कोरोना काल में बदस्तूर जारी रहा काले कानूनों की आड़ में दमन और गिरफ़्तारियों का सिलसिला
सार्थक
सात साल से सत्ता में रहते हुए फ़ासीवादी मोदी सरकार ने पूँजीपतियों की चाटुकारिता के अलावा जो काम सबसे चौकसी से किया है, वह है अपने ख़िलाफ़ उठी हर आवाज़ का क्रूर दमन। इस सरकार ने तमाम क़ानूनी और गैरक़ानूनी हथकण्डों का इस्तेमाल कर प्रतिरोध को कुचला है और आवाज़ उठाने वालों को मुस्तैदी से गिरफ़्तार किया है, उन्हें राजनीतिक अधिकारों से वंचित कर उन्हें प्रताडि़त किया है। कोरोना से देश में होने वाली तबाही और मौतों को रोकने के लिए एक काम नहीं किया, हाँ लेकिन राजनीतिक गिरफ़्तारियों में सरकार काफ़ी मुस्तैदी से सक्रिय रही है। कोरोना से लाखों लोग मारे गये, हज़ारों परिवार तबाह हो गये, सैकड़ों बच्चे अनाथ हो गये लेकिन इस महामारी को आपदा में बदलने के पूरे इन्तज़ाम सरकार ने किये हुए थे। जनता त्राहि-त्राहि करती रही लेकिन सरकार ने न अस्पताल, न सिलेण्डर और न ही जीवनरक्षक दवाओं का कोई इन्तज़ाम किया। लेकिन आँकड़ों को छिपाने, तथ्यों को दबाने और सच बताने वालों को गिरफ़्तार करने में सारा सरकारी तन्त्र लगा दिया।
पिछले साल पहली लहर के दौरान जब कोरोना संक्रमण बढ़ रहा था तो बिना किसी तैयारी और योजना के लॉकडाउन की घोषणा कर दी गयी। मज़दूर और आम मेहनतकश आबादी पर कोरोना और लॉकडाउन का क़हर बरपा। करोड़ों प्रवासी मज़दूर पैदल अपने घर लौटने को मजबूर थे, जिनमें से सैकड़ों धूप, भूख और थकान से रास्ते में ही मारे गये। उस समय भी मोदी-शाह आपदा को अवसर में बदलते हुए छात्रों, मानवाधिकार और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को झूठे आरोपों में गिरफ़्तार करवा रहे थे। एक और बात ध्यान देने योग्य है कि अमित शाह जनता के जनवादी अधिकारों को कुचलने, राजनीतिक कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारियाँ करने और चुनाव रैलियों में हिस्सा लेने के लिये ही बाहर आता है। दिल्ली दंगों के तुरन्त बाद ही केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अधीन दिल्ली पुलिस ने गिरफ़्तारियों का सिलसिला शुरू कर दिया। 26 फरवरी को ख़ालिद शैफ़ी और इशरत जहाँ, अप्रैल के महीने में शफ़ूरा ज़रगर, मीरान हैदर, गुलफ़िशा, शिफ़ा-उर-रहमान, शादाब अहमद, मई के महीने में आसिफ़ इक़बाल तन्हा, देवांगना कालिता, नताशा नरवाल, जून में तस्लीम अहमद, सितम्बर में उमर ख़ालिद और कई लोगों को यूएपीए (गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम) के तहत दंगे भड़काने के मामले में गिरफ़्तार कर लिया गया। जनवरी में ही शरजील इमाम को भी भड़काऊ भाषण देने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया था। दंगे भड़काने के झूठे आरोप में गिरफ़्तार कर लिए गये ये सारे छात्र और युवा, राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता सीएए-एनआरसी के खिलाफ़ दिल्ली में चले जनआन्दोलन में सक्रिय थे। जनता के जनवादी संघर्ष में जनता के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर फ़ासीवादियों का डट कर मुकाबला करने की सज़ा उन्हें इन फर्जी गिरफ़्तारियों के रूप में चुकानी पड़ी। इनके अलावा दिल्ली दंगों के ठीक बाद ही उत्तर पूर्वी दिल्ली के निम्न मध्यम वर्ग और मेहनतकश आबादी वाले मुस्लिम बहुल इलाकों से कई नौजवानों को दिल्ली पुलिस