चीन का आगामी ऋण संकट
वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक तीखा मोड़
मानव
विश्व आर्थिक संकट अब एक नयी दिशा लेता जा रहा है। अमेरिकी सब-प्राइम संकट से शुरू हुए वैश्विक आर्थिक संकट ने पहले यूरोप को अपने गिरफ्त में लिया और अब तकरीबन 6 साल बाद विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन एक बड़े संकट की तरफ बढ़ती जा रही है। चीनी अर्थव्यवस्था ऋण संकट में फँसती जा रही है। अख़बार ‘फाइनेंशियल टाइम्स’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक इस समय चीन पर कुल ऋण (घरेलू और सरकारी) 25 खरब डालर यानी उसके सकल घरेलू उत्पाद का 237% हो चुका है। भले ही यह फ़ीसद यूरोप के 272% और जापान के 394% से कम है परन्तु जिस चीज़ को ले कर सभी बुर्जुआ अर्थशास्त्री परेशान हैं वह इस ऋण के बढ़ने की रफ़्तार है। 2008 में चीन का ऋण उसके सकल घरेलू उत्पाद का 148% ही था जो कि आठ सालों के भीतर ही 237% हो गया है !
सभी अर्थशास्त्री यह अनुमान लगा रहे हैं कि यह ऋण संकट आने वाले समय में दो रुख ले सकता है –या तो अमेरिकी तर्ज़ पर बैंकों के बड़े स्तर पर दिवालिया होने की ओर बढ़ सकता है और या फिर जापानी तर्ज़ पर चीन लम्बे समय के लिये बेहद कम आर्थिक वृद्धि दर का शिकार हो सकता है। और यह दोनों ही सूरतेहाल चीनी अर्थव्यवस्था के लिये और पूरे वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिये भयानक है। हड़बड़ाहट में बुर्जुआ अर्थशास्त्री चीन पर अब इलज़ाम लगा रहे हैं कि उसने अपने ऋण को कंट्रोल में क्यों नहीं रखा, क्यों इस की मात्रा इतनी बढ़ने दी। दरअसल यह संकट के समय आपस में तीखे हो रहे पूँजीवादी अन्तर्विरोधों का ही इज़हार हो रहा है। यही अर्थशास्त्री आज से आठ साल पहले जब आर्थिक संकट शुरू हुआ था और अमेरिका और यूरोप इसके पहले प्रभाव में आये थे तो तब चीन की तारीफें कर रहे थे क्योंकि चीनी सरकार ने बड़े स्तर पर सरकारी निवेश का विस्तार किया था और साथ ही सरकारी स्वामित्व वाली कम्पनियों और स्थानीय सरकारों को ऋण देने की प्रक्रिया बेहद ढीली की थी। इस बड़े निवेश के चलते वैश्विक अर्थव्यवस्था को थोड़ी राहत मिली थी और आर्थिक संकट एक पूर्ण मन्दी में नहीं बदला था क्योंकि विश्व के बड़े अरथचारे लगातार चीन को कच्चे माल का निर्यात करके अपनी अर्थव्यवस्थाओं को सहारा देने में कामयाब हुए थे। साथ ही चीनी सरकार अपने नागरिकों को उत्साहित कर रही थी कि वह ऋण ले ले कर खरीददारी करें जिससे अर्थव्यवस्था को तेज़ी मिल सके। परन्तु इस सब के असल परिणाम अब सामने आ रहे हैं जब इस ऋण (सरकारी और घरेलू दोनों ही) के डूबने का अनुमान लगातार लगाया जा रहा है।
