भारत में नवउदारवाद की चौथाई सदी : पृष्ठभूमि और प्रभाव
आनन्द
2016 के जुलाई महीने में तथाकथित आर्थिक सुधारों की शुरुआत के 25 वर्ष पूरे हो गये। 1991 में जुलाई के महीने में ही तत्कालीन नव-निर्वाचित कांग्रेस सरकार का नेतृत्व कर रहे पी. वी. नरसिम्हा राव और तत्कालीन वित्त मन्त्री मनमोहन सिंह की जोड़ी ने भारत की अर्थव्यवस्था के स्वरूप में ढाँचागत बदलावों की आधारशिला रखी थी और उदारीकरण, निजीकरण व भूमण्डलीकरण की नीतियों को सुसंगत ढंग से लागू करने की शुरुआत की थी। इन नव-उदारवादी नीतियों की शुरुआत के 25 वर्ष पूरे होने पर भारत के शासक वर्ग और उसके हित साधने वाले बुद्धिजीवियों, अर्थशास्त्रियों और पत्रकारों ने जमकर जश्न मनाया। देश के प्रमुख अख़बारों में ढेरों लेख लिखे गये और टीवी चैनलों पर तमाम कार्यक्रम आयोजित किये गये जिनमें इन तथाकथित सुधारों की मुक्त कंण्ठ से प्रशंसा की गयी। अधिकांश लेखों और टीवी कार्यक्रमों में यह मानकर चला गया कि इन सुधारों से देश का भला हुआ और हर तबके की जिन्दगी बेहतर हुई। अगर कोई बहस थी तो वह इस बात को लेकर थी कि इन सुधारों की रफ़्तार संतोषजनक रही अथवा नहीं। कुछ कार्यक्रमों में बहस का दिखावा करने के लिये इन तथाकथित सुधारों के आलोचक के तौर पर संसदीय जड़वामन वामपन्थियों को भी आमंत्रित किया गया। ये जड़वामन विदूषक नवउदारवाद के खिलाफ़़ गत्ते की तलवार भाँजते वक्त इस सच्चाई को बेशर्मी से दबा गये कि नवउदारवाद के इन 25 वर्षों में वे खुद केन्द्र और राज्य दोनों ही स्तरों पर नवउदारवादी नीतियों को लागू करने के पाप में भागीदार रहे हैं। इसके अलावा उन्होंने नवउदारवाद की जो आलोचना प्रस्तुत की उसमें भी इस प्रकार के कुतर्क किये मानो 1991 के पहले भारत में समाजवादी व्यवस्था थी और देश की जनता खुशहाली में जी रही थी। नवउदारवाद का विरोध करते हुए समाधान के तौर पर ये जड़वामन उसी नेहरूवादी समाजवाद के युग की वापसी के लिये तर्क गढ़ते हैं, जोकि अब मुमकिन नहीं है।
नवउदारवादी नीतियों के लागू होने की पृष्ठभूमि
सच्चाई तो यह है कि 1991 में नवउदारवादी नीतियों को सुसंगत ढंग से लागू करने की जो शुरुआत हुई थी वो आज़ादी के बाद से जारी पब्लिक-सेक्टर पूँजीवाद के संकट से निजात पाने के लिये भारत के पूँजीपति वर्ग की सोची-समझी रणनीति थी और इस रूप में नवउदारवादी नीतियाँ तथाकथित नेहरूवादी समाजवादी नीतियों की तार्किक परिणति थीं। 1947 में भारत के नवजात बुर्जुआ वर्ग ने सत्ता तो हासिल कर ली थी, लेकिन उस समय वह इतना परिपक्व नहीं था कि वह अपने दम पर देश में बुनियादी और अवरचनागत उद्योगों का ताना-बाना खड़ा कर सकता। साथ ही भारत का पूँजीपति वर्ग अपनी राजनीतिक आज़ादी को भी खोना नहीं चाहता था और इसलिये वह पूरी तरह से विदेशी पूँजी पर निर्भर नहीं होना चाहता था। इसी वजह से आज़ादी के पहले ही 1944 में जारी बॉम्बे प्लान या टाटा-बिड़ला प्लान में भारत में पब्लिक सेक्टर के प्रभुत्व वाले पूँजीवादी विकास के रास्ते की बात की गयी थी जिसमेंं जनता की हाड़-तोड़ मेहनत से अर्जित की गयी बचत से पूँजीवादी विकास की आधारशिला तैयार करने का ब्लूप्रिंण्ट मौजूद था। आज़ादी के बाद भारत के पूँजीपति वर्ग ने इसी ब्लूप्रिंण्ट पर अमल करते हुए पब्लिक-सेक्टर पूँजीवाद का रास्ता अपनाया जिसमेंं बुनियादी और अवरचनागत उद्योगों- जिनमें