तेल की बढ़ती कीमतें : वैश्विक आर्थिक संकट और मोदी सरकार की पूँजीपरस्त नीतियों का नतीजा
अमित
मई के महीने में तेल की कीमत में लगातार 16 दिनों तक वृद्धि हुई, और नतीजतन पेट्रोल और डीजल की कीमत अपने रिकॉर्ड स्तर पर पहुँच गयी और 2014 के बाद अपने सबसे ऊँचे स्तर पर पहुँच गयी। दिल्ली में पेट्रोल 78 रूपये प्रति लीटर और डीजल 69 रूपये प्रति लीटर से ज्यादा पहुँच गया। इस बढ़ोत्तरी को मोदी परस्त मीडिया ने इस तरह दिखाया की यह पूर्णतः वाजिब था और मोदी सरकार तेल की बढ़ती कीमतों के जरिये भी देश का ‘विकास’ कर रही है। परन्तु इस बात में सच्चाई नहीं है। निश्चित ही तेल की बढ़ती कीमतों के पीछे अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में जारी कशमकश है। अप्रैल 24 को ब्रेंट क्रूड, कच्चे तेल की किस्म जो वैश्विक तेल कीमतों को निर्धारित करने का मापदण्ड है, की कीमत 75 डॉलर प्रति बैरल तक पहुँच गयी थी। यह 2014 के बाद से अपने उच्चतम स्तर पर पहुँच गयी और कच्चे तेल की कीमतों के उछाल का दौर फिर से लौटने के संकेत दे रहा है। ब्रेंट क्रूड की मौजूदा प्रति बैरल कीमत में 10 महीने पहले की न्यूनतम कीमत से 30 डॉलर प्रति बैरल या 66 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। कच्चे तेल की कीमत में हुई इस वृद्धि का कारण तेल की वैश्विक आपूर्ति में कमी है। इस आपूर्ति में कमी का कारण वैश्विक भूराजनीतिक परिस्थितियों में बदलाव रहा है। वैश्विक आर्थिक संकट के कारण साम्राज्यवादी देशों के तीखी होते अन्तर्विरोध और आपसी सिरफुट्टवल की कई अभिव्यक्तियों में से एक तेल की कीमतों में हुई वृद्धि भी है। सऊदी अरब और रूस और दूसरे तेल उत्पादक देशों से बाज़ार में तेल की आपूर्ति की कमी और वेनेज़ुएला द्वारा कच्चे तेल की आपूर्ति में कमी और ट्रम्प का ईरान से परमाणु समझौता को रद्द कर फिर से प्रतिबन्ध लगाने की धमकी देना, अन्तराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत में हुई वृद्धि का मुख्य कारण रहा है। इन कारणों ने भारत में तेल की कीमतों पर कितना असर डाला है यह देखने के लिए भारत की तेल सम्बन्धी नीतियों पर नज़र डालनी होगी।
भारत एक प्रमुख तेल आयत करने वाला देश है लेकिन साथ ही पेट्रोल और डीजल पर सबसे ज्यादा टैक्स लगाने वाला देशों में से एक है। खास कर पिछले 4 साल से मोदी सरकार के ‘अच्छे दिन’ वाले शासन के दौरान पेट्रोल और डीजल पर एक्साइज और कस्टम ड्यूटी में भारी वृद्धि हुई है जिसका नतीजा यह रहा है कि 2014 में अन्तराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत में भारी कमी होने पर भी भारत की जनता को उसका लाभ नहीं मिला। टैक्स में हुई इस वृद्धि को मोदी और इनके अन्धभक्त बहुत कुतर्क के साथ सही बता रहे हैं। उनका कहना है कि इस कर-वृद्धि का इस्तेमाल आधारभूत अधिरचना के विकास और जनता के कल्याण मसलन शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार आदि के लिए किया जा रहा है । यह सरासर झूठ है। इस झूठ का भण्डाफोड़ विस्तार से लेख में आगे करेंगे। इसके अलावा भक्तों का एक प्रचार यह भी रहा है कि यूपीए सरकार ईरान पर 43000 करोड़ का कर्ज छोड़ कर गयी है और महान ‘मोदी जी’ को ये कर्ज चुकाना पड़ रहा है। इस वजह से ही देश के लिए पेट्रोल डीजल की कीमत में वृद्धि हुई है। इस झूठ और कुतर्क का भी हम आगे पर्दाफाश करेंगे। इसके अलावा सब्सिडी और तेल कम्पनी के घाटे का मिथक जानबूझ कर फैलाया जाता है और हमें यह बताया जाता है कि कैसे सरकार और पूँजीपति आम गरीब जनता पर अहसान करते हैं और घाटा उठा कर सस्ते में पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस देते हैं। इस भ्रम का भी पर्दाफाश हम आगे करेंगे।
अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत में उछाल और अस्थिर अन्तरराष्ट्रीय भूराजनीतिक संकट: इतिहास और कारण
इस साल 24 अप्रैल की सुबह , ब्रेंट क्रूड की कीमत 75 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर पहुँच गई जो 2014 के बाद सबसे ऊँचे स्तर पर है और तेल की ऊँची कीमतों के युग की वापसी के संकेत दे रही है। 2014 के अन्तिम तिहाई में कच्चे तेल की कीमत में अचानक से तेज़ गिरावट आयी थी। एक महीने के भीतर कच्चे तेल की कीमत 110 डॉलर प्रति लीटर से 50 डॉलर प्रति लीटर से भी कम पर पहुँच गयी। अमेरिकी शेल उद्योग ने तेल का उत्पादन बहुत तेज़ कर दिया और तेल निकालने की तकनीक में सुधार की वजह से कच्चे तेल की लागत मूल्य में कमी आ गयी। नतीजतन, सऊदी अरब और दूसरे ओपेक देशों को तेल बाज़ार के मूल्य प्रतियोगिता में टिके रहने और अपने बाज़ार को बनाये रखने के लिए तेल की आपूर्ति और तेज़ कर दिया। इस कारण बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत में जबर्दस्त गिरावट देखने को मिली।
सऊदी अरब की वित्त व्यवस्था पर इस का गहरा असर पड़ा। सऊदी अरब एक प्रमुख तेल उत्पादक और निर्यातक है और सरकार की राजस्व की निर्भरता तेल के व्यापार पर टिकी है। तेल की कीमत कम होने की वजह से जनता को दी जाने वाली सुविधाओं के लिए राजस्व के एक हिस्से के रूप में सब्सिडी बनाये रखना मुश्किल हो रहा था। साथ ही सऊदी अरब पर राष्ट्रीय ऋण बढ़ता जा रहा था। इसलिए सरकार ने सरकारी कम्पनी सऊदी अरामको के 5 प्रतिशत हिस्से को शेयर बाज़ार में सार्वजानिक विनिवेश का निर्णय लिया। सऊदी अरामको सऊदी अरब के बजट का 80 प्रतिशत इस कम्पनी के राजस्व से ही मिलता है। इस विनिवेश को अधिक खरीददारों का मिलना या यूँ कहें की इसके शेयर में उछाल तेल की कीमतों की वृद्धि पर निर्भर करता है। फाइनेंसियल टाइम्स के एक आँकलन के अनुसार अगर कच्चे तेल की कीमत 64 डॉलर प्रति बैरल से बढ़ कर 93 डॉलर प्रति बैरल तक पहुँच जाता है तो सऊदी अरामको का मूल्य 1.1 ट्रिलियन डॉलर से बढ़ कर 1.5 ट्रिलियन डॉलर हो जाएगा। यानी इस संकट से उबरने के लिए सऊदी अरब को तेल की कीमत में बढ़ोत्तरी की ज़रूरत थी जिसके लिए तेल की आपूर्ति को कम करना ज़रूरी था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सऊदी अरब ने नवम्बर 2016 को रूस के साथ एक गठजोड़ किया। रूस भी एक बड़ा तेल उत्पादक और निर्यातक देश है। दिसम्बर 2016 को समझौता हुआ कि वे 558,000 बैरल प्रति दिन तेल की आपूर्ति कम करेंगे, इसमें से रूस 300,000 बैरल प्रति दिन के हिसाब से कम करेगा। इसके अलावा दूसरे ओपेक देशों ने भी 1.2 मिलियन बैरल प्रति दिन की तेल की आपूर्ति कम की है।
तेल की कीमत में वृद्धि का दूसरा बड़ा कारण वेनेज़ुएला का राजनीतिक और सामाजिक संकट तथा ट्रम्प द्वारा लगाया गया प्रतिबन्ध है। 