बिनायक सेन: पूँजीवादी न्याय की स्वाभाविक अभिव्यक्ति
शिवार्थ
24 दिसम्बर, 2010 को छत्तीसगढ़ में रायपुर के सत्र न्यायालय द्वारा दिये गये ‘ऐतिहासिक’ निर्णय में प्रसिद्ध चिकित्सक, पीपुल्स यूनियन फ़ॉर सिविल लिबर्टीज से जुड़े मानवधिकार कार्यकर्ता और छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच लम्बे समय से जनस्वास्थयकर्मी के रूप में काम करने वाले डॉ. बिनायक सेन, तथाकथित माओवादी नेता और सिद्धान्तकार नारायण सान्याल और तथाकथित माओवादी समर्थक और पेशे से तेंदू पत्ता के व्यापारी पीयूष गुहा को देशद्रोही करार देते हुए आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी गयी। पिछले दो दशकों से वैश्विक पैमाने पर जारी भूमण्डलीकरण की नीतियों और तदोपरान्त देशी स्तर पर जारी उदारीकरण निजीकरण की नीतियों से पैदा हुए चौतरफ़ा व्यवस्थागत संकट की दृष्टि से यह एक प्रतीकात्मक निर्णय है। इसकी प्रतीकात्मकता, जैसाकि इस ख़बर को प्रकाशित करने वाले देशी-विदेशी स्तर के विभिन्न अख़बारों और न्यूज़ चैनलों ने प्रस्तुत किया, महज़ इस बात में निहित नहीं है कि यह भारतीय न्यायपालिका के अन्यायी चरित्र का एक और उदाहरण मात्र है। यह इस निर्णय का गौण पहलू है। भोपाल गैस त्रसदी में हज़ारों की संख्या में मज़दूरों और नागरिकों के हत्यारों को निर्दोष करार देने वाली, 2002 के गुजरात नरसंहार के हत्यारों को खुला छोड़ देने वाली, 1984 के दंगों में सैकड़ों सिखों का दिन-दहाडे़ कत्लेआम करने वालों को बाकायदा सरकारी संरक्षण देने वाली, बोफ़ोर्स घोटाले से लेकर हालिया 2-जी स्पेक्ट्रम आबण्टन घोटाले में जनता के खरबों रुपयों का व्यारा-न्यारा करने वालों पर कोई सशक्त कार्यवाही न कर सकने वाली न्यायपालिका की न्याय के प्रति प्रतिबद्धता और दुनिया के किसी भी पूँजीवादी न्यायिक व्यवस्था की ही तरह इसका अन्यायपूर्ण चरित्र दिन के उजाले की तरह साफ है। इसे साबित करने के लिए एक और बिनायक सेन की ज़रूरत नहीं है।
इस निर्णय की प्रतीकात्मकता मुख्यतः तीन बातों में निहित है। पहली यह कि एकदम स्पष्ट तौर पर यह निर्णय पूँजीवादी संविधान और विभिन्न दण्ड संहिताओं के ढकोसले और पाखण्ड को, उनकी व्याख्या के दौरान किस प्रकार राज्य अपनी उपयोगिता के अनुसार उन्हें तोड़-मरोड़कर इस्तेमाल करने की क्षमता रखता है, उजागर करता है। इसी प्रक्रिया में यह उस कानूनी विभ्रम, जिसका कानून की किताबों से लेकर आम जनजीवन में रोज़ाना पाठ पढ़ाया जाता है कि न्यायपालिका कार्यपालिका और विधायिका से इतर एक स्वतन्त्र निकाय के तौर पर कार्य करती है, को उलटकर एकदम सही तौर पर स्पष्ट कर देता है कि पूँजीवादी लोकतन्त्र के तीनों निकाय एक-दूसरे के साथ तालमेल में ही काम करते हैं और जब वे ऐसा नहीं करते (जैसाकि आजकल न्यायपालिका विधायिका को समय-समय पर बेअसर साबित होने वाली मीठी झिड़कियाँ पिलाता रहता है) तो यह आम जनता की आँखों में धूल झोंकने वाला एक दिखावा मात्र है। दूसरा, यह निर्णय और इसी क्रम में देश के विभिन्न हिस्सों में जारी ‘न्यायिक सक्रियता’ एकदम स्पष्ट और नंगे तौर पर स्थापित करती है कि आज न्यायपालिका पूरी तरह पूँजी के हितों के लिए ही काम करती है और पूँजी की लूट की राह में बाधा बनने वाले किसी व्यक्ति, समूह या संगठन