माया कोडनानी और जयदीप पटेल की गिरफ्तारी और गुजरात नरसंहार पीड़ितों को इंसाफ़!

विवेक, दिल्ली

Maya kodnaniगुजरात सरकार की माननीय मंत्री माया कोडनानी और विहिप के सम्मानित नेता जयदीप पटेल की गिरफ्तारी ने गुजरात में 2002 में हिटलरी अवतार मोदी के नेतृत्व में हुए सुनियोजित कत्लेआम में कोई नया अध्याय नहीं जोड़ा है। बल्कि सच का बहुत छोटा-सा हिस्सा सामने आया है जिसमें कितने ही माया कोडनानी और जयदीप पटेल मोदी की छत्र-छाया में पल रहे हैं, और सिर्फ़ पल ही नहीं रहे बल्कि तमाम मंत्रालय और उपाधियों से भी सुशोभित हैं। जिस तरह से जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड के बाद जनरल डायर को जुल्मी अंग्रेज सरकार ने सम्मानित करने का काम किया था उसी तरह से मोदी ने भी चुन–चुनकर गुजरात कत्लेआम में शामिल लोगों को सम्मानित करने का काम किया। लेकिन जनरल डायर जैसे हत्यारों का क्या अंजाम हुआ, वो तो जगज़ाहिर हैं। लेकिन इसके साथ कुछ ऐसे सवाल भी हैं जिसपर बात किये बिना इस मामले को समझा नहीं जा सकता।

पहला सवाल, क्या ये गिरफ्तारी न्यायपालिका की जीत है? यह सही है कि गुजरात कत्लेआम में राज्य पुलिस के भेदभावपूर्ण रवैया को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट के द्वारा बारह बड़े मामलों में जाँच के लिए विशेष जाँच दल गठित करने का निर्देश दिया था, जिसमें नरोदा पाटिया और नरोदा गाम जनसंहार मामले में माया कोडनानी और जयदीप पटेल की गिरफ्तारी हुई। इसका श्रेय न्यायपालिका को दिया जा सकता है। लेकिन उसके साथ ही एक बड़ा सवाल यह भी है कि उन ग्यारह बड़े मामलों का क्या हुआ? सात साल की अवधि कम नहीं होती। इसलिए न्यायपालिका इन फ़ासीवादी ताकतों का जवाब नहीं हो सकती। पूँजीवादी जनतंत्र की यह मजबूरी होती है कि कुछ ऐसे गिने-चुने मामलों को पेश कर जनता का न्यायपालिका में विश्वास बनाये रखे, क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था को बचाये रखने की सबसे आखिरी कड़ी न्यायपालिका ही होती है। अगर लोगों का न्यायपालिका में से विश्वास उठ गया तो पूँजीवादी व्यवस्था की आखिरी सुरक्षा कड़ी भी ढह जायेगी। इसलिए कुछेक माया कोडनानी और जयदीप पटेल जैसे लोगों की बलि देना पूँजीवादी व्यवस्था के भ्रम को बचाए रखने की कीमत है।

जयदीप पटेल

जयदीप पटेल

दूसरा बड़ा सवाल कि क्या माया कोडनानी और जयदीप पटेल की गिरफ्तारी गुजरात कत्लेआम में पीड़ितों के लिए इंसाफ़ है? कतई नहीं! गुजरात नरसंहार में दरिन्दगी की जिस हदों तक फ़ासिस्ट हत्यारे गये, उनकी मिसाल हिटलर के जर्मनी में भी देखने को नहीं मिलती है। उसके बारे में बार-बार विस्तार से लिखना भी कहीं न कहीं हमारी संवेदनाओं की धार को भोथरा बनाता है, इसलिए हम यहाँ वहशियत की उन मिसालों के बारे में नहीं लिख रहे हैं। तहलका द्वारा किये गये भण्डाफ़ोड़ में वह सच सारी दुनिया के सामने आ चुका है। इस दरिन्दगी के ख़िलाफ़ पीड़ितों को मोदी के किसी एक चहेते को मिल जाने वाली सज़ा से इंसाफ़ नहीं मिलने वाला। इसका इंसाफ़ सिर्फ़ एक है। मोदी जैसे हत्यारों और उसकी पूरी ब्रिगेड के ख़िलाफ़ किसी अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय में मानवता के ख़िलाफ़ अपराध का मुकदमा चलाया जाना चाहिए और इन हत्यारों को ऐसी सज़ा मिलनी चाहिए जो आने वाले समय के लिए एक मिसाल हो। इसका इंसाफ़ यही हो सकता है कि इंक़लाबी ताक़तें फ़ासीवादी भगवा गिरोह जैसी ताक़तों को समाज में ज़हर के बीज न बोने दे जिसके ज़हरीले पौधों के तौर पर हमें इस किस्म के नरसंहारों का गवाह बनना पड़ता है जो आने वाली कई पीढ़ी तक हर संवेदनशील शख़्स की अंत:चेतना को झकझोरते रहते हैं।

