के दौरान बुर्जुआ पार्टियों द्वारा जनता से किये गये वायदे आम तौर पर पूरे न किये जाने वाले वायदे होते हैं। कोई भी बुर्जुआ पार्टी चुनाव जीते, वह अमूमन केवल उन वायदों को पूरा करती है जो उसने पूँजीपतियों से किये होते हैं। अगर जनता को इसी प्रक्रिया में कोई सुविधा, अधिकार या सहूलियत हासिल हो गयी तो यह उसकी ख़ुशक़िस्मती होगी! जनता के बीच वायदों की झूठी पोटली हर चुनाव में सभी बुर्जुआ पार्टियों द्वारा नये-नये और अलग-अलग रंग-रोगन के साथ घुमाई जाती है। लेकिन चुनाव की प्रक्रिया जातिगत समीकरण, साम्प्रदायिक झगड़ों, क्षेत्रवाद, अन्धराष्ट्रवाद, प्रशासनिक भ्रष्टाचार से लेकर नोट-शराब के बिना कभी पूरी नहीं होती। पूँजीपति अपने हितों के मद्देनज़र अलग-अलग समय पर अलग-अलग बुर्जुआ पार्टी पर मेहरबान होते हैं और उसके लिए कुबेर का खजाना खोलते हैं। पूँजीवादी मीडिया भी अपनी पूरी ताक़त झोंक देता है, क्योंकि वह भी पूँजीपति वर्ग के हाथों में ही होता है। ज़ाहिर है, किसी भी समय जीतने वाली कोई भी बुर्जुआ पार्टी तन-मन-धन से अपनी सेवाएँ पूँजीपतियों को ही समर्पित करेगी न कि जनता को!
हमारे देश में भी पूँजीवादी लोकतन्त्र का यह चुनावी खेल आज़ादी के बाद से ही खेला जा रहा है। बदले हालात और आर्थिक संकट के दौर में भारत के पूँजीपति वर्ग ने कांग्रेस की जगह भाजपा को अपना सेवादार बनाया। मोदी के नेतृत्व में जनता को ‘अच्छे दिन’ का स्वप्न दिखाया गया। स्वाभाविक है इसे जुमला ही साबित होना था (एक साक्षात्कार में यह नंगी सच्चाई अमित शाह के मुँह से फिसल भी गयी थी)। अब जिनकी थोड़ी भी आँखे खुली हैं और जो फ़ासीवादी प्रचार की जगह ज़िन्दगी की सच्चाई से फ़ैसला लेते हैं वे जानते हैं कि नोटबन्दी और जीएसटी लागू करने के निर्णय; कोरोना महामारी में सरकार की आपराधिक बदइन्तज़ामी; उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों की गति तेज़ करे हुए शिक्षा, चिकित्सा, रेलवे आदि सरकारी विभागों को लुटेरों को सौंपने; सेना, बैंक जैसे विभागों में परमानेण्ट भर्ती की जगह ठेकाकरण करने; श्रम क़ानूनों को पूँजीपतियों के पक्ष में संशोधित करने; जनता का पैसा सीधे पूँजीपतियों पर लुटाने के आदि के कारण बेरोज़गारी, भुखमरी, तेज़ी से बढ़ रही मँहगाई, कुपोषण, बीमारियों, असुरक्षा आदि से जनता की कमर टूट गयी है। इस वजह से मज़दूरों, कर्मचारियों, छात्रों समेत जनता के विभिन्न हिस्सों में असन्तोष तेज़ी से बढ़ रहा है। इस असन्तोष को भड़कने और लोगों को एकजुट होने से रोकने के लिए भाजपा धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाले मुद्दे उठाती है, साम्प्रदायिकता का सहारा लेती है, अन्धराष्ट्रवाद का ज़हर भरती है। लेकिन केवल इतने से बात बनती