प्रेमचन्द, उनका समय और हमारा समय : निरन्तरता और परिवर्तन के द्वन्द्व को लेकर कुछ बातें
प्रेमचन्द, उनका समय और हमारा समय : निरन्तरता और परिवर्तन के द्वन्द्व को लेकर कुछ बातें कविता कृष्णपल्लवी प्रेमचन्द की 300 से अधिक कहानियों में से कम से कम 20…
प्रेमचन्द, उनका समय और हमारा समय : निरन्तरता और परिवर्तन के द्वन्द्व को लेकर कुछ बातें कविता कृष्णपल्लवी प्रेमचन्द की 300 से अधिक कहानियों में से कम से कम 20…
कौन-सा घुन है जो हमारे युवाओं को भीतर ही भीतर खाये जा रहा है? उम्मीदों और सपनों से भरी उम्र में नाउम्मीदी, चुप्पी, अकेलेपन और मौत का दामन क्यों थाम रहे हैं इस देश के नौजवान? चारों ओर अवसाद का अँधेरा छाया हुआ है। खोखली हँसी, मोबाइल पर बतियाते, इंटरनेट पर चैटिंग करते, मशीनों की तरह भागते-दौड़ते, अकेलेपन के रौरव नरक में जीते लोग। आत्मनिर्वासित आत्माएँ। चमकदार चीजों के बीच बुझे हुए चेहरे। इस अँधेरे से कैसे निकलें?
‘एनजीओ ब्राण्ड सुधारवाद’ आम सुधारवाद से भी बहुत अधिक खतरनाक होता है, उसे देशी-विदेशी पूँजी ने अपनी तथा पूरी बुर्जुआ व्यवस्था की सेवा के लिए ही संगठित किया है—इस बात को समझना आज बहुत ज़रूरी है। एनजीओ सेक्टर के शीर्ष थिंक टैंक अक्सर पुराने रिटायर्ड क्रान्तिकारी, अनुभवी, घुटे हुए सोशल डेमोक्रेट और घाघ-दुनियादार बुर्जुआ लिबरल होते हैं जो देशी-विदेशी पूँजी की फ़ण्डिंग से जन-असन्तोष के दबाव को कम करने वाले सेफ़्टी वॉल्व का, एक क़िस्म के स्पीड-ब्रेकर का निर्माण करते हैं। साथ ही यह रोज़गार के लिए भटकते संवेदनशील युवाओं को “वेतनभोगी समाज-सुधारक” बनाकर इसी व्यवस्था का प्रहरी बना देने वाला एक ट्रैप भी है। यूँ तो एनजीओ नेटवर्क पूरे देश में फैला है, लेकिन झारखण्ड, छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े इलाकों के साथ ही उत्तराखण्ड के पहाड़ों के नाके-नाके तक ये फैल गये हैं और रैडिकल राजनीतिक चेतना को भ्रष्ट और दिग्भ्रमित करने का काम भयंकर रूप में कर रहे हैं।
अपने उत्पीड़न के विरुद्ध किसी व्यक्ति का बोलना तभी एक फलदायी प्रक्रिया बन सकता है जब ऐसी सभी आवाज़ें एक सामूहिकता में संघटित हों और उस सामाजिक व्य़वस्था को निशाने पर लेते हुए सड़कों पर लामबंद होने की दिशा में आगे बढ़ें जो ऐसे तमाम उत्पीड़नों की जन्मदात्री है। ‘मी टू’ के दौरान बेनकाब होने वाले चेहरे, मुमकिन है कि, कुछ समय तक सकपका जायें या चुप्पी साध जायें, चन्द लोग फिल्मों आदि के प्रोजेक्ट से (कुछ समय के लिए) निकाले जा सकते हैं, पर आप देख लीजियेगा, ऐसे तमाम लोग कुछ समय बीतते ही अपने सामाजिक रुतबे और बेशर्म हँसी के साथ फिर से सार्वजनिक जीवन में सक्रिय होंगे क्योंकि समाज में वर्चस्वशील पुरुषस्वामित्ववाद उन्हें पूरा सहारा-संरक्षण और प्रोत्साहन देगा। मीडिया, मनोरंजन उद्योग राजनीति और सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में मौजूद यौन-ड्रैक्युला गले में दाँत धँसा देने के लिए स्त्रियों पर फिर भी घात लगाये रहेंगे। बस, अब वे यह काम थोड़ा अधिक चौकन्ना होकर करेंगे।
ब्राजील के राष्ट्रपति चुनाव में फासिस्ट बोलसोनारो की जीत ने स्पष्ट कर दिया है कि संकटग्रस्त बुर्जुआ वर्ग ने अपनी रक्षा के लिए कुत्तेु की जंज़ीर को ढीला छोड़ दिया है। दैत्य-दुर्ग के पिछवाड़े सम्भावित तूफान से आतंकित अमेरिकी साम्राज्यवाद भी इस फासिस्ट की पीठ पर खड़ा है। एक दिलचस्प जानकारी यह भी है कि जायर बोलसोनारो इतालवी-जर्मन मूल का ब्राजीली नागरिक है। उसका नाना हिटलर की नात्सी सेना में सिपाही था। ब्राजील में बोलसोनारो का सत्तारूढ़ होना अपने-आप में इस सच्चाई को साबित करता है कि तथाकथित समाजवाद का जो नया सामाजिक जनवादी मॉडल लातिन अमेरिका के कई देशों में गत क़रीब दो दशकों के दौरान स्थापित हुआ था (जिसके हमारे देश के संसदीय जड़वामन वामपन्थी भी खूब मुरीद हो गये थे), वह सामाजिक जनवादी गुलाबी लहर (‘पिंक टाइड’) भी अब उतार पर है।