ढहती अर्थव्यवस्था, बढ़ती बेरोज़गारी
सत्यप्रकाश
बेतहाशा बढ़ रही बेरोज़गारी को लेकर देश की छात्र–युवा आबादी में सुलगता असन्तोष पिछली 5 सितम्बर और फिर 17 सितम्बर को देश के कई राज्यों में सड़कों पर प्रदर्शनों के रूप में रूप में फूट पड़ा। शहरों ही नहीं, गाँवों के इलाक़ों में भी जगह–जगह छात्रों–युवाओं ने थाली पीटकर अपना विरोध जताया और नरेन्द्र मोदी के कथित जन्मदिवस को ‘बेरोज़गारी दिवस’ के रूप में मनाया। यह सही है कि नौजवानों की एक भारी आबादी अब भी संघी प्रचार और गोदी मीडिया व भाजपा के आईटी सेल द्वारा उछाले जा रहे झूठे मुद्दों की गिरफ़्त में है, लेकिन आने वाले दिनों में बेरोज़गारी, महँगाई और सरकारी दमन की बिगड़ती स्थिति की मार उन पर भी पड़ने वाली है।
पिछले 6 साल से “हिन्दू हृदय सम्राट” मोदी की भाजपा सरकार द्वारा निर्माणाधीन “हिन्दू राष्ट्र” में करीब 12 करोड़ रोज़गार छिन चुके हैं। इसके साथ ही अर्थव्यवस्था जिस तरह ढहने के कगार पर है, उसे देखते हुए आने वाले दिनों में बेरोज़गारी के हालात और भयंकर होने वाले हैं। अर्थव्यवस्था का संकट 2011 से ही भारत को झकझोर रहा था। 2018 से अर्थव्यवस्था का सिकुड़ना लगातार जारी था। मोदी सरकार आज अपनी नाकामयाबी का ठीकरा कोरोना संकट पर फोड़ना चाहती है, लेकिन सच यह है कि कोरोना संकट शुरू होने से पहले से ही नोटबन्दी के कारण चार करोड़ नौकरियाँ जा चुकी थीं। कोरोना महामारी पर सही समय पर सही क़दम न उठा पाने के कारण मोदी सरकार ने आनन-फ़ानन में बिना किसी तैयारी या योजना के जो लॉकडाउन किया, उसने करोड़ों नौकरियाँ और छीन लीं। आज देश में बेरोज़गारों की आबादी 30 करोड़ से ऊपर जा चुकी है।
मोदी के शासनकाल में ही देश की जनता के औसत उपभोग ख़र्च में 27 प्रतिशत की कमी आयी है। याद रखें, इसमें पूँजीपति वर्ग का उपभोग भी शामिल है जो कि अश्लीलता, नंगयी और बेशर्मी के साथ इस दौर में भी बढ़ा है! यानी आम मेहनतकश जनता के उपभोग ख़र्च में 27 प्रतिशत से कहीं ज़्यादा कमी आयी है। कुछ आकलनों के अनुसार यह कमी 30 से 40 प्रतिशत के क़रीब हो सकती है। यानी आज से छह साल पहले देश का आम मेहनतकश जितना खा-पहन पा रहा था, अपने बच्चों को जैसा भोजन आदि मुहैया करा पा रहा था आज उसका दो-तिहाई ही दे पा रहा है। इतने से ही देश में आम मेहनतकश आबादी में बढ़ते कुपोषण, भुखमरी और आत्महत्या की हालत को भी समझा जा सकता है।
देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 2020 के वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही, यानी अप्रैल-जून में 23.9 फ़ीसदी की गिरावट आयी। यानी 2019 के वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही के मुक़ाबले 2020 के वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद में 23.9 प्रतिशत की कमी आयी। लेकिन अगर इससे ठीक पहले की तिमाही से तुलना करें तो सकल घरेलू उत्पाद 29.5 प्रतिशत कम हो गया। सकल घरेलू उत्पाद का मतलब होता है, किसी निश्चित समय में किसी देश में सभी वस्तुओं और सेवाओं का कुल मूल्य जिसे कि मुद्रा में मापा जाता है, यानी हमारे यहाँ रुपये में। याद रहे, कुल सेवाओं में वित्तीय व बैंकिंग सेवाएँ भी शामिल हैं, जोकि इस पूरे संकट के दौरान बढ़ी हैं क्योंकि उत्पादन में लाभदायक निवेश न हो पाने पर पूँजीपति वर्ग अपनी पूँजी के बढ़े हुए हिस्से को सट्टेबाज़ी और वित्तीय हेरफेर में लगाता है। आम तौर पर, जब भी बैंकिंग, स्टॉक मार्केट में अधिक उछाल दिखता है, तो अक्सर इसका मतलब यह होता है कि वास्तविक उत्पादक अर्थव्यवस्था संकट में है। अगर हम बैंकिंग व वित्तीय क्षेत्र की सेवाओं को निकाल दें, तो मालूम होगा कि जीडीपी में कहीं ज़्यादा भयंकर गिरावट आयी है।
