हिन्दू राष्ट्र में क्या होगा?

सम्पादकीय

राम मन्दिर बनने की शुरुआत हो चुकी है। बहुत-से आम मेहनतकश हिन्दुओं को भी शायद यह लग रहा है कि हिन्दू-हृदय सम्राट नरेन्द्र मोदी ने अब हिन्दू राष्ट्र की नींव डाल दी है। अब रामराज्य आयेगा। अब सभी को रोटी, कपड़ा और मकान हासिल होगा। यवनों और अधर्मियों को दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया जायेगा! चूँकि ‘हिन्दू राष्ट्र’ शब्द में ‘हिन्दू’ है इसलिए उन्हें यह लगता है कि हिन्दू राष्ट्र में वास्तव में उनका शासन होगा, उन्हें ख़ुशहाली हासिल होगी, इत्यादि। क्या यह सच है?

अगर ठोस तथ्यों की बात करें तो ऐसा कतई नहीं लगता है। उल्टे यह लगता है कि हिन्दू राष्ट्र के नाम पर मोदी-नीत भाजपा सरकार जो बना रही है, वह बड़े इज़ारेदार पूँजीपतियों का तानाशाहाना शासन होगा! यह एक ऐसा शासन होगा जिसमें देशी-विदेशी बड़ी पूँजी को भारत के आम ग़रीब मेहनतकशों को लूटने की पूरी छूट मिलेगी, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान। ऐसा लगता है कि यह एक ऐसा निज़ाम होगा, जिसमें 80 फ़ीसदी मेहनतकश लोगों की किस्मत में कोल्हू के बैल के समान खटना होगा, वह भी चुपचाप, बिना कोई आवाज़ किये। अगर कोई आवाज़ उठाता है, तो वह अधर्म होगा, हिन्दू राष्ट्र के ख़िलाफ़ अपराध होगा। नतीजतन, इस हिन्दू राष्ट्र में आम मुसलमान आबादी ही बर्बर दमन और उत्पीड़न का सामना नहीं करेगी, बल्कि हिन्दू आबादी का भी 80 फ़ीसदी हिस्सा उतने ही भयंकर दमन और उत्पीड़न का सामना करेगा। इसके कुछ शुरुआती प्रमाण मिलने भी लगे हैं।

दुनिया भर में इज़ारेदार पूँजी का शासन और नियंत्रण तो कई दशकों पहले ही क़ायम हो चुका था। आज तमाम देशों में इज़ारेदार पूँजीपति वर्ग को फ़िरकापरस्त सियासत की ज़रूरत क्यों पड़ी है? वह तो पहले ही अर्थव्यवस्था और समाज के शासक शिखरों पर अपना कब्ज़ा स्थापित कर चुका था, तो फिर दुनिया भर में उसे बोल्सोनारो, एर्दोआन, दुतेर्ते, मोदी आदि जैसे धुर दक्षिणपंथी और अक्सर फ़ासीवादी तानाशाहों की ज़रूरत क्यों पड़ी है? इसकी वजह यह है कि 2008 से ही जिस भयंकर संकट ने विश्व पूँजीवाद को जकड़ा हुआ है, वह उसे छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहा है। यह लम्बी महामन्दी जोकि 1970 के दशक से ही जारी है, एक अन्तहीन मन्दी प्रतीत हो रही है।

यह संकट क्या है? यह वास्तव में मुनाफ़े की गिरती दर का संकट है। समूचे पूँजी निवेश में जब मशीनरी और स्वचालन की भूमिका बढ़ती जायेगी और जीवित श्रम की भूमिका घटती जायेगी, तो ज़ाहिरा तौर पर, कुल नया मूल्य सृजन नीचे गिरता जायेगा। नतीजतन, अन्तत:, पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े की दर भी गिरती जायेगी। यही वह संकट है, तो चक्रीय क्रम में पूँजीवाद को उसके जन्म के बाद से ही घेरता रहा है, युद्धों और क्रान्तियों को जन्म देता रहा है। मौजूदा मन्दी पूँजीवादी व्यवस्था के लिए अभूतपूर्व ढाँचागत मन्दी साबित हो रही है, क्योंकि पिछले 40 वर्षों से भी ज़्यादा समय में मन्दी के बाद विश्व पूँजीवाद ने वास्तविक अर्थव्यवस्था में तेज़ी का कोई विचारणीय दौर नहीं देखा है। इसीलिए इसे ‘लम्बी महामन्दी’ का नाम भी दिया जा रहा है।