2014 के शेल उद्योग परिघटना की वजह से तेल की कीमत में भारी गिरावट आई। वेनेजुएला तेल के भण्डार से धनी देश है। यहाँ दुनिया के सबसे बड़े तेल कुण्डों में से एक है। वेनेज़ुएला को निर्यात से प्राप्त राजस्व का 95 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ तेल से आता है। पेट्रो-डॉलर अर्थव्यस्था की कृपा से वेनेज़ुएला चावेज़ काल में एक हद तक कल्याणकारी राज्य बना रहा। तेल की कमाई का एक हिस्सा सरकार जनता के बुनियादी जरूरतों मसलन शिक्षा, स्वास्थ्य, पेंशन, आवास (चावेज़ से मिशन विविएँदा कार्यक्रम चलाया था जिसके अन्तर्गत 20 लाख आवास जनता के लिए बनवाया गया था) आदि में खर्च करती रही। परन्तु कल्याणकारी राज्य अन्ततः पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे में ही काम करता है, यह समाजवाद नहीं होता जहाँ उत्पादन के साधनों और राज्य व्यवस्था पर उत्पादन करने वाले वर्गों का सामूहिक मालिकाना होता है और जहाँ उत्पादन बाज़ार के लिए नहीं बल्कि जनता की जरुरत पूरा करने के लिए होता है। इसलिए कल्याणकारी राज्य की अपनी सीमा होती है, यह सीमा व्यवस्था के संकटग्रस्त होने पर उजागर हो जाती है। क्योंकि मुनाफे के संकट की वजह से लागत मूल्य और सरकारी खर्च लगातार कम होता जाता है और तथाकथिक कल्याणकारी राज्य कल्याणकारी नीति लागू कर पाने में अक्षम साबित होता है। कल्याणकारी राज्य में जो बुर्जुआ वर्ग और मध्य वर्ग पैदा होता है जो कल्याणकारी राज्य की चौहद्दियों में समृधि प्राप्त करता है परन्तु उसकी आकांक्षाएँ इस सीमा को पार करने लगती हैं जिसे पूरा करना कल्याणकारी राज्य के बूते से बाहर होता है। बुर्जुआ वर्ग कल्याणकारी राज्य में घुटन महसूस करता है और मुक्त बाज़ार की अपेक्षा करता है, नतीजतन कल्याणकारी राज्य से जन्मा यह वर्ग उसी के लिए भस्मासुर बन जाता है। वहीं तेल के कारोबार पर टिकी हुई वेनेज़ुएला की अर्थव्यवस्था के चरमराने के कारण कल्याणकारी नीतियों को जारी रखना मुश्किल हो गया व मादुरो की लोकप्रियता गरीब तबके में भी कम होने लगी। इस वजह से वेनेज़ुएला ने अपने तेल निर्यात में कमी कर उसकी कीमत में फिर से वृद्धि करने की कोशिश की। इसी बीच, हाल में हुए चुनाव में मादुरो फिर से जीत गया, ट्रम्प प्रशासन ने इस चुनाव को धाँधली से जीता हुआ और अवैध करार दिया और वेनेज़ुएला द्वारा प्रायोजित तेल आधारित क्रिप्टोकरेंसी पर प्रतिबन्ध लगा दिया। नतीजतन वेनेज़ुएला के तेल निर्यात में कमी आ गयी है। दो साल में तेल निर्यात 2.2 मिलियन बैरल प्रति दिन से घट कर इस साल फ़रवरी तक 1.54 मिलियन डॉलर प्रति दिन तक आ गया। यह भी तेल की कीमत के उछाल का एक बड़ा कारण बना।
तेल की कीमत में उछाल का तीसरा बड़ा कारण ट्रम्प द्वारा ईरान से परमाणु डील को रद्द कर उस पर फिर से प्रतिबन्ध लगा देना है, इससे ईरान द्वारा किये जाने वाले तेल निर्यात में कमी आयी है। यह मध्यपूर्व में रूस-इरान-सीरिया-हिजबुल्ला की मजबूत होती अवस्थिति के खिलाफ अमरीका द्वारा उठाया गया कदम है। कुल मिलकर, तेल एक राजनीतिक माल है जो अन्तरराष्ट्रीय साम्राज्यवादी सरफुटव्वल प्रतियोगिता का एक मैदान बना रहता है। और जब तक पूँजीवाद और साम्राज्यवाद रहेगा ऐसा होने की सम्भावना बनी रहेगी।
भारत में मोदी के कारनामे और तेल का खेल
2014 में जब मोदी चुनाव जीत कर आया ठीक उसी समय शेल परिघटना घटित होती है और अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत में भारी गिरावट आती है। तेल की कीमत 110 डॉलर प्रति बैरल से घट कर 45 डॉलर प्रति डॉलर के आस-पास आ जाती है। नतीजतन घरेलू बाज़ार में भी पेट्रोल और डीजल के कीमतों में कमी आती है लेकिन ये कमी कच्चे तेल की कीमत में कमी के अनुपात से बेहद कम होती है। इस समय ही एक चुनावी सभा को सम्बोधित करते हुए झूठसम्राट मोदी ने कहा “ भाइयो बहनो! पेट्रोल के