फ़टाफ़ट मुनाफ़ा नहीं कमाया जा सकता था में पब्लिक सेक्टर (सार्वजनिक क्षेत्र) की प्रमुख भूमिका और उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पाादन -जिसमेंं फ़टाफ़ट मुनाफ़ा कमाया जा सकता था -में निजी क्षेत्र की प्रमुख भूमिका तय की गयी। यानी पब्लिक सेक्टर को अर्थव्यवस्था की कमाण्डिंग चोटियों पर होना था। इसके साथ ही इस मॉडल का अहम पहलू आर्थिक स्वावलम्बन के लिये आयात प्रतिस्थापन की नीति थी जिसके तहत विदेशी वस्तुओं के आयात पर नियंत्रण के लिये पाबन्दियों के प्रावधान किये गये। चूँकि उस दौर में दुनिया भर में समाजवाद की ज़बर्दस्त लोकप्रियता थी, इसलिये भारत के शासक वर्ग ने अपने पूँजीवादी चरित्र को ढँकने के लिये और आम जनता की आँख में धूल झोंकने के लिये इस राज्य पूँजीवाद को निहायत ही धूर्ततापूर्ण ढंग से समाजवाद का नाम दिया।
पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद ने देश के पूँजीवादी विकास के लिये आवश्यक बुनियादी और अवरचनागत क्षेत्रों का विकास तो किया, लेकिन जल्द ही पूँजीवादी विकास के इस मॉडल के अन्तर्विरोध भी सामने आने लगे। 1951-1965 तक औद्योगिक उत्पादन में तेज़ी देखने के बाद 1960 के उत्तरार्द्ध में भारतीय अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ गयी और 1970 के दशक में भी मन्दी का ही दौर रहा। पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद का जो ढाँचा आज़ादी के फ़ौरन बाद पूँजीपति वर्ग के हितों को ध्यान में रखते हुए खड़ा किया गया था, वही अब पूँजी के निर्बाध प्रवाह में अड़चनें पैदा कर रहा था और परिपक्व होते पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े की अन्तहीन हवस की राह में बाधा बनने लगा था।
1970 के दशक से ही पूँजीपतियों के हितों की नुमाइन्दगी करने वाले बुद्धिजीवी और अर्थशास्त्री भारत की अर्थव्यवस्था में लाइसेंस-परमिट राज के रूप में राज्य की दखलन्दाज़ी की और पूँजीपतियों के उपक्रमों में मुनाफ़ा कमाने की सीमाओं पर लगी तमाम पाबन्दियों (मसलन एमआरटीपी नियंत्रण, आयात पर लगे नियंत्रण, कीमतों पर नियंत्रण,प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआयी) पर लगे नियंत्रण आदि) एवं जनता को दी जाने वाली सब्सिडी की आलोचना करने लगे थे और भारतीय अर्थव्यवस्था में बेरोकटोक मुनाफ़ा कमाने के लिये ऐसी सारी जकड़नों को तोड़कर नंगे रूप में मुक्त बाज़ार वाले पूँजीवादी मॉडल की पैरोकारी करने लगे थे (उदाहरण के लिये जगदीश भगवती और पद्मा देसाई)। कम ही लोग यह जानते हैं कि वास्तव में 1991 में सुसंगत ढंग से नवउदारवादी नीतियों का आग़ाज़ करने से पहले ही एक सीमित स्तर पर इन नीतियों की शुरुआत 1980 के दशक में ही हो चुकी थी। 1980 के दशक के मध्य में राजीव गाँधी सरकार ने एक सीमित हद तक अर्थव्यवस्था का उदारीकरण किया था जिसके तहत 30 उद्योगों में लाइसेंस की आवश्यकता हटायी गयी थी, एमआरटीपी की सीमा (पूँजीवादी घरानों के मुनाफ़े पर लगी पाबन्दी को लचीला किया गया था और आयात पर प्रतिबन्धों में छूट दी गयी थी।
