गुजरात के हत्यारों के साथ इंसाफ के लिए विशेष जाँच दल
पूँजीवादी इंसाफ का रास्ता बेइन्तहा लम्बा, टेढ़ा–मेढ़ा और थकाऊ है
शिवानी
आखिरकार 27 मार्च, 2010 को नरेन्द्र्र मोदी से उच्चतम न्यायलय द्वारा गठित एस.आई.टी. (विशेष जाँच दल) ने 2002 गुजरात जनसंहार से जुड़े मामलों के सिलसिले में पूछपाछ कर ही ली। इसके चलते कई दिनों से बने हुए रहस्य और अटकलबाजियों पर – मोदी एस.आई.टी. के सम्मुख पेश होंगे कि नहीं – विराम भी लग गया। ज्ञात हो कि 2002 गुजरात नरसंहार के बारह बड़े मामलों की जाँच के लिए एस.आई.टी. के गठन का आदेश उच्चतम न्यायालय ने 2008 में दिया था। स्वयं सुप्रीम कोर्ट इस बात से सहमत था कि राज्य सरकार के अधीन स्वतन्त्र और निष्पक्ष जाँच सम्भव नहीं। एस.आई.टी. द्वारा मोदी को समन जारी करने की मुख्य वजह गुजरात नरसंहार के दौरान गुलबर्ग हाउसिंग सोसाइटी काण्ड में मारे गए काँगे्रस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी की पत्नी ज़ाकिया जाफरी द्वारा दर्ज करायी गयी शिकायत है जिसमें उन्होंने मोदी, उनके मन्त्रीमण्डल के कई सदस्यों और कई आला नौकरशाहों और पुलिस अफसरों पर दंगों के दौरान हिंसा भड़काने में मदद का या जान–बूझकर निष्क्रियता बरतने का आरोप लगाया है। यदि एस.आई.टी. की जाँच सही दिशा में आगे बढ़ती है और अपनी तार्किक परिणति तक पहुँचती है तो मोदी समेत 62 अभियुक्तों के खिलाफ ताज़ा एफ.आई.आर. दर्ज की जा सकेगी। इस सम्भावना से भारत की सुप्रसिद्ध सेक्युलर न्यायप्रिय ‘सिविल सोसायटी’ हर्षातिरेक की अवस्था में है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या एस.आई.टी. द्वारा की जा रही तहकीकात वाकई गुजरात नरसंहार के कर्ता–धर्ताओं को सज़ा दिलाने में और पीड़ितों को न्याय दिलाने में सफल हो पायेगी ? क्या यह जाँच और इसके नतीजे किसी भी रूप में साम्प्रदायिक दंगों में राज्य की प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका पर लगाम कस पायेगी ?
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि जिन 1500 से 3000 लोगों ने इस भीषण कल्तेआम में अपनी जान गँवायी, वे किसी स्वत:स्फूर्त तरीके से होने वाले साम्प्रदायिक दंगों की भेंट नहीं चढ़े। दंगे हुए नहीं थे, भड़काए गए थे। फरवरी–मार्च 2002 में गुजरात में जो कुछ हुआ, वह पूर्व–नियोजित था जिसके कार्यान्वयन में राज्य मशीनरी का हर स्तर शामिल था। एस.आई.टी. की जाँच अगर इस निष्कर्ष पर पहुंच भी जाती है, तो यह बात दीगर है कि अपराधियों को वह सज़ा मिलेगी जिसके वे वाकई हक़दार हैं। यहाँ मुद्दा केवल एस.आई.टी. की विश्वसनीयता का नहीं हैं। एस.आई.टी. के प्रमुख आर.के. राघवन ने बार–बार नरसंहार के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की है। देश भर में धर्मनिरपेक्ष लोगों की एस.आई.टी. द्वारा पेश की जाने वाली रिपोर्ट से काफी अपेक्षाएँ हैं। लेकिन ऐसे मामले में, जहाँ स्वयं राज्य की भूमिका ही एक फासिस्ट संहारक की रही हो, वहाँ चन्द लोगों के ईमानदार हो जाने से और ईमानदारी के साथ न्याय के लिए संघर्ष करने मात्र से भविष्य में ऐसी वीभत्स घटनाओं पर अंकुश नहीं लग सकता। गुजरात नरसंहार के आठ लम्बे वर्षों बाद भी अगर मोदी गुजरात का मुख्यमन्त्री हो सकते हैं और कानून के डर के बगैर खुलेआम आज़ाद घूम सकते हैं, तो यह अपने आप में इस देश की न्यायिक व्यवस्था पर सवालिया निशान खड़ा करता है। यदि मान लिया जाय कि सभी 62 मुख्य अभियुक्तों के खिलाफ नये सिरे से एफ.आई.आर. दर्ज की जाती है, तो भी इन सबको सज़ा मिलने तक की पूरी न्यायिक प्रक्रिया इतनी लम्बी होगी कि सज़ा की सुनवाई तक इन अपराधियों में कई ऐयाशी की ज़िन्दगी बसर करने के बाद स्वाभाविक मौत मर चुके होंगे। बाबरी मस्जिद मसले से लेकर 1984 के सिख–विरोधी दंगे इस बात के ज्वलन्त उदाहरण हैं। प्राथमिकी दर्ज़ होगी; फिर केस चलेगा; जितने असली गवाह वादी पक्ष पेश करेगा उतने ख़रीदे हुए गवाह प्रतिवादी पक्ष पेश करेगा; बहुत से गवाह डर से अपने बयान बदल देंगेय मामला अटक जाएगा और कई दशक तक खिंच जाएगा।