अर्थव्यवस्था के अलग-अलग सेक्टरों को देखें तो निर्माण उद्योग में 50 प्रतिशत की गिरावट आयी है। मैन्युफै़क्चरिंग यानी मोटे तौर पर औद्योगिक उत्पादन में 39 प्रतिशत की गिरावट आयी है। खनन उद्योग में 40 प्रतिशत, टेक्सटाइल में 30 प्रतिशत और ऑटोमोबाइल उद्योग में 19 प्रतिशत की गिरावट आयी है। नतीजतन, कुल निवेश में 47 प्रतिशत की कमी आयी है। इसी दौर में कपड़ा उद्योग में मज़दूरी पर होने वाला ख़र्च 29 प्रतिशत कम हो गया, चमड़ा उद्योग में 22 प्रतिशत, ऑटोमोबाइल उद्योग में 19 प्रतिशत, पर्यटन उद्योग में 30 प्रतिशत, होटल उद्योग में 21 प्रतिशत की कमी आयी है। यह भयंकर कमी है और इसका नतीजा हमें करोड़ों नौकरियों के जाने के रूप में देखने को मिला है। न केवल 12 करोड़ आम मेहनतकश लोग अपनी रोज़ी-रोटी से हाथ धो बैठे बल्कि जो आबादी नौकरी खोने की त्रासदी से बच गयी, उसे अब पहले से भी कम मज़दूरी पर 12-12 घण्टे काम करना पड़ रहा है। जब करोड़ों बेरोज़गार नौजवान सड़कों पर धूल फाँक रहे हैं तब बड़ी संख्या में नौजवान दफ़्तरों और सेवा उद्योग के विभिन्न उपक्रमों में 12-12 घण्टे बेहद कम वेतन पर काम कर रहे हैं।
2019 में देश में जितने लोगों ने आत्महत्या की उसमें से बेरोज़गारों का हिस्सा 10.1 फ़ीसदी था। 25 सालों में यह पहली बार हुआ है जब बेरोज़गारों की आत्महत्या का हिस्सा दो अंकों में पहुँचा हो। 2019 में देश में 14,019 बेरोज़गारों ने आत्महत्या की। यह पिछले साल के मुक़ाबले 8.37 प्रतिशत अधिक है। 2018 में 12,936 बेरोज़गारों ने आत्महत्या की थी। हालाँकि ये आँकड़े वास्तविक स्थिति से कम ही रहते हैं फिर भी इनसे अनुमान लगाया जा सकता है कि देश में बेरोज़गारी के हालात किस क़दर जानलेवा हो चुके हैं।
हर साल दो करोड़ रोज़गार देने का जुमला उछालकर सत्ता में आये मोदी ने आने के साथ ही वे सारे काम करने शुरू कर दिये थे जिनसे रोज़गार पैदा होने के बजाय और घटते ही। दरअसल पूरी दुनिया के पैमाने पर पूँजीवादी व्यवस्था भीषण संकट का शिकार है जिसका कोई स्थायी इलाज उसके पास नहीं है। मोदी के पास इस संकट को दूर करने का कोई उपाय तो था नहीं, उल्टे भाजपा सरकार ने देशी-विदेशी पूँजीपतियों को लूट की खुली छूट देने के लिए जो क़दम उठाये उनसे अर्थव्यवस्था की हालत और खस्ता होती गयी। रही-सही कसर नोटबन्दी और जीएसटी ने पूरी कर दी। 2019 के शुरू में जब यह बात सामने आयी कि पिछले 45 वर्ष में सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी देश में हो चुकी है तो सरकार ने बेरोज़गारी के आँकड़े देना ही बन्द कर दिया। लेकिन सेंटर फ़ॉर मॉनीटरिंग इण्डियन इकॉनमी (सीएमआईई) ने पिछले वर्ष ही बताया था कि 2014 से 2019 के बीच क़रीब 5 करोड़ लोगों का रोज़गार छिन गया।