दाम कम हुए कि नहीं हुए! डीजल के दाम कम हुए कि नहीं हुए! आपका फायदा हुआ कि नहीं हुआ! अगर मेरे नसीब से देश की जनता को फायदा होता है तो इससे अच्छे नसीब की बात और क्या होगी”। अब क्या हमें मोदीजी से यह सवाल नहीं पूछना चाहिए कि “अब तो मोदी जी आपकी ही बदनसीबी से पेट्रोल, डीजल के दाम बढ़ रहे हैं! अगर अब आपकी बदनसीबी जनता का नुकसान कर रही है तो इस बदनसीब से पीछा छुड़ा लेना चाहिए न!” खैर मोदीजी इस मुद्दे पर मौन हैं। अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में कीमत कम होने के बावजूद जनता को उतनी राहत इसलिए नहीं मिली क्योंकि मोदी सरकार ने एक्साइज और कस्टम ड्यूटी या यूँ कहें की जनता से पेट्रोलियम उत्पाद पर टैक्स बहुत बढ़ा दिया है। मोदी सरकार के आने के समय पेट्रोल और डीजल पर एक्साइज ड्यूटी 9.48 रुपये और 3.56 रुपये क्रमशः थी जोकि आज बढ़ कर 21.48 रुपये और 17.33 रुपये हो गयी है। भारत उन देशों में से एक है जहाँ पेट्रोल और डीजल पर टैक्स दुनिया में सबसे ज्यादा है। जनता को महँगा तेल बेच कर वसूले गए टैक्स का इस्तेमाल पूँजीपतियों को टैक्स माफ़ी करने में किया जा रहा है। तालिका-1 में देखें कि भारत में पड़ोसी देशों के मुकाबले पेट्रोल डीजल की कीमत कितनी ज्यादा है।
उपरोक्त तालिका से आप देख सकते हैं कि सापेक्षत: गरीब पड़ोसी देशों में पेट्रोल और डीजल की कीमतें भारत के मुकाबले कम है। इसमें एक बात और जोड़ देना जरुरी है कि श्रीलंका भारत से पेट्रोल और डीजल आयत करता है फिर भी वहाँ पर कीमत भारत से कम हैं। आप इसी बात से अंदाजा लगा सकते हैं कि मोदी सरकार जनता से कितना टैक्स वसूल रही है। अगर हम अमीर देशों से तुलना करें तो हम पाएँगे की पेट्रोल, डीजल की कीमतें और प्रति व्यक्ति आय का अनुपात भारत में वहाँ से 40 गुने से अधिक है। मतलब भारत के लोग अपनी आय की तुलना में पेट्रोल डीजल पर कर कई गुना ज्यादा देते हैं।
मोदी और भक्तों का झूठ कि पेट्रोल और डीजल से अर्जित राजस्व मूलभूत अवरचना के विकास और जन कल्याण कार्यों में लगाया जा रहा है!
मोदी और इसके भक्तों के मुँह से ये अक्सर सुनने को मिलता है कि पेट्रोल और डीजल की कीमतें देशहित में बढ़ायी जा रही हैं और आप इस वृद्धि की शिकायत न करें और देश के लिए थोड़ी कुर्बानी करें। ये पैसा वापस देश के “विकास” के लिए ही खर्च होता है , मूलभूत अवरचना का निर्माण हो रहा है जो कि मोदीजी से पहले कभी नहीं हुआ! 1200 वर्षो की गुलामी के बाद अब पहली बार पिछले 4 वर्षो से देश फिर से विश्व विजयी और जगत गुरु बनने की ओर अग्रसर है। यहाँ पहली बार गाँव में बिजली पहुँच रही है, सड़क बन रही है, पुल का निर्माण हो रहा है, आपके बच्चों के लिए शिक्षा का इन्तज़ाम किया जा रहा है, स्वास्थ्य पर खर्च किया जा रहा है। भक्त नाक सिकोड़ते हुए कहते हैं कि इतना पैसा क्या राहुल गाँधी के नानीघर इटली (वैसे भक्तों को शायद पता नहीं है कि इटली मुसोलिनी का यानी इनके आकाओं का भी नानीघर रहा है!) से आएगा! ऊपर से कांग्रेस की पिछली सरकार में ईरान का 43000 करोड़ का कर्ज हमारे ऊपर थोप दिया है और देश का नाम पूरी दुनिया में खराब कर दिया। आखिर महान मोदीजी को ये कर्ज चुकाना पड़ रहा है, इसके लिए थोड़ा सब्र भी नहीं कर सकते! आइये, हम एक-एक कर मोदी और भक्तों के कुकर्मों और कुतर्कों की पोल खोलते हैं। आइये देखते हैं कि कैसे गोएबल्स की ये औलादें झूठ और फरेब के प्रचार में अपने बाप से भी कई गुना आगे निकल गयी हैं!
