ब्रिटेन का यू‍रोपीय संघ से बाहर जाना: साम्राज्यवादी संकट के गहराते भँवर का नतीजा

शिशिर

24 जून को जब ब्रेक्जि़ट (ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से बाहर जाना) के लिए हुए जनमत संग्रह की गिनती अभी पूरी भी नहीं हुई थी, तभी से ब्रिटिश पाउण्ड का लड़खड़ाना शुरू हो चुका था। जब नतीजे आये तो उन्होंने ब्रिटेन ही नहीं बल्कि दुनिया के आर्थिक और राजनीतिक विश्व में एक भूकम्प ला दिया। 52 प्रतिशत लोगों ने यूरोपीय संघ से बाहर जाने के पक्ष में वोट किया। 48 प्रतिशत लोगों ने विरोध में। 1992 में हुए चुनावों के बाद इस जनमत संग्रह में सबसे ज्यादा वोटरों ने हिस्सा लिया। 72 प्रतिशत लोगों ने इस जनमत संग्रह में वोट किया। ब्रिटेन 1973 से यूरोपीय संघ का हिस्सा था, हालाँकि सत्रह वर्ष पहले बने यूरोज़ोन का हिस्सा ब्रिटेन नहीं बना था। इसके बावजूद, ब्रिटेन यूरोज़ोन की तीन बड़ी शक्तियों में से एक था। एकल बाज़ार की स्थापना से लेकर भूतपूर्व ईस्टर्न ब्लॉक के देशों को यूरोपीय संघ में शामिल करने और साथ ही यूरोपीय संघ को नवउदारवादी सहमति के अनुसार संरचनाबद्ध करने में ब्रिटेन की एक अग्रणी भूमिका रही थी। निश्चित रूप से, ब्रिटेन का राजनीतिक प्रभाव जर्मनी या फ्रांस जितना नहीं था, मगर वह यूरोपीय संघ की तीन बड़ी आर्थिक शक्तियों में से एक था, इसमें कोई सन्देह नहीं हो सकता है।

ब्रेक्जि़ट के बाद राजनीतिक दुनिया में आये भूकम्प के नतीजे साम्राज्यवादी विश्व के लिए भयंकर हैं। 75 प्रतिशत से ज़्यादा ब्रिटिश सांसद यूरोपीय संघ में रहने के पक्षधर थे। वास्तव में ‘यूनाइटेड किंगडम इण्डिपेण्डेंस पार्टी’ और ‘कंज़र्वेटिव पार्टी’ के माइकल गोव और बोरिस जॉनसन जैसे कुछ नेताओं को छोड़ दिया जाय, तो कोई भी ब्रेक्जि़ट के पक्ष में नहीं था। साथ ही, ‘बैंक ऑफ इंग्लैण्ड’, ‘आईएमएफ’ से लेकर यूरोपीय संघ के अधिकारी तक इसके विरोध में थे। यहाँ तक कि ‘लेबर पार्टी’ के वाम धड़े की नुमाइन्दगी करने वाले और फिलहाल उसके नेता जेरेमी कॉर्बिन भी यूरोपीय संघ को कोई बहुत अच्छा विकल्प न मानते हुए भी संघ में बने रहने के पक्षधर थे। इसके बावजूद, वोटरों के बहुलांश ने संघ को छोड़ने के लिए वोट दिया। इसने ब्रिटेन के समूचे बुर्जुआ राजनीतिक वर्ग को चौंका दिया है।

