फिदेल कास्त्रो: जनमुक्ति के संघर्षों को समर्पित एक युयुत्सु जीवन
बेबी
कठिनाइयों से रीता जीवन
मेरे लिये नहीं,
नहीं, मेरे तूफानी मन को यह स्वीकार नहीं ।
मुझे तो चाहिए एक महान ऊँचा लक्ष्य
और, उसके लिये उम्रभर संघर्षों का अटूट क्रम ।
ओ कला! तू खोल
मानवता की धरोहर, अपने अमूल्य कोषों के द्वार
मेरे लिये खोल!
अपनी प्रज्ञा और संवेगों के आलिंगन में
अखिल विश्व को बाँध लूँगा मैं!
आओ,
हम बीहड़ और कठिन सुदूर यात्रा पर चलें
आओ, क्योंकि –
छिछला, निरुद्देश्य जीवन
हमें स्वीकार नहीं ।
हम, ऊँघते, कलम घिसते हुए
उत्पीड़न और लाचारी में नहीं जियेंगे ।
हम – आकांक्षा, आक्रोश, आवेग और
अभिमान में जियेंगे!
असली इन्सान की तरह जियेंगे ।
– कार्ल मार्क्स
क्यूबा की क्रान्ति के नेता और अमेरिकी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लगातार संघर्षरत अडिग मुक्तियोद्धा फिदेल कास्त्रो का 26 नवम्बर 2016 को निधन हो गया। फिदेल का जाना दुनिया भर में मानव मुक्ति की लड़ाई के लिये बड़ा आघात है। 13 अगस्त 1926 को क्यूबा के ओरिएंट प्रान्त में जन्मे फिदेल कास्त्रो ने लॉ स्कूल से वकालत की शिक्षा पूरी की। लेकिन वह सिर्फ अपनी किताबों और विश्वविद्यालय की घुटन भरी कक्षाओं तक सीमित रहने वाले और सबकुछ जान समझकर भी अपनी आँखें मूँद लेनेवाले छात्र नहीं थे, बल्कि अपने आस-पास और पूरे सामाजिक परिवेश को जानने और समझने के साथ-साथ उसे बदलने की कोशिश भी लगातार करते रहते थे। स्पेन की औपनिवेशिक सत्ता के ख़िलाफ़ क्यूबा के मुक्तिसंग्राम के क्रान्तिकारी नेता और 19वीं शताब्दी के प्रसिद्ध लैटिन अमेरिकी बुद्धिजीवी होसे मार्ती (jose marti) छात्र जीवन से ही फिदेल के आदर्श रहे।
विश्वविद्यालय में अपनी पढ़ाई के दौरान फिदेल भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले एक छात्र समूह से जुड़े। एक छात्र नेता के तौर पर वे साम्राज्यवाद विरोधी लातिन अमेरिकी छात्र कांग्रेस के लिये समर्थन जुटाने बेनेजुएला, पनामा और कोलम्बिया भी गये। 1947 में वे क्यूबन पीपुल्स पार्टी( जिसे ऑर्थोडॉक्स पार्टी के नाम से भी जाना जाता था) के सदस्य बने और चुनावों में पार्टी का प्रतिनिधित्व भी किया। 1952 में चुनावों के नतीजे आने से पूर्व ही अमेरिका के समर्थन से तानाशाह जनरल फुल्गेंसियो बतिस्ता (fulgencio batista) द्वारा तख्तापलट कर दिया गया। तभी से फिदेल बतिस्ता तानाशाही के ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष और आम बगावत की तैयारी में लग गये। 26 जुलाई 1953 को सेन्दिआगो दी क्यूबा स्थित मोनकाडा सैनिक गैरीसन पर लगभग 100 क्रान्तिकारियों की एक टुकड़ी ने हमला करके उसे अपने कब्जे में ले लिया लेकिन वे बतिस्ता की सेना से बच न सके और पकड़ लिये गये। इस पूरी घटना के दौरान बतिस्ता तानाशाही ने 70 क्रान्तिकारियों की हत्या की। अपने कुछ साथियों के साथ फिदेल को जेल में डाल दिया गया और उनपर मुकदमा चलाया गया । मुकदमे के दौरान अपने बचाव पक्ष में दिये गये उनके भाषणों को सम्पादित करके ‘इतिहास मुझे सही साबित करेगा’ शीर्षक से एक पर्चा तैयार किया गया जिसे लोगों के बीच बाँटा गया । बतिस्ता तानाशाही ने उन्हें 15 साल की सजा सुनायी लेकिन बढ़ते जनदबाव को देखते हुए फिदेल को दो वर्षों के भीतर ही रिहा करना पड़ा । जेल से बाहर आकर उन्होंने अपने शहीद साथियों को