दूसरी ओर, नरसंहार के आठ साल बाद भी जिन लोगों ने सबसे अधिक क्षति उठाई, उनके जीवन में कोई बदलाव नहीं आया है। इन सभी के लिए ज़िन्दगी नर्क से कम नहीं है। अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाली पाक्षिक पात्रिका ‘‘फ्रन्टलाइन’’ के अप्रैल 9, 2010 अंक में छपे एक लेख में दंगों से पीड़ित लोगों की जीवन स्थितियों पर रोशनी डाली गयी है। फैज़ल पार्क, सिटिजन पार्क जैसे इलाकों में, जहाँ दंगा–पीड़ितों को बसाया गया है, स्थितियाँ इन्सानों के रहने लायक नहीं हैं। ये दोनों कॉलोनियाँ अहमदाबाद के ऐसे इलाकों में बसाई गई हैं जहाँ शहर भर का कूड़ा–करकट फेंका जाता है। जहाँ–तहाँ खुले गटर मौजूद हैं। गन्दगी, सड़ाँध, बीमारियाँ – ये सब इन दोनों कॉलोनियों की ख़ासियत हैं। ज़्यादातर लोग बेरोज़गार हैं, कुछेक आस–पास छोटा–मोटा धन्धा करते हैं। बच्चों के लिए आस–पास किसी स्कूल की व्यवस्था नहीं है इसलिए ज़्यादातर बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं। डिस्पेन्सरी एवं स्वास्थ्य केन्द्र भी नदारद हैं। चूंकि आसपास कोई अस्पताल या डिस्पेन्सरी नहीं है, आपातकाल की स्थिति में लोगों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है, दोनों ही इलाकों में पीने का पानी तक नसीब नहीं होता। मुश्किल से आने वाले पानी के लिए पूरे इलाके में पानी भरने की होड़ मची रहती है। गन्दे, प्रदूषित वातावरण के कारण बच्चों में साँस से जुड़ी समस्याएँ आम हैं। साफ है कि दंगों के आठ साल बाद भी यहाँ रहने वाले लोगों के हालात बद से बदतर हैं। उन्हें आज भी असुरक्षा और भय के साये तले ज़िन्दगी बसर करनी पड़ती है। जिस प्रकार हिटलर के जर्मनी में यहूदियों को घेटो इलाकों में बसाया गया था, वैसे ही हिन्दुत्व की प्रयोगशाला गुजरात में मुसलमानों को घेटोनुमा इलाकों में बसाया गया है।
इन दोनों सवालों पर ग़ौर किये बग़ैर आप विशेष जाँच दल द्वारा मोदी से पूछताछ पर खुशी मनाकर क्या कर लेंगे ? वास्तव में मोदी और उसके हत्यारे गिरोह के साथ इंसाफ़ का रास्ता जितना सीधा और सरल दिख रहा है, उतना है नहीं। अधिकांश मामलों में जैसा होता रहा है वैसा ही इस मामले में भी होने की उम्मीद सबसे ज़्यादा है। अव्वलन तो यह जाँच प्राथमिकी दर्ज होने तक भी मुश्किल से पहुँच पाएगी; कारण यह कि राज्य सरकार जाँच में किसी किस्म का सहयोग करने की बजाय राह में रोड़े अटकाएगी; पहले के जाँच दल के प्रमुख ने यही कहते हुए जाँच से अपने हाथ खींच लिये थे कि यह अर्थहीन कसरत है जो किसी परिणाम तक नहीं पहुँचेगी क्योंकि राज्य सरकार हर तरह से जाँच को मुकाम तक न पहुँचने देने के लिए अच्छी स्थिति में है; वह गवाहों को प्रभावित कर सकती है, प्रमाणों को गायब कर सकती है, जाँच अधिकारियों और कार्यकर्ताओं को भयभीत कर सकती है। दूसरी बात, अगर जाँच प्राथमिकी दर्ज़ करने की मंज़िल तक पहुँच भी गयी तो उसके बाद जो मुकदमा चलेगा वह इतनी जल्दी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचने वालाय सबसे अधिक सम्भावना इसी बात की होगी कि सबूतों और गवाहों के अन्तरविरोधी होने या अभियुक्तों के ख़िलाफ़ उनके परिणाममूलक न होने के कारण उन्हें सन्देह का लाभ देकर बाइज़्ज़त बरी कर दिया जाएगा; अगर यह मुकदमा किसी परिणाम पर पहुँचता भी है तो ज़्यादा उम्मीद यही होगी कि उस समय तक मोदी समेत उनका पूरा जनसंहारक गिरोह धर्म ध्वजा की रक्षा करने के ईनाम के रूप में स्वर्ग सिधार चुका होगा। तीसरी बात, इन सबके बावजूद पूँजीवादी वोटों की राजनीति में साम्प्रदायिकता का उपयोग होता ही रहेगा और लोगों की जानें इसकी भेंट चढ़ती ही रहेंगी। आज गुजरात में हुआ, कल कहीं और होगा। आज मोदी ने किया, कल कोई और करेगा। क्या आज़ादी के बाद के 63 वर्ष इस बात की गवाही नहीं देते ? अगर इस कुचक्र से मुक्ति पानी है तो पूरी पूँजीवादी व्यवस्था, सभ्यता और समाज के ही विकल्प के बारे में सोचना होगा। हर इंसाफ़पसन्द नौजवान का आज यही फ़र्ज़ बनता है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2010
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