Category Archives: आर्थिक संकट

भारत में नवउदारवाद की चौथाई सदी : पृष्ठभूमि और प्रभाव

नवउदारवाद के दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था  शेयर बाज़ार में दुनिया भर के सट्टेबाज़ों की आवारा पूँजी और बैंकों के क्रेडिट के बुलबुले पर टिकी हुई एक जुआघर अर्थव्यवस्था में तब्दील हो चुकी है। ऐसी जुआघर अर्थव्यवस्था का प्रतिबिम्बन राजनीति और संस्कृति में झलकना लाज़िमी है। यह महज़ इत्तेफ़ाक नहीं है कि नवउदारवाद के पिछले 25 वर्ष भारत में हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी उभार के भी वर्ष रहे हैं। इस फ़ासीवादी उभार के प्रमुख सामाजिक आधार नवउदारवादी  नीतियों से उजड़े निम्न बुर्जुआ वर्ग और उदीयमान खुशहाल मध्य वर्ग रहे हैं। इस फ़ासीवादी उभार ने नवउदारवादी नीतियों को लागू करने से होने वाले सामाजिक असन्तोष व आक्रोश को धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ गुस्से के रूप में भटकाकर भारत के बुर्जुआ वर्ग का हितपोषण किया है।

जुमले बनाम रोज़गार और विकास की स्थिति

रोज़गार की हालत तो यह हो चुकी है कि साधारण विश्वविद्यालय-कॉलेजों से पढ़ने वालों को तो रोज़गार की मन्दी में अपनी औकात पहले से ही पता थी, लेकिन अब तो आज तक ‘सौभाग्य’ के सातवें आसमान पर बैठे आईआईटी-आईआईएम वालों को भी बेरोज़गारी की आशंका सताने लगी है और इन्हें भी अब धरने-नारे की ज़रूरत महसूस होने लगी है क्योंकि मोदी जी के प्रिय ‘स्टार्टअप’ वाले उन्हें धोखा देने लगे हैं! ‘फ्लिपकार्ट’, ‘एल एण्ड टी इन्फोटेक’ जैसी कम्पनियों ने हज़ारों छात्रों को जो नौकरी के ऑफर दिये थे वे कागज के टुकड़े मात्र रह गये हैं क्योंकि अब उन्हें ‘ज्वाइन’ नहीं कराया जा रहा है!

गहराता विश्व आर्थिक संकट और जी-20 बैठक

इस बैठक के बाद जारी किये गये आधिकारिक बयान में विश्व पूँजीवाद के प्रमुख नेताओं ने यह माना कि आर्थिक संकट से अभी निजात नहीं मिली है, बल्कि यदि जल्द ही कुछ न किया गया तो आने वाले समय के अन्दर एक और मन्दी दहाने पर खड़ी है। इस बैठक से कुछ दिन पहले ही विश्व मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) ने एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें आई.एम.एफ. ने वैश्विक आर्थिक दर की वृद्धि के बारे में अपने पहले के अनुमानों को घटा दिया है। रिपोर्ट में कहा गया कि साल 2016 के दौरान वैश्विक आर्थिकी 3.2% की रफ़्तार से बढ़ेगी।

ब्रिटेन का यू‍रोपीय संघ से बाहर जाना: साम्राज्यवादी संकट के गहराते भँवर का नतीजा

ग़ौरतलब है कि 2007 के संकट के बाद से तमाम यूरोपीय देशों में जनता का सभी प्रमुख चुनावी पार्टियों पर से भरोसा उठता जा रहा है। स्पेन में दोनों प्रमुख पार्टियों के लिए समर्थन 50 प्रतिशत से नीचे गिर चुका है; सिरिज़ा की नौटंकी सामने आने के बाद ऐसे ही हालात यूनान में भी पैदा हो रहे हैं; बाकी यूरोपीय देशों में से भी तमाम देशों में ऐसे ही हालात पैदा हो रहे हैं। ऐसे में, दक्षिणपन्थी पार्टियाँ जनता के गुस्से को पूँजीवादी लूट और साम्राज्यवाद पर से हटाकर शरणार्थियों और प्रवासियों पर डालने का प्रयास कर रही हैं।

