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देश का हर दूसरा बच्चा शोषण-उत्पीड़न का शिकार

हर जगह पूँजीवादी संस्कृति, सभ्यता और समाज की पतनोन्मुखता और सड़ाँध मारती मरणोन्मुखता ही नज़र आ रही है। बच्चे अपने घरों में सुरक्षित नहीं हैं। जिन मस्तिष्कों को ऊँची उड़ानें भरनी हैं उन्हें कुण्ठित और ग्रंथिग्रस्त कर दिया जा रहा है। मनोरोगियों की समाज में भरमार होती जा रही है।

न्यायपालिका का स्पष्ट होता जनविरोधी चरित्र

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में कहा कि समाज के ऐसे लोग जिनकी आर्थिक–सामाजिक हैसियत दिल्ली में जीवन बिताने लायक नहीं है, वे दिल्ली छोड़ दें । ऐसे लोगों को राजधानी में रहने का कोई हक नहीं है । इन मामलों से न्यायपालिका का वर्ग चरित्र साफ़ उजागर होता है और अगर सज़ा मिलने की दर को देखा जाय कि जिन मामलों में ग़रीब फँसते हैं उनमें कितने प्रतिशत को सज़ा मिलती है और जिनमें अमीर फँसते हैं उनमें कितने प्रतिशत को, तो साफ़ देखा जा सकता है कि न्यायपालिका का जनविरोधी चरित्र किस तरह और अधिक प्रत्यक्ष होता जा रहा है ।