याद करते हुए ‘26 जुलाई आन्दोलन’ शुरू किया। जुलाई 1955 में कास्त्रो मैक्सिको चले गये और वहाँ उन्होंने क्यूबा में सशस्त्र क्रान्ति के उद्देश्य से गुरिल्ला अभियान को संगठित करना शुरू किया। दिसम्बर 1956 को वे क्रूजर ग्रानमा पर सवार होकर अपने 80 साथियों जिनमें चे ग्वेरा भी शामिल थे, के साथ क्यूबा के तट पर पहुँचेे और अगले दो सालों तक 26 जुलाई आन्दोलन को पूरे देश में चलाया गया। इस दौरान गुरिल्ला अपनी तैयारियों में लगे रहे और 1958 के अन्त तक संघर्ष को सिएरा माएस्त्रा की पहाड़ियों से शुरू करके पूरे देश में सफलतापूर्वक फैला दिया। फिदेल वियतनाम की जनता के मुक्ति संघर्षों के बड़े प्रशंसक थे और सशस्त्र क्रान्ति को अपने देश के हालात के लिये सही मानते थे।
1 जनवरी 1959 को बतिस्ता क्यूबा छोड़कर भाग गया। क्यूबा की जनता ने फिदेल के आह्वान पर आम बगावत और हड़तालें शुरू कर दीं जिससे क्रान्ति की जीत सुनिश्चित हुई। 8 जनवरी 1959 को फिदेल कास्त्रो विजयी विद्रोही सेना के कमाण्डर इन चीफ के तौर पर हवाना पहुँचे और 13 फरवरी 1959 को वे क्यूबा के प्रधानमन्त्री बने। 1965 में क्यूबाई कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के बाद वे केंद्रीय कमिटी के पहले सचिव बने। फिदेल के नेतृत्व में क्यूबा ने समाजवादी समाज के निर्माण की दिशा में तीव्र गति से कदम बढ़ाया, हालाँकि वहाँ समाजवादी संक्रमण की समस्याएँ पूरी तरह हल नहीं हो सकीं। लेकिन, फिर भी क्रान्ति ने लोगों के जीवन स्तर को काफी ऊँचा उठा दिया। लोगों की बुनियादी ज़रूरतें मसलन शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की दिशा में अभूतपूर्व प्रगति हुई और एक छोटा सा देश क्यूबा अपने हर नागरिक को मुफ्त अत्याधुनिक चिकित्सा व्यवस्था देने वाला देश बन गया। फिदेल के काम करने के तरीकों के बारे में मार्खेज ने लिखा है “वे अपने दफ्तर में कैद रहनेवाले अकादमिक नेता नहीं हैं। जहाँ कहीं भी समस्या हो, उसे ढूँढ निकालने के प्रयास में उन्हें अपनी विशेष कार में, निगरानी के लिये साथ चलती मोटरसाइकिलों की धड़धड़ाहट के बिना, हवाना की सूनी सड़कों या आसपास की किसी सड़क पर कभी भी, यहाँ तक कि सुबह होने से पहले भी देखा जा सकता है ।” क्यूबा और फिदेल अमेरिकी साम्राज्यवाद के लिये हमेशा चुनौती बने रहे। अमेरिका ने क्यूबा पर कई आर्थिक प्रतिबन्ध लगाये और फिदेल की हत्या की भी कोशिश की गयी लेकिन हर बार उन्हें निराशा ही हाथ लगी। उन्होंने हमेशा अमेरिकी साम्राज्यवाद की इच्छा के विरुद्ध काम किया। क्यूबा ने दक्षिण अफ्रीकी देशों अंगोला और नामिबिया में रंगभेद की नीति अपनाने वाली ताकतों के ख़िलाफ़ अपनी सैन्य शक्ति की मदद भेजी। यही वे तमाम कारण हैं कि आज जब फिदेल हमारे बीच नहीं हैं तो साम्राज्यवाद का भोंपू मीडिया उन्हें क्रूर तानाशाह और ‘दोन किहोते’ की संज्ञा दे रहा है। लेकिन जबतक दुनिया भर में मानवमुक्ति के सपने देखे जाते रहेंगे और लोग लड़ते रहेंगे; अपनी कई सैद्धान्तिक और मानवीय कमजोरियों के बावजूद फिदेल कास्त्रो जीवन्तता, बहादुरी, निर्भीकता और जनमुक्ति के संघर्षों के समर्पण के लिये याद किये जाते रहेंगे!
आह्वान की टीम की ओर से उन्हें हमारी श्रद्धांजली!
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अगस्त 2017
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