लेकिन सुसंगत ढंग से उदारीकरण, निजीकरण और भूमण्डलीकरण की नवउदारवादी नीतियों का आग़ाज़ 1991 में नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की जोड़ी ने किया। उस समय भारतीय अर्थव्यवस्था भुगतान सन्तुलन के भीषण संकट से गुज़र रही थी। विदेशी मुद्रा भण्डार तेजी से घटकर लगभग 1 बिलियन डॉलर तक पहुँच गया था जो महज़ 2 सप्ताह तक का आयात कर सकने में सक्षम था। भारत के विदेशी कर्ज़ में डिफ़ॉल्टर की नौबत आ गयी थी। 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में हालाँकि भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में पहले के मुक़ाबले तेज़ी देखने को आयी थी, लेकिन यह तेज़ी राजकोषीय प्रेरण की वजह से आयी थी जिसकी वजह से राजकोषीय घाटा भी बढ़कर जीडीपी के 10 प्रतिशत के आसपास पहुँच गया था। इस राजकोषीय घाटे को पाटने के लिये विदेशों से ऋण लिये गये जिसकी वजह से देश के कुल बाहरी कर्ज़ में ज़बर्दस्त बढ़ोत्तरी हुई। बाहरी कर्ज़ जो 1984-85 में 35 बिलियन डॉलर था, 1990-91 तक बढ़कर 69 बिलियन डॉलर हो गया था। 1990 में खाड़ी युद्ध की वजह से तेल की क़ीमतों में उछाल और अप्रवासी भारतीयों द्वारा वापस देश में भेजी जाने वाली रक़म (रेमिटांसेज़) में कमी ने इस समस्या को और गम्भीर कर दिया।
अर्थव्यवस्था के इस गम्भीर संकट ने भारत के शासक वर्ग को वह मौका दिया जिससे वह नेहरूवादी समाजवाद (पढ़िये राज्य पूँजीवाद) के लबादे को उतार फेंकने की हसरत को पूरी कर सका और यह वह परिस्थिति थी जिसमेंं नवउदारवाद की नीतियों पर अमल करने की खुले आम घोषणा की गयी। राजकोषीय घाटे पर क़ाबू पाने के नाम पर सरकार के कल्याणकारी मद में भारी कटौती की घोषणा की गयी — जिसका सीधा असर आम जनता की ज़िन्दगी पर पड़ने वाला था। इससे भी अहम बदलाव तथाकथित संरचनागत सुधार के रूप में किये गये जिसके तहत तथाकथित लाइसेंस-परमिट राज की पुरानी व्यवस्था को ध्वस्त करते हुए 18 क्षेत्रों के अलावा अन्य सभी क्षेत्रों में लाइसेंस की आवश्यकता को समाप्त कर दिया गया। सार्वजनिक क्षेत्र के लिये आरक्षित उद्योगों की संख्या को 17 से कम करके 8 कर दिया गया (जिसे बाद के वर्षों में और कम किया गया)। सार्वजनिक उपक्रमों को औने-पौने दामों में निजी हाथों में देने के लिये विनिवेश की प्रक्रिया आरम्भ की गयी। विदेशी व्यापार को प्रोत्साहन देने के नाम पर आयात शुल्क में भारी कटौती की घोषणा की गयी। विदेशी निवेश पर लगी पाबन्दियों को क्रमश: कम से कम करने की शुरुआत की गयी। इसके अतिरिक्त कर सुधारों और वित्तीय क्षेत्र के सुधारों के प्रति प्रतिबद्धता ज़ाहिर की गयी और आने वाले वर्षों में इस प्रतिबद्धता को पूरा करते हुए धनिकों पर लगने वाले करों में भारी कटौती की गयी एवं वित्तीय क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निजी खिलाड़ियों को उतारने के लिये अनुकूल माहौल बनाया गया।
भारतीय अर्थव्यवस्था में संरचनागत बदलाव लाने वाली नवउदारवादी नीतियों का अन्तरराष्ट्रीय परिवेश भी समझना बेहद ज़रूरी है। विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में नवउदारवाद की शुरुआत 1970 के दशक में हुई जब द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उभरे साम्राज्यवाद के नये चौधरी अमेरिका की अर्थव्यवस्था 1950 के दशक और 1960 के दशक के शुरुआती वर्षों के दौरान अपना स्वर्ण युग देखने के बाद मन्दी के भँवरजाल में आ फँसी थी। विश्व पूँजीवाद के इस स्वर्ण-युग की मुख्य वजह द्वितीय विश्वयुद्ध में हुई बड़े पैमाने पर तबाही से उत्पन्न हुई निवेश की नयी सम्भावनाएँ थीं। इस सम्भावना का भरपूर लाभ उठाते हुए विशेषकर अमेरिका के पूँजीपति वर्ग ने जमकर मुनाफ़ा कमाया और दुनिया भर में कम्युनिस्ट आन्दोलन के उभार से अपने देश के मज़दूर वर्ग को बचाने के मक़सद से कल्याणकारी राज्य की कीन्सियाई नीतियों को अपनाते हुए इस मुनाफ़े का एक हिस्सा मज़दूर वर्ग को रियायत भी दी।
