बिनायक सेन: पूँजीवादी न्याय की स्वाभाविक अभिव्यक्ति
वैसे तो इस देश की अभागी जनता को पूँजीवादी लोकतन्त्र के मानकों पर खरा उतरने वाला लोकतन्त्र भी कभी नहीं मिला, लेकिन पहले के मुकाबले आज की स्थितियों में फ़र्क़ ज़रूर है। उदारीकरण और निजीकरण के पिछले दो दशकों के इतिहास ने राज्य की भूमिका को दो स्तरों पर परिवर्तित किया है। निजी पूँजी की लूट को रोक पाना या एक हद तक नियमित कर पाना भी उसके लिए असम्भव है। वस्तुगत तौर पर उसकी भूमिका सहायक की ही हो सकती है, क्योंकि यह पूँजीवाद की ज़रूरत है। ऐसे में निजी पूँजी के विस्तार के ख़िलाफ अगर तात्कालिक दृष्टि से भी कोई व्यक्ति या संगठन कार्य करता है, उसे अवरुद्ध करता है तो राज्य उसका निर्मम दमन करेगा। दूसरे इन नीतियों के प्रभाव में जहाँ एक तरफ छोटे से मध्यवर्ग के लिए अकूत धन-सम्पदा और ख़ुशहाली पैदा हुई है, वहीं देश की व्यापक जनता के लिए ग़रीबी, बेरोज़गारी, भुखमरी और महँगाई के रूप में भारी विपन्नता पैदा हुई है। देश के शासक वर्ग भी जानते हैं कि वे ज्वालामुखी के दहाने पर बैठकर रंगरेलियाँ मना रहे हैं और यह ज्वालामुखी भविष्य में जनविद्रोह के रूप में फूटेगा ही, जिसके आसार अभी से नज़र आने लगे हैं। इस विस्फोट को यथासम्भव विलम्बित करने के लिए राज्य अपने दमनतन्त्र को तीखा करते हुए दबे पाँव एक अघोषित आपातकाल पैदा करने की ओर अग्रसर है।