आइये सबसे पहले हम देखते हैं की केंद्र सरकार के राजस्व में पेट्रोलियम सेक्टर से पिछले 4 वर्षों में कितनी कमाई हुई है। पेट्रोलियम सेक्टर से मोदी कार्यकाल में 5 लाख करोड़ की अतिरिक्त कमाई हुई है, मतलब अगर मोदीकाल के 4 वर्षों के पेट्रोलियम सेक्टर से प्राप्त राजस्व को जोड़ दे तो ये कमाई पिछले 4 वर्षों के कुल प्राप्त राजस्व से 5 लाख करोड़ अधिक है। आइये हम इसे अंक तालिका-2 से समझने का प्रयास करते हैं।
तालिका – 2
पेट्रोलियम सेक्टर से कस्टम और एक्साइज ड्यूटी की वसूली
वित्त वर्ष कुल राशि (करोड़ रूपये में)
2011-12 95,229
2012-13 98,603
2013-14 1,o4,163
2014-15 1,22,926
2015-16 2,13,995
2016-17 3,00,295
2017-18( अप्रैल-दिसम्बर) 2,30,807
स्रोत -पेट्रोलियम मंत्रालय
हम साफ़ तौर पर देख सकते हैं कि पेट्रोलियम सेक्टर से मोदी काल में सरकार की आमदनी में पहले के मुकाबले 270-300 प्रतिशत की भारी वृद्धि हुई है। क्या इतना सारा पैसा सरकार में मूलभूत संरचना के विकास में लगाया है ? आइये
इसकी भी हम जाँच करते हैं। हम तालिका-3 में देखेंगे की मूलभूत संरचना के निर्माण में खर्च की वृद्धि का दर कितना रहा है क्या इस दर में वृद्धि भी उसी हिसाब से हुई है जिस हिसाब से सरकार ने पेट्रोलियम से टैक्स की वसूली की है या फिर कुछ गोलमाल है!
तालिका – 3
केंद्र सरकार द्वारा मूलभूत पूँजी में खर्च की प्रवृत्ति
वित्तीय वर्ष खर्च (करोड़ रूपये में) वृद्धि (%)
2015-16 2,37,718
2016-17 2,61,416 9.9
2017-18 2,73,445 4.6
2018-19 2,91,944 (BE*) 6.7
औसत वृद्धि – 7.06%
स्रोत -केन्द्रीय बजट, * Budget Estimate
साफ है कि मूलभूत अवरचना में खर्च करने की बात सफ़ेद झूठ है। एक बात और गौर करने वाली है कि सरकार ने 2017-18 के बजट में आवंटित पैसों में से बाद में संशोधित बजट में 36,556 करोड़ रूपये की कटौती कर दिया। यहाँ एक बात पर और चर्चा करना बेहद जरुरी है कि, हर साल जो बजट में आवंटित राशि अलग-अलग मद में दी जाती है, सरकार बाद में उसेमें परिवर्तन कर संशोधित बजट कर किसी और मद में हस्तान्तरित कर सकती है। ऊपर की तालिका से साफ़ तौर पर पता चलता है कि मोदीकाल में आधारभूत पूँजीनिवेश में सिर्फ 7 प्रतिशत सालाना के हिसाब से मामूली वृद्धि हुई है जोकि बेहद सामान्य है और जो पहले से भी होती रही है। साफ़ है की पेट्रोल से कमाई गयी राशि का इस्तेमाल आधारभूत पूँजी निर्माण में नहीं हुआ बल्कि कहीं और हुआ है। इस झूठ के पुलिन्दे के ताबूत में आखिरी कील ठोकने के लिए ये तर्क भी बेहद उचित है कि अगर सड़क निर्माण के लिए पेट्रोलियम से अधिक टैक्स वसूले जा रहे हैं तो टोल टैक्स और रोड टैक्स किस लिए वसूला जाता है? अब हम मोदी और उसके भक्तों के इस कुतर्क के खंडन पर आते है कि इन पैसों का इस्तेमाल शिक्षा, स्वास्थ और दूसरे जन कल्याण की योजना चलाने के लिए इस्तेमाल होता है। तालिका-4 में हम देखेंगे कि शिक्षा में खर्च सरकार किस प्रकार से कम कर रही है।
इस तालिका से साफ़ साफ़ पता चलता है कि मोदी सरकार ने शिक्षा के ऊपर बजट पर भारी कटौती की है, सापेक्ष तौर पर भी और निरपेक्ष तौर पर भी। 2014-15 में 1,10,351.1 करोड़ रूपये से घटा कर 2018-19 में 85,010.29 करोड़ रूपये कर दिया यानी 25340.81 करोड़ रूपये की भारी कटौती और यदि कुल बजट के हिस्से की बात करें तो 6.15 % से घट कर 3.48% यानी कुल 2.67 % की अप्रत्याशित कमी की गयी है।