लेकिन 1960 के दशक के उत्तरार्द्ध में इस कीन्सियाई नुस्ख़े की हवा निकलनी शुरू हो चुकी थी। 1970 के दशक तक आते-आते अमेरिकी अर्थव्यवस्था पूरी तरह मन्दी के भँवरजाल में फँस चुकी थी। साथ ही साम्राज्यवादी विश्व में अमेरिका की चौधराहट पर भी बुरा असर तब पड़ा जब डॉलर-गोल्ड स्टैं्डर्ड (जिसके तहत विदेशी व्यापार में डॉलर को सोने के समान माना जाता था) ख़त्म हो गया और डॉलर के अलावा कई अन्य मुद्राओं में विदेशी व्यापार करना सम्भव होने लगा। ये वो हालात थे जिनमें नवउदारवादी युग की शुरुआत होती है जिसके तहत कीन्सियाई कल्याणकारी (वेल्फेयर) राज्य को अलविदा (फेयरवेल) कहा गया और जनता को दी गयी तमाम सहूलियतों और रियायतों को छीनने की क़वायद शुरू की गयी। यह अर्थव्यवस्था के बड़े पैमाने पर वित्तीयकरण का भी दौर था। चूँकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मुनाफ़े की दर अपने संतृप्तता के बिन्दु तक पहुँच चुकी थी, इसलिये मुनाफ़ा कमाने के नये अवसर ढूँढने के लिये पूँजी ने तीसरी दुनिया के देशों की ओर रुख किया। उन देशों की अर्थव्यवस्थाओं के आन्तरिक संकटों का लाभ उठाते हुए विश्व मुद्रा कोष (आयीएमएफ) और विश्व बैंक के ज़रिये उन देशों की अर्थव्यवस्थाओं में विदेशी व्यापार और विदेशी निवेश पर लगी तमाम बाधाओं को ख़त्म करने के लिये प्रोत्साहित करते हुए उन्हें़ विश्व अर्थव्यवस्था से नत्थी किया और राष्ट्र राज्यों की सीमाओं के आर-पार पूँजी की बेरोकटोक आवाजाही को सुगम बनाया। तीसरी दुनिया के देशों में नवउदारवादी नीतियों को लागू करने के पहले प्रयोग लातिन अमेरिकी देशों में हुए। इसी क्रम में भारत में 1991 के भुगतान सन्तुलन के संकट ने ऐसी परिस्थिति पैदा की जिसमेंं भारत में भी नवउदारवाद के युग की शुरुआत हुई। ग़ौरतलब है कि यह ऐसी परिस्थिति थी जिसमेंं भारत के बुर्जुआ वर्ग के हित और साम्राज्यवाद के हित दोनों एक-दूसरे से मिल गये थे। इसलिये ऐसा कहना ग़लत होगा कि साम्राज्यवादियों ने आयीएमएफ और विश्वबैंक के ज़रिये भारतीय बुर्जुआ वर्ग की मर्जी के बगैर उस पर ये नीतियाँ जबरन थोप दी। यह सच है कि आयीएमएफ ने कर्ज़ के बदले में संरचनागत समायोजन कार्यक्रम के तहत उदारीकरण, निजीकरण और भूमण्ड लीकरण की नीतियों को लागू करने की शर्त रखी थी। लेकिन यह भी सच है कि भारत का बुर्जुआ वर्ग खुद भी इन नीतियों का लागू करने की प्रबल इच्छा रखता था और भुगतान संकट ने उसे वह मौका दे दिया जिसका उसने भरपूर लाभ उठाते हुए नेहरूवादी समाजवाद (राज्य पूँजीवाद) का लबादा उतार फेंका और नंगे रूप में अपने असली चरित्र की घोषणा की।
नवउदारवादी नीतियों का प्रभाव