विजय माल्या तो झाँकी है, असली कहानी अभी बाकी है

भारत के रिलायंस, वेदान्ता, अदानी, जेपी जैसे सबसे बड़े औद्योगिक घराने ‘लोन डिफ़ॉल्टरों’ में सम्भावित रूप से शामिल हैं। मात्र राज्य नियंत्रित बैंकों का ही कुल ‘एन.पी.ए.’ 3.04 लाख करोड़ रुपये है। ये रक़म कितनी बड़ी है इसका अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ये भारत के कुल शिक्षा बजट का चार गुना है। ऐसा माना जा रहा है कि इसमें से एक बहुत बड़ी रकम कभी भी वापस बैंकों के पास नहीं जायेगी। स्वाभाविक ही सबसे बड़े लोन बड़े-बड़े उद्योग घरानों द्वारा लिये जाते हैं। हालाँकि रिज़र्व बैंक सहित कोई भी बैंक इन बड़े डिफ़ॉल्टरों का नाम तो सार्वजनिक नहीं करता मगर इन कम्पनियों की बैलेंस शीट से काफ़ी कुछ स्पष्ट हो जाता है। मार्च 2015 में अकेले रिलायंस समूह के ऊपर कुल कर्जा रुपये 1.25 लाख करोड़ का था, कमोबेश यही हालात देश के बाकी अन्य उद्योग घरानों के भी हैं। स्पष्ट है कि इस कुल कर्जे का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा बैंकों से लिए लोन से भी आता है। स्वाभाविक ही ये उद्योग घराने ही सबसे बड़े डिफ़ॉल्टर भी होते हैं।

शेयर बाज़ार का गोरखधन्धा

शेयर बाज़ार वित्तीय बाज़ार का एक अंग है जो एक मायावी जंजाल प्रतीत होता है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे शैतान की खाला भी नहीं समझ सकती। सभी बड़े अखबारों का एक पन्ना वित्तीय बाज़ार की कारगुजारियों को ही समर्पित रहता है। समाचार चैनलों पर भी शेयरों के दामों की गतिविधियाँ मिनट-मिनट में अपडेट होती रहती हैं। निवेशकों की सेहत वित्तीय बाज़ार की सेहत से एकरूप होती है। शेयरों के बाज़ार भावों के चढ़ने-गिरने का उनकी सेहत पर भी सीधा असर पड़ता है। बिना हाथ-पैर चलाये तुरन्त अमीर बन जाने की चाहत में लोग शेयर बाज़ार में पैसा लगाते हैं और आये दिन बर्बाद होते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि हर कोई कंगाल-बर्बाद ही होता है, कुछ बड़े खिलाड़ी भी रहते हैं जो मोटा पैसा ले उड़ते हैं। यह सब कुछ कैसे घटित होता है और कैसे चन्द मिनटों में ही बाज़ार से अरबों रुपये की पूँजी छूमन्तर हो जाती है और लोग सड़कों पर आ जाते हैं, यह जानना काफ़ी दिलचस्प है।

बजट 2016: जुमलों की बारिश

एक महत्वपूर्ण तथ्य जिसको मीडिया हमेशा नजरअन्दाज कर देता है वह यह है कि बजट में जो राशि भिन्न-भिन्न मंत्रालयों और सेक्टरों को आवण्टित होती है उसका यह मतलब नहीं है कि वह उन्हें मिल गयी है अपितु वह केवल अनुमानित या घोषित राशि ही होती है। घोषित राशि और वास्तविक आवण्टित राशि के बीच का फर्क वित्तीय वर्ष के अन्त में ही पता चल पाता है। ऐसे में वित्तीय वर्ष के शुरू में बड़ी-बड़ी घोषणाएँ करना वित्त मन्त्री महोदय के लिए काफ़ी आसान होता है।

