2022 तक सबको मकान देने का जुमला उछालने वाली मोदी सरकार ने फिर से किया दिल्ली में सैकड़ों झुग्गियों को ज़मींदोज़!

सिमरन

5 नवम्बर 2018 को दिल्ली के शाहबाद डेरी इलाके के सैकड़ों झुग्गीवालों के घरों को डी.डी.ए. ने ज़मींदोज़ कर दिया। 300 से भी ज़्यादा झुग्गियों को चंद घण्टों में बिना किसी नोटिस या पूर्वसूचना के अचानक मिट्टी में मिला दिया गया। सालों से शाहबाद डेरी के मुलानी कैंप की झुग्गियों में रहने वाले लोगों को सड़क पर पटक दिया गया। न तो केंद्र सरकार ने झुग्गीवालों के रहने के लिए कोई इंतज़ाम किया और न ही राज्य सरकार ने उनकी टोह ली। दिल्ली जैसे महानगर में पिछले कई सालों में सर्दी शुरू होने के साथ झुग्गियाँ टूटने की ऐसी खबरें जैसे आम सी बात बन चुकी है। आवास एवं भूमि अधिकार नेटवर्क (हाउसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क) की फरवरी 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में अकेले 2017 में ही राज्य एवं केंद्र सरकारों द्वारा 53,700 झुग्गियों को ज़मींदोज़ किया गया जिसके चलते 2.6 लाख से ज़्यादा लोग बेघर हो गये।इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर घण्टे 6 घरों को तबाह किया गया। खुद आवास एवं भूमि अधिकार नेटवर्क की रिपोर्ट यह कहती है कि यह आँकड़ें सिर्फ़ उन घटनाओं से हासिल हो पाये हैं जो शोध में उनके सामने आयीं।2016 के मुकाबले 2017 में झुग्गियों को तोड़े जाने की कार्यवाही और तेज़ हुई है। और यह सब तब अन्जाम दिया जा रहा है जब मोदी सरकार 2022 तक प्रधानमन्त्री आवास योजना के तहत सबको घर देने की डींग हाँक रही है। लोगों को पक्के मकान देना तो दूर की बात है सरकार उनकी मेहनत की पाई-पाई से जोड़कर खड़ी की गयी झुग्गियों को तोड़ने की कवायद और तेज़ कर रही है। शाहबाद डेरी के मुलानी कैंप की बात हो या पिछले कुछ सालों में शकूर बस्ती, शास्त्री पार्क, वज़ीरपुर, कठपुतली कॉलोनी जैसी अन्य झुग्गी-बस्तियों की बात हो। दिल्ली की कड़ाके की ठण्ड में मेहनतकश-गरीब आबादी के सिर से छत छीन उसे सड़कों को जीने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। और सबसे हैरत की बात यह है कि मेहनतकश-गरीब आबादी के घरों को शहरों के सौंदर्यीकरण और झुग्गी-मुक्त शहर बनाने के नाम पर उजाड़ा गया है। 2017 में उजाड़ी गयी झुग्गियों में से 46 प्रतिशत को शहरों के सौंदर्यीकरण के नाम पर ज़मींदोज़ किया गया। शहरों की रफ़्तार जिन कन्धों पर टिकी होती है उसी मेहनतकश आबादी के घरों को शहर की सुंदरता पर धब्बा समझा जाता है। जिस मेहनतकश आबादी के बलबूते दिल्ली जैसे महानगर की चमचमाती इमारतों से लेकर इसकी फैक्टरियों में काम चलता है, बसों से लेकर मेट्रो, सड़क की सफ़ाई, घरों की सफाई से लेकर गटर की सफ़ाई तक, सब्ज़ी से लेकर ज़िन्दगी की हर ज़रूरत का सामान घरों तक पहुँचता है उसी आबादी के घरों को