भारत में महिला श्रमबल भागीदारी दर में चिन्ताजनक गिराव
भारतीय समाज के विकृत पूँजीवादी विकास का लक्षण
आनन्द
किसी समाज में काम करने वाली कुल आबादी में महिलाओं की भागीदारी उसके विकास का सूचक होता है। पूँजीवादी विकास और मुद्रा अर्थव्यवस्था के पदार्पण के साथ ही महिलाओं को अपने घरों की चौहद्दी को पार करने के लिए उत्प्रेरण मिलना शुरू होता है और वे ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में श्रमबल में भागीदारी करती हैं। मुनाफ़ा कमाने की सनक में डूबे पूँजीपति वर्ग के भी यह हित में होता है कि ज़्यादा से ज़्यादा महिलाएँ श्रमबल का हिस्सा बनें ताकि मज़दूर वर्ग की तादाद बढ़ने से उसकी मज़दूरी बढ़ाने के लिए मोलभाव करने की ताक़त कम हो। हालाँकि महिलाओं के श्रमबल में शामिल होने से वे पितृसत्ता की ग़ुलामी के साथ ही साथ उजरती ग़ुलामी के मोहपाश में बँध जाती हैं, परन्तु ऐतिहासिक रूप से यह प्रगतिशील होता है क्योंकि यह उनकी मुक्ति की रास्ते में आगे बढ़ा हुआ क़दम होता है।
श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी को महिला श्रमबल भागीदारी दर के रूप में मापा जाता है जो यह बताती है कि काम करने की उम्र (16 से 64 वर्ष) में कितनी फ़ीसदी औरतें रोज़गारशुदा हैं या रोज़गार की तलाश कर रही हैं। यह बेहद चिन्ताजनक बात है कि भारत में 2005 के बाद से इस दर में लगातार गिरावट का रुझान जारी है। जून 2020 में विश्व बैंक द्वारा जारी डेटा के अनुसार भारत में महिला श्रमबल भागीदारी दर गिरकर 20.3 प्रतिशत हो चुकी है। ग़ौरतलब है कि 1990 में यह दर 30.3 प्रतिशत थी। यह दक्षिण एशिया में सबसे कम है। दुनिया के स्तर पर केवल यमन, इराक़, जॉर्डन, सीरिया, अल्जीयरिया, ईरान, पश्चिमी बैंक और ग़ाज़ा में ही यह दर भारत से कम है। कहने की ज़रूरत नहीं कि कोरोना महामारी के दौरान इस दर में और गिरावट आयी होगी। एक शोध के अनुसार कोरोना काल में 20 करोड़ से अधिक नौकरियाँ छीनी जा चुकी हैं। इसका सबसे ज़्यादा नुक़सान महिला कामगारों को हुआ है। औरतें न सिर्फ़ बेरोज़गार हो रही हैं बल्कि वे वापस चूल्हे-चौखट की दहलीज़ के भीतर क़ैद होने पर मजबूर हो रही हैं।
विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी ‘ग्लोबल जेण्डर गैप इण्डेक्स 2020’ सामने आती है जिसमें भारत 4 स्थान नीचे लुढ़ककर 112 तक जा पहुँचा है। अर्थव्यवस्था में महिलाओं के स्वास्थ्य और भागीदारी के मामले में भारत का स्थान सबसे नीचे के 5 देशों में है। उपरोक्त डेटा भारत में महिलाओं की स्थिति का एक आईना है।
महिला श्रमबल भागीदारी दर में गिरावट की वजहें
किसी भी अर्थव्यवस्था में विकास के साथ-साथ कृषि में काम करने वाली आबादी में कमी आती है और उद्योगों और सेवा क्षेत्र में काम करने वाली आबादी में बढ़ोतरी होती है। परन्तु भारत में सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा गिरकर 16 प्रतिशत रह गया है। परन्तु, अभी भी लगभग आधा श्रमबल कृषि में ही लगा हुआ है। यह भारत में पूँजीवादी विकास के विकृत रूप को दिखाता है। ग़ौर करने वाली बात यह है कि महिला श्रमबल भागीदारी दर में गिरावट के पिछले तीन दशक नवउदारवाद के भी दशक रहे हैं। इस दौरान अर्थव्यवस्था में वृद्धि के तमाम दावों के बावजूद आज यह सच्चाई दिन के उजाले की तरह साफ़ हो चुकी है कि इस दौरान नौकरियाँ बहुत कम पैदा हुई हैं। पूँजीवादी अर्थशास्त्रियों ने स्वयं इसे ‘जॉबलेस ग्रोथ’ की संज्ञा दी है। विश्वाव्यापी मन्दी के मौजूदा दौर में रोज़गार पाने की सम्भावना पहले से भी कम हो गयी है। नये रोज़गार के अवसर न पैदा होने का सीधा असर औरतों की श्रमबल में भागीदारी पर होता है क्योंकि वे अपने घर की दहलीज़ लाँघने के लिए पर्याप्त उत्प्रेरण नहीं मिल पाता है। कृषि में संकट की वजह से भी महिलाओं की श्रमबल में भागीदारी में कमी आती है क्योंकि गाँवों में काम करने वाली आबादी की तादाद पहले से ही ज़रूरत से ज़्यादा है और संकट की वजह से कृषि की उत्पादकता भी नहीं बढ़ रही है। इसके अतिरिक्त गाँवों से शहरों की ओर पलायन और प्रवासन में होने वाली दिक्क़तों, आवास की समस्या आदि की वजह से भी महिलाओं को घर की चौहद्दी लाँघने में बाधा आती है।