एक बात और। अभी इन कथित राष्ट्रभक्तों (संघ परिवार) के बीच से मुम्बई आतंकवादी हमले में पकड़े गये कसाब को सरेआम गेट वे ऑफ़ इण्डिया पर फ़ाँसी देने की बात की जा रही थी। तो क्या माया कोडनानी और जयदीप पटेल समेत हर उस दरिंदे को भी खुलेआम फ़ाँसी नहीं दी जानी चाहिये जो गुजरात कत्लेआम में शामिल था? इन कातिलों ने तो बहुत ही सुनयोजित और संगठित तरीके से मुस्लिम आबादी का कत्लेआम किया था। इन कातिलों के पास कम्प्यूटर से निकाले हुए दस्तावेज थे जिनमें मुस्लिम परिवारों एवं उनकी परिसम्पतियों का विवरण दर्ज था। गोधरा काण्ड के दो हफ्ते पहले से ही एल.पी.जी. की आपूर्ति कम पड़ने लगी थी क्योंकि सिलेण्डर इकट्ठे किये जा रहे थे। ये दंगाई एक वहशी गिरोह के रूप में काम कर रहे थे। जहाँ मुस्लिम बस्तियाँ थी वहाँ इन दंगाइयों के एक के बाद एक ट्रक आते जिसमें से कितने ही दंगाई उतरते इनके हाथों में देशी हथियार, छुरे व त्रिशूल थे। इन गिरोहों का नेतृत्व कर रहे लोग मोबाइल फ़ोन से अपने नियंत्रण केन्द्र से सम्पर्क भी स्थापित करते थे। कुल मिलाकर दंगाइयों की सेना इतनी साधनसम्पन्न थी, इतनी जल्दी गोलबन्द हुई, इसके निशाने इतने सटीक और कार्यवाई के तरीके इतने प्रशि‍क्षि‍त थे कि यह सब लम्बी तैयारी के बिना मुमकिन ही नहीं था। इस कत्लेआम में पूरी सरकारी मशीनरी ही शामिल थी। तो क्या पूरी की पूरी सरकारी मशीनरी को मोदी समेत गेट वे ऑफ़ इण्डिया पर नहीं लटका देना चाहिये?

लेकिन सिर्फ़ इससे गुजरात नरसंहार पीड़ितों को इंसाफ़ नहीं मिल सकता। क्योंकि सवाल सिर्फ़ गुजरात कत्लेआम का ही नहीं बल्कि उस विचारधारा का है जिसने गुजरात कत्लेआम को अंजाम दिया। और ये भारतीय फ़ासीवादी विचारधारा है, और इसके कार्यवाहक बने हुए हैं संघ, विहिप, बजरंगदल, शिवसेना। ये सिर्फ़ गुजरात में ही नहीं बल्कि भारत में हर जगह सक्रिय है। और जब इसे मौका मिलता है तो अपने खूनी पंजों से मेहनतकश आबादी के चेहरे को लहुलुहान कर देते हैं। इसलिए अगर हम यह नहीं जानेंगे कि फ़ासीवाद को खाद-पानी कहाँ से मिलता है, तो कभी गुजरात तो कभी कंधमाल जैसे काण्ड होते रहेंगे। फ़ासीवाद अगर हमेशा से किसी की सबसे बड़ी जरूरत रही है तो वह बुर्जुआ वर्ग की। लेकिन बुर्जुआ वर्ग फ़ासीवाद को लेकर हमेशा द्वन्द्व का शिकार होता है। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में लगातार जारी आर्थिक संकट के चलते पूँजीवादी व्यवस्था को हमेशा यह डर बना रहता है कि मेहनतकश आबादी अपने हक-अधिकारों के लिए अपने को संगठित न कर ले। इसलिए ऐसी फ़ासीवादी ताकतों को खुराक देने का काम भी ये पूँजीपति ही करते हैं। जर्मनी में हिटलर के फ़ासिस्ट गिरोहों के पीछे उद्योग जगत के बड़े सरदार यूँ ही नहीं खड़े थे। वरना क्या कारण था कि गुजरात कत्लेआम के समय गुजरात के हीरा उद्योग, होटल उद्योग में 200 करोड़ रुपये और कपड़ा और वस्त्र उद्योग में 300 करोड़ रुपये के नुकसान के बावजूद भारतीय बड़े उद्योगपति खामोश रहे। इसलिए फ़ासीवाद बुर्जुआ वर्ग का वो कटखना पालतू कुत्ता होता है जिसकी जंजीर अगर खुल जाती है तो वो मेहनतकश आबादी को तो काटता ही है साथ वो बुर्जुआ वर्ग का भी पालतू नहीं रहता, और उस पर भी गुर्राता या काट लेता है।

इसलिए पीड़ितों को इंसाफ़ तब तक नहीं मिल सकता है जब तक ऐसी फ़ासीवादी ताकतों को जवाब नहीं दिया जाता। और ये जवाब किसी न्यायपालिका के न्याय की आस में या मोमबत्ती जलाकर नपुंसक विरोध प्रदर्शन से या चुनावी वामपंथियों की तरह संसद में ‘साम्प्रदायिक शक्तियों का विरोध’ करो नामक तीर छोड़ने से नहीं दिया जा सकता। इतिहास गवाह है कि ऐसी फ़ासीवादी ताकतों को जवाब सिर्फ़ क्रान्तिकारी मेहनतकश मज़दूर आबादी की संगठित ताकत ने ही दिया है जैसे यूरोप के देशों में, रूस में या चीन में क्रान्तिकारी ताकतों ने दिया।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अप्रैल-जून 2009

 

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