तालिका – 4
शिक्षा पर नरेंद्र मोदी सरकार का खर्च
वित्तीय वर्ष मानव संशाधन मंत्रालय का बजट कुल केन्द्रीय बजट कुल केन्द्रीय बजट का हिस्सा(% में)
2014-15 1,10,351.10 1,794891.96 6.15
2015-16 96,649.76 1,777,477.04 5.44
2016-17 92,666.65 1,978,060.45 4.68
2017-18 79,685.95 2,146,734.78 3.71
2018-19 85,010.29 2,442,213.3 3.48 स्रोत -केन्द्रीय बजट , सभी आँकड़े बजट अनुमान (करोड़ रूपये में)
इंडिया स्पेंड के एक आँकलन के हिसाब से 2018-19 के बजट में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के लिए आवण्टित पैसे में 2.1 प्रतिशत की कटौती की गयी है। स्वच्छ भारत मिशन में आवण्टन में 7 प्रतिशत की कटौती की गयी है जबकि स्वंय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने लोकसभा में बताया कि शिक्षा और स्वास्थ्य कर 3 प्रतिशत से बढ़ा कर 4 प्रतिशत कर दिया गया है जिससे 11000 करोड़ अतिरिक्त राशी की उगाही हो सकेगी और जनकल्याण के लिए खर्च किया जायेगा। लेकिन ऊपर के आँकड़ों से आप समझ सकते हैं कि इस फासीवादी सरकार ने किसके कल्याण के लिए जनता पर करों का बोझ डाला है! मनरेगा का बजट 2012 में 0.4 प्रतिशत से घट कर 2018-19 में 0.29 प्रतिशत रह गया था, हालाँकि इसमें गिरावट यूपीए के काल से ही शुरू हो गया थी और कुछ समय के लिए मोदी काल में वृद्धि भी हुई थी लेकिन अब फिर से इसमें भारी गिरावट की गयी और यह 0.29 प्रतिशत तक पहुँच गया है। 2012-13 में अनुसूचित जनजाति के 92.33 लाख घरों के एक व्यक्ति को रोज़गार मिलता था जोकि अब घट कर 81.19 घरों के एक व्यक्ति को रोज़गार मिल रहा है यानी कुल 11.14 लाख रोज़गार की सीधे कमी आयी है। वही अनुसूचित जाति की बात करें तो ये इसमें 2 लाख की कमी आई है। अनुसूचित जनजाति परिवारों को 100 दिन के रोज़गार मिलने की बात करें ये 2012 में 11% से घट कर अब 8.3 % हो गया है, वहीं अनुसूचित जाति के मामले में 2012 में 10 % से घट कर 2016-17 में 7.5 प्रतिशत हो गया है।
सरकारी स्कूलों में बच्चों को मिलने वाला मध्यान भोजन के बजट में 2014-15 में 13215 करोड़ रूपये से घटा कर 2018-19 में 10,500 करोड़ रुपया कर दिया गया है। यानी कुल 2715 करोड़ की कटौती की गयी है, 2013-14 में 10.79 करोड़ बच्चे इस योजना से लाभान्वित थे जोकि 2018-19 में 9.83 करोड़ रह गए हैं । यानी मोदीजी ने करीब 97 लाख बच्चों का भोजन छीन लिया है।
ऊपर प्रस्तुत किये गए आँकड़ें से साफ़ जाहिर होता है की मोदी ने जनता के जनकल्याण के लिए कुछ नया नहीं किया बल्कि उलटे भारी कटौती की और दूसरी ओर पेट्रोलियम में टैक्स की भारी वृद्धि की जिसका लाभ जनता को बिलकुल नहीं मिला। जबकि अम्बानी और अदानी के कर्जे माफ़ किये गए हैं ।
ईरान को मोदी द्वारा 43 हज़ार करोड़ रूपये का पुराना कर्ज लौटाने का भ्रामक प्रचार