इस आश्चर्यजनक नतीजे ने बारीक सन्तुलन पर टिकी क्षणभंगुर राजनीतिक यथास्थिति को डगमगा दिया है और भविष्य में इसके दूरगामी परिणाम सामने आने वाले हैं। तात्कालिक नतीजा तो यही है कि डेविड कैमरन को इस्तीफा देना पड़ रहा है। उनकी जगह कोई ऐसा टोरी नेता लेगा जो शायद जनता द्वारा चुना भी न गया हो। स्कॉटलैण्ड में बहुसंख्यक वोटरों ने यूरोपीय संघ में रहने के लिए वोट किया था, इसलिए ‘स्कॉटिश नेशनल पार्टी’ की नेता निकोला स्टयर्जन ने कहा है कि स्कॉटलैण्ड ब्रिटेन से अलग होने के लिए दूसरा जनमत संग्रह करवा सकता है। आयरलैण्ड की पार्टी ‘सीनफिन’ ने भी आयरलैण्ड और ‘रिपब्लिक ऑफ नॉर्दर्न आयरलैण्ड’ के एकीकरण की बात की है। आयरलैण्ड पहले ही यूरोपीय संघ का हिस्सा है और ‘नॉर्दर्न’ आयरलैण्ड में बहुसंख्या ने संघ में रहने के लिए वोट दिया है। स्पेन ने जिब्राल्टर के यूनाइटेड किंगडम के साथ संयुक्त प्रशासन की माँग की है क्योंकि वहाँ की ब्रिटिश आबादी के 96 प्रतिशत ने संघ में रहने के लिए वोट दिया है। ब्रिटेन के इस जनमत संग्रह के नतीजे सामने आने के बाद नीदरलैण्ड और फ्रांस तक में यूरोपीय संघ से बाहर जाने के लिए जनमत संग्रह की बातें होने लगीं हैं। ऐसे में, एक ‘डॉमिनो इफेक्टि’ का डर भी साम्राज्यवादी विश्व के सरदारों को सता रहा है। क्योंकि सिर्फ़ ब्रिटेन के बाहर जाने के तात्कालिक आर्थिक नतीजों ने साम्राज्यवादी अर्थशास्त्रियों की साँस बनियान में ही अटका दी है। जनमत संग्रह के नतीजों के तुरन्त बाद ही पाउण्ड तीन दशकों में डॉलर के समक्ष अपने निम्नतम स्तर पर चला गया है। यह लेख लिखे जाने तक दुनिया भर के स्टॉक एक्सचेंज बुरी तरह से डगमगाये हुए हैं।

ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से बाहर जाने पर न सिर्फ़ नवउदारवादी विशेषज्ञ रो रहे हैं, बल्कि कई सामाजिक-जनवादी, वामपन्थी अर्थशास्त्री भी रो रहे हैं। नवउदारवादी विशेषज्ञ इसलिए रो रहे हैं क्योंकि वे भूमण्डलीकरण और नवउदारवाद के एक मॉडल के तौर पर यूरोपीय संघ के बिखराव पर दुखी हैं। तमाम सामाजिक-जनवादी और वामपन्थी इसलिए रो रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि बाहर जाने का वोट वास्तव में नस्लवाद के पक्ष में और शरणार्थियों व प्रवासियों के विरुद्ध दिया गया वोट है। तमाम ‘सेण्ट्रिस्ट’ राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री  उपरोक्त दोनों ही कारणों से रो रहे हैं। ऐसे में, यह समझना ज़रूरी है कि वामपन्थी क्रान्तिकारियों को इस घटना को किस रूप में देखना चाहिए और इस पर क्या अवस्थिति अपनानी चाहिए। ज़ाहिर है, कि जो भूमण्डलीकरण के मॉडल की असफलता के उदाहरण के रूप में यूरोपीय संघ के बिखराव को देख रहे हैं और इस पर छाती पीट रहे हैं, उनके बारे में ज़्यादा शब्द ख़र्च करने का कोई फ़ायदा नहीं है। सही अवस्थिति को स्पष्ट, करने के लिए हमें तमाम यूरोपीय सामाजिक-जनवादियों और संसदीय वामपन्थियों  की अवस्थिति की पड़ताल करने की दरकार है।