इस वर्ष मार्च में कोरोना को रोकने के नाम पर बिना किसी तैयारी के जिस तरह अचानक लॉकडाउन लगाया गया और और बिना किसी योजना के बढ़ाया गया, उसने हालात और भी ख़राब कर दिये। अब हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि मामला इस सरकार के हाथों से निकल चुका है। इण्डियन एक्सप्रेस के अनुसार, केन्द्र सरकार के जॉब पोर्टल पर जुलाई-अगस्त के 40 दिनों में 69 लाख बेरोज़गारों ने रजिस्टर किया जिसमें काम मिला मात्र 7700 को यानी सिर्फ़ 0.1% लोगों को, यानी 1000 में सिर्फ़ 1 आदमी को। केवल 14 से 21 अगस्त के बीच 1 सप्ताह में 7 लाख लोगों ने रजिस्टर किया जिसमें मात्र 691 लोगों को काम मिला, जो 0.1% यानी 1000 में 1 से भी कम है।
सीएमआईई की ताज़ा रिपोर्ट में बताया गया है कि मार्च से जुलाई के बीच देश में 1.9 करोड़ वेतनभोगियों की नौकरी चली गयी। इस जुलाई 2020 में 50 लाख नौकरियाँ गयीं, यही अनुमान अगस्त के बारे में है। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि हालात अभी और बुरे होंगे। बेरोज़गारी दर 9.1% पहुँच गयी है। यह अभूतपूर्व है।
सरकार की ओर से यह भ्रम फैलाने की कोशिश की जा रही है कि बेरोज़गारी का संकट महामारी की वजह से है और ऐसा पूरी दुनिया में हो रहा है। मगर सच यह है कि सीएमआईई के अनुसार वेतन वाली नौकरियाँ लम्बे समय से बढ़ ही नहीं रही हैं। 2019-20 में ऐसी नौकरियाँ 8.6 करोड़ थीं जो लॉकडाउन के बाद 21% कम होकर अप्रैल 2020 में 6.8 करोड़ रह गयीं और जुलाई के अन्त तक 6.72 करोड़ रह गयी हैं।
बहुत से लोगों को लगता था कि केवल मज़दूरों और छोटे कर्मचारियों के रोज़गार पर संकट है और सरकारी या बड़ी कम्पनियों के कर्मचारियों के लिए ज़्यादा चिन्ता की बात नहीं है। मगर असलियत यह नहीं है। न केवल ख़ाली पड़े पद भरे नहीं जा रहे हैं बल्कि पहले से मौजूद नौकरियों को भी ख़त्म किया जा रहा है।
देश में सबसे ज़्यादा रोज़गार देने वाले सरकारी उपक्रमों की हालत ख़राब है। भारतीय रेल के कर्मचारियों की संख्या 20 वर्ष में 18 लाख से घटकर क़रीब 9 लाख रह गयी है। रेलवे में क़रीब सवा दो लाख पद ख़ाली होने पर भी भरे नहीं जा रहे। अभी रेलवे ने 500 ट्रेनों को बन्द करने और 10,000 स्टेशनों को बन्द करने की घोषणा कर दी है। ट्रेनों और स्टेशनों का निजीकरण पहले ही शुरू हो चुका है। रेलवे और रोडवेज़ के वर्कशॉपों को भी प्राइवेट करने की तैयारी चल रही है। बैंकों की वैकेंसी पहले ही काफ़ी कम हो गयी थीं, अब कई बैंकों को आपस में मिला देने के बाद बैंकों की नौकरियों में और भी कमी आने वाली है। बचे हुए सरकारी स्कूल बन्द किये जा रहे हैं, सरकारी अस्पतालों की हालत ख़राब कर दी गयी है।
आज हालत यह है कि केन्द्र व राज्य सरकारों की मिलाकर 100 से अधिक परीक्षाएँ लटकी हुई हैं जिनसे 10 करोड़ से अधिक प्रतियोगी छात्र सीधे तौर पर प्रभावित हैं। इनमें कई परीक्षाएँ तो सात-सात साल से अधर में लटकी हैं। सरकार अपने सभी विभागों में नौकरियाँ ख़त्म कर रही है। आर्थिक संकट में फँसी सरकार कर्मचारियों पर ख़र्च हर हाल में कम करना चाहती है। यह मत सोचिए कि इनसे ख़ाली होने वाली जगह पर युवाओं को मौक़ा दिया जायेगा। दरअसल यह सरकारी नौकरियों को धीरे-धीरे करके कम करते जाने की एक और कोशिश है।