नहीं और न बन पा रही है। इन हथकण्डों के बाद भी जन-असन्तोष जगह-जगह उठ खड़ा हो रहा है। प्रगतिशील संगठन, इंसाफ़पसन्द छात्र-युवा-बुद्धिजीवी-कलाकार-पत्रकार-मानवाधिकारकर्मी जगह-जगह भाजपा के फ़ासीवादी चरित्र की पोल-पट्टी खोल रहे हैं। इसी वजह से भाजपा सरकार द्वारा जनता को मिले सीमित जनवादी अधिकारों और कैम्पसों के जनवादी स्पेस को ख़त्म किया जा रहा है ताकी मुट्ठीभर पूँजीपतियों की तिजोरी भरने में मोदी सरकार पर जन-असन्तोष की आँच न आये। सरकार की पोल-पट्टी खोलने वाले और भाजपा की जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ लोगों को गोलबन्द करने वाले सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं, लेखकों, पत्रकारों, कलाकारों की ज़ुबान बन्द की जा रही है और उन्हें यूएपीए जैसे कुख्यात काले क़ानूनों, फ़र्ज़ी मुक़दमों आदि के ज़रिये जेलों में ठूँसा जा रहा है। जनता के पक्ष में आवाज़ उठाने या लोगों को संगठित करने के कारण पिछले कुछ सालों में गौतम नवलखा, उमर खालिद, जी.एन साईं बाबा, फ़ादर स्टैन स्वामी, आनन्द तेलतुम्बडे, वरवर राव, सुधा भारद्वाज, वरनैन गोंजालविस, तीस्ता सीतलवाड़, देवांगना कलिता, नताशा नरवाल, शरजील इमाम, अनीस, सज्जाद अहमद डार, फहद शाह, सिद्दीक कप्पन, मनदीप पूनिया, प्रतीक सिन्हा, मुहम्मद ज़ुबैर, रूपेश सिंह, अविनाश दास (निर्देशक), मनोज (रंगकर्मी) जैसे पत्रकार, लेखक, मानवाधिकारकर्मी, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता, फ़र्ज़ी तरीके से बिना पर्याप्त आधार के जेलों में डाले गये या उन्हें सरकारी एजेंसियों द्वारा प्रताड़ित किया गया। इनमें से कुछ लोग लम्बे समय बाद रिहा हुए, कुछ अभी भी जेलों में पड़े हैं जबकि कुछ को जेल में ही अपनी ज़िन्दगी से हाथ धोना पड़ा। यूएपीए जैसे क़ानून बनाये ही इसीलिए गए हैं। सरकार की रिपोर्ट के ही मुताबिक 2016 से 2020 के बीच कुल 24 हज़ार 134 लोगों को यूएपीए (UAPA) क़ानून के तहत गिरफ़्तार किया गया और उनके ख़िलाफ़ सुनवाई हुई, लेकिन इनमें से केवल 212 लोगों पर ही दोष साबित किया जा सका। इतना ही नहीं तमाम संगठनों/संस्थाओं पर ईडी के छापे डलवाये जा रहे हैं। संगठनों/संस्थाओं/व्यक्तियों की ग़ैर क़ानूनी जासूसी करवाई जा रही है। अभी हाल में पेगासस का मामला आने से बहुत से ख़ुलासे हुए। इतना ही नहीं लोगों को फँसाने के लिए उनके फ़ोन/कम्प्यूटर में मालवेयर डाला जा रहा है। न्यायपालिका, प्रशासन सरकार के हिसाब से काम कर रहे हैं।