ज़्यादातर वामपन्थियों ने जनमत संग्रह के नतीजों को नस्लवाद की विजय के रूप में व्याख्यायित किया है। लेकिन वास्तव में इन नतीजों को नस्लवाद, ज़ेनोफोबिया और राष्ट्रवाद की विजय पर अपचयित करना एक भारी भूल और नादानी भरा राजनीतिक अतिसरलीकरण है। यह वर्ग विश्लेषण को छोड़ने के समान है। ऐसा विश्लेषण यह नहीं समझ पाता कि जब भी समाज में मौजूद अन्तरविरोध सही राजनीतिक अभिव्यक्ति नहीं पाते, तो फिर वे प्रतिक्रियावादी विचारधारात्मक व राजनीतिक अभिव्यक्ति पाते हैं। निश्चित तौर पर, साम्राज्यवादी संकट, प्रवासी संकट (जो कि साम्राज्यवादी संकट की तमाम अभिव्यक्तियों में से ही एक है), बेरोज़गारी, बेघरी और ग़रीबी के संकट के जवाब में यूरोपीय संघ में रहने या उसे छोड़ने के विकल्प अपने आप में विकल्प थे ही नहीं। लेकिन जब भी पूँजीवादी संकट के समाधान का सही प्रगतिशील रास्ता सही रूप में प्रस्तुत नहीं होगा, तो दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावाद और साथ ही वामपन्थी लोकरंजकतावाद (जो कि रो-गाकर दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावाद के ही पीछे घिसटता है) हावी होगा। संघ को छोड़ने के जनता के फैसले के पीछे कुछ ऐसी ही स्थिति बनी हुई थी।

जैसा कि हमने कहा ब्रिटेन द्वारा यूरोपीय संघ को छोड़ने के वोट से यह नतीजा नहीं निकाला जा सकता है कि जनता ने नस्लवाद, राष्ट्रवाद और प्रवासी-विरोध को जनादेश दे दिया है। यह वास्तव में साम्राज्यवादी यूरोपीय संघ की आर्थिक नीतियों के विरुद्ध आम मेहनतकश जनता के रोष की अभिव्यक्ति है। यह शासन करने वाले राजनीतिक कुलीन वर्ग और मुनाफ़े  की हवस में अन्धे कारपोरेट घरानों के विरुद्ध आम मेहनतकश जनसमुदायों का विद्रोह है। अगर हम वोटिंग के आँकड़ों को ग़ौर से देखें तो यह बात साफ हो जाती है। मज़दूर आबादी के करीब 66 प्रतिशत हिस्से ने यूरोपीय संघ को छोड़ने के पक्ष में वोट किया। प्रशासनिक, प्रबन्धकीय नौकरियाँ करने वाले मध्यवर्ग के करीब 43 प्रतिशत ने संघ को छोड़ने का पक्ष लिया। एशियाई मूल के करीब 33 प्रतिशत से ज्यादा लोगों ने यूरोपीय संघ को छोड़ने के पक्ष में मत दिया। वहीं 25 प्रतिशत से ज्यादा काले लोगों की आबादी ने भी यूरोपीय संघ को छोड़ने पर हामी भरी। स्पष्ट है कि गैर-श्वेत आबादी के अच्छे -खासे हिस्से  ने यूरोपीय संघ को छोड़ने की राय ज़ाहिर की है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि जिन जनसमुदायों या आयसमूहों या जातीयसमूहों की हम बात कर रहे हैं, उनका अधिकांश हिस्सा  मेहनतकश वर्ग से आता है। ऐसे में, इन वर्गों ने और विशेष तौर पर एशियाई या काले लोगों के अच्छे-खासे हिस्से ने यूरोपीय संघ को छोड़ने के लिए क्यों  वोट किया? केवल इसी तथ्य से स्पष्ट है कि इस जनमत को अतिसरलीकृत कर नस्लवाद या राष्ट्रवाद के पक्ष में दिया गया वोट नहीं कहा जा सकता है।