पिछले सितम्बर को वित्त मंत्रालय से विभिन्न मंत्रालयों व विभागों के लिए एक निर्देश जारी हुआ कि कोई नया पद सृजित न करें। हालाँकि अगले ही दिन देश के कई इलाक़ों में छात्रों-युवाओं के आन्दोलन के दबाव में वित्त मंत्रालय ने सफ़ाई दे दी कि फ़ण्ड की कमी के कारण सरकारी पदों की भर्ती पर कोई रोक या प्रतिबन्ध नहीं लगा है। सामान्य भर्तियाँ चलती रहेंगी। लेकिन यह आँख में धूल झोंकने की कोशिश है।
यह ख़बर भी आ चुकी है कि सरकार हर मंत्रालय तथा विभाग में 50 से 55 वर्ष उम्र के बीच के या 30 वर्ष नौकरी कर चुके कर्मचारियों का एक रजिस्टर तैयार करवा रही है। इसके आधार पर हर तिमाही में उनके काम की समीक्षा की जायेगी और मानकों पर खरे न उतरने पर उनकी सेवा समाप्त कर दी जायेगी। देश का सबसे बड़ा बैंक एसबीआई अपने 30 हज़ार कर्मचारियों को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति देने की घोषणा कर चुका है। पुलिस महकमे में भी छँटनी का प्रस्ताव आ चुका है। इसके साथ ही, सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को मोदी सरकार जिस तरह अन्धाधुन्ध अपने चहेते पूँजीपतियों को बेच डाल रही है, या ठेके पर दे रही है, उसका सीधा असर यह होगा कि नौकरियाँ बड़े पैमाने पर ख़त्म होंगी।
कोरोना महामारी के आने से पहले ही, 2019 में लगातार उत्पादन गतिविधियों में भारी गिरावट दिख रही थी। कारों और दो पहिया वाहनों के सैकड़ों शोरूम देशभर में बन्द हो गये थे। पहली बार बिजली के ख़र्च में कमी आयी थी क्योंकि कारख़ाने अपनी क्षमता से बहुत कम पर काम कर रहे थे। उद्योग, व्यापार, खेती सभी सुस्ती का शिकार थे। इसलिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का यह बयान मोदी सरकार को बचाने के लिए बोला गया एक बड़ा झूठ है कि अर्थव्यवस्था की मन्दी “दैवी आपदा” के कारण है।
इसके बाद लॉकडाउन के कारण हालत यह हो गयी है कि राजधानी से लगे नोएडा में 300 से ज़्यादा फ़ैक्ट्रियों पर ताले लग गये हैं और पाँच हज़ार से ज़्यादा फ़ैक्ट्रियाँ बन्द होने के कगार पर हैं। सबसे ज़्यादा असर गारमेंट, इलेक्ट्रॉनिक्स सामान बनाने वाली फ़ैक्ट्रियों पर पड़ा है। गारमेंट फ़ैक्ट्रियों में मशीनें धूल खा रही हैं और जहाँ सैकड़ों लोग काम करते थे उन जगहों पर सन्नाटा पसरा है। लघु और मध्यम उद्योगों की हालत भी अच्छी नहीं है। नोएडा के इण्डस्ट्रियल इलाक़े में सन्नाटा छाया है और हर दूसरी-तीसरी फ़ैक्ट्री में फ़ैक्ट्री किराये पर देने के बोर्ड टँग चुके हैं। कमोबेश यही हाल देश के दूसरे औद्योगिक क्षेत्रों का भी है।
भारी संख्या में रोज़गार देने वाले सेवा क्षेत्र (सर्विस सेक्टर) में लगातार छठे महीने गिरावट देखने को मिली है। समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने उद्योगों के एक सर्वे के हवाले से रिपोर्ट दी कि कारोबारी गतिविधियाँ प्रभावित होने से अगस्त 2020 में भी नौकरियाँ जाने का सिलसिला जारी रहा। सर्वे कहता है कि अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट के बाद सर्विस सेक्टर में सुधार में लम्बा समय लगेगा।
सेंटर फ़ॉर इण्डियन इकोनॉमी के मुताबिक़, लॉकडाउन लगने के एक महीने के बाद से क़रीब 12 करोड़ लोग अपने काम से हाथ गँवा चुके हैं। इनमें अधिकतर लोग असंगठित और ग्रामीण क्षेत्र से हैं। दोबारा आर्थिक गतिविधियाँ शुरू होने और फ़सल की अच्छी पैदावर की वजह से जुलाई-अगस्त में काफ़ी लोगों को काम मिला लेकिन स्थिति ज़्यादा समय तक रहने वाली नहीं है।