भक्तों का एक और झूठ बहुत प्रचलित हो रहा है कि पिछली सरकार द्वारा ईरान से लिया गया 43000 करोड़ का कर्ज चुकाया नहीं था जिसे मोदी सरकार को चुकाना पड़ रहा है इसलिए पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ रही है। आइये इस झूठ का भी पर्दाफाश करते हैं। 2011 में अमेरिका और नाटो ने ईरान पर प्रतिबन्ध लगा दिया था क्योंकि ईरान 2006 से ही अपने लिए परमाणु हथियार बना रहा था। ईरान भारत को 4,00,000 बैरल प्रतिदिन तेल भेजता था, जो घटकर 1,00,000 बैरल प्रतिदिन पर आ गया। भारत ईरान से ख़रीदे गए तेल का 55 प्रतिशत हिस्सा तुर्की के हल्कबैंक के जरिये भुगतान करता था। और बाकी की बची 45 प्रतिशत रकम भारत यूको बैंक के जरिये रूपये में ईरान को देता था। 2013 में अमेरिका ने ईरान पर और भी प्रतिबन्ध लगा दिये, जिसकी वजह से ईरान को भुगतान हल्क बैंक के जरिये नहीं हो पा रहा था। नतीजा यह हुआ कि भारत पर ईरान का कुल 6.4 बिलियन डॉलर बकाया हो गया। इस बकाये में तेल कम्पनी मंगलोर रिफाईनरी एण्ड पेट्रोकेमिकल लिमिटेड को 500 मिलियन डॉलर, निजी कम्पनी एस्सार आयल को 500 मिलियन डॉलर और इंडियन आयल कारपोरेशन को करीब 250 मिलियन डॉलर देने थे। इसके अलावा हिंदुस्तान पेट्रोलियम कारपोरेशन को 642 करोड़ रूपये और एचपीसीएल मित्तल एनर्जी को 200 करोड़ और इनके अलावा दूसरी कम्पनियों पर भी ईरान का बकाया था। यह प्रतिबन्ध 14 जुलाई 2015 तक जारी रहा। इसके बाद ईरान से कुछ प्रतिबन्ध हटा लिए गए, लेकिन हल्क बैंक के जरिये पेमेण्ट पर रोक बरक़रार रही । इस दौरान ईरान ने प्रतिबन्ध हटने के बाद से नियमों में बदलाव कर दिया। पहले तो ईरान भारत को दिए जाने वाले तेल पर आधा ही ट्रांसपोर्टेशन चार्ज लेता था लेकिन अब पूरा किराया लेना शुरू कर दिया। इस तरह हम देख सकते हैं कि ईरान का कोई कर्ज नहीं था, सिर्फ पेमेण्ट के चैनल बन्द हो गए थे इसलिए उसे भुगतान नहीं हो पा रहा था, जो पेट्रोल डीजल आम जनता खरीद चुकी थी उसका पैसा तो तेल कम्पनियों के पास जमा था बस वह ईरान को दे नहीं पा रही थीं। इसमें कर्ज वाली कोई बात नहीं है, यह झूठ भक्तगण फैला रहे थे।
अल्प-वसूली (अण्डररिकवरी) और सब्सिडी का भ्रामक मिथ्या प्रचार
पेट्रोल और डीजल के बारे में एक भ्रम यह भी फैलाया जाता है कि तेल कम्पनियों को इसमें अण्डररिकवरी होती है यानी सरल भाषा में बात करें तो घाटा होता है और इसके लिए सरकार सब्सिडी देती है। परन्तु असल में पेट्रोलियम कम्पनियाँ जबरदस्त मुनाफा कमा रही हैं और गणना के खेल से जनता को मूर्ख बनाने का काम करती हैं। हम इस चालबाजी का सरल भाषा में पर्दाफाश करेंगे। भारत कच्चे तेल को आयात करने वाले देशों की सूची में अग्रिम स्थान रखता है। चीन, अमेरिका और जापान के बाद भारत ही सबसे बड़ा तेल आयातक देश है और कुल वैश्विक आयत का करीब 7 प्रतिशत हिस्सा है। इस कच्चे तेल को देश के अलग-अलग रिफाइनरी में रिफाइन कर डीजल, पेट्रोल और दूसरे पेट्रोलियम उत्पात निकाले जाते है फिर उसे आयल मार्केटिंग कम्पनीज (ओएमसी) के जरिये बाज़ार में उतारा जाता है। अब डीजल या पेट्रोल की वास्तविक कीमत को अगर हम समझें, तो मान लीजिये कच्चे तेल की कीमत 30 रूपये लीटर है और उसे रीफाइन कर पेट्रोल को बाज़ार में उतारने में 15 रूपये का खर्च लग जाता है और 20 रुपये टैक्स में लग जाते हैं व कम्पनी इसमें 5 रूपये का मुनाफा जोड़ कर इसे 70 रूपये में बाज़ार में