यूरोपीय संघ शुरू से ही एक नवउदारवादी निकाय रहा है। कहने के लिए यह द्वितीय विश्वयुद्ध के विनाश के मद्देनज़र यूरोप को राजनीतिक रूप से एकजुट करने के लिए स्थापित किया गया था। निश्चित तौर पर यह भी एक कारण हो सकता है। लेकिन इसकी ऐतिहासिक भूमिका यूरोपीय बड़ी पूँजी के हितों और आवश्यकताओं के अनुसार नीतियों को सूत्रबद्ध करना और उनका कार्यान्वयन करना और नवउदारवादी भूमण्डलीकरण की नीतियों को लागू करना ज़्यादा  रहा है। क्या यह भूला जा सकता है कि इसी यूरोपीय संघ ने लम्बे समय से अमेरिकी साम्राज्यवाद के कनिष्ठ साझीदार की भूमिका निभायी है और पूर्वी ब्लॉक के विघटन के बाद उसे साम्राज्यववादी वर्चस्व के मातहत लाने में महती भूमिका निभायी थी; क्या हम भूल सकते हैं कि 2007 की मन्दी की शुरुआत के बाद से यूनानी जनता को थोपी गयी किफायतसारी की नीतियों के तहत कुचलने का काम इसी यूरोपीय संघ ने किया था; फ्रांस में ओलांदे सरकार के मज़दूरों और छात्रों पर हमले का भी पुरज़ोर समर्थन इसी यूरोपीय संघ ने किया है; यह भी याद रखने की ज़रूरत है कि वित्तीय बड़ी पूँजी की मुनाफ़े  की हवस से पैदा हुई मन्दी की कीमत जनता से वसूलने और बैंकों और पूँजीपतियों को मन्दी़ के भँवर से निकालने के लिए जनता के पैसों पर बचाव पैकेज देने का कार्य भी इसी यूरापीय संघ ने किया है; मध्यपूर्व और उत्तरी अफ्रीका में साम्राज्यवादी लूट और सैन्य हस्तक्षेप और साथ ही इज़रायली हत्यारों को भी खुला या प्रच्छन्न समर्थन देने का काम यूरोपीय संघ करता रहा है; सीरिया में और लीबिया में आज जो हालात हैं, उसके लिए यूरोपीय संघ अमेरिका से कम जि़म्मेदार नहीं है; अमेरिका के साथ धुर साम्राज्यवादी और जनविरोधी ट्रांसएटलाण्टिक ट्रेड एण्ड इन्वे‍स्टमेण्टल पार्टनरशिप पर हस्ताक्षर का प्रयास भी यही यूरोपीय संघ कर रहा है। यूरोपीय संघ वास्तव में राजनीतिक एकीकरण और यूरोपीय उदारवाद के नुमाइन्दगी के नाम पर वास्तव में यूरोपीय साम्राज्यवादी पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करता रहा है। इस प्रक्रिया में इसने दुनिया भर में यूरोपीय बड़े पूँजीपति वर्ग विशेष तौर पर जर्मन बड़े पूँजीपति वर्ग की महत्वाकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व तो किया ही है, साथ ही, अमेरिकी साम्राज्यवाद के अपराधों में सह-अपराधी की भूमिका भी निभायी है। इसके अलावा, इसने स्वयं यूरोप के आम मेहनतकश लोगों को लूटने में साम्राज्यवादी पूँजी का पूरा सहयोग और समर्थन किया है। विशेष तौर पर, दक्षिण और पूर्वी यूरोप के तमाम देशों में यूरोपीय संघ का पूँजीवादी-साम्राज्यवादी चरित्र खुलकर सामने आ चुका है।