सीएमआईई के आकलन के मुताबिक़, वेतन पर काम करने वाले संगठित क्षेत्र में 1.9 करोड़ लोगों ने अपनी नौकरियाँ लॉकडाउन के दौरान खोयी हैं। अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन और एशियन डेवलपमेण्ट बैंक की एक अन्य रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया गया है कि 30 की उम्र के नीचे के क़रीब चालीस लाख से अधिक भारतीयों ने अपनी नौकरियाँ महामारी की वजह से गँवायी हैं। 15 से 24 साल के लोगों पर सबसे अधिक असर पड़ा है। सीएमआईई के मैनेजिंग डायरेक्टर महेश व्यास का कहना है कि 30 साल से कम उम्र वाले ज़्यादा प्रभावित हुए हैं। कम्पनियाँ अनुभवी लोगों को रख रही हैं और नौजवानों पर इसकी मार पड़ रही है।
महेश व्यास कहते हैं कि ट्रेनी और प्रोबेशन पर काम करने वाले अपनी नौकरियाँ गँवा चुके हैं। कम्पनियाँ अब कैंपस में जाकर नौकरी नहीं दे रही हैं। किसी भी तरह की कोई नियुक्ति नहीं हो रही है। जब 2021 में काम की तलाश करने वाले युवाओं का अगला बैच तैयार होगा तो वो बेरोज़गारों की फ़ौज में शामिल होंगे।
पिछले साल के सीएमआईई के सर्वे में पाया गया था कि क़रीब 35 प्रतिशत लोग मानते थे कि उनकी आय पिछले साल की तुलना में बेहतर हुई है जबकि इस साल सिर्फ़ दो फ़ीसद लोगों का ऐसा मानना है। मज़दूरों से लेकर उच्च मध्यम वर्ग तक के लोगों की आमदनी में कटौती हुई है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़, नौकरी जाने और वेतन में कटौती की भरपाई करने के लिए वेतनभोगी लोगों ने लॉकडाउन के चार महीनों में क़रीब पौने तीन सौ करोड़ रुपये अपनी ज़रूरी बचत से निकाले। कई शहरों में मध्य वर्ग के लोग अपने गहने गिरवी रखकर क़र्ज़ ले रहे हैं। लेकिन जिस मेहनतकश आबादी के पास न तो पुरानी बचत है और न ही गिरवी रखने के लिए सोना-चाँदी, बेचने के लिए केवल अपना श्रम है, वे कैसे गुज़ारा कर रहे हैं, इसका सिर्फ़ अनुमान ही लगाया जा सकता है, या उनके घरों में जाकर देखा जा सकता है।
नौकरी नहीं रहने की वजह से ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के हाथ से काम-धन्धा छिन रहा है। लेकिन यह कोई अचानक से आयी तब्दीली नहीं है। अर्थशास्त्री विनोज अब्राहम की ओर से 2017 में किये गये अध्ययन में यह बात साफ़ तौर पर सामने आयी थी कि 2013-14 और 2015-16 के बीच रोज़गार में आज़ादी के बाद संभवत: पहली बार इतनी भारी गिरावट आयी है। यह अध्ययन श्रम ब्यूरो से इकट्ठा किये गये डेटा को आधार बनाकर किया गया था।
पिछले कुछ सालों से स्किल इण्डिया, मेक इन इण्डिया, प्रधानमंत्री रोज़गार सृजन कार्यक्रम, प्रधानमंत्री रोज़गार प्रोत्साहन योजना, प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना जैसी तरह-तरह की योजनाएँ बनायी गयी हैं और इन योजनाओं के प्रचार पर अरबों रुपये फूँक दिये गये। लेकिन इन योजनाओं के दफ़्तर और प्रचार सँभालने वाले लोगों को रोज़गार देने के अलावा देश में बेरोज़गारी कम करने की दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई है। ज़्यादातर योजनाएँ तो चुनावी घोषणाओं की तरह बिना किसी तैयारी के शुरू कर दी गयी हैं। उद्योगों की ज़रूरतों और युवाओं को सिखाये जा रहे कौशलों में कोई तालमेल ही नहीं है और अधिकांश मामलों में दी जा रही ट्रेनिंग इतनी घटिया है कि उससे कोई रोज़गार नहीं मिल सकता।