ऐसे में, मुनाफ़े की गिरती दर से पूँजीपति वर्ग बिलबिलाया हुआ है और इससे निजात पाने की ख़ातिर वह कई तरक़ीबें अपना रहा है। कभी वित्तीय बाज़ार में वह सट्टेबाज़ी के बुलबुले फुलाता है, तो तात्कालिक तौर पर मन्दी के दूर होने का दृष्टिभ्रम पैदा करते हैं और इन बुलबुलों के फूटते ही संकट और भी भयंकर रूप में प्रकट होता है। इसके अलावा, पूँजीपति वर्ग जो प्रमुख रास्ता अपना रहा है वह है ऋण के ज़रिये उपभोग को बढ़ावा देकर मन्दी को दूर करना। लेकिन जब ऋण स्वयं एक माल बन जाये, तो इस नये माल का बाज़ार भी उन्हीं नियमों के अधीन हो जाता है, जिसके अधीन पूरा पूँजीवाद ही होता है। नतीजतन, यह बाज़ार भी लुढ़कता रहता है। 2008 में सबप्राइम मन्दी के साथ वैश्विक मन्दी के नये दौर शुरुआत वास्तव में ऋण बाज़ार के ढहने से ही हुई थी, हालाँकि उस संकट के मूल में मुनाफ़े की गिरती दर का संकट ही था।

लेकिन इन सब रास्तों का इस्तेमाल करने के बावजूद पूँजीपति वर्ग जानता है कि मुनाफ़े की गिरती दर के संकट से निजात पाने के लिए उसे मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी को और भी ज़्यादा निचोड़ना होगा, शोषण की दर को बढ़ाना होगा और उनकी औसत आय को कम करना होगा जिससे कि कुल पैदा होने वाले नये मूल्य में मुनाफ़े का हिस्सा बढ़े और मज़दूरी का हिस्सा घटे। लेकिन जब पूँजीपति वर्ग यह करेगा, तो ज़ाहिर सी बात है कि उसे प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा क्योंकि इन कदमों का नतीजा यह होगा कि बेरोज़गारी बढ़ेगी, मज़दूर वर्ग की औसत आय घटेगी, उनके काम के घण्टे बढ़ाए जायेंगे, उनके सभी श्रम अधिकारों को छीना जायेगा। ऐसे में, दुनिया भर में इज़ारेदार पूँजीपति वर्ग को तानाशाह क़िस्म की धुर दक्षिणपंथी, फ़ासीवादी और दमनकारी सत्ताओं की ज़रूरत है।

भारत में भी इज़ारेदार पूँजीपति वर्ग को हर प्रकार की बाधा या रोकटोक से छुटकारा चाहिए, चाहे वह श्रम कानूनों के रूप में मौजूद हो, पर्यावरणीय कानूनों के रूप में मौजूद हो, पब्लिक सेक्टर के रूप में मौजूद हो या फिर अन्य कल्याणकारी कानूनों के रूप में मौजूद हो। इस इज़ारेदार पूँजीपति वर्ग ने नरेन्द्र मोदी को हज़ारों करोड़ रुपये बहाकर सत्ता में इसीलिए पहुँचाया है कि ये सारी बाधाएँ समाप्त की जायेँ, एक ऐसा निज़ाम क़ायम किया जाये, जिसमें प्रतिरोध के स्वरों के लिए कोई जगह नहीं हो। जहां हर प्रकार के विरोध को पुलिस व सेना के बूटों तले कुचला जाय और बड़ी पूँजी के सबसे प्रतिक्रियावादी हिस्से की नंगी तानाशाही क़ायम की जाय।