को दण्डित करने और रास्ते से हटाने के लिए पूरी तरह कटिबद्ध है। तीसरा, और शायद सबसे महत्त्वपूर्ण, यह निर्णय आने वाले समय की आहट लिये हुए है जिसमें चौतरफ़ा हावी संकट के चलते भारतीय लोकतन्त्र का दायरा अधिक से अधिक संकुचित होते हुए अघोषित आपातकाल की ओर अग्रसर है। इसी के साथ यह भी विचारणीय पहलू है कि ये सभी लक्षण बुनियादी तौर पर शासक वर्गों की शक्तिमत्ता को नहीं बल्कि भावी जन-विस्फोटों से भयाक्रान्त शासकों की बौखलाहट को दर्शाता है, क्योंकि इतिहास गवाह है कि राज्य की ऐसी सभी दमनकारी नीतियों ने जन-प्रतिरोध को कुचलने के बजाय और बुलन्द करने का ही काम किया है।
अपनी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए हम देख सकते हैं कि इस पूरे प्रकरण की शुरुआत 6 मई, 2007 को पीयूष गुहा की गिरफ़्तारी के साथ हुई। इसके बाद 14 मई, 2007 को बिनायक सेन को बिलासपुर से गिरफ़्तार किया गया। नारायण सान्याल को जुलाई 2007 में इस मामले को लेकर तलब किया गया, जबकि वह एक अन्य प्रकरण में बिलासपुर जेल में थे। इन तीनों के ख़िलाफ संयुक्त रूप से जुलाई 2007 को चार्जशीट दाखि़ल की गयी। दिसम्बर 2007 में विभिन्न कानूनों के अन्तर्गत इनके ख़िलाफ आरोप दर्ज किये गये और मुकदमे की शुरुआत हुई। यह मुकदमा दो साल तक चलता रहा, जिसमें अभियोजन पक्ष के द्वारा कुल 97 गवाह प्रस्तुत किये गये, जिनमें से ज़्यादातर पुलिसवाले थे। बचाव पक्ष की ओर से कुल 12 गवाह प्रस्तुत किये गये। दो साल तक जारी इस मुकदमे की सुनवाई तीन जजों द्वारा की गयी – न्यायधीश सलूजा, उसके बाद न्यायधीश गनपत राव और अन्त में न्यायधीश बी.पी. वर्मा।
इस मुकदमे पर सुनवाई और लम्बित हुई होती, अगर अक्टूबर 2010 में पीयूष गुहा की तरफ से दायर की गयी जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने सत्र न्यायालय को तीन महीने के भीतर इस मुकदमे पर निर्णय देने के आदेश न दिये होते। 24 दिसम्बर, 2010 को न्यायधीश बी.पी. वर्मा ने अपने फ़ैसले में तीनों अभियुक्तों को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124(A) और 120(B), छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम, 2005 (Chattisgarh Special Public Safety Act) (सी.एस.पी.एस.ए.) की धारा 8(1), 8(2), 8(3) और 8(5) एवं ग़ैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून (Unlawful Activities Prevention Act) (यू.ए.पी.ए.) की धारा 39(2) के अन्तर्गत दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124(A) और 120(B) संयुक्त रूप से देशद्रोह एवं देशद्रोह के लिए षड्यन्त्र करने; सी.एस.पी.एस.ए. के अन्तर्गत किसी प्रतिबन्धित और ग़ैरकानूनी संगठन के सदस्य होने या आर्थिक तौर पर या किसी अन्य तरीक़े से उसे मदद पहुँचाने; एवं यू.ए.पी.ए. के अन्तर्गत किसी आतंकवादी संगठन या संस्था की सदस्यता ग्रहण करने या आतंकवादी कार्यवाही को अंजाम देने या उसे प्रोत्साहित करने के लिए दोषी करार दिया जा सकता है। यह ग़ौर करने वाली बात है कि इन कानूनों के अन्तर्गत आतंकवादी या ग़ैरकानूनी किस कार्यवाही को माना जायेगा – यह स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं है। इन कानूनों के अन्तर्गत तीनों अभियुक्तों को दोषी करार देने के लिए अभियोजन पक्ष को तर्कसंगत रूप से साबित करना था कि ये तीनों अभियुक्त प्रत्यक्ष रूप से या तो व्यक्तिगत तौर पर देशद्रोही कार्यवाही में संलग्न थे या एक देशद्रोही संगठन के सदस्य थे या फिर देशद्रोही गतिविधि के लिए षड्यन्त्र रचने और उसके लिए व्यक्तियों या संगठनों को उकसाने का काम कर रहे थे। अभियोजन पक्ष को यह भी साबित करना था कि तीनों अभियुक्त किसी ऐसे संगठन के सदस्य थे जो यू.