यह व्यवस्था गन्दगी समझती है। सुई से लेकर जहाज़ तक बनाने वाले मज़दूरों के बच्चों के सर से ही सबसे पहले छत छीन ली जाती है। इससे ज़्यादा विरोधाभास की बू किस तथ्य से आ सकती है। कामनवेल्थ खेलों के समय उजाड़ी गयी झुग्गियों की बात हो या मेहनतकश आबादी के रहने वाले इलाकों के आगे नीले रंग का टीन लगाकर छुपाने की कायरता हो। इस देश की सरकारें चाहे वो किसी पार्टी की ही क्यों न हो ने हर हमेशा मेहनतकश आबादी की पीठ में छुरा भोंका है। इस देश का संविधान सबको बराबरी का हक़ देता है, यह बात कागज़ों पर ज़रूर पढ़ने को मिल जाती है। लेकिन हक़ीक़त से सामने होने पर यह हवा-हवाई बात ही साबित होती है। और इसका सबसे बड़ा सबूत गरीबों की बस्तियों पर चलाये जाने वाले बुलडोज़र हैं। मुंबई की कैम्पा कोला सोसाइटी के बारे में शायद आपने अख़बारों में पढ़ा होगा, यह मुंबई में ग़ैर-क़ानूनी रूप से बनायी गयी एक इमारत है जिसे मुंबई मुन्सिपलिटी 2002 से तोड़ नहीं पायी है क्योंकि इस इमारत में रहने वाले लोगों के कोर्ट जाकर अपने और अपने बच्चों के भविष्य की गुहार लगाते हुए राहत देने की गुहार की है। यह मामला अभी भी कोर्ट में चल रहा है। और इस ईमारत में रहने वाले लोग आज भी अपने घर की छत के नीचे ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं। लेकिन झुग्गियों के ग़ैर-क़ानूनी होने की दुहाई देते हुए न सिर्फ़ मुंबई में बल्कि दिल्ली, चेन्नयी, कलकत्ता और भारत के विभिन्न शहरों में आये दिन मेहनतकश आबादी को बेघर किया जा रहा है। और ऐसा करते हुए हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट के सारे निर्देशों का खुला मख़ौल उड़ाया जा रहा है। संविधान का अनुच्छेद 21 आवास के अधिकार को जीवन के अधिकार (राइट टू लाइफ) का अभिन्न अंग मानता है। इसके बावजूद मेहनतकश आबादी के घरों को बेरोकटोक तोड़ा जा रहा है। मार्च 2017 से लेकर सितम्बर 2017 के बीच डीडीए ने दिल्ली के किशनगढ़, बलजीत नगर और शास्त्री पार्क में बिना किसी पूर्वसूचना के झुग्गियों को अतिक्रमण हटाने के नाम पर तोड़ दिया। गौर करने की बात है कि दिल्ली हाई कोर्ट के द्वारा जारी एक आर्डर के तहत किसी वैकल्पिक रहने के इंतज़ाम के बिना किसी भी झुग्गी को न तोड़े जाने के निर्देश है। लेकिन इन सभी निर्देशों का खुला उल्लंघन करते हुए कड़कड़ाती सर्दी में लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। इतना ही नहीं झुग्गियों को तोड़ने से पहले न ही झुग्गीवालों को पर्याप्त समय दिया जाता है कि वो अपना सामान और अपनी जमा-पूँजी अपने घरों से निकाल पाएँ। अक्टूबर 2017 में डीडीए ने कठपुतली कॉलोनी में 2000 घरों को तोड़ने के लिए बड़ी निर्ममता के साथ भारी पुलिस बल और आँसू गैस का इस्तेमाल किया। कई दशकों से वहाँ रह रहें लोगों की ज़िन्दगी भर की जमा पूँजी को बुलडोज़रों ने रौंद दिया और अपने घरों को