ऐसे में, ब्रिटेन में व्यापक मज़दूर आबादी द्वारा यूरोपीय संघ को ब्रसेल्स में बैठे तकनोशाह कुलीन वर्ग की तानाशाही के उपकरण के रूप में देखा जाता है, जो कि खुले तौर पर बड़ी वित्तीय पूँजी की सेवा का कार्य करता है। यही कारण है कि मज़दूर आबादी के अच्छे-खासे हिस्से ने यूरोपीय संघ से बाहर जाने के लिए वोट किया। निश्चित तौर पर यह एक नकारात्मक प्रतिक्रियात्मक कदम है और इस कदम में अपने आप में कुछ प्रगतिशील नहीं दिखायी पड़ता। यह भी सच है कि साम्राज्यवादी व्यवस्था द्वारा विशेष तौर पर 2007 में मन्दी की शुरुआत के बाद से जो अनिश्चितता और असुरक्षा का माहौल पैदा हुआ है, उसमें ब्रिटिश और साथ ही अन्य यूरोपीय देशों का मज़दूर वर्ग गुस्से में है। यह गुस्सा कई बार व्यवस्था-विरोधी होने के साथ ही साथ नस्लवाद और राष्ट्रवाद जैसे वायरसों से भी ग्रस्त‍ होता है। ब्रेक्जि़ट वोट में भी नस्लवाद के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता है। विशेष तौर पर, मन्दी के दौर में पैदा अनिश्चितता में और किसी वामपन्थी क्रान्तिकारी विकल्प  की अनुपस्थिति में जनता का व्यवस्था विरोधी गुस्सा कई बार दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावाद और फासीवाद तथा कट्टरपन्थ  द्वारा उछाले जा रहे जुमलों के प्रभाव में भी आ जाता है। ब्रेक्जि़ट वोट के ठीक पहले के सप्ताहों में ऐसा हो भी रहा था। दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावादी जैसे कि निजेल फैरेज (यूकेआईपी का नेता) यह दावा कर रहा था कि संघ की सदस्यता के कारण ब्रिटेन अपनी राष्ट्रीय स्वास्थ्य व्यवस्था पर 350 मिलियन पाउण्ड खर्च नहीं कर पा रहा है। वोट के ठीक बाद उसने बोला कि यह आँकड़ा सही नहीं है। यानी, जनता के जिस हिस्से ने यह सोच कर यूरोपीय संघ से निकलने का वोट डाला था कि इससे उसे सस्ती, या नि:शुल्क राजकीय स्वास्थ्य सेवा मिलेगी, उसके साथ एक भारी धोखा हुआ। साथ ही, दक्षिणपन्थी टोरी नेता बोरिस जॉनसन वोट के पहले यह दावा कर रहा था कि यूरोपीय संघ की सदस्यता छोड़ने के बाद प्रवासी और शरणार्थी संकट का समाधान हो जायेगा। लेकिन जनमत संग्रह के ठीक बाद जॉनसन ने कहा कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है और वास्तव में प्रवासी ब्रिटेन आते रहेंगे, और इस मामले में ब्रिटेन दिल से यूरोपीय बना रहेगा। स्पष्ट है कि पूँजीपति वर्ग को हमेशा ही प्रवासियों का सस्ता और अरक्षित श्रम चाहिए होता है। ऐसे में, एक ओर प्रवासियों के मुद्दे को लेकर पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग को बाँटता है और वहीं दूसरी ओर वह प्रवासियों पर पूरी तरह रोक भी नहीं लगाता; बस उन्हें तरह-तरह की बाधाएँ लगाकर और ज्यादा अरक्षित बनाता है। इस प्रकार प्रवासियों का आगमन पूँजीपति वर्ग के लिए राजनीतिक और आर्थिक दोनों ही तरह से उपयोगी होता है।

क्रान्ति का विज्ञान बताता है कि मज़दूर वर्ग अपने दिमाग़ में अक्सर कई प्रकार के अन्तरविरोधी विचारों का एक मिश्रण रखे रहता है। इनमें से कुछ मज़दूर वर्गीय सचेतन राजनीतिक विचार होते हैं, जैसे कि वर्ग एकजुटता और पूँजीवाद-विरोध का विचार। लेकिन साथ ही इनमें कई बार प्रतिक्रियावादी विचार भी मिश्रित होते हैं, जो कि मज़दूर वर्ग समाज से ग्रहण करता है और जो कई बार उसी पूँजीवादी विचारधारा को प्रतिबिम्बित कर रहा होता है, जिसका प्रभाव स्वयं मज़दूर वर्ग पर भी होता है। यह विचारधारा मज़दूरों को भी परस्पर प्रतिस्पर्द्धा करते वैयक्तिक नागरिकों में तब्दील करती है, जो कि नौकरियों और संसाधनों के लिए आपस में संघर्ष कर रहे होते हैं। तमाम अन्तरविरोधी विचारों का यह मिश्रण संकटकालीन क्षणों में क्रान्तिकारी दिशा में भी मोड़ा जा सकता है और प्रतिक्रियावादी दिशा में भी मोड़ा जा सकता है। निर्भर इस बात पर करता है कि क्रान्ति के अभिकर्ता ज्यादा तैयार हैं, या फिर प्रतिक्रिया के।