ने ज़बरदस्ती हिरासत में लेना शुरू किया। इन नौजवानों में से कई आज तक सलाख़ों के पीछे हैं। ये नौजवान गुमनाम ही रह जाते हैं। मुश्किल ही कहीं मीडिया या सोशल मीडिया में इनकी चर्चा होती है। वहीं दिल्ली दंगों को असल में भड़काने में जिनका हाथ है जैसे कपिल मिश्रा, रागिनी तिवारी, अनुराग ठाकुर खुले घूम रहे हैं। इनके खिलाफ़ सबूत पूरे सोशल मीडिया पर घूमते रहे लेकिन इनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। इन गुण्डों को गिरफ़्तार करना तो दूर दिल्ली पुलिस ने अभी तक कारण बताओ नोटिस तक जारी नहीं किया है।
जब दिल्ली पुलिस अमित शाह के इशारों पर छात्रों और नौजवानों को आतंकवादी घोषित कर फर्जी गिरफ़्तारियाँ कर रही थी, उस समय राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण (national investigation agency) भी केन्द्रीय गृह मन्त्रालय की जी-हजूरी करते हुए भीमा कोरेगाँव में हिंसा भड़काने के झूठे आरोप में बुद्धिजीवियों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं को नक्सलवादी बता कर गिरफ़्तार कर रही थी। पिछले साल के अप्रैल में प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा और जाने-माने बुद्धिजीवी प्रोफेसर आनन्द तेलतुम्बडे को गिरफ़्तार किया गाया। उसके बाद जुलाई में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हैनी बाबू, अगस्त में कबीर कला मंच के रमेश गैचोर, सागर गोखले और ज्योति जगताप और आख़िरकार अक्टूबर में स्टैन स्वामी को यूएपीए की धाराएँ लगा कर गिरफ़्तार कर लिया गया। इससे पहले 2018 में ही महाराष्ट्र पुलिस ने अन्य नौ बुद्धिजीवियों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को इसी मामले में गिरफ़्तार किया। ये गिरफ्तारियाँ भी यूएपीए के तहत नक्सलवादी होने के झूठे आरोप में हुईं थी। दिल्ली दंगों के असली अपराधियों की तरह ही भीमा कोरेगाँव के मुख्य अपराधी मिलिन्द एकबोटे और शम्भाजी भिड़े भी सारे कानूनों जेब में रख खुले आम घूम रहे हैं।
जेलों में करोना के तेज़ी से फैलने की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए पिछले साल से ही देश भर के तमाम न्यायपसन्द नागरिक और संगठन इन राजनीतिक कैदियों की तुरन्त रिहाई की माँग कर रहे थे। लेकिन सरकार ने किसी की एक न सुनी। लॉकडाउन के दौरान इन गिरफ्तारियों के विरोध में प्रतिरोध-प्रदर्शन सम्भव नहीं थे इसलिए आपदा को अवसर में बदलते हुए सरकार ने राजनीतिक कार्यकर्ताओं और छात्रों की गिरफ्तारियाँ तेज़ कर दीं।
भारत की जेलों में न कोई सफाई होती है और न ही कोई पौष्टिक भोजन मिलता है। छोटी-छोटी कोठरियों में एक साथ दर्ज़नों क़ैदी ठूँस दिये जाते हैं। ऐसे में जिसका भय था वही हुआ। एक के बाद एक कई राजनीतिक क़ैदी करोना संक्रमित हो गये। स्टेन स्वामी, हैनी बाबू, महेश राउत, सागर गोरखे, रमेश गायचोर, ज्योति जगताप, शरजील इमाम, उमर खालिद और हाथरस बलात्कार घटना की रिपोर्टिंग करने जाते वक्त देशद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार कर लिए गये सिद्दीक कप्पन सभी को रोना से संक्रमित हो गये। बेहतर चिकित्सा पाने के लिए जब इन पीड़ितों ने ज़मानत की याचिका डाली तो सभी अदालतों ने इन्हें ठुकरा दिया और जेल के अन्दर ही एक अलग कमरे में इलाज़ करने का आदेश दिया। करोना और ब्लैक फ़ंगस से संक्रमित होने के बाद हैनी बाबू के आँखों