अब चीन की मन्दी से बेहाल विश्व पूँजीवाद

आज चीन की आर्थिक व्यवस्था डाँवाडोल है। विश्व आर्थिक व्यवस्था में पुएर्तो रिको, ब्राज़ील, पुर्तगाल, आइसलैण्ड, इटली, यूनान, स्पेन व अन्य देश अभी भी मन्दी से उबर नहीं पाए हैं, वहीं चीन वैश्विक व्यवस्था को एक और बड़े संकट की तरफ खींच कर ले जा रहा है जो दुनिया भर के पूँजीपतियों के लिए चिन्ता का सबब है। अगर हम चीन के राजनीतिक इतिहास पर एक नज़र डाल लें तो इस विषय में गहराई में उतरने में आसानी रहेगी। आज चीन में “बाज़ार समाजवाद” का जुमला नंगा हो चुका है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी एक सामाजिक फासीवादी पार्टी है। माओ की मृत्यु के बाद देंग सियाओ पिंग ने कम्युनिस्ट पार्टी पर बुर्जुआ वर्ग का नियंत्रण पक्का किया। चीन ने 1976 से पूँजीवाद में संक्रमण किया था और आज पूर्ण रूप से वित्तीय पूँजी के विकराल भूमण्डलीय तंत्र का एक अभिन्‍न हिस्सा है। अमरीका की सबसे बड़ी आईटी कम्पनियों को सस्ता श्रम और ज़मीन देकर चीन की अर्थव्यवस्था विस्तारित हुई है। इस मुकाम तक पहुँचने के लिए ‘बाज़ार समाजवाद’ कई दौर से होकर गुज़रा। कम्यून और क्रान्तिकारी कमिटियों को भंग करने के बाद 1990 के दशक में बड़े स्तर पर राज्य द्वारा संचालित कम्पनियों का निजीकरण शुरू हुआ और 21वीं शताब्दी में प्रवेश के दौरान कई विदेशी कम्पनियों ने चीन में प्रवेश किया। चीनी राज्य ने मज़दूरों को मिलने वाली स्वास्थ्य, शिक्षा सुविधाओं से भी अपने हाथ खींच लिए। आज के चीन की बात करें तो चीन में अमीर-ग़रीब की खाई पिछले 10 सालों में बेहद अधिक बढ़ी है। चीन की नामधारी कम्युनिस्ट पार्टी के खरबपति “कॅामरेड” और उनकी ऐय्याश सन्तानों का गिरोह व निजी पूँजीपति चीन की सारी सम्पत्ति का दोहन कर रहे हैं। चीन के सिर्फ़ 0.4 फीसदी घरानों का 70 फीसदी सम्पत्ति पर कब्ज़ा है। यह सब राज्य ने मज़दूरों के सस्ते श्रम को लूट कर हासिल किया है।