उतारती है। कम्पनी को 5 रूपये का मुनाफा हो रहा है। लेकिन कम्पनियाँ यह पेश करती हैं कि इन्हें अण्डररिकवरी होती है परन्तु हमने देखा कि इन कम्पनियों को मुनाफा होता है। यह इसलिए है कि पेट्रोल की कीमत का मूल्यांकन उपरोक्त तरीके से करने के बजाय पेट्रोल की अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार कीमतों के आधार पर किया जाता है। भारत में पेट्रोल की कीमतों का मूल्यांकन सिंगापुर के मानक से किया जाता है। इस प्रक्रिया को ट्रेड पैरिटी प्राइसिंग कहा जाता है जिसके तहत भारत में ये कम्पनियाँ सिंगापुर में पेट्रोल की कीमत (सिंगापुर में पेट्रोल की कीमत भारत से हर हमेशा ज्यादा होती है क्योंकि यहाँ श्रम व उत्पादन की अन्य प्रक्रियाएँ भारत से अधिक महँगी हैं) व ढुलाई हेतु आये खर्च का जोड़ कर पेट्रोल की कीमत निकालती हैं। इस प्रक्रिया के तहत माना जाता है कि भारत 80 प्रतिशत आयत करेगा व 20 प्रतिशत निर्यात करेगा। इस प्रकार पेट्रोल की कीमत काल्पनिक तौर पर अनुमानित की जाती है। इस पद्धति के अनुसार, अगर उपरोक्त गणना के अनुपात में जोड़ें तो तेल कम्पनियाँ बताती हैं कि असल में पेट्रोल की कीमत 75 रूपए है जबकि वे बाज़ार में पेट्रोल 70 रूपए में बेच रही हैं अर्थात उन्हें प्रति लीटर 5 रूपए अण्डररिकवरी हो रही है। परन्तु यह झूठ है क्योंकि पेट्रोल की कीमत का मूल्यांकन भारत में परिष्करण के दौरान आये खर्च, ढुलाई व अन्य खर्चों के अनुसार नहीं बल्कि सिंगापुर की कीमत के अनुसार किया जाता है। अब इसे एक और उदहारण से समझें तो इस झूठ को आसानी से पकड़ा जा सकता है। भारत में कोका कोला की 500 मिलीलीटर की बोतल की कीमत बाज़ार में 35 रूपए है जबकि इंग्लैंड में इसकी कीमत 110 रूपए है। कोका कोला का अगर लन्दन से आयत किया जात तो धुलाई की कीमत, कस्टम ड्यूटी व अन्य खर्च भी इसमें जुड़ जाते, मान लेते हैं कि इसकी कीमत अब 120 रुपये प्रति आधा लीटर पड़ती। अब अगर भारत कोका कोला की कीमत ट्रेड पैरिटी प्राइसिंग के अनुसार करता तो कम्पनी यह कह सकती है कि यह करीब 85 रूपए की अण्डररिकवरी कर रही है! और सरकार कम्पनी को सब्सिडी दे! इस बात से यह साफ़ है कि भारत में पेट्रोलियम कम्पनियों को घाटा नहीं हो रहा है बल्कि जबरदस्त मुनाफा हो रहा है।
अन्त में पेट्रोल और डीजल का व्यापार सरकार और पूँजीपतियों की व्यापक लूट का एक धन्धा और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर साम्राज्यवादी देशों की आपसी प्रतियोगिता और सरफुटव्व्ल का एक मैदान है जिसका नुकसान अन्ततोगत्वा गरीब और मेहनतकाश जनता को ही उठाना पड़ता है। यानी कुल मिलाकर बात यह है कि एक तरफ तो मोदी सरकार तेल की अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में घटती बढ़ती कीमतों से इतर हमें बेइन्तहा लूट रहे हैं और इस लूट को वैध करार देने के लिए मोदी का गोदी मीडिया, भाजपा का आई टी सेल और संघी जमकर झूठ का कीचड़ फैला रहे हैं। परन्तु सच यह है कि संघी सरकार कोर्पोरेट घरानों के तलवे चाट रही है और देश को लूट और बर्बाद कर इन्हें आबाद कर रही है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मई-जून 2018
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