में काफ़ी सूजन आ गई। एक हफ्ते तक मिन्नतें करने के बाद अदालत ने उन्हें अस्पताल भेजने की आज्ञा दी। इस दौरान उनकी सूजन इतनी बढ़ गयी की उनकी एक आँख की रोशनी लगभग चली गई। जेल में कोई दवाई तो दूर, उन्हें साफ़ पानी या तौलिया भी नहीं नसीब हुआ। सबसे दयनीय अवस्था 84 साल के स्टैन स्वामी की है जो लम्बे समय से पर्किंसन बीमारी से पीड़ित हैं जिसकी वजह से वह अब चलने फिरने, खाने और नहाने जैसे रोज़मर्रा के काम भी खुद नहीं कर सकते। जेल में अपने साथियों के सहारे ही वह अपने रोज़मर्रा के काम करते हैं। कोरोना से संक्रमित हो कर अलग रहते हुए उनकी क्या हालत हो रही होगी यह सोचना भी असह्य है। यहाँ तक कि स्टैन स्वामी को तरल पदार्थ पीने के लिए एक नली और गौतम नवलखा को महज़ एक चश्में के लिए भी हफ़्तों तक अदालत में याचिकाएँ देने के बाद इस अमानवीय न्याय व्यवस्था को उन पर थोड़ी रहम आयी। अगर जेलों में देश के जाने-माने बुद्धिजीवियों और मानव अधिकार कार्यकर्ताओं के साथ ऐसा बर्ताव होता है तो आप समझ सकते हैं की फर्जी मुक़द्दमों में जेलों में वर्षों से पड़े लाखों ग़रीब, मज़दूर मेहनतकश क़ैदियों के साथ कैसा बर्ताव होता होगा?
अँग्रेजों के काल के राष्ट्रद्रोह के क़ानूनों की फिर से वापसी और यूएपीए तथा एनएसए जैसे काले कानून बस इसी मकसद से बनाये गये हैं कि राजनीतिक कार्यकर्ताओं और जनता के हक़ की आवाज़ बुलंद करने वाले इंसाफ़पसन्द नागरिकों को सलाख़ों के पीछे धकेला जा सके। इन काले क़ानूनों में, ख़ास तौर पर यूएपीए में ज़मानत मिलना बहुत ही कठिन है, चाहे पुलिस के पास आरोपियों के खिलाफ़ कोई ठोस प्रमाण हो या न हो। केन्द्रीय गृह मन्त्रालय के अपने तथ्यों के हिसाब से यूएपीए के अन्तर्गत दर्ज़ हुए मामलों में से महज़ 2.2 प्रतिशत मामलों में ही अपराध सिद्ध होते हैं। दिल्ली दंगों में जितनी भी गिरफ़्तारियाँ हुई हैं, उन सभी को यूएपीए वाले मामले के अलावा बाकी सभी मामलों में ज़मानत मिल गयी हैं। पाँच महीने की गर्भवती शफ़ूरा ज़रगर को बार बार अदालत में याचिकाएँ देने के बाद ही “मानवीय आधार” पर बेल दी गयी। इसके अलावा हाल ही में जेएनयू की नताशा नरवाल और देवांगना कालिता और जामिया मिलिया इस्लामिया के आसिफ़ इक़बाल तन्हा को दिल्ली हाई कोर्ट ने ज़मानत दी है। भारी जनदबाव और करोना के कारण सरकार के खिलाफ़ पैदा हुए जन-असन्तोष के कारण राज्य सत्ता को यहाँ एक कदम पीछे हटना पड़ा है। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने तुरन्त ही यह आदेश भी जारी कर दिया कि दिल्ली हाई कोर्ट का यह आदेश दूसरे राजनीतिक कैदियों के रिहाई के लिए एक मिसाल नहीं बनेगा। सन्देश यहाँ साफ़ है : सरकार के खिलाफ़ जो भी आवाज़ उठायेगा उसको इतनी आसानी से रिहा होने का मौका नहीं दिया जायेगा। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि पिछले महीने जब नताशा अपने करोना संक्रमित पिता को देखने के लिए अन्तरिम जमानत की याचिकाएँ जमा कर रही थी तब यही दिल्ली हाई कोर्ट ने उन याचिकाओं पर सुनवाई करने में बेवजह देर की। जब नताशा को अन्तरिम जमानत मिली तब तक बहुत देर हो चुकी थी, उसके पिता का एक दिन पहले ही निधन हो गया था। नताशा अपने बीमार पिता से आखिरी बार मिल भी नहीं सकी। नताशा के लिए व्यक्तिगत जीवन की इतनी बड़ी क्षति की क्या यह मानवद्रोही न्याय व्यवस्था भरपायी कर सकती है ?