इसके बाद हम आसानी से समझ सकते हैं कि देश में आम तौर पर घटते जनवादी स्पेस और कैम्पसों में घटते जनवादी स्पेस के बीच क्या सम्बन्ध है? वास्तव में, विश्वविद्यालय/उच्च शिक्षण संस्थान लम्बे समय से क्रान्तिकारी बदलाव की लड़ाई को नेतृत्व देने वाले युवाओं की भर्ती के केन्द्र रहे हैं। यह भी सच है कि शासक वर्ग भी अपने पिछलग्गू छात्र संगठनों के ज़रिये शोषण के पहिये को सुचारू तरीक़े से चलाते रहने के लिए हिक़मत करने वाले बुद्धिजीवियों, प्रशासकों, बुर्जुआ नेताओं की भर्ती के केन्द्र के रूप में इसे इस्तेमाल करता रहा है। लेकिन अब जबकि फ़ासीवादी सरकार ने पूँजीपतियों की तिजोरी भरने में लाज-शर्म का दिखावटी पर्दा भी उतार फेंका है तो वह जनता के असन्तोष को नेतृत्व देने में विश्वविद्यालयों/उच्च शिक्षण संस्थानों के जनपक्षधर, उन्नत, संजीदा और इंसाफ़पसन्द युवाओं व छात्रों की क्रान्तिकारी सम्भावना को कुचल डालने पर अमादा है। वैसे भी जब भाजपा सत्ता में है तो इनके पिछलग्गू छात्र संगठन के फ़ीस वृद्धि जैसे मसलों पर दिखावटी प्रदर्शन भी इनके लिए समस्या बन जाती है, क्योंकि आम छात्र इसके लिए इनकी आका पार्टी को कठघरे में खड़ा कर देते हैं। इसलिए विश्वविद्यालयों में सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता का माहौल ख़त्म होने से फ़ासीवादी ताक़तों को कोई नुक़सान नहीं है। बाक़ी, इनकी तमाम गतिविधियाँ तो फिर भी चलती रहती हैं क्योंकि इनके कार्यक्रमों के लिए कुलपति से लेकर विश्वविद्यालय प्रशासन ख़ुद एक टाँग पर खड़ा रहता है।
कैम्पसों के घटते जनवादी स्पेस का दूसरा बहुत महत्वपूर्ण कारण यह है कि भाजपा की नीतियों का बुलडोज़र छात्र-हितों को रौंद रहा है। निजीकरण की नीतियों को बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से अमल में लाने के चलते सरकारी क्षेत्र की रही-सही नौकरियाँ भी तेज़ी से ख़त्म हो रही हैं। बेरोज़गारी अपने चरम पर है। हाल के आँकड़े बताते हैं मौजूदा समय में बेरोज़गारी की दर कोरोना के समय की दर को छू रही है। जिस अनुपात में बेरोज़गारी की दर बढ़ रही है उसी अनुपात में छात्रों-युवाओं के आत्महत्या की दर बढ़ रही है। इसी तरह भाजपा जिन पूँजीवादी लुटेरों के लिए जी-जान से जुटी है उनकी गिद्ध-नज़र बहुत दिनों से उच्च शिक्षा पर थी। पूँजीपति लम्बे समय से उच्च शिक्षा को मुनाफ़े के अड्डे में बदलने के लिए सरकार पर दबाव बना रहे थे। भाजपा के पहले कांग्रेस समेत अन्य पार्टियों ने इसके लिए रास्ता साफ़ करना शुरू कर दिया था। लेकिन अब भाजपा ने नई शिक्षा नीति के ज़रिये एक झटके में ही बहुत सी बाधाएँ साफ़ कर दी हैं। अभी हाल ही में इलाहाबाद, गोरखपुर, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में कई गुना फ़ीस बढ़ा दी गई। शिक्षा और रोज़गार की इस स्थिति से छात्रों-युवाओं में भयंकर असन्तोष है। भर्तियों पर रोक, परीक्षा समय न करवाए जाने, हर परीक्षा में धाँधली, ठेकाकरण के ख़िलाफ़ आये दिन छात्र-युवा सड़कों पर उतर रहे हैं।