ए.पी.ए. और सी.एस.पी.एस.ए. के अन्तर्गत ग़ैरकानूनी है, या फिर ऐसे किसी संगठन की गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए षड्यन्त्र रच रहे थे और उकसावे का काम कर रहे थे। यह साबित करने के लिए न्यायधीश बी.पी. वर्मा ने अपने निर्णय में मुख्य रूप से जो तर्क चिह्नित किये हैं, वे कुछ इस प्रकार हैं।
तीनों अभियुक्तों को राज्य के ख़िलाफ षड्यन्त्र रचने का दोषी साबित करने के लिए उन तीन पत्रों को आधार माना गया है, जो पुलिस के अनुसार पीयूष गुहा के पास से बरामद हुए थे। अभियोजन पक्ष के अनुसार ये तीनों पत्र नारायण सान्याल, जोकि एक देशद्रोही और प्रतिबन्धित संगठन के सदस्य हैं, द्वारा लिखे गये थे, इन्हें बिनायक सेन द्वारा पीयूष गुहा तक पहुँचाया गया और षड्यन्त्र की आखि़री कड़ी के तौर पर पीयूष गुहा इन पत्रों को सी.पी.आई. (माओवादी) पार्टी तक पहुँचाने वाले थे। पीयूष गुहा से इन पत्रों की बरादमगी के लिए, पुलिस हिरासत में उनके द्वारा किये गये कबूलनामे को आधार बनाया गया है। भारतीय साक्ष्य कानून, 1872 के अनुसार किसी अभियुक्त द्वारा पुलिस हिरासत में किये गये कबूलनामे को साक्ष्य के तौर पर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। इस विसंगति से पार पाने के लिए गवाह के तौर पर पुलिस द्वारा अनिल सिंह नामक व्यक्ति को प्रस्तुत किया गया। यह व्यक्ति कोई कानूनी जानकार या दण्डाधिकार (मजिस्ट्रेट) द्वारा चयनित व्यक्ति नहीं, बल्कि यूँ ही चलते-फिरते ‘पासर बाई’ के तौर पर इन्होंने पुलिस को पीयूष गुहा के पास से पत्र बरामद करते देखा। 7 मई, 2007 को पीयूष गुहा को जब पहली बार दण्डाधिकारी के सामने प्रस्तुत किया गया तो उन्होंने यह बयान दिया कि उन्हें 1 मई, 2007 को महिन्द्रा होटल से पकड़ा गया और 6 दिनों तक आँखों पर पट्टी बाँधकर ग़ैरकानूनी तौर पर पुलिस हिरासत में रखा गया। न्यायधीश वर्मा ने इस बयान को नज़रअन्दाज़ करते हुए पुलिस द्वारा प्र्रस्तुत किये गये पीयूष गुहा के कबूलनामे को स्वीकार किया और गुहा के सन्दर्भ में अपने निर्णय में दर्ज किया कि अभियुक्त गुहा 7 मई को मजिस्ट्र्रेट के सामने दिये गये अपने बयान को सही साबित करने के लिए कोई साक्ष्य प्रस्तुत करने में असफल रहे हैं। ऐसे में पुलिस द्वारा प्रस्तुत कबूलनामे को सही माना गया है। सामान्य तर्कबोध से चलते हुए और कानूनी तौर पर भी अभियोजन पक्ष को अभियुक्त को दोषी साबित करना होता है, न कि अभियुक्त को ख़ुद को निर्दोष साबित करना होता है, लेकिन जस्टिस बी.पी. वर्मा का मानना कुछ और ही है। यहाँ पर यह भी ग़ौर करने योग्य तथ्य है कि पुलिस ने सर्वोच्च न्यायालय में पीयूष गुहा द्वारा दायर की गयी जमानत की अर्जी का विरोध करते हुए जो हलफनामा दाखि़ल किया है, उसके अनुसार गुहा को महिन्द्रा होटल से गिरफ़्तार किया गया था। जबकि अभियोजन पक्ष द्वारा सत्र न्यायालय में दायर याचिका के अनुसार गुहा को स्टेशन रोड से अनिल सिंह की मौजूदगी में पकड़ा गया था। न्यायधीश महोदय ने इस विसंगति के सन्दर्भ में अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत की गयी सफ़ाई को स्वीकार किया है कि हलफनामे में यह सूचना ग़लत टाइपिंग के कारण चली गयी थी।