25 वर्ष पहले भारत में नवउदारवादी नीतियों के लागू होने की पृष्ठभूमि जानने के बाद आइये देखते हैं कि इन नीतियों पर अमल से भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार के जो लम्बेे-चौड़े दावे किये जा रहे हैं उनमें कितनी सच्चाई है। इन नीतियों के पैरोकार यह दावा करते नहीं थकते कि इनकी वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था 1965 के बाद से जारी सुस्ती से उबर गयी और उसके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। मज़े की बात तो यह है कि यह दावा निहायत ही बेशर्मी से आज के दौर में भी किया जा रहा है जब पूरा विश्व पूँजीवादी मन्दी के भँवरजाल में फँसा हुआ है और पिछले कई वर्षों से भारतीय अर्थव्य वस्था की रफ़्तार भी सुस्त पड़ चुकी है। जिन आँकड़ों की बाज़ीगरी करके नवउदारवादी नीतियों के बेशर्म पैरोकार तथाकथित आर्थिक सुधारों की तारीफ़ के पुल बाँधते हैं उन्हीं को क़रीब से देखने पर इन दावों का खोखलापन भी साफ़ दिख जाता है। मिसाल के लिये नवउदारवाद के दौर में जीडीपी वृद्धि की दर पर सीना चौड़ा करते वक्त ये पैरोकार यह भूल जाते हैं कि इस वृद्धि के अनुपात में रोज़गार के अवसरों का सृजन नहीं हुआ है। भारतीय अर्थव्यवस्था के जीडीपी के संघटन की पड़ताल करने से विकास के दावे की पोल खुल जाती है। जीडीपी का 52 प्रतिशत से भी अधिक सेवा क्षेत्र से आता है, जबकि उद्योग का योगदान 30 प्रतिशत से भी नीचे है व कृषि का योगदान 17 प्रतिशत के आसपास है। नवउदारवाद के शुरुआती दौर से भारत का बुर्जुआ वर्ग देश को दुनिया का मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने के सपने देखता रहा है। लेकिन इन नीतियों के लागू होने के 25 वर्ष बाद भी भारतीय अर्थव्यवस्था में सेवा क्षेत्र का दबदबा यह साफ़ दिखा रहा है कि यह शेखचिल्ली का सपना ही साबित हुआ है। अब मोदी सरकार इसी शेखचिल्ली के पुराने सपने की रीपैकेजिंग करके ‘मेक इन इण्डिया’ के नाम से ज़ोर-शोर से बेच रही है।
नवउदारवाद के दौर में रोज़गार के आँकड़ों को देखने पर यह साफ़ हो जाता है कि रोज़गार के अवसर अव्वलन तो बहुत कम पैदा हुए, लेकिन जितने रोज़गार पैदा भी हुए उनमें से अधिकांश अनौपचारिक क्षेत्र में पैदा हुए जिसका अर्थ है सामाजिक असुरक्षा में बढ़ोत्तरी। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 1991-2013 के बीच भारत में 30 करोड़ रोज़गार चाहने वालों में से आधे से भी कम अर्थात 14 करोड़ को ही काम मिल सका। जिनको काम मिला भी उनमें से 60% को साल भर काम नहीं मिलता। कुल रोज़गार में से सिर्फ 7% ही संगठित क्षेत्र में हैं बाकी 93% असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले कामगारों को न कोई निश्चित मासिक वेतन मिलता है और न ही प्रोविडेंण्ट फण्ड या कोई अन्य सामाजिक सुरक्षा का लाभ।
नवउदारवाद के पैरोकार पूँजीवादी मीडिया के ज़रिये भले ही आम लोगों को होने वाले लाभों की अफ़वाहें उड़ायें, आँकड़े चीख-चीख कर गवाही दे रहे हैं कि उदारीकरण के 25 वर्षों के दौरान हुए रोज़गार-विहीन विकास का मुख्य लाभ बड़े पूँजीवादी घरानों को ही हुआ है। इन 25 वर्षों में पूँजी संचय कितनी तेज़ी से बढ़ा है इसे कुछ आँकड़ों से ही समझा जा सकता है। भारत में 1990 के दशक के मध्य में सिर्फ़ 2 अरबपति (डॉलर अरबपति) थे, 2016 तक अरबपतियों की संख्या 111तक पहुँच गयी। इस दौरान अरबपतियों की सम्पत्ति जीडीपी के 1 प्रतिशत से बढ़कर जीडीपी के 10 प्रतिशत से भी अधिक हो गयी। क्रेडिट स्विस की एक हालिया रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया है कि देश की कुल सम्पदा का 50 फ़ीसदी हिस्सा शीर्ष के सिर्फ़ 1 प्रतिशत लोगों के पास इकट्ठा हो गया है। कहने की ज़रूरत नहीं कि यह नवउदारवादी