ऐसे माहौल में फ़ासिस्टों को कैम्पसों में प्रगतिशील छात्र संगठनों की मौजूदगी बहुत खटकती है। ‘आज़ादी’ और ‘इंक़लाब’ के नारे इस फ़ासीवादी सरकार के अन्दर खौफ़ पैदा करते हैं कि कहीं यह विश्वविद्यालयों से बाहर निकल कर जनता का इस सत्ता के ख़िलाफ़ उद्घोष न बन जाय, हाथ से लिखे हर पोस्टर उसे अपनी काली करतूत का ख़ुलासा करते नज़र आते हैं। हर विचार-गोष्ठी उसे अपने ख़िलाफ़ होने वाली साज़िश के रूप में दिखती है। फ़ासीवादी सरकार अपने डर से आज़ाद होना चाहती है। इसके लिए उसे साफ़ दीवारें चाहिए, विश्वविद्यालय स्कूल की तरह चाहिए जहाँ आज्ञाकारी भाव से छात्र केवल पढ़ने जाएँ। छात्र केवल प्रशासन द्वारा आयोजित फ़ासिस्टों के कार्यक्रमों में शिरकत करें न कि प्रगतिशील छात्र संगठनों के सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में! और सरकार-विरोधी आन्दोलन में तो कतई नहीं। विश्वविद्यालयों/उच्च शिक्षण संस्थानों की क्रान्तिकारी सम्भावना को जड़ से मिटाने के लिए भाजपा सरकार द्वारा देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में छात्र संघ चुनाव बन्द करवा दिया गया। वैध-अवैध तरीक़े से कुलपति, प्रोफ़ेसर से लेकर प्रशासनिक अधिकारियों तक के पदों पर संघियों या भाजपा-समर्थक लोगों को बिठाया जा रहा है। विश्वविद्यालयों के गेट से लेकर प्रांगण तक में प्राइवेट गार्ड बैठा दिए हैं। इसके अलावा आये दिन पुलिस, पीएससी, आरपीएफ़ की गाड़ियाँ कैम्पस गेट पर खड़ी ही रहती हैं। दीवार पर कुछ लिखने और पोस्टर लगाने पर रोक लगा दी गयी है। गार्डों की नज़र से बचकर लग जाने वाले पोस्टरों या वाल राइटिंग को अगले ही दिन गार्डों द्वारा फाड़े जाते या बाल्टी लेकर दीवार साफ़ करते हुए देखा जा सकता है। कुछ विश्वविद्यालयों में कैम्पस के बाहर पोस्टर लगाने के लिए एक वाल ऑफ़ डेमोक्रेसी बनाई गयी है, यह छात्रों के जनवादी अधिकार का उसी तरह मज़ाक़ है जैसे कि मज़दूरों/कर्मचारियों/आम लोगों को विरोध प्रदर्शन के लिए शहर से बाहर कोई जगह दे दी गयी है जहाँ उनके प्रदर्शन जनता के अन्य हिस्सों को बिल्कुल न प्रभावित करने पायें और क़ानून व्यवस्था में कोई समस्या न आये। (जैसे कि लखनऊ में इको पार्क, इलाहाबाद में जीआईसी ग्राउण्ड, आदि)। प्रॉक्टोरियल बोर्ड छात्रों से गुण्डों की तरह व्यवहार करता है, सिवाय चुनावी पार्टियों के पिछलग्गू छात्र संगठनों के गुण्डों के! कैम्पस में कैण्टीन, हॉस्टलों में मेस, सामाजिक गतिविधियों के लिए बने हॉल बन्द पड़े हैं। किसी प्रगतिशील छात्र संगठन के लिए कैम्पस में हॉल पाना टेढ़ी खीर है। यानी जनवादी अधिकारों पर फ़ासीवाद का पाटा हर जगह चलाया जा रहा है चाहे वो कैम्पस हो या कोई और जगह!
