Category Archives: आर्थिक संकट

अमेरिकी संकट से भारतीय आई. टी. सेक्टर बदहाल

नासकॉम के अनुसार भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग का 61.4 फीसदी हिस्सा अमेरिकी वित्तीय बाजार की सेवाओं पर आश्रित है, 17.8 फीसदी, इंग्लैण्ड पर और 12 प्रतिशत यूरोपीय संघ पर । प्रत्यक्षत:, भारतीय आई.टी. सेक्टर का 23 हिस्सा अमेरिकी वित्तीय बाजारों से सम्बद्ध है । सबप्राइम संकट के आने के बाद ही अमेरिकी वित्तीय बाजार में उथल–पुथल मच गयी । वहां के कई बड़े बैंक धराशायी हो गये । ऐसे में आनन–फानन में ही उन्हें भारतीय कम्पनियों को दिये गये ठेके वापस लेने के मजबूर होना पड़ा । जैसे ही उनका ठेका हाथ से निकाला, भारतीय कम्पनियों ने इसका ठीकरा फोड़ा अपने कर्मचारियों पर ।

कैसी खुशियाँ आज़ादी का कैसा शोर, राज कर रहे कफ़नखसोट-मुर्दाखोर!

जहाँ, एक ओर पिछले कुछ वर्षों में लगातार पूँजीपति घरानों की आमदनी में 150 से 200 गुणा की बढ़ोतरी हुई है, वही दूसरी ओर एक बहुत बड़ी आबादी पूँजी की मार से बेहाल हो रही है। अमीर–गरीब के बीच की खाई लगातार गहरी और चौड़ी हो रही है। नए-नए गाड़ियों के मॉडल, शॉपिंग मॉल, एयरकण्डीशन्ड अस्पताल परजीवी जमात की ऐयाशियों के लिए तैयार किए जा रहें है और इन सब के आधार पर ही सरकार ‘विकास की अवधारणा’ तय करती है। आँखों को चुंधिया देने वाली इस चकाचौंध में विलासिता के टापुओं से दूर खदेड़े जाने वाली एक बहुत बड़ी आबादी आँखों से ओझल हो रही है जो अत्यंत अमानवीय परिस्थितयों में अपना जीवन बसर करने को मजबूर है।

अमेरिकी सबप्राइम संकट: गहराते साम्राज्यवादी संकट की नयी अभिव्यक्ति

ऋण द्वारा वित्तपोषित कोई भी उपभोग, निवेश या किसी भी अन्य तरह की आर्थिक तेज़ी न सिर्फ़ वृद्धि की दर को कम करती जाती है बल्कि पूरे पूँजीवादी अर्थतंत्र को संकटों के सामने और अरक्षित बना देती है। एक ओर पूँजीवाद में अस्थिरता बढ़ती जाती है और दूसरी ओर वृद्धि भी ख़त्म होती जाती है। यानी एक मन्द मन्दी लगातार बरकरार रहती है जो समय-समय पर किसी बड़ी मन्दी में तब्दील होती रहती है। सबप्राइम संकट में यही बात साबित हो रही है। जिस-जिस बात की आशंका अर्थशास्त्रि‍यों ने अभिव्यक्त की थी, बिल्कुल वही हो रहा है। सबप्राइम संकट के कारण डॉलर का हृास हो रहा है जो पूरी विश्व अर्थव्यवस्था को एक लम्बी मन्दी की ओर धकेल रहा है। इससे बचने का कोई तात्कालिक रास्ता तो समझ में नहीं आ रहा है।

संगठित क्षेत्र में भी बेरोज़गारी में तीव्र वृद्धि

बेरोज़गारी का कारण उन्नत तकनीक नहीं है बल्कि वह उत्पादन प्रणाली व उत्पादन सम्बन्ध हैं जिनमें इन तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है। बेरोज़गारी को तो वैसे ही बेहद कम किया जा सकता है अगर मज़दूरों से जानवरों की तरह काम लेना बन्द कर दिया जाय। मिसाल के तौर पर, भारत में मज़दूरों को आज 10 से 14 घण्टे तक काम करना पड़ता है। उन्नत तकनीकों को बढ़ाकर तो लागत में सापेक्षिक कटौती की ही जाती है लेकिन साथ ही मज़दूरों के श्रम काल को बढ़ाकर उसमें निरपेक्ष रूप से भी कटौती की जाती है। ये दोनों परिघटनाएँ पूँजीवादी व्यवस्था में साथ-साथ घटित होती हैं। जबकि होना तो यह चाहिए कि उन्नत तकनीकों का प्रयोग करके श्रमकाल को घटाया जाय और कामगारों के जीवन में भी मानसिक, सांस्कृतिक उत्पादन और मनोरंजन की गुंजाइश पैदा की जाय। लेकिन मुनाफ़े की हवस में पूँजीपति वर्ग स्वयं एक पशु में तब्दील हो चुका है। मज़दूर उसके लिए महज मशीन का एक विस्तार है, कोई इंसान नहीं, जिसे वह बेतहाशा निचोड़ता है। आज अगर मज़दूरों से 6 घण्टे ही काम लिया जाय तो भी रोज़गार के अवसरों में दो से ढाई गुना की बढ़ोत्तरी हो जाएगी। लेकिन ऐसा इस पूँजीवादी व्यवस्था में असम्भव है। इसलिए बेहतर है विकल्प के बारे में सोचें।