आज वामपन्थियों  का एक हिस्सा भी ब्रिटेन में दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावाद का जवाब एक किस्म के वामपन्थी लोकरंजकतावाद के ज़रिये देने का प्रयास कर रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि इस पद्धति से वास्तव में दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावाद ही मज़बूत होता है। मिसाल के तौर पर, प्रवासियों के प्रश्न को एक समस्या के तौर पर देखना कई वामपन्थियों को दक्षिणपन्थियों के खेमे में ले जाकर खड़ा कर देता है। कई उदारवादियों और वामपन्थियों  ने दबे स्वर में कई बार स्वीकार किया कि शरणार्थी समस्या व प्रवासी समस्या वास्तव में एक संकट पैदा कर रही है। साम्राज्यवाद से अलग करके शरणार्थी या प्रवासी समस्या को देखने का यह नज़रिया अन्तत: जनता के समक्ष दक्षिणपन्थी विचारों को मज़बूती प्रदान करता है। वास्तव में यही मौका है कि क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट यूरोपीय संघ के विरुद्ध जनता के गुस्से  के विस्फोट को सही दिशा दें और इसे साम्राज्यवाद और पूँजीवाद विरोधी जनान्दोलनों की ज़मीन बनायें।

ग़ौरतलब है कि 2007 के संकट के बाद से तमाम यूरोपीय देशों में जनता का सभी प्रमुख चुनावी पार्टियों पर से भरोसा उठता जा रहा है। स्पेन में दोनों प्रमुख पार्टियों के लिए समर्थन 50 प्रतिशत से नीचे गिर चुका है; सिरिज़ा की नौटंकी सामने आने के बाद ऐसे ही हालात यूनान में भी पैदा हो रहे हैं; बाकी यूरोपीय देशों में से भी तमाम देशों में ऐसे ही हालात पैदा हो रहे हैं। ऐसे में, दक्षिणपन्थी पार्टियाँ जनता के गुस्से को पूँजीवादी लूट और साम्राज्यवाद पर से हटाकर शरणार्थियों और प्रवासियों पर डालने का प्रयास कर रही हैं। क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों को दरकार है कि वे इसके जवाब में यूरोपीय संघ के समर्थन करने के उदारवादी ट्रैप में न फँसें। उल्टे इस पूँजीवादी-साम्राज्यवादी संकट के बरक्स उन्हें यूरोपीय संघ की एक क्रान्तिकारी आलोचना पेश करते हुए समूची व्यवस्था की एक आलोचना पेश करनी चाहिए। उन्हें यूरोपीय संघ की आलोचना को दक्षिणपन्थी और फासीवादी राजनीति के लिए छोड़ नहीं देना चाहिए और उदारवाद और सामाजिक-जनवाद की शरण नहीं लेनी चाहिए। बल्कि इस मौके पर पूरी पूँजीवादी व्यवस्था की असलियत को जनता के सामने साफ करने का ज्यादा उपयुक्त अवसर है। इस अवसर का लाभ उठाते हुए क्रान्तिकारी वाम को यूरोपव्यापी क्रान्तिकारी वाम के पुनरुत्थान की जमीन तैयार करनी चाहिए।

जो भी हो यूरोपीय संघ से बाहर जाने के ब्रिटेन के फैसले ने साम्राज्यवादी संकट के एक नये दौर की शुरुआत की है। आर्थिक संकट ने अपने आपको राजनीतिक तौर पर अभिव्यक्त किया है और यह राजनीतिक अभिव्यिक्ति आने वाले समय में पहले से जारी आर्थिक संकट को भी और ज्यादा गहरा बनायेगी। जैसा कि माओ ने कहा था, ‘सूर्य के नीचे हर चीज़ भयंकर अराजकता में है; यह एक शानदार स्थिति है।’ l

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मई-जून 2016

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