न्यायालय का शोकगीत और हम

योगेश

हमारे देश की संसद में बैठने वाले पक्ष–विपक्ष और इनकी गठबंधन सरकारें जो लूट और भ्रष्टाचार के कीर्तिमान बना रही है, उससे लगातार आम जनता उन पर से विश्वास खो रही है । इस खेल में देश की नौकरशाही भी इन पार्टिया का पूरा साथ निभा रही है । विधायिका और कार्यपालिका के इस क्षरण के बाद देश के लोगों का थोड़ा बहुत विश्वास न्यायपालिका पर था । पर हालिया कुछ मामलों और सर्वोच्च न्यायलय की एक टिप्पणी से यह भरोसा और कम हुआ है । सर्वोच्च न्यायालय ने तथाकथित जनप्रतिनिधियों के एक मामले में कहा कि ‘इस देश को तो भगवान भी नहीं बचा सकते हैं ।’ कारण था पूर्व सांसदों और विधायकों द्वारा सरकारी आवास पर कब्ज़ा जमाए रखना और वर्तमान लोकसभा के आधे व राज्यसभा के बहत्तर सदस्यों पर बिजली–पानी–टेलीफोन का लगभग सवा करोड़ रुपए बकाया है ।

एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायलय ने सरकार को सुझाव दिया कि धारा 441 में संशोधन कर सरकारी मकानों पर अवैध–कब्ज़े को गैर–जमानती अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए । इस पर सरकार ने दो टूक जवाब दिया कि जनप्रतिनिधियों के खिलाफ ऐसा कोई कानून नहीं बनाया जाएगा । उसकी दलील पर हमारी न्यायालय ने आह–भरी टिप्पणी की और पूरे मामले पर रोक लगा दी । और अब तो स्वयं ‘न्याय’ करने वाले न्यायधीश भी घूस–रिश्वतघोरी में एक–दूसरे को पछाड़ रहे हैं । अभी कोलकाता हाईकोर्ट के एक न्यायधीश के रिश्वत के मामले में पाए जाने के कारण महाभियोग चलाने का प्रस्ताव आएगा । इससे पहले भी एक न्यायधीश वाई.के.सभरवाल पर आरोप था कि उनके दिए फैसलों से उनके बेटों को आर्थिक लाभ पहुँचा है । स्पष्ट है कि जो ढाँचा बहुसंख्यक आम आबादी की लूट पर टिका होगा उस पूँजीवादी समाज में न्यायपालिका कोई दैवीय संस्था नहीं है बल्कि वह इसी ढाँचे की सेवा ही करेगी और जब कभी ‘‘जनतंत्र” के नाम पर स्यापा होता है तो इसी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए कुछ शिकायतें हो जाती हैं । इसी पूँजीवादी समाज पर लोगों का विश्वास बना रहे इसके लिए न्यायपालिका राज करने वाले धनिक वर्ग के लोगों में से भी कुछ को सज़ा सुना देती है । पर ऐसे मामले गिनती के होते हैं जबकि हज़ारों–लाखों ऐसे मामले होते हैं जिनमें ग़रीब आदमी को ही दोषी ठहराया जाता है । ‘इस देश को भगवान भी नहीं बचा सकते’ जैसी टिप्पणी से न्यायपालिका यह भी जताना चाहती है कि जर्जर होती इस व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है । यानी इस आदमखोर पूंजीवादी समाज में लुटते हुए जीना पड़ेगा । पर ढाँचे के पैरोकार और बुद्धिजीवी ‘इतिहास के अन्त’ और पूँजीवाद को मानव–विकास की अन्तिम मंजिल बताने का कितना भी राग अलापते रहें, तमाम बहादुर, संवेदनशील और इंसाफपसन्द नौजवान इस पर यक़ीन नहीं करेंगे । वे न्यायपालिका को दिखला देंगे कि वाकई भगवान इस देश का कुछ नहीं कर सकता है । अगर कोई कर सकता है तो वे इस देश के आम नौजवान और मेहनतक़श हैं ।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अक्‍टूबर-दिसम्‍बर 2008

 

'आह्वान' की सदस्‍यता लें!

 

ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीआर्डर के लिए पताः बी-100, मुकुन्द विहार, करावल नगर, दिल्ली बैंक खाते का विवरणः प्रति – muktikami chhatron ka aahwan Bank of Baroda, Badli New Delhi Saving Account 21360100010629 IFSC Code: BARB0TRDBAD

आर्थिक सहयोग भी करें!

 

दोस्तों, “आह्वान” सारे देश में चल रहे वैकल्पिक मीडिया के प्रयासों की एक कड़ी है। हम सत्ता प्रतिष्ठानों, फ़ण्डिंग एजेंसियों, पूँजीवादी घरानों एवं चुनावी राजनीतिक दलों से किसी भी रूप में आर्थिक सहयोग लेना घोर अनर्थकारी मानते हैं। हमारी दृढ़ मान्यता है कि जनता का वैकल्पिक मीडिया सिर्फ जन संसाधनों के बूते खड़ा किया जाना चाहिए। एक लम्बे समय से बिना किसी किस्म का समझौता किये “आह्वान” सतत प्रचारित-प्रकाशित हो रही है। आपको मालूम हो कि विगत कई अंकों से पत्रिका आर्थिक संकट का सामना कर रही है। ऐसे में “आह्वान” अपने तमाम पाठकों, सहयोगियों से सहयोग की अपेक्षा करती है। हम आप सभी सहयोगियों, शुभचिन्तकों से अपील करते हैं कि वे अपनी ओर से अधिकतम सम्भव आर्थिक सहयोग भेजकर परिवर्तन के इस हथियार को मज़बूती प्रदान करें। सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग करने के लिए नीचे दिये गए Donate बटन पर क्लिक करें।