इस षड्यन्त्र पटकथा की रचना करने के बाद नारायण सान्याल, बिनायक सेन और पीयूष गुहा के आपस में सम्बन्ध होने और इनका भाकपा (माओवादी) से सम्बन्ध होने के पीछे ये तर्क रखे गये हैं – नारायण सान्याल भाकपा (माओवादी), जो कि सी.एस.पी.एस.ए. और यू.ए.पी.ए. के अनुसार प्रतिबन्धित संगठन हैं, के निर्णयकारी निकाय यानी पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं। इस तथ्य के लिए वे दो आधार स्वीकार करते हैं। पहला, वे पत्रिकाएँ जो पुलिस के अनुसार गिरफ़्तारी के दौरान पीयूष गुहा के पास से प्राप्त की गयीं। यह माना गया है कि ये पत्रिकाएँ भाकपा (माओवादी) का मुखपत्र थीं और इनमें नारायण सान्याल प्रसाद उर्फ बिजॉए के छदम् नाम से लिखते थे। पीयूष गुहा ने इसे अस्वीकार किया है, और कहा है कि पत्रिकाएँ पुलिस द्वारा उनके पास जबरन रखी गयी थीं। दूसरा आधार, माना गया है उन विभिन्न मुकदमों को जो नारायण सान्याल के विरुद्ध माओवादी गतिविधियों में संलग्न रहने के लिए आन्ध्र प्रदेश और झारखण्ड में दर्ज किये गये हैं। इनमें से ज़्यादातर मुकदमों में पिछले दिनों नारायण सान्याल दोषमुक्त करार दे दिये गये हैं।
पीयूष गुहा की माओवादी गतिविधियों में प्रत्यक्ष तौर पर संलिप्तता स्वीकार करने के लिए भी न्यायधीश महोदय दो तथ्यों को आधार मानते हैं। पहला, नियमित अन्तराल पर पीयूष गुहा द्वारा रायपुर का दौरा किया जाना। वैसे पीयूष गुहा के अनुसार, ये दौरे वह तेंदू पत्ते के अपने व्यापार के सम्बन्ध में करते थे, लेकिन अगर ऐसा न भी हो तो क्या एक स्वतन्त्र देश के नागरिक को देश के भीतर किसी हिस्से की नियमित यात्रा को एक आपराधिक गतिविधि के तौर पर स्वीकार किया जा सकता है! ख़ैर, दूसरा आधार जो न्यायधीश बी.पी. वर्मा ने अपने निर्णय में दर्ज किया है, वह है पीयूष गुहा के ख़िलाफ पश्चिम बंगाल के पुरनिया ज़िले में लम्बित एक मुकदमा। यह ग़ौरतलब है कि यह मुकदमा पश्चिम बंगाल पुलिस द्वारा उनके ख़िलाफ 6 मई, 2007 के बाद दर्ज किया गया है, जब वह जेल के भीतर थे। वैसे इसमें ग़लत भी क्या है जब ‘चोर-चोर मौसेरे भाई!’ तो ‘पुलिस-पुलिस’ क्यों नहीं।
बिनायक सेन को उन 33 मीटिंगों के आधार पर इस षड्यन्त्र का हिस्सा बताया गया है जो उन्होंने जेल में नारायण सान्याल से की थीं। बिनायक सेन ने इस बात को स्वीकार करते हुए अपना पक्ष रखा था कि उन्होंने ये मीटिंगें एक स्वास्थकर्मी और मानवाधिकार कार्यकर्ता के तौर पर की थीं, क्योंकि नारायण सान्याल जेल में उचित इलाज न पा सकने के कारण गम्भीर बीमारी से गुज़र रहे थे। दूसरे उन्होंने यह भी बताया है कि ये सभी मीटिंगें जेल अधिकारियों की लिखित अनुमति के अन्तर्गत हुई थीं और इन सभी मीटिंगों के दौरान जेल अघिकारी उपस्थित थे। ऐसे में यह कैसे सम्भव था कि नारायण सान्याल द्वारा ये पत्र बिनायक सेन को सौंपे जाते और इसी बात की पुष्टि जेल अधिकारियों ने न्यायालय में दिये गये अपने बयान में भी की है। न्यायधीश बी.