लेकिन ऐसी फ़ासीवादी सत्ता केवल तभी क़ायम की जा सकती है, जबकि बेरोज़गारी, महँगाई और ग़रीबी से पहले से तंग जनता के बहुसंख्यक हिस्से के सामने एक नकली शत्रु खड़ा किया जाय। हर जगह फ़ासीवादी सत्ताएँ यही करती हैं। कहीं पर यह नकली शत्रु यहूदी होता है, कहीं प्रवासी, कहीं दलित तो कहीं मुसलमान। यह हर देश की विशिष्ट स्थितियों और इतिहास पर निर्भर करता है कि फ़ासीवादी शक्तियाँ किसे दुश्मन के तौर पर पेश करेंगी। भारत में साम्प्रदायिक फ़ासीवाद का स्वाभाविक निशाना मुसलमान बने, जिसके कारणों की व्याख्या करने की कोई आवश्यकता नहीं है। ऐसे नकली शत्रु की छवि का संघ परिवार ने पिछले आठ से नौ दशकों में व्यवस्थित तरीके से निर्माण किया है, जिसके लिए इतिहास का विकृतिकरण करने, मिथकों को ‘कॉमन सेंस’ के रूप में स्थापित करने, अफ़वाहें फैलाने से लेकर अपने पूरावक्ती स्वयंसेवकों द्वारा टटपुँजिया हिन्दू आबादी के बीच सुधार कार्य करना और अपनी संस्थाओं का नेटवर्क खड़ा करने तक, हर तरकीब का संघ परिवार ने इस्तेमाल किया है। इसमें भारत के पूँजीपति वर्ग ने विशेष तौर पर 1980 के दशक से संघ परिवार का पूरा साथ दिया है। इन सारे कदमों के ज़रिये सामाजिक व आर्थिक असुरक्षा, बेरोज़गारी, महंगाई और ग़रीबी से परेशान हिन्दू जनता के टटपुँजिया हिस्सों के बीच मुसलमानों, दलितों, स्त्रियों, प्रवासियों आदि के रूप में नकली शत्रु की छवियों का निर्माण किया जाता है। पूँजीवादी व्यवस्था के अपराध उनके सिर मढ़ दिये जाते हैं। और यह टटपुँजिया आबादी के जिसके पास राजनीतिक वर्ग चेतना का अभाव है क्योंकि उसके पास अपनी बदहाली के कारणों के सही विश्लेषण तक कोई पहुँच नहीं है, अपनी अन्धी प्रतिक्रिया का निशाना इन अरक्षित समुदायों को बनाती है, जोकि वास्तव में उनके ही वर्ग मित्र हैं। नतीजा होता है बहुसंख्यक समुदायों के इन टटपुँजिया वर्गों की प्रतिक्रिया की लहर पर सवार होकर फ़ासीवादी पार्टी सत्ता में आती है, जिस प्रकार भाजपा सत्ता में पहुँची। सत्ता में पहुँचने के बाद भाजपा की मोदी सरकार ने लगातार बड़े पूँजीपति वर्ग की नंगयी और बेशर्मी के साथ सेवा की है, झूठ बोला है, फ़रेब किया है। निजीकरण की आँधी चलाते हुए देश के पब्लिक सेक्टरों, प्राकृतिक संसाधनों को अम्बानियों और अडानियों को बेचा गया है; मज़दूरों से एक-एक करके सारे श्रम अधिकार छीने गये हैं; बेरोज़गारी का ऐसा कहर देश के युवाओं पर टूटा है, जिसकी भारत के इतिहास में कोई मिसाल नहीं है; इन सबके ख़िलाफ़ यदि कोई आवाज़ उठाता है, तो उसे तुरन्त राष्ट्र का शत्रु बताकर सींखचों के भीतर धकेलने में भी हमारे ‘हिन्दू राष्ट्र’ की मोदी सरकार ने कोई कमी नहीं की है, चाहे ये लोग हिन्दू हों या मुसलमान। यानी अब राष्ट्र के शत्रु की परिभाषा को विस्तारित कर दिया गया है: हर वह व्यक्ति राष्ट्र का शत्रु है, जो मोदी का विरोधी है! यह भी फ़ासीवाद की कार्यप्रणाली का ही एक हिस्सा है।

2014 से इसी प्रक्रिया का एक नया शिखर हम देख रहे हैं। नरेन्द्र मोदी-अमित शाह की फ़ासीवादी सरकार के रूप में भारत में फ़ासीवादी उभार अपनी पूर्णता को प्राप्त हुआ है। यही रामराज्य है, या ‘हिन्दू राष्ट्र’ है। लेकिन इसमें हिन्दू जनता की स्थिति क्या हुई है?

