ब्राजील में फासिस्ट बोलसोनारो की जीत, विश्व स्तर पर नया फासिस्ट उभार और आने वाले समय की चुनौतियाँ
कविता कृष्णपल्लवी
विश्व पूँजीवाद असाध्य ढाँचागत संकट से ग्रस्त है। यह दीर्घकालिक संकट थोड़ा दबता, फिर उभड़ता, 1970 के दशक से ही जारी है। अर्थव्यवस्था का इस हद तक अतिवित्तीयकरण पूँजीवाद के इतिहास में पहले कभी नहीं देखा गया था। इन्हीं बुनियादी कारणों के चलते, आज पूरे विश्व स्तर पर बुर्जुआ जनवाद का स्पेस सिकुड़ रहा है, बुर्जुआ सत्ताएँ ज्यादा से ज्यादा निरंकुश दमनकारी हो रही हैं और पूरी दुनिया में विभिन्न रूपों में फासिस्ट उभार हो रहा है। पश्चिम से लेकर पूरब तक, और उत्तर से लेकर दक्षिण तक, बुर्जुआ समाज फासिज़्म की उर्वर नर्सरी बन चुका है। कई देशों में फासिस्ट हुकूमत पर काबिज हैं या होने की स्थिति में हैं और कई देशों में फासिस्ट प्रकृति के उग्र मूलतत्ववादी (फण्डामेण्टेलिस्ट) आन्दोलन चल रहे हैं।
आज के फासिस्टों की अपने देश से बाहर सैन्य आक्रामकता 1920 और 1930 के दशक के ज़र्मनी, इटली के फासिस्टों जैसी भले न हो, लेकिन देश के भीतर मेहनतकशों, धार्मिक-नस्ली-राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों और स्त्रियों पर अत्याचार और दमन करने में ये ज़रा भी पीछे नहीं है। यह भी ध्याान देने की बात है कि दुनिया की जितनी बड़ी आबादी आज सीधे फासिस्ट हुकूमतों या धुरदक्षिणपन्थी के मातहत हैं, वह दूसरे विश्वयुद्ध के पहले के फासिस्ट-शासित देशों से बहुत अधिक है। 1 अरब 30 करोड़ आबादी वाले भारत पर रा.ज.ग. के लग्गू-भग्गुओं के साथ मोदी के नेतृत्व में फासिस्ट भाजपा शासन कर रही है। क़रीब 8 करोड़ आबादी वाले तुर्की पर एर्दोगान की धुर-दक्षिणपन्थी पार्टी शासन कर रही है। 10.49 करोड़ की आबादी वाले फिलीपीन्स का शासक दुआर्ते भी क्वा्सी-फासिस्ट है। 4.48 करोड़ आबादी वाले उक्रेन की सत्ता भी फासिस्टोंे के हाथ में है। और 87.1 लाख आबादी वाले इस्रायल के बर्बर जायनिस्ट फासिस्टों के काले कारनामों से भला कौन परिचित नहीं।
अभी एक महत्वभपूर्ण घटना यह घटी है कि ब्राजील (20.93करोड़) के राष्ट्रपति चुनाव में फासिस्ट उम्मीदवार जायर बोलसोनारो (55.1 प्रतिशत वोट) ने लूला की वर्कर्स पार्टी के उम्मीदवार फर्नाण्डो हद्दाद (44.9 प्रतिशत वोट) को पराजित कर दिया है। इतने देशों की सत्ता फासिस्टों के हाथ में है और यूरोप से लेकर एशिया-अफ्रीका-लातिन अमेरिका के कई देशों में या तो सशक्त फासिस्ट आन्दोलन मौजूद हैं या फासिस्टि पार्टियाँ सत्ता में आने के लिए जी तोड़ कोशिश कर रही हैं। जाहिर है कि जो धुर-दक्षिणपन्थी निरंकुश बुर्जुआ सत्ता्एँ हैं उनका इन फासिस्टी सत्ताओं से निकट सम्बन्ध- है और परस्पर प्रतिपर्द्धारत साम्राज्यवादी शक्तियाँ भी इन्हें अपने पक्ष में लेने के लिए भरपूर मदद करती रहती हैं।