हाल के दशकों में हालाँकि महिलाओं के शैक्षिक स्तर में काफ़ी सुधार हुआ है, परन्तु उसी अनुपात में काम करने वाली महिलाओं की संख्या में बढ़ोतरी नहीं हुई है। इसकी एक वजह भारतीय समाज में व्याप्त घोर स्त्री -विरोधी और रुढ़िवादी मूल्य व मान्यताएँ हैं जिनकी वजह से औरतों को न चाहते हुए भी चूल्हे-चौखट की घुटनभरी अँधेरी दुनिया में क़ैद रखने पर मजबूर करती हैं। ग़ैर-क्रान्तिकारी ढंग से पूँजीवादी विकास का ही यह नतीजा है कि हमारे समाज में अभी भी तमाम सामन्ती मूल्यों-मान्यताओं की जकड़न बरक़रार है जिसका सीधा नतीजा श्रमबल में औरतों की भागीदारी में कमी के रूप में सामने आता है। तमाम महिलाओं को शादी के बाद या फिर बच्चा होने के बाद नौकरी छोड़नी पड़ती है। यही नहीं, आँकड़े यह भी बताते हैं कि घर में मर्द की आय बढ़ने की वजह से आर्थिक स्थिति ठीक होने के बाद अक्सर काम करने वाली महिला नौकरी छोड़ देती है क्योंकि पुरातनपन्थी मूल्यों-मान्यताओं के अनुसार महिलाओं का काम करना अच्छा नहीं माना जाता है।
सरकार की नीतियाँ भी महिलाओं के श्रमबल में भागीदारी बढ़ाने में बाधा पैदा करती हैं। महिला कामगारों के लिए मातृत्व अवकाश, बच्चे को दूध पिलाने के लिए ब्रेक, शिशुघर जैसी सुविधाएँ न होने की वजह से महिलाओं के श्रमबल में शामिल होने की राह और मुश्किल हो जाती है। मोदी सरकार द्वारा लाये गये लेबर कोडों में न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे आदि प्रावधान घरेलू कामगारों, घरों में पीसरेट पर काम करने वाली महिलाओं (मिसाल के लिए बीड़ी का काम करने वाली या ज़री का काम करने वाली) पर लागू ही नहीं होंगे। निश्चित रूप से ये श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी की राह में बाधा पैदा करेगा। घरेलू कामगारों, घरों में पीसरेट पर काम करने वाली महिलाओं और घरों में सिलाई-कढ़ाई आदि का काम करने वाली महिलाओं की गिनती श्रमबल में नहीं की जाती जिसकी वजह से श्रमबल में महिलाओं में भागीदारी की सही तस्वीर सामने नहीं आ पाती है। भूमण्डीलीकरण के दौर में श्रम के अनौपचारीकरण की प्रक्रिया की वजह से भी औरतों की उत्पादक गतिविधियों में भागीदारी के बावजूद उनके योगदान को आधिकारिक रूप में स्वीकार नहीं किया जाता जो महिला कार्यबल भागीदारी दर में भी गिरावट की वजहों में से एक है।
महिलाओं की श्रमबल में भागीदारी और स्त्री-मुक्ति का प्रश्न
स्त्रियों की पितृसत्तात्मक ग़ुलामी की शुरुआत समाज के वर्गों में बँटवारे और निजी सम्पत्ति के उद्भव से हुई थी। पितृसत्ता ने स्त्रियों को उत्पादन की दुनिया से काटकर घरों की दहलीज़ में क़ैद कर दिया। पूँजीवाद ने अपनी ज़रूरतों से औरतों को घरों की दहलीज़ लाँघकर पुन: उत्पादन के क्षेत्र में लाने का मार्ग प्रशस्त किया। लेकिन औरतों के श्रमबल में शामिल होने से उनकी दोहरी ग़ुलामी की शुरुआत हो जाती है। पितृसत्ता और उजरती ग़ुलामी पूँजीवाद के दायरे में स्त्रियों की मुक्ति को असम्भव बनाती हैं परन्तु औरतों के श्रमबल में शामिल होने से वे उजरती ग़ुलामी के ख़िलाफ़ जारी संघर्ष में भी शामिल हो जाती हैं जिससे समाजवादी क्रान्ति की लड़ाई मजबूत होती है और वर्गों तथा निजी सम्पत्ति के ख़ात्मे की ज़मीन मजबूत होती है।
स्त्री-मुक्ति का स्वप्न तो उन देशों में भी पूरा नहीं हुआ जहाँ पूँजीवाद क्रान्तिकारी रास्ते से आया। वहाँ भी महिलाओं को पितृसत्ता और उजरती ग़ुलामी की दोहरी मार झेलनी पड़ती है। परन्तु् भारत में क्रमिक रास्ते से हुए पूँजीवादी विकास और भूमण्डलीकृत नवउदारीवादी पूँजीवाद में श्रम के अनौपचारिकीकरण ने समाज की चुनौतियों को कहीं ज़्यादा बढ़ा दिया है। यह विकृत पूँजीवादी विकास न सिर्फ़ भारतीय समाज में समाजवादी क्रान्ति की राह में मुश्किलें पैदा कर रहा है, इससे स्त्री-मुक्ति का रास्ता भी और मुश्किल होता जा रहा है। लेकिन इन मुश्किलों के बावजूद यथार्थ का दूसरा पहलू यह भी है कि देशभर में स्त्रियाँ अनेक रूपों में बग़ावत कर रही हैं और इन्हीं बग़ावतों से स्त्री-मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त होगा और समाजवादी क्रान्ति का संघर्ष भी आगे बढ़ेगा।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, नवम्बर 2020-फ़रवरी 2021
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