फ़ासीवादी भाजपा केंद्र सरकार के अलावा राज्य सरकारें भी राजनीतिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों की गिरफ्तारियों में पीछे नहीं थीं। दो महीने पहले जब उत्तर प्रदेश में करोना का कहर अपने चरम पर था हर एक दिन हजारों लाशें जलायी और दफ़नायी जा रही थीं तब योगी सरकार ने स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करने और ऑक्सीजन और वेण्टिलेटर उपलब्ध कराने की जगह यह आदेश जारी किया की जो भी व्यक्ति या अस्पताल ऑक्सीजन की कमी के बारे में शिकायत करेगा उस पर एनएसए लगा दिया जायेगा, उसकी सम्पत्ति ज़ब्त कर ली जायेगी और उनकी गिरफ़्तारी भी हो सकती है। महामारी के दौरान सरकार की भयंकर अविस्मरणीय लापरवाहियों के बारे में बात करने वाले पत्रकारों, कलाकारों, कवियों, बुद्धिजीवियों और कार्टूनिस्टों के सोशल मीडिया अकाउण्ट बन्द कर दिए गये और उनपर कई मुकदमे दर्ज़ कर दिये गये। पिछले महीने मणिपुर के दो जनपक्षधर पत्रकार किशोरचन्द्र वांगखेम और इरेन्द्र लेचोनबम को गोबर और गोमूत्र को कोरोना का इलाज़ बताए जाने पर फेसबुक पर व्यंग्य करने के आरोप में एनएसए के अन्तर्गत गिरफ़्तार कर लिया गया। हाल ही में लक्षद्वीप में फ़ासीवादी एजेण्डे को लागू करके अपने पूँजीपति मालिकों के लिए जमीन अधिग्रहण में जुटी हुई केन्द्रीय सरकार की आलोचना करने के मामले में लक्षद्वीप की फिल्म निर्माता आएशा सुल्ताना पर देशद्रोह का मामला लगा दिया गया है। इसके अलावा तीस साल से अफस्पा जैसे काले कानून की वजह से एक विशाल क़ैदखाना बने हुए कश्मीर में भी कोरोना काल के दौरान पत्रकारों, मानव अधिकार कार्यकर्ताओं और यहाँ तक कि विरोध प्रदर्शनों में भाग लेने वाले स्कूल के छोटे बच्चों पर भी यूएपीए जैसे काले कानून लगाये गये। अप्रैल के महीने में तेलंगाना की तेलंगाना राष्ट्रीय समिति सरकार ने छात्रों, बुद्धिजीविओं, कलाकारों और मज़दूरों के बीच काम कर रहे सोलह जन संगठनों पर नक्सलवादियों से सम्बन्धित होने के आरोप में एक साल के लिये प्रतिबन्ध लगा दिया। सरकार का कहना है कि ये संगठन भीमा कोरेगाँव में हुए गिरफ़्तार कार्यकर्ताओं की रिहाई, यूएपीए जैसे कानूनों को समाप्त करने और सीएए-एनआरसी को रद्द करने जैसे मुद्दों को लेकर आम जनता को संगठित कर रहे थे। यह बात साफ़ है कि इन जनवादी अधिकारों के मुद्दों पर आवाज़ बुलन्द करने वाले किसी भी व्यक्ति या संगठन की गिरफ्तारी सिर्फ भाजपा कर रही है ऐसा नहीं है। यूएपीए क़ानून बनाने वाली सरकार कांग्रेस की थी और आज भाजपा और गैर-भाजपा सरकारें समान रूप से इन क़ानूनों के तहत छात्रों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को गिरफ़्तार कर रही है।