आज की ये फासिस्ट सत्ताएँ विश्व बाज़ार पर वर्चस्व की महत्वाकांक्षा पालने की स्थिति में नहीं हैं, लेकिन इनकी क्षेत्रीय विस्तारवादी व प्रभुत्ववादी महत्वाकांक्षाएँ ज़रूर हैं। भारतीय फासिस्ट भारतीय उपमहाद्वीप में, अपनी धौंसपट्टी दिखाते हैं। दुआर्ते आसपास के देशों को धमकाता है। तुर्की यूरोप में अपनी दख़ल बढ़ाने के साथ ही अरब देशों में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है। उक्रेन पश्चिमी शह पर रूसी खेमे से टकराता है। इस्रायल फिलिस्तीन पर कहर बरपा करने के साथ ही कई अरब देशों की ज़मीन दबाये बैठा है और मध्य पूर्व में अमेरिकी सैनिक चेकपोस्ट का काम करता है। भूमण्डलीकरण के इस दौर में दुनिया के सभी साम्राज्यवादी देशों की पूँजी जिस तरह सभी देशों में लगी है, उसे देखते हुए आज यह सम्भावना बहुत कम है कि अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा का विस्फोट किसी विश्वयुद्ध के रूप में हो। दूसरी बात यह कि गत दो विश्वयुद्धों से और उनके बाद होने वाली क्रान्तियों से साम्राज्यवादियों ने भी सबक लिया है। अत: ज्यादा सम्भावना यही है कि आज की पूँजीवादी दुनिया के अन्तरविरोध क्षेत्रीय युद्धों के रूप मे फूटते रहेंगे। आज अरब भूभाग में यह हो रहा है, कल को अफ्रीका, लातिन अमेरिका, मध्य एशिया या एशिया का कोई और भाग भी साम्राज्यवादियों और क्षेत्रीय बुर्जुआ शक्तियों की आपसी ज़ोर-आजमाइश का केन्द्र हो सकता है। इन क्षेत्रीय युद्धों में प्रभुत्ववादी महत्वाकांक्षा वाली फासिस्ट सत्ताओं की महत्वपूर्ण भूमिका होगी, बेशक़ यह भूमिका इस या उस साम्राज्यवादी शक्ति के साथ गठजोड़ करके ही बनेगी।
लेकिन मुख्य बात यह है कि मुख्यत: तीसरी दुनिया के देशों में केन्द्रित फासिस्ट शक्तियों की भूमिका अन्तरराष्ट्रीय पटल पर नहींं, बल्कि सम्बन्धित देशों के भीतर बनेगी। ये फासिस्ट नवउदारवाद की नीतियों को देशी बुर्जुआ वर्ग और साम्राज्यवादियों के हक़ मे लोहे के हाथों से लागू करेंगे और आर्थिक तबाही-बर्बादी के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाली जनता को बेरहमी के साथ कुचलेंगे। बीसवीं शताब्दी में फासिस्ट शक्तियों को नेस्त़नाबूद करने में समाजवादी सोवियत संघ ने सर्वप्रमुख भूमिका निभायी थी। आज विश्व-पटल पर न तो कोई समाजवादी देश या शिविर मौज़ूद है, न ही विश्वभयुद्ध जैसी किसी स्थिति की अधिक सम्भावना है। ऐसी सूरत में तय है कि विभिन्न देशों में सत्तारूढ़, या शक्तिशाली होती जा रही फासिस्ट ताकतों से फैसलाकुन युद्ध की तैयारी मेहनतकश जन समुदाय को अपने बूते करनी होगी और अपने बूते ही उन्हें निर्णायक शिकस्त देनी होगी। पूँजीवाद के असाध्य ढाँचागत संकट से पैदा हुआ इक्कीस्वीं सदी का फासिज़म अब पूँजीवाद के जीवनपर्यन्त बना रहेगा, और सत्ता में न रहने की स्थिति में भी सामाजिक उत्पादत-उपद्रव मचाता रहेगा। दूसरी बाद, आज की दुनिया में नवउदारवाद को आम सहमति की नीति मान लेने के बाद, कोई भी बुर्जुआ या सामाजिक जनवादी पार्टी फासिज्म विरोधी क्रान्तिकारी संयुक्त मोर्चे को हिस्सा नहीं बनाया जा सकता है। इस मोर्चे में मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी के अतिरिक्त अन्य विभिन्न मज़दूर आन्दोंलन के प्ले टफार्म, मेहनतकश वर्गों के संगठन और निम्न-बुर्जुआ वर्ग के कुछ रैडिकल संगठन ही शामिल हो सकते हैं।