देश में 2012 से लेकर 2018 के बीच आम जनता के बीच उपभोग के स्तर में 9 प्रतिशत की गिरावट आ गयी है। यानी लोग पहले से कम खा, पहन रहे हैं, कम उपभोग कर रहे हैं। सरकारी आँकड़ों के अनुसार पिछले 45 वर्षों में बेरोज़गारी अपने चरम पर है, लेकिन वास्तव में ऐसी बेरोज़गारी भारत ने आज़ादी के बाद से देखी ही नहीं है। यदि हम लेबर चौक पर खड़ी होने वाली मज़दूर आबादी, बेलदारों, अकुशल निर्माण मज़दूरों, दिहाड़ी करने वालों, तथाकथित ‘गिग इकॉनमी’ में काम करने वाले युवाओं, ठेका मज़दूरों आदि को गिनें तो हम पाएंगे कि बेरोज़गारी का स्तर भारत के इतिहास में अभूतपूर्व है। क्या ये सारे मुसलमानहैं? नहीं! इसमें अच्छी-ख़ासी आबादी आम मेहनतकश हिन्दुओं की है। पिछले कुछ हफ्तों के ही दौरान भाजपा-शासित सभी प्रदेशों में मज़दूरों के काम के घण्टों को बढ़ाकर 12 घण्टे कर दिया गया है। क्या अब सिर्फ़ मुसलमान 12 घण्टे काम करेंगे? नहीं! 12 घण्टे हाड़तोड़ मेहनत करने वाले इन मज़दूरों की बहुसंख्या हिन्दू है! पर्यावरणीय इजाजत के नियम-कानूनों से पूँजीपतियों को छूट दे दी गयी है। इसके परिणामस्वरूप देश में पर्यावरण की जो अपूरणीय क्षति होगी, क्या उसका असर केवल मुसलमानों पर पड़ेगा? कोयला क्षेत्र, रेलवे और यहां तक कि रक्षा के क्षेत्र में भी निजीकरण और देशी-विदेशी पूँजी की लूट को खुली छूट देने का पूरा इन्तज़ाम कर दिया गया है। इसके नतीजे के रूप में जो छंटनी होगी और बेरोज़गारी बढ़ेगी और ठेकाकरण होगा, उसका निशाना क्या केवल मुसलमान बनेंगे? नहीं! हम अभी ही देख रहे हैं कि बड़े पैमाने पर मज़दूरों की छँटनी शुरू हो चुकी है, पक्के रोज़गार ख़त्म हो रहे हैं और ठेकाकरण बढ़ रहा है, जिसका शिकार हिन्दू व मुसलमान मज़दूर एक बराबर हो रहे हैं? निजीकरण के कारण जो सरकारी नौकरियां खत्म की जा रही हैं और बेरोज़गारी बढ़ रही है, तो उसका खामियाजा क्या केवल मुसलमान युवा भुगतेंगे? नहीं! हम अभी ही देख रहे हैं कि हिन्दू, मुसलमान सभी इसकी कीमत चुका रहे हैं। सरकार ने जनता के खजाने से 1.45 लाख करोड़ रुपये सौगात के रूप में अम्बानी, अडानी जैसे धनपशुओं को सौंप दिये। क्या यहां सिर्फ़ मुसलमान जनता को लूटा गया है? नहीं! देश की समूची मेहनतकश जनता को लूटा गया है, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान हों।

जैसे-जैसे देश में असन्तोष और ग़ुस्सा बढ़ेगा, लोगों का ध्यान भटकाने के लिए और उनकों बाँटने के लिए हिन्दुत्व के जुमले को और भी ज़्यादा उछाला जायेगा, हिन्दुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे के शत्रु के रूप में पेश किया जायेगा, ताकि इन भयंकर स्थितियों के लिए जिम्मेदार पूँजीवादी व्यवस्था, पूँजीपति वर्ग और उसके सबसे प्रतिक्रियावादी हिस्से की नुमाइन्दगी करने वाली मोदी-शाह सरकार को जनता कठघरे में न खड़े। और यदि कोई इस सच्चाई को समझता है और मोदी सरकार का विरोध करता है, तो उसे ‘हिन्दू राष्ट्र’ का शत्रु करार दिया जायेगा, जेलों में डाला जायेगा, प्रताड़ित किया जायेगा, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान। क्या देश में ठीक यही नहीं हो रहा है? सोचिए।

स्पष्ट है कि ‘हिन्दू राष्ट्र’ का अर्थ है देश के आम मेहनतकश हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, दलित, स्त्री, आदिवासी आबादी व दमित राष्ट्रों पर देश के बड़े पूँजीपति वर्ग की नंगी, बर्बर, बेशर्म तानाशाही। इस बात को हम जितनी जल्दी समझ लें, उतना बेहतर है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अक्‍टूबर 2020

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