यूनानी त्रासदी के भरतवाक्य के लेखन की तैयारी

अगर हम 2010 से अब तक यूनान को मिले साम्राज्यवादी ऋण के आकार और उसके ख़र्च के मदों पर निगाह डालें तो हम पाते हैं कि इसका बेहद छोटा हिस्सा जनता पर ख़र्च हुआ और अधिकांश पुराने ऋणों की किश्तें चुकाने पर ही ख़र्च हुआ है। दूसरे शब्दों में इस बेलआउट पैकेज से भी तमाम निजी बैंकों, वित्तीय संस्थाओं और यूरोपीय संघ, ईसीबी व आईएमएफ़ में जमकर कमाई की है! मार्च 2010 से लेकर जून 2013 तक साम्राज्यवादी त्रयी ने यूनान को 206.9 अरब यूरो का कर्ज़ दिया। इसमें से 28 प्रतिशत का इस्तेमाल यूनानी बैंकों को तरलता के संकट से उबारने के लिए हुआ, यानी, दीवालिया हो चुके बैंकों को यह पैसा दिया गया। करीब 49 प्रतिशत हिस्सा सीधे यूनान के ऋणदाताओं के पास किश्तों के भुगतान के रूप में चला गया, जिनमें मुख्य तौर पर जर्मन और फ्रांसीसी बैंक शामिल थे। कहने के लिए 22 प्रतिशत राष्ट्रीय बजट में गया, लेकिन अगर इसे भी अलग-अलग करके देखें तो पाते हैं कि इसमें से 16 प्रतिशत कर्ज़ पर ब्याज़ के रूप में साम्राज्यवादी वित्तीय एजेंसियों को चुका दिया गया। बाकी बचा 6 प्रतिशत यानी लगभग 12.1 अरब यूरो। इस 12.1 अरब यूरो में से 10 प्रतिशत सैन्य ख़र्च में चला गया। यानी कि जनता के ऊपर जो ख़र्च हुआ वह नगण्य था! 2008 में यूनान का ऋण उसके सकल घरेलू उत्पाद का 113.9 प्रतिशत था जो 2013 में बढ़कर 161 प्रतिशत हो चुका था! सामाजिक ख़र्चों में कटौती के कारण जनता के उपभोग और माँग में बेहद भारी गिरावट आयी है। इसके कारण पूरे देश की अर्थव्यवस्था का आकार ही सिंकुड़ गया है। 2008 से लेकर 2013 के बीच यूनान के सकल घरेलू उत्पाद में 31 प्रतिशत की गिरावट आयी है, जिस उदार से उदार अर्थशास्त्री महामन्दी क़रार देगा। आज नौजवानों के बीच बेरोज़गारी 60 प्रतिशत के करीब है।

‘वाम को प्रतिक्रियात्मक रक्षावाद से आगे बढना होगा’

दक्षिणपंथी उग्रवाद के अन्य रूपों से अलग, फासीवाद एक जनान्दोलन है जिसका कि एक सामाजिक जनाधार है जिसमें मुख्यत परिवर्ती वर्ग आते हैं, जैसे पेशेवर और गैर-पेशेवर निम्न बुर्जुआ वर्ग जिसे जर्मन ‘मितेलस्टैण्ड’ कहते थे, जिसमें निम्न व्यवसायियों, छोटे व्यापारियों, दलाल, प्रोपर्टी डीलरों, दुकानदारों व निम्न मध्यम वर्ग के अन्य हिस्सों का पूरा वर्ग शामिल है। इसके अतिरिक्त, फासीवाद के सामाजिक आधार में लम्पट सर्वहारा के एक हिस्से के साथ ही असंगठित मज़दूर वर्ग, खासकर वो जिसमें किसी मजदूर संगठन, जैसे ट्रेड यूनियन में कोई राजनीतिक शिक्षा पाने का अभाव होता है, भी शामिल हैं। पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष में निम्न मध्य वर्ग सर्वहारा वर्ग का एक सम्भावित सहयोगी है। हालांकि, क्रान्तिकारी ताकतों के एक संगठित हस्तक्षेप के अभाव में यह अक्सर उनकी राजनीतिक पहुँच से बाहर छूट जाता है जो कि बदले में इसे फासीवादी राजनीति की ओर ले जाता है, विशेषकर राजनीतिक व आर्थिक संकट के समय में, क्योंकि इसकी नाजुक सामाजिक स्थिरता खतरे में पड जाती है और इसे इस बात की कोई समझदारी नहीं होती कि इस सामाजिक व आर्थिक असुरक्षा व अनिश्चितता के लिए कौन जिम्मेदार है? यह हताशा इस वर्ग को फासीवादी प्रचार के लिए विशेष रूप से भेद्य बना देती है।