आज ज़रूरत है कि सभी इंसाफ़पसंद छात्र और नौजवान, आम मेहनतकश जनता के साथ मिलकर इन जनपक्षधर राजनीतिक क़ैदियों की रिहाई और सारे काले कानून ख़त्म करने की मांग करें और इनके खिलाफ़ भारी संख्या में सड़कों पर उतरें। राजनीतिक क़ैदियों की रिहाई की इस लड़ाई को आम फ़ासीवाद विरोधी संघर्ष और पूँजीवादी व्यवस्था के उन्मूलन के संघर्ष के साथ जोड़ते हुये करोड़ों मज़दूरों-मेहनतकशों को संगठित करने की ज़रूरत है। साथ ही हमारे इस संघर्ष में अगर हम यह उम्मीद करते हैं कि इस पूँजीवादी व्यवस्था की सेवा करने वाली कोई भी पूँजीवादी या संशोधनवादी पार्टी हमारी मदद करेंगी तो यह हमारी एक ग़लतफ़हमी होगी जो पूरे संघर्ष के लिये घातक सिद्ध होगी। ये सभी काले क़ानून तमाम पूँजीवादी पार्टियों की आम सहमति से बनते हैं और सत्ता में आने के बाद सभी पार्टियाँ इन क़ानूनों का जमकर इस्तेमाल करती हैं। इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण है 2019 में यूएपीए क़ानून में संशोधन। इस संशोधन में यह जोड़ दिया गया कि इस क़ानून के तहत अब किसी की भी गिरफ्तारी हो सकती है चाहे वह किसी प्रतिबन्धित समूह से सम्बन्धित है या नहीं। कुछ एक दो ज़ुबानी जमाख़र्च के अलावा किसी ने इस संशोधन का प्रतिरोध नहीं किया। सबसे कमाल की बात तो यह है कि अपने आप को फ़ासीवाद विरोधी संघर्ष का हिरावल बताने वाली संशोधनवादी माकपा और भाकपा ने भी दो साल पहले केरल के दो छात्रों पर नक्सलवादी होने के आरोप में यूएपीए लगा दिया था। 2018 में शिव सेना-भाजपा की गठबन्धन सरकार ने ही भीमा कोरेगाँव मामले के तहत फर्ज़ी गिरफ़्तारियों का सिलसिला शुरू किया था और अब जब महाराष्ट्र में शिव सेना-कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस की गठबन्धन सरकार है तब भी भीमा कोरेगाँव के राजनीतिक बन्दियों को जेल प्रशासन और अदालत के हाथों उतनी ही प्रताड़ना सहनी पड़ती है जैसी पहले। सोशल मीडिया पर शिव सेना-कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस की गठबन्धन सरकार बनने पर उछलने वाले लिब्बुओं को कुछ नज़र नहीं आता। सभी चुनाव को फुटबॉल मैच की तरह देखते हैं और भाजपा के हारने पर ऐसे खुश और लोट-पोट होते हैं मानों क्रान्ति ही हो गयी हो। यही हाल पश्चिम बंगाल चुनावों के दौरान भी हुआ। सभी भूल गए कि फ़ासीवाद को धूल चटाने के मिशन की नयी वीरांगना और लिबरल जमात की नयी आशा ममता बनर्जी ने भी 2017-2018 में भांगर जनआन्दोलन को कुचलने के लिए दर्जनों कार्यकर्ताओं और साधारण ग्रामवासियों को यूएपीए के अन्तर्गत गिरफ़्तार कर लिया था। सभी पूँजीवादी और संशोधनवादी पार्टियाँ एक सरीख़े हैं। जनता की हर न्याय-संगत लड़ाई में हम इन पूँजीवादी और संशोधनवादी पार्टियों को जनता के खिलाफ़ ही खड़े पायेंगे। आज हमें जनता की जुझारू सामूहिक शक्ति के बूते ही सारे राजनीतिक कैदियों की रिहाई और सारे काले क़ानून ख़त्म करने के संघर्ष के लिए कमर कसनी होगी।
हमें जिस “देश की सुरक्षा” का झाँसा देकर यह पूँजीवादी राज्यसत्ता हम पर सारे काले क़ानून थोपती है उसी “देश की सुरक्षा” के बारे में पाश ने कहा है :
“यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना ज़मीर होना ज़िन्दगी के लिए शर्त बन जाए
आँख की पुतली में हाँ के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दण्डवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है।”
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-जून 2021
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