नीतियों का स्वाभाविक नतीजा है। बड़े पूँजीपतियों के अलावा मध्य वर्ग के एक छोटे से तबके के भी नवउदारवादी नीतियों की वजह से वारे-न्यारे हुए। कॉरपोरेट सेक्टर में काम करने वाले पेशेवरों, इंजीनियरों, डॉक्टरों, नामी-गिरामी पत्रकारों, सरकारी नौकरी में उच्च पदों पर कार्यरत अधिकारियों, ठेकेदारों, सट्टेबाज़ों, दलालों आदि की जमात को इन नीतियों की वजह से ज़बर्दस्त लाभ हुआ। इसी तबके के लिये शॉपिंग मॉल, लक्ज़री अपार्टमेंट, महँगी गाड़ियाँ और विलासिता के अन्य साज़ो-समान पिछले 25 सालों में बहुत तेज़ी से उपलब्ध हुए हैं। यही वजह है कि यह खाया-पीया-अघाया शासक वर्ग का टुकड़खोर तबका व्यापक समाज के दुखों-तकलीफ़ों को नज़र अन्दाज करके इन नीतियों के पक्ष में बेशर्मी से दलीलें पेश करता है।
1991 में नवउदारवादी नीतियों को लागू करने की शुरुआत से ही मनमोहन सिंह और मोन्टेक सिंह अहलूवालिया जैसे बेशर्म पैरोकार लोगों को तसल्ली रखने की सलाह देते आये हैं। वे कहते आयें हैं कि जब समाज के शीर्ष पर सम्पदा इकट्ठी हो जायेगी तो धीरे-धीरे रिसकर समाज के निचले तबकों तक भी पहुँचेगी। सच्चाई इन नवउदारवादी पैरोकारों के विश्ले षण की ठीक उलट है। सच तो यह है कि नवउदारवादी नीतियों की वजह से समाज के शीर्ष पर मुट्ठी भर लोगों के पास जो सम्पदा एकत्र हो रही है, वह बहुसंख्यक आबादी का खून चूसकर, उन्हें इंसानी जिन्दगी की बुनियादी ज़रूरतों से भी महरूम करके अमानवीय हालात में जीने पर मजबूर करके ही हो रही है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक ने अपने एक अध्ययन में दिखाया है कि नवउदारवाद के दौर में प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता तेज़ी से घटकर औपनिवेशिक काल से भी नीचे के स्तर पर जा पहुँची है। नवउदारवाद के पैरोकार प्रति व्यक्ति कैलोरी के मापदण्ड से आज के दौर में ग़रीबी मापने की बजाय मूल्य सूचकांको का उपयोग करके आँकड़ों की बाज़ीगरी के ज़रिये नवउदारवाद के दौर में ग़रीबी कम होती हुई दिखाते हैं। यदि प्रति व्यक्ति प्रति दिन कैलोरी के वास्तविक मापदण्ड से ग़रीबी की पड़ताल की जाय (2100 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रति दिन शहरों में और 2200 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रति दिन देहातों में) तो हम पाते हैं कि शहरों और देहातों दोनों में नवउदारवाद के दौर में ग़रीबी बढ़ी है। ज़ाहिर है कि इसमें ईंधन, आवागमन, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास आदि का ख़र्च को शामिल करके सम्पूर्णता में जीवन स्तर को देखने पर परिस्थिति और ख़ौफ़नाक नज़र आयेगी क्योंकि निजीकरण की वजह से ये सभी बुनियादी ज़रूरतें नवउदारवाद के दौर में बहुत महँगी हुई हैं। 2004 में अर्जुनसेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट में यह तथ्य उभर कर सामने आया था कि देश की 77 फ़ीसदी आबादी बीस रूपये या उससे कम की प्रतिदिन की आमदनी पर गुज़ारा करती है। मज़दूरों और निम्न मध्यवर्ग के अतिरिक्त नवउदारवादी पूँजी की मार छोटे मालिकों पर भी पड़ी है। छोटे-मझौले किसान, छोटे दुकानदार और व्यापारी इस दौर में बड़ी संख्या में तबाह और बरबाद होकर सर्वहारा की कतारों में शामिल हुए हैं। किसानों की आत्म हत्याओं की घटनाओं में बढ़ोत्तरी सीधे तौर पर नवउदारवाद का ही नतीजा है। इसके अतिरिक्त नवउदारवादी दौर में खनिज सम्पदा के दोहन के लिये देशी-विदेशी पूँजी को दी गयी छूट की वजह से आदिवासियों को बड़े पैमाने पर उनके जल, जंगल और ज़मीन से तबाह किया गया है। ज़ाहिरा तौर पर अन्य वर्गों की तबाही-बरबादी ही वह कारक है जिसने समाज के शीर्ष पर बैठे पूँजीपति वर्ग की सम्पत्ति नें दिन-दूनी रात-चौगुनी रफ़्तार से इज़ाफ़ा किया है।