पी. वर्मा ने इस दलील को खारिज करते हुए नारायण सान्याल और बिनायक सेन के बीच सांगठनिक सम्बन्ध स्थापित करने के लिए उन टेलीफ़ोन काल्स को आधार माना है जो नारायण सान्याल की बहन, बुआ सान्याल, द्वारा बिनायक सेन को की गयी थीं। बुआ सान्याल एक सामान्य गृहिणी है और उनका भाकपा (माओवादी) से सिर्फ एक रूप में सम्बन्ध है कि उनका भाई इस संगठन का तथाकथित सदस्य है। अभियोजन पक्ष के अनुसार दवा-इलाज और मानवाधिकार तो महज़ आवरण था, बिनायक सेन बाकायदा ‘माओवादी पोस्टमैन’ का काम कर रहे थे। इसके साथ बिनायक सेन को भाकपा (माओवादी) से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित करने के लिए यह तथ्य स्वीकार किया गया है कि बिनायक सेन और उनकी पत्नी इलीना सेन ने दो माओवादी कार्यकर्ताओं शंकर सिंह और अमृता श्रीवास्तव को रिहाइश ढूँढ़ने और नौकरी पाने में मदद की। यह बात बिनायक सेन ने भी स्वीकार की है कि उन्होंने और उनकी पत्नी ने इन दो व्यक्तियों की मदद की थी, लेकिन किसी भी तौर पर साक्ष्यों से यह पुष्ट नहीं किया जा सका कि ये दोनों व्यक्ति माओवादी थे। बिनायक सेन को माओवादियों से सम्बन्धों को पुष्ट करने के लिए जो तीसरा आधार बताया गया है वह है छत्तीसगढ़ के कोटा और बढ़िया पुलिस थाने के पुलिस अधिकारी विजय ठाकुर और शेर सिंह बन्दे द्वारा दिया गया यह बयान कि बिनायक सेन अपनी पत्नी इलीना सेन और पी.यू.सी.एल. के अन्य कार्यकर्ताओं के साथ नियमित तौर पर माओवादियों की मीटिंग में शामिल होते थे। हालाँकि यह पुलिस अधिकारी अपने बयान को सही साबित करने के लिए कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर सके। इसके अलावा, बिनायक सेन के घर की तलाशी के दौरान प्राप्त किये गये एक पत्र को भी आधार बनाया गया जो अभियोजन पक्ष के अनुसार भाकपा (माओवादी) की केन्द्रीय कमेटी द्वारा बिनायक सेन को लिखा गया था। इस पत्र का ज़िक्र पुलिस द्वारा दायर की गयी चार्जशीट में कहीं भी नहीं है, न बिनायक सेन द्वारा इस पत्र के अपने घर में बरामद होने की पुष्टि की है। पुलिस के अनुसार बिनायक सेन के घर से जब्त किये गये सामानों में यह पत्र काग़ज़ों के बीच “चिपक गया था”, इसलिए इसको बिनायक सेन के समक्ष नहीं प्रस्तुत किया गया और न उन्होंने इसकी पुष्टि की।
वैसे तो न्यायधीश बी.पी. वर्मा के 92 पन्नों के निर्णय में और भी कई आश्चर्यजनक और एक हद तक मज़ावि़फ़या तर्क दर्ज किये गये हैं, लेकिन उनकी चर्चा के बिना भी यह आसानी से समझा जा सकता है कि किस प्रकार पहले तीनों अभियुक्तों को एक-एक करके गिरफ़्तार किया गया और फिर बहुत प्रायोजित तरीक़े से उन्हें माओवादी साबित करके देशद्रोही करार दे दिया गया। इस घटना की पृष्ठभूमि पर नज़र डाली जाये तो 2007 में बिनायक सेन की अध्यक्षता में पी.यू.सी.एल. ने छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा आदिवासियों के दमन एवं ‘सलवा जुडूम’ नामक राज्य पोषित आतंकवादी मुहिम की असलियत उजागर करने का काम किया था। पी.यू.सी.