अक्सर कहा जाता है कि सभी को शिक्षा और रोज़गार दिया ही नहीं जा सकता। सरकार की यह ज़िम्मेदारी ही नहीं है। दरअसल हमारे दिमाग़ में इस तर्क को कूट-कूट कर बैठा दिया गया है ताकि हम इसे अपना अधिकार समझकर इसकी माँग ही न करें। आज भी अनेक भक्त यह तर्क देते मिल जायेंगे कि रोज़गार के लिए सरकार पर निर्भर क्यों रहते हो। मगर सच्चाई क्या है? किसी भी लोकतांत्रिक समाज में भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य और शिक्षा पाना हर नागरिक का बुनियादी अधिकार होता है।
जो लोग विकास के लिए निजीकरण को ज़रूरी समझते हैं उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि दुनिया के विकसित पूँजीवादी देशों में भी भारत से कहीं ज़्यादा सरकारी कर्मचारी हैं। भारत में आबादी के अनुसार सरकारी कर्मचारियों का सबसे कम अनुपात है। कुछ साल पहले वर्ल्ड बैंक के एक अध्ययन में पाया गया कि भारत की 2.5 प्रतिशत से भी कम आबादी सरकारी नौकरी में कार्यरत थी, जो मलेशिया और श्रीलंका जैसे देशों से भी कम था। अमेरिका और यूरोपीय देशों में सरकारी रोज़गार का अनुपात बहुत अधिक है। स्कैंडिनेवियाई देशों में लगभग 15 प्रतिशत और अमेरिका और पश्चिमी यूरोप में 6-8 प्रतिशत आबादी सरकारी नौकरी में है। अमेरिका में कुल रोज़गार का लगभग 17 प्रतिशत सरकारी है। कुछ राज्यों में यह 25 प्रतिशत तक है। यूरोपीय यूनियन के देशों में कुल रोज़गार का लगभग 16 प्रतिशत सरकारी है।
दरअसल सभी को रोज़गार देने के लिए तीन चीज़ें होनी चाहिए – काम करने योग्य लोग, विकास की सम्भावनाएँ और प्राकृतिक संसाधन। हमारे यहाँ ये तीनों चीज़ें प्रचुर मात्रा में मौजूद हैं। फिर भी अगर लोगों को रोज़गार नहीं मिल रहा है तो यह सरकार की मंशा और देश में अपनाये गये विकास के रास्ते का सवाल है। करोड़ों मज़दूर और पढ़े-लिखे नौजवान, जो शरीर और मन से तन्दुरुस्त हैं और काम करने के लिए तैयार हैं, उन्हें काम के अवसर से वंचित कर दिया गया है और मरने, भीख माँगने या अपराधी बन जाने के लिए सड़कों पर धकेल दिया गया है। आर्थिक संकट के गहराने के साथ हर दिन बेरोज़गारों की तादाद में बढ़ोत्तरी होती रही है। बहुत बड़ी आबादी ऐसे लोगों की है जिन्हें बेरोज़गारी के आँकड़ों में पहले भी नहीं गिना जाता था, लेकिन वास्तव में उनके पास साल में कुछ दिन ही रोज़गार रहता है या फिर कई तरह के छोटे-मोटे काम करके भी वे मुश्किल से जीने लायक कमा पाते हैं। हमारे देश में काम करने वालों की कमी नहीं है, प्राकृतिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है, जीवन के हर क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं के विकास और रोज़गार के अवसर पैदा करने की अनन्त सम्भावनाएँ मौजूद हैं, फिर भी इस क़दर बेरोज़गारी क्यों मौजूद है? ये वे सवाल हैं जिन पर नौजवानों को सोचना चाहिए और सरकार के सामने सवाल खड़े करने चाहिए। बेवजह के मुद्दों में उलझाकर रोज़गार के मूल सवाल से ध्यान भटकाने की कोशिशों में उन्हें नहीं फँसना चाहिए।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अक्टूबर 2020
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