नवउदारवाद के उत्साही पैरोकार इन नीतियों के पक्ष में एक अन्य दलील यह देते हैं कि इनके लागू होने के बाद से भारत के विदेशी मुद्रा भण्डार में ज़बर्दस्त बढ़ोत्तरी हुई है। जहाँ 1991 में विदेशी मुद्रा भण्डार 1 बिलियन डॉलर तक सिमट गया था, वहीं अब वह बढ़कर 360 बिलियन डॉलर तक पहुँच गया है जो 11 महीनों के आयात के समतुल्य है। यह आँकड़ा भी भ्रामक है क्यों कि इससे यह सच्चांई सामने नहीं आती है कि नवउदारवाद के दौर में 3 वर्षों को छोड़ अन्य वर्षों में देश के भुगतान सन्तुलन के चालू खाते में घाटे की स्थिति रही है। चालू खाते में घाटे का अर्थ यह है कि देश में जितनी विदेशी मुद्रा वस्तुओं और सेवाओं के निर्यात के ज़रिये आ रही है उससे कहीं ज्यादा विदेशी मुद्रा वस्तुओं और सेवाओं के आयात के ज़रिये देश से बाहर जा रही है। फिर भी अगर विदेशी मुद्रा भण्डार बढ़ा है तो इसका कारण यह है कि विदेशी निवेशकों और ऋणदाताओं ने ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़ा और ब्याज़ कमाने के लिये भारत के शेयर बाज़ार में अन्धाधुन्ध निवेश किया है। ज़ाहिर है कि यह निवेश कब वापस ले लिया जायेगा इसका कोई भरोसा नहीं है। अमेरिका में ब्याज़ दरों की दरों के बढ़ने की अटकल होने मात्र से भारत के विदेशी मुद्रा बाज़ार और शेयर बाज़ार में हड़कम्प मच जाता है कि कहीं विदेशी निवेशक अपना निवेश वापस न खींच लें। स्पष्ट है कि मौजूदा समय में पर्याप्त विदेशी मुद्रा भण्डार होने के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था चन्द विदेशी निवेशकों के रहमोकरम पर निर्भर है, यह पहले से कहीं ज्यादा अस्थिर है और विश्व अर्थव्यवस्था से नत्थी हो जाने की वजह से संकट की सम्भावना पहले से कई गुना बढ़ गयी है।
जहाँ 1990 के दशक से पहले तक अर्थव्यवस्था़ में विकास का मुख्य इंजन सरकारी खजाने से दिया जाने वाला राजकोषीय प्रेरक था, वहीं नवउदारवादी दौर में विकास को मुख्य प्रेरक बैंकों द्वारा निजी क्षेत्र को दिया जाने वाला कर्ज़ है, जिसे क्रेडिट बुलबुला भी कहा जा रहा है। विदेशी निवेशकों द्वारा भारतीय शेयर बाज़ार में अन्धाधुन्ध निवेश की वजह से अर्थव्यवस्था में मौद्रिक तरलता की स्थिति पैदा हुई है जिसका लाभ उठाकर बैंकों ने निजी क्षेत्र को (विशेषकर इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में) बेतहाशा ऋण दिये हैं। जहाँ 1989-90 में बैंक क्रेडिट और जीडीपी का अनुपात 22 प्रतिशत था, वहीं अब यह बढ़कर 50 प्रतिशत से भी ऊपर पहुँच गया है। ज़ाहिर है बैंकों द्वारा निजी क्षेत्र को दिये गये ऋण में बेतहाशा बढ़ोत्तरी से उनकी अदायगी में डिफॉल्ट की सम्भावना भी बढ़ी है जिससे समूची अर्थव्यवस्था की अस्थिरता भी बढ़ी है। बैंकों के नॉन परफार्मिंग एसेट्स (एनपीए, यानी ऐसे ऋण जिनकी अदायगी नहीं हो पा रही है) में बढ़ोत्तरी—पिछले 5 वर्षों में 6 प्रतशित से बढ़कर 11.5 प्रतिशत— हाल में मीडिया की सुर्खियों में रही है जो क्रेडिट बुलबुले के फूटने का सूचक है। ज़ाहिर है जिस जीडीपी वृद्धि के दावे पर नवउदारवाद का पूरा ढाँचा टिका है उसका भी भविष्य अनिश्चित नज़र आ रहा है। 2008 से जारी विश्वव्यापी मन्दी की निरन्तरता की वजह से यह अनिश्चितता और बढ़ी है।
