राज्यसत्ता के निरंकुश होते जाने के साथ बढ़ती पुलिस बर्बरता

पिछले दिनों तमिलनाडु के तूतीकोरिन में सितांकुलम थाना क्षेत्र में हिरासत के दौरान पुलिसिया दमन की एक वीभत्सतम घटना सामने आयी थी। प्राप्त जानकारियों के आधार पर यह पूरा घटनाक्रम कुछ इस प्रकार से था। तमिलनाडु के तूतीकोरिन शहर में पी जयराज (58 वर्ष) और उनके बेटे बेन्निक्स (38 वर्ष) मोबाइल फ़ोन की दुकान चलाते थे। 19 जून यानी विगत शुक्रवार को इन्हें अपनी दुकान लॉकडाउन के दौरान की समयसीमा से थोड़े अधिक समय तक खोले रखने की एवज़ में स्थानीय सितांकुलम थाने की पुलिस द्वारा गिरफ़्तार किया गया। हिरासत में इन्हें बुरी तरह से सताया गया जिसके कारण चार दिन बाद एक अस्पताल में पिता-पुत्र दोनों की मौत हो गयी। मृतकों के परिजनों ने पुलिस पर अमानवीय उत्पीड़न का आरोप लगाया है। रिश्तेदारों का कहना है कि उनके सीने से बाल उखाड़े गये हैं, नाख़ून उखाड़े गये हैं तथा उनके मलाशय व अन्य यौन अंगों पर पुलिसिया बर्बरता की निशानियाँ साफ़ तौर पर दिखायी देती हैं। पुलिस ने दोनों मृतकों पर पुलिस को आपराधिक धमकी देने और गाली-गलौज़ करने जैसे आरोप मढ़े हैं। यह घटना पुलिसिया तंत्र की निरंकुशता और बर्बरता की कहानी साफ़ तौर पर बयाँ करती है।

पैदा हुई पुलीस तो इबलीस ने कहा

लो आज हम भी साहिबेऔलाद हो गये

                                   (इबलीस – शैतान)

भारत में हर वर्ष पुलिस व न्यायिक हिरासत में सैकड़ों की संख्या में लोगों की मौतें हो जाती हैं। जुलाई 2019 के दौरान भाजपा नीत एनडीए की सरकार द्वारा उपलब्ध कराये गये आँकड़ों के अनुसार ही पिछले तीन वर्षों में 4,476 लोगों की मौतें हिरासत के दौरान हुई हैं। इनमें से 427 लोगों की मृत्यु पुलिस हिरासत के दौरान तथा 4,049 लोगों की मौत न्यायिक हिरासत के दौरान हुई है। साल 2016-17 के दौरान पुलिस हिरासत में मौत का आँकड़ा 145 था जबकि न्यायिक हिरासत में 1,616 लोग मारे गये यानी कुल 1,761 लोगों की हिरासत में मौत। इसी प्रकार से साल 2017-18 के दौरान पुलिस हिरासत में 146 तो न्यायिक हिरासत में 1,636 लोगों की मृत्यु हुई यानी कुल 1,782 लोगों की हिरासत में मौत। वर्ष 2018-19 के दौरान पुलिस हिरासत में मरने वालों की संख्या थी 136 और न्यायिक हिरासत में मृत्यु हुई 1,797 लोगों की यानी कुल 1,933 लोगों की हिरासत में मौत। हिरासत में मौतों के साल 2018 के अन्तिम आँकड़ों के अनुसार भारत में हर रोज़ 5 से भी ज़्यादा लोग हिरासत में मर जाते हैं। आप देख सकते हैं कि कितने बड़े पैमाने पर हिरासत के दौरान लोगों को तड़पा-तड़पाकर मार दिया जाता है। ये कुदरती मौतें नहीं हैं बल्कि पुलिसतंत्र नामक संगठित गुण्डा गिरोह द्वारा सुनियोजित तरीके से अंजाम दी जा रही हत्याएँ हैं।

भारतीय पुलिस व्यवस्था का गठन 1861 में औपनिवेशिक ग़ुलामी के दौर में हुआ था।उस समय पुलिस का मुख्य काम ही जनता को दबाने-कुचलने का था। आज़ादी के बाद भी पुलिसिया उत्पीड़न के विभिन्न रूप जारी हैं क्योंकि पुलिसिया ढाँचा कमोबेश अब भी उसी पुराने ढंग-ढर्रे पर संगठित है। मौजूदा हालात भी पुलिस के सम्बन्ध में उक्त शायर की धारणा को बख़ूबी पुष्ट करते हैं। असल में थानों में पुलिस का एकछत्र राज चलता है। हवालात और न्यायिक हिरासत में यदि कोई क़ैदी अपने क़ानूनी अधिकार का भी ज़रा सा हवाला दे-दे तो उसपर क़ानून और न्याय के ये तथाकथित रक्षक भूखे भेड़िये की तरह टूट पड़ते हैं। और यदि हिरासत की अवधि में रात भी हो जाये तो नशे के कारण इनकी वहशियाना फ़ितरत को चार चाँद लग जाते हैं। ज़्यादातर औपनिवेशिक ढंग-ढर्रे पर संगठित पुलिस विभाग के अधिकतर कर्मचारियों की काम करते हुए ट्रेनिंग इस क़दर होती है कि उनके अन्दर से मानवीय संवेदनाएँ जाती रहती हैं। मौजूदा लूट पर आधारित सत्ता-व्यवस्था को भी ऐसे ही पुलिस तंत्र की ज़रूरत होती है जो महज़ हुक्म बजा सके, जनता को कुचल सके और इस शोषणकारी व्यवस्था की तरह भ्रष्टाचार की गटरगंगा में लहालोट होकर उसी के रंग में रंगा हुआ हो। इसी कारण से पुलिसिया तंत्र के जनवादीकरण की प्रक्रिया को अंजाम नहीं दिया जाता कि कहीं रोबोटों की बजाय पुलिस कर्मी सोचने-समझने वाले संवेदनशील इन्सानों में न बदल जायें और व्यवस्था पर ही सवाल उठाना न शुरू कर दें।

रोज़-रोज़ पुलिस दमन के वाक़यों को देखकर हम महसूस कर सकते हैं कि पुलिसिया तंत्र में आमूलचूल बदलाव की किस क़दर आवश्यकता है। पुलिस व्यवस्था में सुधार और उसका जनवादीकरण बेहद ज़रूरी है, नहीं तो न जाने कितने पी. जयराम और जे. बेन्निक्स काल-कलवित होते रहेंगे। पुलिस सुधार के लिए छात्रों-युवाओं, सचेत नागरिकों और आम जनता को बढ़चढ़कर भागीदारी करनी चाहिए।

मद्रास हाईकोर्ट की मदुरई पीठ ने तूतीकोरिन मामले का स्वतः संज्ञान लेते हुए घटना से सम्बन्धित स्थानीय पुलिसकर्मियों में से दो उपनिरीक्षकों समेत चार को निलम्बित कर दिया है। तमिलनाडु की घटना पर नागरिक समाज की ज़बर्दस्त प्रतिक्रिया के बाद हालाँकि पुलिस के भेष में अपराधियों पर कार्रवाई हुई है लेकिन यह कार्रवाई अपर्याप्त है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अक्‍टूबर 2020

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