2008 का संकट जब अमेरिका और यूरोप में फैला तो इस का सीधा प्रभाव चीन की अर्थव्यवस्था पर पड़ा क्योंकि चीन का सबसे बड़ा व्यापारिक हिस्सेदार यूरोपीय संघ और अमेरिका ही है। चीनी अर्थव्यवस्था अमेरिका, जर्मनी, जापान, दक्षिणी कोरिया, रूस, ब्राजील आदि को किये जाने वाले निर्यातों पर टिकी हुई है। चीन से सस्ता माल तैयार हो कर इन मुल्कों की मण्डियों में बिकता है। संकट के चलते इन निर्यातों पर चोट लगी और चीन में तकरीबन 2.3 करोड़ नौकरियाँ ख़त्म हुईं। इसके बाद ही चीनी सरकार ने अपनी अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिये अर्थव्यवस्था में 500 अरब डालर का निवेश किया। यह पैसा ज़्यादातर निर्माण के क्षेत्र में लगा, नये-नये निर्माण प्रोजेक्ट लगाये गये, सालों के भीतर ही पूरे के पूरे नये शहरों का निर्माण कर दिया गया। इस का एक नतीजा तो यह हुआ कि एक बार चीन की अर्थव्यवस्था को रफ़्तार मिली परन्तु जल्द ही ऐसी नीतियों का अपने अंजाम पर पहुँचाना लाज़िमी ही था। नतीजा यह हुआ कि इन सभी शहरों, फ्लैटों में रहने के लिये कोई ग्राहक आगे नहीं आये, बड़े -बड़े शापिंग माल खाली रहे या उन का निर्माण बीच में ही छोड़ना पड़ा। चैंगगौंग, नानहुई (नया शहर), दांतू, ओरदोस शहर, जहैंगडौंग, आदि कुछ ऐसे शहर हैं जिन को आज “भूतवाड़ा” कहा जाता है, यानी ऐसे शहर जहाँ कोई नहीं रहता और इस तरह के शहरों, कस्बों की संख्या सैंकड़ों में है। चीनी सरकार के ही एक अनुमान के मुताबिक इस समय चीन में 2 अरब वर्ग मीटर निर्मित की गयी ऐसी जगह है जहाँ कोई नहीं रहता। इतनी जगह में आराम से 10 करोड़ लोग रह सकते हैं। परन्तु फिर भी चीन में भारत की ही तरह करोड़ों की संख्या में ऐसी ग़रीब आबादी मौजूद है जो एक -एक कमरे में 4-4, 5-5 के हिसाब से रहने के लिये या फिर सड़कों पर सोने के लिये मजबूर है। यही इस पूँजीवादी ढाँचे की असंगति है कि एक तरफ़ तो इतनी बड़ी आलीशान इमारतें हैं और दूसरी तरफ़ इतनी भयंकर कंगाली मौजूद है। कई अर्थशास्त्री ऐसे भी हैं जो इस पूरे संकट की गम्भीरता की उपेक्षा करते हुए यह मान रहे हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था के अन्दर ऋण एक सामान्य परिघटना है। यह बात सही है कि यह पूरी व्यवस्था ही आज ऋण पर टिकी हुई है लेकिन यदि विभिन्न एजेंसियों के बयानों को देखें तो हमें इस संकट के विस्तार का अन्दाज़ा हो जाता है। ‘वैश्विक वित्तीय सन्तुलन रिपोर्ट’ के मुताबिक चीन में दिये गये व्यापारिक उधारों का 15% ज़ोखिम वाले क्षेत्र में पड़ता है। यह रकम चीन के सकल घरेलू उत्पाद का 7% बनती है। इसी तरह अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के मुताबिक 1.3 खरब डालर का कॉरर्पोरेट ऋण (यानी बैंकों की तरफ से कम्पनियों को दिये गये कुल ऋण का छठाँ हिस्सा ऐसी कम्पनियों को दिया गया हैं जिन की वार्षिक आमदनी लगातार कम हो रही है। चीनी पार्टी के आधिकारिक अख़बार पीपुल्स डेली में एक चीनी अधिकारी ने यह बयान दिया –“वृक्ष आसमान को नहीं छू सकता। किसी भी तरह की गड़बड़ ढाँचागत वित्तीय संकट की तरफ, घटती हुई आर्थिक दर की तरफ ले जा सकती है और लोगों की बचतों का सफाया कर सकती है। यह वास्तव में भयानक होगा।”
