क्या हिरासत में होने वाली यातनाओं को रोकने के लिए सीसीटीवी कैमरे पर्याप्त हैं?

वृषाली

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के एक बेंच ने देश भर के राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए), केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई), प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), राजस्व खुफिया निदेशालय (डीआरआई), नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) आदि जैसी सभी जांच एजेंसियों के कार्यालयों में सीसीटीवी कैमरे लगाने का आदेश जारी किया है। कोर्ट का आदेश है कि इन कैमरों में नाइट विजन व रिकॉर्डिंग उपकरण भी लगे हुए हों। सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि इस कदम से हिरासत में होने वाले उत्पीड़न पर काबू पाया जा सकेगा। यूँ तो पुलिस थानों में सीसीटीवी कैमरे लगाने का आदेश 2018 में ही जारी कर दिया गया था लेकिन असल सवाल यह है कि इन कैमरों से हिरासत में होने वाले उत्पीड़न पर क्या वाकई में काबू कर पाना सम्भव है?
जून 2020 में तमिलनाडू के तूतीकोरिन जिले में पी जेयराज (59) व बेनिक्स (31) की पुलिस प्रताड़ना के बाद मौत की घटना को अभी ज़्यादा वक़्त नहीं गुज़रा है। इस घटना के बाद तमिलनाडु और दक्षिण भारत में लोगों का गुस्सा उबाल पर था। लेकिन इस घटना में भी ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट की रिपोर्ट के अनुसार कोई सीसीटीवी फ़ुटेज उपलब्ध नहीं हो पाया क्योंकि थाने में लगे सीसीटीवी कैमरे का एकाउंट ‘ऑटो-डिलीट’पर था। ज़ाहिरा तौर पर यह कोई अपवाद नहीं है, हिरासत में ऐसे उत्पीड़न, बलात्कार व यातनाओं के कई मामले गिनाये जा सकते हैं जिनकी सीसीटीवी फुटेज नदारद हैं। लेकिन यह एक हालिया घटना ही सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले की सीमाओं को साफ़ करने के लिए काफ़ी है। इसके इतर इस नये आदेशानुसार आधिकारिक गिरफ़्तारी से पहले व थानों और कार्यालयों के बाहर होने वाली प्रताड़ना के सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं की गयी है। यही नहीं, इस फ़ैसले में मानसिक व न नज़र आने वाले शारीरिक उत्पीड़न को भी नज़रंदाज़ किया गया है।
भारत में हिरासत में उत्पीड़न के आँकड़े
भारत में हर वर्ष पुलिस व न्यायिक हिरासत में सैकड़ों की संख्या में लोगों की मौतें हो रही हैं। जुलाई 2019 के दौरान भाजपा नीत एनडीए की मोदी सरकार द्वारा उपलब्ध कराये गये आँकड़ों के अनुसार ही पिछले तीन वर्षों में 4,476 लोगों की मौतें हिरासत के दौरान हुई हैं। इनमें से 427 लोगों की मृत्यु पुलिस हिरासत के दौरान तथा 4,049 लोगों की मौत न्यायिक हिरासत के दौरान हुई है। राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन के अनुसार साल 2019 में हिरासत में 1,723 मौतें दर्ज की गयी थीं जिनमें 1606 न्यायिक हिरासत व 117 पुलिस हिरासत में हुई थीं, यानी हर रोज़ तक़रीबन 5 मौतें। 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार नैशनल कैम्पेन अगेंस्ट टॉर्चर (एनसीएटी) द्वारा दर्ज 125 केसों में 93 लोगों की मौत पुलिस हिरासत में हुए प्रताड़ना की वजह से थी, व 24 लोगों की मौत संदेहास्पद स्थितियों में हुई थी। इनमें से 60% मामलों में कैदी ग़रीब या उपेक्षित तबकों से सम्बन्धित थे।
हिरासत में प्रताड़ना के असल कारण
1861 में औपनिवेशिक गुलामी के दौर में गठित भारतीय पुलिस व्यवस्था का मुख्य काम उस वक़्त जनता को दबाने-कुचलने का ही था। आज भी जारी पुलिसिया उत्पीड़न के विभिन्न रूपों का कारण इसका पुराना ढंग-ढर्रा है। उत्तर-औपनिवेशिक सत्ता के बाद भी उत्पीड़न और दमन का यह तन्त्र बदस्तूर जारी है क्योंकि यह मौजूदा व्यवस्था के लिए लाभप्रद है। अमानवीय व्यवहार के लिए ट्रेंड अफ़सर थानों में अपना एकछत्र राज चलाते हैं। इनके लिए किसी कैदी से ज़ुर्म कबूल करवाने, रिश्वत लेने, धाक जमानेआदि के लिए यातना देना पुलिसकर्मियों के बाएं हाथ का खेल है।
जिस देश में हर दिन 5 लोग हिरासत में दम तोड़ दें, उस देश की पुलिसिया व्यवस्था सीसीटीवी कैमरों की बदौलत नहीं बदल सकती। सीसीटीवी कैमरों को भी मुलाजिम ही संचालित करेंगे कोई बाहर से नहीं आयेगा। हिरासत में होने वाली मौतों पर लगाम लगाने के लिए सबसे ज़रूरी है पुलिसिया तन्त्र का जनवादीकरण, जिसके लिए कदम उठाना इस व्यवस्था को मंजूर नहीं है। इसलिए हिरासत में होने वाली मौतों को रोकने के लिए सीसीटीवी कैमरे नहीं बल्कि निरंकुश पुलिसिया तन्त्र में सुधार और जनता के बेलगाम उत्पीड़न को प्रश्रय देने वाली क़ानूनी धाराओं को समाप्त करना ज़रूरी है।
दूसरा हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि मौजूदा व्यवस्था वर्गीय शोषण पर आधारित है। शोषित वर्ग के शोषण को बरकरार रखने के लिए ही पुलिस, फौज और न्याय का पूरा ढकोसला खड़ा किया गया है। बेशक दमन-उत्पीड़न की व्यवस्था का पूरा खात्मा तो वर्ग समाज की समाप्ति के साथ ही हो सकता है। लेकिन पूँजीवाद भी जिन जनवादी हक़ों को देने की बात संविधान में करता है उन्हें वास्तव में लागू करवाने के लिए भी संघर्ष की ज़रूरत होती है और इसी प्रक्रिया में जनता के सामने व्यवस्था के सीमान्त भी बेपर्दा होते हैं।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, नवम्बर 2020-फ़रवरी 2021

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