मुख्य बात यह ध्यान में रखने की है कि फासिज़्म विरोधी संघर्ष का सवाल किसी फासिस्ट पार्टी को संसदीय चुनाव में हराने का सवाल नहीं है। चुनाव हारकर भी फासिस्ट समाज में अपनी प्रतिक्रान्तिकारी कार्रवाइयाँ जारी रखेंगे। फासिज़्म निम्न बुर्जुआ वर्ग का तृणमूल स्तर से (एक कैडर आधारित दल द्वारा) संगठित धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन (एक रूमानी उभार) है, जिसे मेहनतकश वर्गों का जुझारू प्रगतिशील सामाजिक आन्दोलन तृणमूल स्तर से खड़ा करके ही पीछे धकेला जा सकता है।
ब्राजील के राष्ट्रपति चुनाव में फासिस्ट बोलसोनारो की जीत ने स्पष्ट कर दिया है कि संकटग्रस्त बुर्जुआ वर्ग ने अपनी रक्षा के लिए कुत्तेु की जंज़ीर को ढीला छोड़ दिया है। दैत्य-दुर्ग के पिछवाड़े सम्भावित तूफान से आतंकित अमेरिकी साम्राज्यवाद भी इस फासिस्ट की पीठ पर खड़ा है। एक दिलचस्प जानकारी यह भी है कि जायर बोलसोनारो इतालवी-जर्मन मूल का ब्राजीली नागरिक है। उसका नाना हिटलर की नात्सी सेना में सिपाही था। ब्राजील में बोलसोनारो का सत्तारूढ़ होना अपने-आप में इस सच्चाई को साबित करता है कि तथाकथित समाजवाद का जो नया सामाजिक जनवादी मॉडल लातिन अमेरिका के कई देशों में गत क़रीब दो दशकों के दौरान स्थापित हुआ था (जिसके हमारे देश के संसदीय जड़वामन वामपन्थी भी खूब मुरीद हो गये थे), वह सामाजिक जनवादी गुलाबी लहर (‘पिंक टाइड’) भी अब उतार पर है। दरअसल यह तथाकथित समाजवाद (चाहे वह लूला का समझौतापरस्ता चेहरे वाला हो या शावेज़ का गरम चेहरे वाला) बुर्जुआ “कल्याणकारी राज्य’’ का ही एक नया सामाजिक जनवादी संस्करण है। इन सभी लातिन अमेरिकी देशों में जो लोकप्रिय सरकारें क़ायम हुई थीं, उन्होंने बुर्जुआ राज्यसत्ता का ध्वंस करके सर्वहारा राज्यसत्ता की स्थापना नहीं की थी। बुर्जुआ सामाजिक ढाँचे और बुर्जुआ हितों को बरक़रार रखते हुए इन सरकारों ने शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के क्षेत्र में कुछ सुधारपरक कदम उठाये थे और कुछ सेक्टरों में राष्ट्रीकरण के काम को अंजाम दिया था। अब कोई मतिमन्दा ही मात्र इन कदमों के आधार पर किसी सत्ता को समाजवाद कह सकता है। लातिन अमेरिका में चीले में आयेन्दे के तख़्तापलट और निकारागुआ में सान्दिनिस्ता के नवउदारवादी विपथगमन की घटनाएँ पहले भी घट चुकी हैं। अभी जो समाजवाद नामधारी “कल्याणकारी राज्य’’ चल रहे हैं, बुर्जुआ दायरे में वे एक सीमा तक जनता को कुछ दे सकते हैं। फिर सन्तृप्तिबिन्दु पर पहुँचकर उनको संकटग्रस्त’ होना ही है। ऐसी स्थिति में वे या तो स्वयं निकारागुआ के सान्दिनिस्ता की तरह नवउदारवाद की राह पकड़ सकते हैं, या फिर अमेरिका समर्थित तख़्तापलट के शिकार हो सकते हैं, या फिर ब्राजील जैसे बुर्जुआ संसदीय चुनाव में उन्हेंे हराकार कोई धुर-दक्षिणपन्थी या फासिस्ट पार्टी सत्ता रूढ़ हो सकती है।
ब्राजील का अनुभव एक बार फिर यही सिद्ध करता है कि फासिज़्म या हर प्रकार की धुर-दक्षिणपन्थी राजनीति के उभार का मुकाबला सामाजिक जनवाद या संसदीय वामपंथ की कोई “गुलाबी लहर’’ नहींं कर सकती। जबतक दुनिया में एक सच्ची क्रान्तिकारी लाल लहर नहीं संगठित होगी, फासिज़्म और धुर-दक्षिणपन्थी राजनीति की बर्बरता और कहर को दुनिया झेलती रहेगी।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-दिसम्बर 2018
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