यह सभी बयान इस मसले की पूरी गम्भीरता को ही दिखाते हैं और कैसे चीनी पार्टी के अन्दर से ही अब शिकायतें आ रही हैं। और यह ऐसे समय में हो रहा है जब चीन की आर्थिक वृद्धि दर लगातार नीचे जा रही है। 2010 में 12% के मुकाबले 2013 में यह दर 8% थी और 2016 में इसके 6.9% के आसपास रहने की सम्भावना है। कुछ अनुभवी अर्थशास्त्रियों का तो यह भी कहना है कि चीनी सरकार की तरफ से जारी किये गये यह आँकड़े भरोसे योग्य नहीं हैं और वास्तव में यह वृद्धि दर 3% के आसपास है। यह वास्तव में आने वाले समय का सूचक है कि इस समय वैश्विक पूँजीवादी व्यवस्था किस कदर नये और बड़े संकट की तरफ जा रही है। यह चीन की अर्थव्यवस्था ही थी जिस ने काफ़ी हद तक 2008 के संकट को एक पूर्ण मन्दी में बदलने से बचाये रखा। परन्तु अब चीजें अपने विपरीत में बदल गयी हैं। जिस चीन ने पूरी वैश्विक व्यवस्था को सम्भाले रखा वही अब उसे डुबाने की तरफ ले जा रही है। इस आने वाले संकट की गम्भीरता को और समझने के लिये तालिका देखते हैं कि इस समय विश्व के अन्य मुल्कों की आर्थिक वृद्धि दर कहाँ खड़ी है। यह आँकड़े इस अनुमान पर आधारित होते हैं कि “अगर सब कुछ ठीक रहा तो” (भारत में मोदी सरकार की नोट बन्दी के मूर्खतापूर्ण फैसले के बात तालिका में भारत की स्थिति के बारे में अनुमान औंधे मुँह गिरेगा) यह स्थिति रहेगी। फिर भी हम देख सकते हैं कि इस समय विश्व के बड़े अर्थव्यवस्थाओं की क्या स्थिति है। इस में वृद्धि के संकेत कम नज़र आ रहे हैं बल्कि गिरावट की सम्भावनाएँ ज़्यादा हैं। तेल की कीमतों में गिरावट के चलते रूस, वेनेज़ुएला की अर्थव्यवस्था औंधे-मुँह पड़ी हैं जबकि यूरोप के ज्यादातर मुल्कों और अमेरिका में हालत वही पहले वाले ही हैं और यह 1-2% की वृद्धि दर पर ही टिके हुए हैं। मुख्य तौर पर विश्व अर्थव्यवस्था को सहारा देने का दार-ओ-मदार एशिया और ब्रिक्स (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिणी अफ्रीका) मुल्कों पर है। इन में से रूस और ब्राजील तो शून्य से भी नीचे 3-4% की दर से सिकुड़ रहे हैं जबकि चीन की दर लगातार नीचे जा रही है और अब ऋण संकट के रूप में नया दैत्य सामने खड़ा है। भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में अर्थशास्त्रियों का यही मानना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था चीन के मुकाबले में बेहद छोटी है, इसलिये यह अकेले दम पर वैश्विक अर्थव्यवस्था को कोई बहुत अधिक प्रभावित नहीं कर सकती। चीन से शुरू होने वाले नये संकट के दो बड़े नतीजे सामने आऐंगे। एक तो सीधे रूप में यह चीन पर निर्भर अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित करेगा। ब्राज़ील, आस्ट्रेलिया, रूस, दक्षिणी अफ्रीका ऐसे मुल्क हैं जो बड़े स्तर पर चीन को कच्चे माल का निर्यात करते हैं। यह मुल्क तो पहले ही संकट का शिकार हैं तो ऐसे समय में चीन का नीचे जाना इन मुल्कों को बुरी तरह प्रभावित करेगा। दूसरा यह कि चीन में कच्चा माल तैयार हो कर यूरोप, अमेरिका की ओर निर्यात होता है। चीनी अर्थव्यवस्था इन्हीं निर्यातों से होने वाली कमाई पर टिकी हुई है। इसलिये यह इन