एल. द्वारा तैयार रिपोर्ट में तथ्यों से इन्होंने साबित किया कि किस प्रकार सलवा जुडूम राज्य सरकार, पुलिस बल और सेना के द्वारा निर्दाष आदिवासियों के ख़िलाफ चलाया एक ख़ूनी अभियान था। उन्होंने यह भी बताया कि इस अभियान को स्थानीय ठेकेदारों से लेकर टाटा, एस्सार, मित्तल जैसे कॉरपोरेट घरानों से चन्दा मिलता था और बदले में ये सभी इस अभियान से कॉरपोरेट लूट के ख़िलाफ जारी आदिवासियों के प्रतिरोध को रोकने में काफ़ी मदद प्राप्त कर रहे थे। इसी रिपोर्ट के तथ्यों के आधार पर, सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को निर्देशित किया था कि सलवा जुडूम पर तत्काल रोक लगायी जाये। इस निर्णय ने राज्य सरकार से लेकर छत्तीसगढ़ पुलिस के आला अधिकारियों के लिए काफ़ी शर्मनाक स्थिति पैदा कर दी थी, और यह उम्मीद की जा रही थी कि व पी.यू.सी.एल. से इसका ‘बदला’ चुकायेंगे। उसी दौरान छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक ओ.पी. राठौर ने मीडिया में बयान दिया था कि ‘हम देखेंगे कि पी.यू.सी.एल. के लिए हम क्या कर सकते हैं!’ इसके परिणामस्वरूप मई 2007 से पी.यू.सी.एल. और बिनायक सेन के लिए क्या किया गया, यह हमारे सामने है।
उपर्युक्त चर्चा का मकसद पाठकों का इस मुकदमे के सम्बन्ध में ज्ञानवर्धन करना नहीं था, बल्कि न्यायपालिका के कार्यवाही की तस्वीर प्रस्तुत करना था और यह दर्शाना था कि पूँजीवादी न्याय व्यवस्था के लिए न्याय का मतलब महज़ शासक वर्गों का हित होता है। इस हितसाधन के लिए पूँजीवादी संविधान पर्याप्त छूट प्रदान कर देता है, और बाव़फ़ी काम सबूत और गवाह गढ़के कर लिये जाते हैं।
हाल-फ़िलहाल इस प्रकार सामने आया यह एकमात्र मामला नहीं है, बल्कि ऐसे मामलों की फ़ेहरिस्त लम्बी है। दस्तक पत्रिका की सम्पादक और पत्रकर सीमा आज़ाद ओर उनके पति पिछले 11 महीनों से देशद्रोह के आरोपों के अन्तर्गत जेल में बन्द है। अभी हाल ही में, बुकर पुरस्कार विजेता अरुन्धति राय, प्रसिद्ध बुद्धिजीवी वरवरा राव और प्रोफ़ेसर गिलानी के ख़िलाफ दिल्ली में आयोजित एक सेमिनार के दौरान ‘भड़काऊ’ और ‘देश-विरोधी’ भाषण देने के लिए देशद्रोह के अन्तर्गत पुलिस केस दर्ज किया गया है। कश्मीर के गाँधी मेमोरियल कॉलेज की अंग्रेज़ी की एक शिक्षिका नूर मोहम्मद भट्ट को यू.ए.पी.ए. के अन्तर्गत गिरफ़्तार किया गया। उनके ऊपर आरोप था कि उन्होंने परीक्षा के लिए तैयार किये गये प्रश्नपत्र में विद्यार्थियों से सवाल किया था कि वे कश्मीरी युवाओं द्वारा सेना के ख़िलाफ की गयी पत्थरबाज़ी के बारे में क्या सोचते हैं? 7 दिसम्बर, 2010 को न्यायधीश बी.जी. कौलाजे पाटिल ओर वैशाली पाटिल को महाराष्ट्र पुलिस द्वारा जैतापुर में लगाये जा रहे न्यूक्लियर प्लॉट के ख़िलाफ प्रदर्शन करने के लिए हिरासत में ले लिया गया। जिस दिन बिनायक सेन समेत दो अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी गयी, उसी दिन छत्तीसगढ़ के एक अन्य सत्र न्यायालय द्वारा ‘ए वर्ल्ड टू विन’ पत्रिका के भारतीय संस्करण के प्रकाशक असित कुमार सेन गुप्ता को देशद्रोह के आरोप में आठ वर्ष क़ैद की सज़ा सुनायी गयी। 