बख़्श देने की गुहार लगाने वाले झुग्गीवासियों पर आँसू-गैस के गोले और पुलिस की लाठियाँ भाँजी गयी। पिछले साल के अंत में फ्लाईओवरों के सौंदर्यीकरण के नाम पर उनके नीचे सोने वाले लोगों को भी वहाँ से हटा दिया गया। इन सब घटनाओं से जो सवाल पैदा होता है वह यह है कि शहर आख़िर बनता किससे है? क्या शहरों की झुग्गी-बस्तियों में रहने वाली बहुसंख्य आबादी का इस शहर पर कोई हक़ नहीं ? क्या उन हाथों को जो इस शहर को अपनी मेहनत से चलाते हैं रहने के लिए कच्चा ही सही लेकिन घर देना भी इस व्यवस्था के लिए सम्भव नहीं? क्या झुग्गी-मुक्त शहर बनाने के लिए झुग्गीवालों के सिर से छत छीन लेना एक बेहूदा मज़ाक नहीं है ? हर चुनाव से पहले झुग्गीवालों की उन्ही बस्तियों में जाकर वोट माँगने वाले नेता-मंत्रियों को चुनाव जीत जाने के बाद वही झुग्गियाँ शहर की गन्दगी प्रतीत होती है। अतिक्रमण के नाम पर 40 से 50 साल से एक झुग्गी-बस्ती में रह रहे लोगों, जिनके पास वहाँ के वोटर कार्ड से लेकर बिजली का बिल सब है को रातो-रात वहाँ खदेड़ दिया जाता है। इससे बड़ी नाइन्साफ़ी क्या हो सकती है। अगर वाकई में सरकार को झुग्गीवालों की फ़िक्र होती तो उन्हें सड़कों पर पटकने की बजाय वो उनके लिए रहने का बंदोबस्त करती, झुग्गी की जगह उन्हें पक्के मकान देती। लेकिन पब्लिक लैंड यानि सार्वजनिक ज़मीन को अतिक्रमण मुक्त कराने और फिर बड़े-बड़े बिल्डरों को बहुमंज़िला इमारत बनाने के लिए बेचने में कोई हिचक न रखने वाली सरकार को मेहनतकश आबादी की क्या फ़िक्र! वास्तव में जिस पूँजीवादी व्यस्था के भीतर आज हम जी रहे हैं उसमें मेहनतकशों का शोषण सिर्फ़ उनके काम करने की जगह पर ही नहीं होता बल्कि कारख़ानों, फैक्टरियों से निकल कर जिन दड़बेनुमा झुग्गियों में उन्हें जीने के लिए विवश किया जाता है वहाँ भी लगातार उनकी मानवीय गरिमा पर चोट की जाती है। इस व्यवस्था में मज़दूरों और मेहनतकशों की मेहनत की लूट कागज़ों पर ग़ैर-क़ानूनी होने के बावजूद भी उचित मानी जाती है। ठीक उसी तरह जिस तरह उनके घरों को ग़ैर-क़ानूनी या अतिक्रमण बता कर कभी भी ज़मींदोज़ किये जाने की कार्यवाही को उचित ठहराया जाता है।अपने आप को मज़दूर नंबर 1 कहने वाले प्रधानमन्त्री मोदी और खुद को आम आदमी कहने वाले मुख्यमन्त्री को दिल्ली की मेहनतकश आबादी को यह ज़वाब देना ही होगा कि जब उनके घरौंदों को उजाड़ा जा रहा था तब वे चुप क्यों थे। मोदी सरकार की प्रधानमंत्री आवास योजना की हक़ीक़त यही है। यही इस देश की मेहनतकश आबादी की ज़िन्दगी का कड़वा सच है कि अपनी मेहनत से शहरों को चलाने और उसकी चकाचौंध को बरकरार रखने वाले हाथों के घर ही इस व्यवस्था की सेवा में लगी सरकार को शहरों की गन्दगी मालूम पड़ते हैं।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-दिसम्बर 2018

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