निर्यातों को प्रभावित होने से रोकने के लिये हर सम्भव कोशिश करेगा, भले ही इसको अपने निर्यात सस्ते करके इन मुल्कों में बेचने पड़ें। इस का सीधा मतलब यह होगा कि आने वाले समय में चीन लाज़िमी ही अपनी मुद्रा युआन के मूल्य को कम करेगा। युआन के मूल्य में गिरावट आने से चीन का सामान विदेशी बाज़ारों के लिये सस्ता हो जायेगा और इसके ज़रिये चीन की यह कोशिश रहेगी कि यह अपने निर्यातों के मौजूदा स्तर को यदि बढ़ा नहीं सकता तो कम से कम उसे इसी स्तर पर बरकरार ज़रूर रखे। लेकिन लाज़िमी ही इस नीति का विरोध दूसरे पूँजीवादी मुल्क भी करेंगे, ख़ास तौर पर अमेरिका और यूरोप क्योंकि चीन के इस कदम से उन की कम्पनियों को नुकसान होता है – यदि चीनी कम्पनियों का सामान उनके बाज़ारों में सस्ता पहुँचता है तो उन की कम्पनियों के महँगे समान का उपभोग कम होगा और वह मुकाबले से बाहर होते जायेंगे । अतः यह मुल्क लाज़िमी ही जवाब में या तो चीन पर व्यापारिक पाबन्दियाँ लगाऐंगे और या फिर अपनी मुद्राओं के मूल्य को भी कम करेंगे। दोनों ही सूरतों में इस का नुकसान पूरे वैश्विक पूँजीवादी व्यवस्था को होगा क्योंकि वैश्विक व्यापार तो पहले ही सिकुड़ रहा है और ऐसे में यदि बन्दिशें लगाई जाती हैं तो यह और भी नुकसानदेय होगा। आजकल कई अर्थशास्त्री और सरकारें चीन को यह भी सुझाव दे रहे हैं कि वह मौजूदा कीन्सियायी नीतियाँ छोड़ कर नव-उदारवादी नीतियों की प्रक्रिया में तेज़ी लाए, यानी वह अपने राजकीय मालकी वाले उपक्रमों और उद्यमों को निजी निवेश के लिये और तेज़ी के साथ खुला करे जिससे निजी कम्पनियाँ अपने पास एकत्रित हुई पूँजी को निवेश कर सकें। परन्तु यदि चीन ऐसा करता है तो इस का मतलब होगा कि सरकारी निवेश का घटना, श्रम कानूनों का ढीला होना। इस का नतीजा यही होगा कि बेरोज़गारी बड़े स्तर पर बढ़ेगी और बड़ी कामगार आबादी की उजरतें श्रम कानूनों के ढ़ीले पड़ने के साथ नीचे जायेंगीं। इस से पूरी चीनी अर्थव्यवस्था में वस्तुओं का उपभोग घटेगा क्योंकि लोगों के पास खरीदने के लिये पैसे ही मौजूद नहीं होंगे और निश्चय ही जो मौजूदा हालत है वह और गम्भीर रूप लेगा। दूसरा यह कि चीनी सरकार अपनी अर्थव्यवस्था में विभिन्नता लाने की कोशिश कर रही है। वह इसको निर्माण अरथचारे से बदलकर घरेलू उपभोग पर आधारित सेवा क्षेत्र वाली अर्थव्यवस्था बनाना चाहती है। परन्तु इस में भी एक दिक्कत है। यदि चीनी सरकार यह चाहती है कि उसके लोगों का घरेलू उपभोग बढ़े जिससे वह अतिरिक्त पैदा हुआ माल खरीद सकें तो उसे निश्चय ही उन की उजरतों को बढ़ाना पड़ेगा (हालाँकि वह ऐसा सस्ते ऋण दे कर भी कर सकते हैं परन्तु उसी ऋण को भविष्य में चुकाने लिये भी लोगों की आमदनी में बेहतरी होनी ज़रूरी है)। यदि चीनी कामगार आबादी की उजरतें बढ़ती हैं तो चीनी माल की लागतें बढ़ेंगी और इस का नुकसान चीन को अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में होगा जहाँ उसकी मुकाबला करने की योग्यता कम होगी क्योंकि अभी तक वैश्विक व्यापार में चीनी दबदबा इसीलिये था कि यहाँ की कामगार आबादी की उजरतें बेहद कम होने के चलते सस्ता चीनी माल पूरे संसार में धड़ल्ले के साथ पहुँचता था।
