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चीन का आगामी ऋण संकट वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक तीखा मोड़

सभी अर्थशास्त्री यह अनुमान लगा रहे हैं कि यह ऋण संकट आने वाले समय में दो रुख ले सकता है –या तो अमेरिकी तर्ज़ पर बैंकों के बड़े स्तर पर दिवालिया होने की ओर बढ़ सकता है और या फिर जापानी तर्ज़ पर चीन लम्बे समय के लिये बेहद कम आर्थिक वृद्धि दर का शिकार हो सकता है। और यह दोनों ही सूरतेहाल चीनी अर्थव्यवस्था के लिये और पूरे वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिये भयानक है। हड़बड़ाहट में बुर्जुआ अर्थशास्त्री चीन पर अब इलज़ाम लगा रहे हैं कि उसने अपने ऋण को कंट्रोल में क्यों नहीं रखा, क्यों इस की मात्रा इतनी बढ़ने दी। दरअसल यह संकट के समय आपस में तीखे हो रहे पूँजीवादी अन्तर्विरोधों का ही इज़हार हो रहा है।

अब चीन की मन्दी से बेहाल विश्व पूँजीवाद

आज चीन की आर्थिक व्यवस्था डाँवाडोल है। विश्व आर्थिक व्यवस्था में पुएर्तो रिको, ब्राज़ील, पुर्तगाल, आइसलैण्ड, इटली, यूनान, स्पेन व अन्य देश अभी भी मन्दी से उबर नहीं पाए हैं, वहीं चीन वैश्विक व्यवस्था को एक और बड़े संकट की तरफ खींच कर ले जा रहा है जो दुनिया भर के पूँजीपतियों के लिए चिन्ता का सबब है। अगर हम चीन के राजनीतिक इतिहास पर एक नज़र डाल लें तो इस विषय में गहराई में उतरने में आसानी रहेगी। आज चीन में “बाज़ार समाजवाद” का जुमला नंगा हो चुका है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी एक सामाजिक फासीवादी पार्टी है। माओ की मृत्यु के बाद देंग सियाओ पिंग ने कम्युनिस्ट पार्टी पर बुर्जुआ वर्ग का नियंत्रण पक्का किया। चीन ने 1976 से पूँजीवाद में संक्रमण किया था और आज पूर्ण रूप से वित्तीय पूँजी के विकराल भूमण्डलीय तंत्र का एक अभिन्‍न हिस्सा है। अमरीका की सबसे बड़ी आईटी कम्पनियों को सस्ता श्रम और ज़मीन देकर चीन की अर्थव्यवस्था विस्तारित हुई है। इस मुकाम तक पहुँचने के लिए ‘बाज़ार समाजवाद’ कई दौर से होकर गुज़रा। कम्यून और क्रान्तिकारी कमिटियों को भंग करने के बाद 1990 के दशक में बड़े स्तर पर राज्य द्वारा संचालित कम्पनियों का निजीकरण शुरू हुआ और 21वीं शताब्दी में प्रवेश के दौरान कई विदेशी कम्पनियों ने चीन में प्रवेश किया। चीनी राज्य ने मज़दूरों को मिलने वाली स्वास्थ्य, शिक्षा सुविधाओं से भी अपने हाथ खींच लिए। आज के चीन की बात करें तो चीन में अमीर-ग़रीब की खाई पिछले 10 सालों में बेहद अधिक बढ़ी है। चीन की नामधारी कम्युनिस्ट पार्टी के खरबपति “कॅामरेड” और उनकी ऐय्याश सन्तानों का गिरोह व निजी पूँजीपति चीन की सारी सम्पत्ति का दोहन कर रहे हैं। चीन के सिर्फ़ 0.4 फीसदी घरानों का 70 फीसदी सम्पत्ति पर कब्ज़ा है। यह सब राज्य ने मज़दूरों के सस्ते श्रम को लूट कर हासिल किया है।

साम्राज्यवाद की सेवा का मेवा

पिछले कुछ समय में जिन लोगों को शान्ति का नोबेल पुरस्कार दिया गया है, उसने तो नोबेल की विश्वसनीयता पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया है। अब बराक ओबामा, अल-गोर, हेनरी किसिंगर जैसे साम्राज्यवादी हत्यारों को क्या सोचकर नोबेल का शान्ति पुरस्कार दिया गया है, इस पर अलग से अनुसन्धान की आवश्यकता पड़ेगी! कुल मिलाकर, इस बार लियू ज़ियाओबो को जो नोबेल शान्ति पुरस्कार मिला है और अतीत में जिन शान्तिदूतों को यह पुरस्कार दिया जाता रहा है, वह नोबेल पुरस्कार के पीछे काम करने वाली पूरी राजनीति का चेहरा साफ कर देता है।

चीन के सामाजिक फासीवादी शासकों का चरित्र एक बार फिर बेनकाब

1976 में माओ की मृत्यु के बाद से चीन ने समाजवाद के मार्ग से विपथगमन किया और देघपन्थी ‘‘बाज़ार समाजवाद’‘ का चोला अपना लिया। इसके बाद से मेहनतकश आबादी की जीवन स्थितियाँ लगातार रसातल में जा रही हैं। हर साल कोयला खदानों में ही हज़ारों मज़दूर अपनी जान गवाँ देते हैं तो दूसरी तरफ समाजवादी व्यवस्था की ताकत की नींव पर खड़े होकर संशोधनवादी शासक आज साम्राज्यवादी ताकत के रूप में उभर रहे हैं। यही कारण है कि चीन में अरबपतियों और करोड़पति पूँजीपतियों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। 2006 की ‘फॉर्चून’ पत्रिका के अनुसार दुनिया के अरबपतियों की सूची में सात चीनी उद्योगपति थे। ये तस्वीरें चीन में अमीर-ग़रीब की बढ़ती खाई को दिखाती हैं।