2 जनवरी, 2011 को मराठी भाषा में प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘विरोधी’ के सम्पादक सुधीर धावले को महाराष्ट्र पुलिस द्वारा देशद्रोह का आरोप लगाते हुए गिरफ़्तार किया गया। इनके अलावा फर्ज़ी एनकाउण्टर से लेकर देश में जगह-जगह मज़दूर आन्दोलन में सक्रिय कार्यकर्ताओं और जनपक्षधर संस्कृतिकर्मियों के ख़िलाफ कानूनी कार्यवाहियों का अनवरत सिलसिला चल पड़ा है। अगर इन मामलों के साथ पिछले एक-डेढ़ साल के दौरान प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह और गहमन्त्री चिदम्बरम के बयानों पर नज़र डाली जाये तो स्थिति और स्पष्ट हो जाती है। अक्टूबर 2009 में प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में सुरक्षा विषयक मन्त्रिमण्डलीय बैठक में माओवादियों के विरुद्ध अब तक की सबसे बड़ी सशस्त्र आक्रमणकारी कारवाई यानी ‘आपरेशन ग्रीन हण्ट’ को हरी झण्डी दे दी गयी। अक्टूबर 2009 से ही पी. चिदम्बरम यह बयान देते आ रहे हैं कि सरकार सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून को संशोधित करके, पूरे देश में लागू करने की योजना बना रही है। राज्य सरकारों के स्तर पर भी लगातार ऐसे बयान देने और जन-विरोधी कानून बनाने की प्रक्रिया लगातार जारी है। पिछले दिनों पंजाब सरकार द्वारा ‘पंजाब सार्वजनिक और निजी जायदाद नुकसान (रोकथाम) कानून 2010’ और ‘पंजाब विशेष सुरक्षा कानून 2010’ के रूप में लाये गये दो काले कानून इसी की एक बानगी हैं।
उपर्युक्त चर्चा से भारतीय लोकतन्त्र की हालिया तस्वीर एकदम दिन के उजाले की तरह साफ है। वैसे तो इस देश की अभागी जनता को पूँजीवादी लोकतन्त्र के मानकों पर खरा उतरने वाला लोकतन्त्र भी कभी नहीं मिला, लेकिन पहले के मुकाबले आज की स्थितियों में फ़र्क़ ज़रूर है। उदारीकरण और निजीकरण के पिछले दो दशकों के इतिहास ने राज्य की भूमिका को दो स्तरों पर परिवर्तित किया है। निजी पूँजी की लूट को रोक पाना या एक हद तक नियमित कर पाना भी उसके लिए असम्भव है। वस्तुगत तौर पर उसकी भूमिका सहायक की ही हो सकती है, क्योंकि यह पूँजीवाद की ज़रूरत है। ऐसे में निजी पूँजी के विस्तार के ख़िलाफ अगर तात्कालिक दृष्टि से भी कोई व्यक्ति या संगठन कार्य करता है, उसे अवरुद्ध करता है तो राज्य उसका निर्मम दमन करेगा। दूसरे इन नीतियों के प्रभाव में जहाँ एक तरफ छोटे से मध्यवर्ग के लिए अकूत धन-सम्पदा और ख़ुशहाली पैदा हुई है, वहीं देश की व्यापक जनता के लिए ग़रीबी, बेरोज़गारी, भुखमरी और महँगाई के रूप में भारी विपन्नता पैदा हुई है। देश के शासक वर्ग भी जानते हैं कि वे ज्वालामुखी के दहाने पर बैठकर रंगरेलियाँ मना रहे हैं और यह ज्वालामुखी भविष्य में जनविद्रोह के रूप में फूटेगा ही, जिसके आसार अभी से नज़र आने लगे हैं। इस विस्फोट को यथासम्भव विलम्बित करने के लिए राज्य अपने दमनतन्त्र को तीखा करते हुए दबे पाँव एक अघोषित आपातकाल पैदा करने की ओर अग्रसर है।
बिनायक सेन के निर्णय से भी सरकार ने इस बात को देश के नागरिकों के सामने स्पष्ट कर दिया है कि कोई भी व्यक्ति चाहे कितना ही ‘हाई-प्रोफ़ाइल’ या नामचीन क्यों न हो, अगर वह मज़दूरों, आदिवासियों, ग़रीब किसानों यानी इस देश की शोषित-उत्पीड़ित जनता के संघर्षों में भागीदारी करता है या, जैसा कि चिदम्बरम साहब ने कुछ दिन पहले कहा था कि प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर समर्थन देता है तो उसे राज्य का दमन झेलने को तैयार रहना होगा। ऐसे में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी अगर निकट भविष्य में और बहुत सारे ‘बिनायक सेन’ घटित हों। सवाल यह है कि इसका मुकाबला कैसे