ऐसा नहीं है कि चीन पर ऐसा ऋण संकट पहली बार आया है। इस से पहले भी 1990 के दशक में चीनी अर्थव्यवस्था ऐसे ही संकट को झेल चुकी है जब सरकार को 650 अरब डालर का राहत पैकेज दे कर सरकारी बैंकों को बचाना पड़ा था। परन्तु उस समय के ऋण संकट और आज के ऋण संकट में एक बुनियादी फ़र्क है। आज चीन पर एक ऐसे समय में ऋण संकट का ख़तरा मँडरा रहा है जब उसकी अर्थव्यवस्था पिछले 25 सालों के समय में सबसे बुरा समय देख रही है। साथ ही पूरा -पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था भी 20 साल पहले के मुकाबले एक बिल्कुल नये, गहरे और व्यापक संकट का शिकार है जिससे उबरने का कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा। इसलिये आने वाला समय चीनी अर्थव्यवस्था और मेहनतकश लोगों के लिये भारी परेशानियों का समय होगा, इस बात का अन्दाज़ा तो पिछले समय के दौरान चीन में उठ रहे मेहनतकश लोगों के स्वतः-स्फूर्त संघर्षों से ही लग जाता है। जैसे-जैसे आर्थिक संकट के गहरा होते जाने के संकेत बढ़ते गये हैं वैसे ही मेहनतकश जनता का नया उभार देखने को मिल रहा है। हांगकांग आधारित ‘चाइना लेबर बुलेटिन’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2015 में हड़तालें और प्रदर्शनों की संख्या साल 2014 के मुकाबले दोगुनी हो गयी है। 2014 में जहाँ 1,379 ऐसे मामले दर्ज़ किये गये वहाँ 2015 में इन की संख्या 2,774 थी। ध्यान रहे कि यह वह हड़तालें और प्रदर्शन हैं जो सरकारी दफ़्तरों में दर्ज़ हैं। सूचना पर जिस तरह की पाबन्दी चीन में है उससे यह अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि इन घटनाओं की वास्तविक संख्या कहीं ज़्यादा है। एक और नुक्ता जो ध्यान देने योग्य है वह यह है कि यह हड़तालें ज़्यादातर निर्माण, खान मज़दूरों, ऑटो क्षेत्र में हुईं, यानी वह क्षेत्र जो किसी भी अर्थव्यवस्था की बुनियाद होते हैं। इन हड़तालों का कारण उजरतों की गैरअदायगी से ले कर काम के बुरे हालात थे। निश्चित रूप से आज हम हलचल भरे माहौल में रह रहे हैं जहाँ आये रोज़ विश्व के किसी न किसी कोने में से मज़दूरों के, नौजवानों के बड़े संघर्ष हमें देखने को मिल रहे हैं। यह इन सभी संघर्षों से भयभीत हो जाने का समय नहीं बल्कि आम मेहनतकश जनता में आ रही इस जागृति का स्वागत करने का समय है। परन्तु हमें यह भी ध्यान में रखकर चलना होगा कि लोगों के इन स्वतः-स्फूर्त संघर्षों की एक हद है जिससे आगे यह नहीं जा सकते। ज़रूरत है कि आज इन संघर्षों की अगुवाई एक सही विचारधारा से हो जिससे कि इस लूट आधारित पूँजीवादी ढाँचे को बदलकर एक नया समाजवादी ढाँचा बनाया जा सके।
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मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अगस्त 2017
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