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बाज़ार के हाथों में उच्च शिक्षा को बेचने का षड्यंत्र

यह बात भी उतनी ही सच है कि ज्यादतर निजी शिक्षण संस्थान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध नहींं कराते। एक तरफ बाज़ार के हाथों में उच्च शिक्षा को निजी विश्वविद्यालय कुकुरमुत्ते की तरह खुलते रहे वहीं सरकारी विश्वविद्यालयों की हालत बद से बदतर होती रही। 2014 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 677 विश्वविद्यालय है जिनके अन्तर्गत करीब 37,204 कॉलेज है। लेकिन वास्तविकता में इनमे से ज्यादातर सिर्फ डिग्री देने वाले संस्थान भर है। एक हालिया सर्वे के अनुसार सिर्फ 18 प्रतिशत इंजीनियरिंग स्नातक ही नौकरी कर पाने के लायक है वहीं केवल 5 प्रतिशत अन्य विषयों के स्नातक छात्र नौकरी करने के लायक है। देशभर के विश्वविद्यालयों में करीब 65000 शिक्षकों के पद खाली हैं। राज्य विश्वविद्यालय की बात छोड़ भी दें तो देश के सैंतालीस केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में करीब 47 प्रतिशत शिक्षकों के पद खाली हैं। यहाँ तक की आईआईटी जैसे संस्थानों में भी करीब 40 प्रतिशत पद खाली हैं। ऐसे वक़्त में जब उच्च शिक्षा पर सरकारी खर्चे बढ़ाने की जरूरत है उस वक्त सरकार शिक्षा से विनिवेश की तैयारी कर रही है।

18 दिन तक चली हरियाणा रोडवेज की ऐतिहासिक हड़ताल जनता पर निजीकरण के रूप में किये गये सरकारी हमले का जवाब देने में कहाँ तक कामयाब रही?

रोडवेज कर्मचारियों के संघर्ष का इतिहास लम्बा है। यदि मौजूदा कुछ संघर्षों की बात की जाये तो 5 सितम्बर को हड़ताल पर गये कर्मचारियों पर सरकार ने एस्मा एक्ट (Essentia। Services Maintenance Act) लगा दिया था। हड़ताल पर गये कर्मचारियों को पुलिस के द्वारा प्रताड़ित किया गया तथा कइयों को नौकरी से निलम्बित (सस्पेण्ड) कर दिया। जनता के हक़ में खड़े कर्मचारियों पर सरकार दमन का पाटा चलाती रही है। 10 सितम्बर को भी विधानसभा का घेराव करने जा रहे 20 हज़ार कर्मचारियों को जिनमें रोडवेज कर्मचारी भी शामिल थे का पुलिस द्वारा भयंकर दमन किया गया। पंचकुला में उनका स्वागत लाठी, आँसू गैस, पानी की बौछारों के साथ किया गया।

नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और उनका प्रभाव

यह बात बेहद गौर करने लायक है कि आज देश की तमाम चुनावी पार्टियाँ उदारीकरण-निजीकरण और वैश्वीकरण की जनविरोधी नीतियों को लागू करने की हिमायती हैं। कांग्रेस, भाजपा समेत क्षेत्रीय पार्टियाँ हों या फ़िर सीपीआई, सीपीएम सरीखी नामधारी मार्क्सवादी पार्टियाँ ही क्यों न हों, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इन नीतियों को बढ़ावा देती रही हैं। विरोध की नौटंकी केवल विपक्ष में बैठकर ही की जाती है। उदाहरण के लिए भाजपा और वामपन्थी पार्टियों की बात की जाये तो स्थिति साफ़ हो जाती है। भाजपा और संघ परिवार से जुड़ा स्वदेशी जागरण मंच एक तरफ़ छोटी पूँजी को रिझाने के मकसद से व अपने पुश्तैनी वोट बैंक को साथ रखने की मजबूरियों के चलते विदेशी निवेश का कड़ा विरोधी रहा है वहीं भाजपा सत्ता में आते ही तुरन्त पलटी मारने में माहिर है।