किया जाये! क्या जैसा हमें इस मामले में दिखायी दिया कि देश के सीमित दायरों के भीतर धरना-प्रदर्शन आयोजित करके और लोकतन्त्र की दुहाई देते हुए न्याय की भीख माँगकर ऐसा किया जा सकता है? यह सही है कि बिनायक सेन को लेकर देश के भीतर और यहाँ तक कि विदेशों में भी विरोध प्रदर्शन हुए हैं, लेकिन ये भी उतना ही सही है कि देश की व्यापक जनता इन विरोध-प्रदर्शनों का हिस्सा नहीं रही है। यही कारण है कि इन विरोध-प्रदर्शनों का स्वरूप प्रतिरक्षात्मक रहा है। आशय यह नहीं कि हम न्यायालय और कोर्ट-कचहरी का इस्तेमाल नहीं करेंगे। लोकतन्त्र द्वारा प्रदत्त अधिकारों को बचाये रखने की लड़ाई को भी कारगर बनाने के लिए इसके पीछे हमें देश की व्यापक जनता की आवाज़ और समर्थन को संगठित करना होगा। यह दबाव ही शोषक वर्गों को कदम पीछे खींचने के लिए मजबूर करेगा। इस प्रक्रिया में देश की जनता भी, जो हर दिन अनजाने ही राजकीय दमन झेलती है, ज़्यादा मुकम्मिल तौर पर संविधान और न्यायपालिका के ढकोसले से अवगत होगी, देशद्रोह से लेकर आई.पी.सी. और सी.आर.पी.सी. के कानूनों की वर्गीय अन्तर्वस्तु को आत्मसात करेगी और इससे छुटकारा पाने के लिए पूरी व्यवस्था के ख़िलाफ संघर्ष के लिए भी लामबन्द होगी।
देशद्रोह का कानून
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124(A) देशद्रोह के कानून को परिभाषित करती है। इसके अनुसार – “कोई भी व्यक्ति, लिखित या मौखिक रूप में शब्दों के, चिह्नों के या दृश्य-चित्रण के द्वारा या किसी और तरीक़े से, भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति विद्वेष या अवज्ञा पैदा करता है या करने का प्रयास करता है, या घृणा पैदा करने के लिए प्रेरित करता है या करने का प्रयास करता है, तो उसे अर्थदण्ड के साथ आजीवन कारावास या अर्थदण्ड के साथ तीन साल क़ैद की सज़ा या अर्थदण्ड से दण्डित किया जायेगा।”
यह कानून ब्रिटिश सरकार द्वारा सन् 1870 में बनाया गया है और उसी रूप में आज़ादी के बाद हमारे देश की सम्प्रभु सरकार ने उसे बनाये रखा है। इसी के अन्तर्गत आज़ादी की लड़ाई में बहुत सारे लोगों को, जैसे महात्मा गाँधी, बाल गंगाधर तिलक इत्यादि को दण्डित किया था। वैसे आई.पी.सी. और सी.आर.पी.सी. की ज़्यादातर धाराएँ औपनिवेशिक सरकार द्वारा जिस रूप में बनायी गयी थीं, आज़ाद भारत की सरकार ने उन्हें उसी रूप में बनाये रखा है।
ब्रिटेन से लेकर ज़्यादातर उन्नत पूँजीवादी देशों में इस कानून को निरस्त कर दिया गया है, और समय-समय पर इस कानून को निरस्त कराने का प्रयास भारत में भी किया गया है, लेकिन भारतीय राज्य को इसे बनाये रखना ज़रूरी लगा है। वैसे तो राष्ट्रद्रोह के कानून की शब्दावली ही राज्य को इसे अपनी सुविधानुसार इस्तेमाल करने की पर्याप्त छूट देता है, लेकिन सीधे-सीधे भी यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में वर्णित ‘अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’ के अधिकार को चुनौती देता है, और इसका उल्लंघन करते हुए राज्य को किसी भी व्यक्ति को सरकार के प्रति असहमति दर्ज कराने और उसकी निन्दा करने के मौलिक अधिकार से वंचित करता है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2011
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