इस प्रकार हम पाते हैं कि नवउदारवाद के दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था शेयर बाज़ार में दुनिया भर के सट्टेबाज़ों की आवारा पूँजी और बैंकों के क्रेडिट के बुलबुले पर टिकी हुई एक जुआघर अर्थव्यवस्था में तब्दील हो चुकी है। ऐसी जुआघर अर्थव्यवस्था का प्रतिबिम्बन राजनीति और संस्कृति में झलकना लाज़िमी है। यह महज़ इत्तेफ़ाक नहीं है कि नवउदारवाद के पिछले 25 वर्ष भारत में हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी उभार के भी वर्ष रहे हैं। इस फ़ासीवादी उभार के प्रमुख सामाजिक आधार नवउदारवादी नीतियों से उजड़े निम्न बुर्जुआ वर्ग और उदीयमान खुशहाल मध्य वर्ग रहे हैं। इस फ़ासीवादी उभार ने नवउदारवादी नीतियों को लागू करने से होने वाले सामाजिक असन्तोष व आक्रोश को धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ गुस्से के रूप में भटकाकर भारत के बुर्जुआ वर्ग का हितपोषण किया है। साम्प्रदायिक फ़ासिस्ट ताक़तों द्वारा समाज में फैलाये गये धार्मिक उन्माद की वजह से बुर्जुआ राज्यसत्ता के लिये जनता के अधिकारों को छीनना आसान हो जाता है। नवउदारवादी दौर में श्रम कानूनों को ज्यादा से ज्यादा पूँजीपतियों के पक्ष में करके मेहनतकश तबके के रहे-सहे अधिकार भी तेज़ी से छीने गये हैं। नवउदारवादी दौर में दलितों, महिलाओं सहित समाज के हर कमज़ोर तबके के खिलाफ़ बर्बर हिंसा की वारदातों में भी बढ़ोत्तरी देखने में आयी है। साथ ही सांस्कृतिक क्षितिज पर भी नवउदारवादी दौर की छाप देखने को मिलती है। साहित्य -कला, फिल्मों, टीवी कार्यक्रमों आदि में घोर प्रतिगामी, स्त्री-विरोधी, पोंगापन्थी, धार्मिक कट्टरपन्थी और अंधराष्ट्रवादी विचारों, मूल्योंं और मान्यताओं का घटाटोप सा छाया हुआ है। नेहरूवादी समाजवाद का लबादा तो 1991 में ही उतारा जा चुका था, पिछले 25 वर्षों के दौरान नेहरूवादी खोखली धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा भी नोचकर फेंका जा चुका है और पूँजी की बर्बर तानाशाही अब साफ़ देखी जा सकती है। इस प्रकार नवउदारवाद सामाजिक-राजनीतिक पटल पर चहुँओर घनघोर अँधेरेे का दौर लेकर आया है। लेकिन नवउदारवाद-पूर्व नेहरूवादी समाजवाद के दौर में वापसी की उल्टी यात्रा करके इस अँधेरी सुरंग से बाहर नहीं निकला जा सकता है। इससे बाहर निकलने के लिये हमें अतीत की ओर नहीं बल्कि भविष्य की ओर मुँह करना होगा। नवउदारवादी दौर में पूँजीपति वर्ग विलासिता की जिन मीनारों पर रंगरलियाँ मना रहा है उनके चारों ओर बदहाली में जीती हुई आम जनता का समन्दर है। यह परजीवी वर्ग अनन्तकाल तक इन मीनारों पर रंगरलियाँ नहीं मना सकता। जनता के समन्दर में उठने वाली क्रान्तिकारी लहर द्वारा पूँजीपति वर्ग को विलासिता की इन मीनारों से उतारकर इतिहास के संग्रहालय में डाला जाना तय है। लेकिन क्रान्तिकारी ताक़तों को उस लहर का इन्तजार करने की बजाय अभी से ही उसकी तैयारी करनी चाहिए।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अगस्त 2017
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