कैम्पसों का घटता हुआ जनवादी स्पेस इस समय भी छात्रों पर भारी पड़ रहा है और अगर इस स्पेस की बहाली के लिए छात्र व्यापक संघर्ष में नहीं उतरते हैं तो भविष्य में स्थिति और गम्भीर होगी। कैम्पसों में छात्र संघ के न होने से विश्वविद्यालय प्रशासन खुली मनमानी कर रहा है। अभी हाल में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में गार्डों द्वारा न केवल छात्रों पर हमला किया गया अपितु गोली तक चलाई गई। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इतिहास में यह पहली बार हुआ है। फ़ीस वृद्धि की जो प्रक्रिया अभी शुरू हुई है वह आने वाले समय में और तेज़ होगी। पूँजीपतियों के निजी विश्वविद्यालयों के लिए सरकारी विश्वविद्यालयों का वही हाल किया जायेगा जो कि प्राथमिक और माध्यमिक सरकारी स्कूलों का किया गया। पक्की नौकरी की जगह ठेका और प्राइवेट नौकरियाँ ही होंगी। कैम्पसों में सुरक्षा गार्डों की तैनाती और बढ़ेगी। बाक़ी छात्रों के आन्दोलन को दबाने के लिए पुलिस-पीएससी-आरपीएफ है ही। साफ़ है कि छात्र-युवा अगर जनवादी अधिकारों की हिफ़ाज़त के लिए आगे नहीं आते तो उन्हें शिक्षा और रोज़गार जैसे बुनियादी हक़ों की लड़ाई बड़े पैमाने पर शुरु करने में भी बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।
निश्चित तौर पर, जनवादी अधिकारों की हिफ़ाज़त और कैम्पसों के घटते स्पेस को बचाने की लड़ाई अपने आप में मेहनतकश जनता और छात्रों-युवाओं के हक़-अधिकार की लड़ाई का अंजाम नहीं है। उनके क्रान्तिकारी संघर्ष का अन्तिम लक्ष्ये तो मुट्ठीभर लुटेरों के मुनाफ़े की हवस पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था को ध्वस्त कर एक समतामूलक समाज का निर्माण करना होगा। लेकिन इस आगे की लड़ाई के लिए जनवादी अधिकारों की मौजूदगी हमें खड़े होने के लिए हमारे पैरों के नीचे एक बेहतर ज़मीन देती है। इसलिए हमें इसे छिनने से बचाना होगा। छात्रों-युवाओं को कैम्पसों में घटते जनवादी स्पेस के सवाल को मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के संकट, भाजपा के फ़ासीवादी चरित्र और आम तौर पर जनवादी अधिकारों पर हो रहे हमले से जोड़कर देखना होगा। हमें यह बात भी समझनी होगी कि जब हम मज़दूरों के अधिकारों के छिनने पर चुप रहेंगे और मज़दूरों के संघर्ष को ‘ट्रेड यूनियन या कम्युनिस्टों द्वारा भड़काने’ के रूप में देखते रहेंगे, कर्मचारियों के संघर्षों से उनको ‘कामचोर’ कहकर पल्ला झाड़ लेंगे, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं, मानवाधिकर्मियों के दमन को सत्ता के झूठे प्रचार में बहकर ‘देशद्रोही’ या ‘अर्बन नक्सल’ मानकर चुप्पी साध लेंगे तो छात्रों-युवाओं के जनवादी अधिकारों/संघर्षों के दमन पर व्यापक समाज की ओर से भी चुप्पी ही मिलेगी। एक जनवादी अधिकार के दमन को दूसरे जनवादी अधिकार के दमन का वैधीकरण बना दिया जाना एक सामान्य नियम बन जायेगा। इसलिए छात्रों-युवाओं को न केवल कैम्पसों के घटते जनवादी स्पेस के ख़िलाफ़ लड़ना चाहिये अपितु किसी भी जनवादी अधिकार के हमले के ख़िलाफ़ बढ़-चढ़ के आगे आना चाहिए। कैम्पसों के जनवादी स्पेस की हिफ़ाज़त तभी की जा सकती है जब आम तौर जनवादी अधिकारों की हिफ़ाज़त की जाय।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फ़रवरी 2023

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