नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और उनका प्रभाव

अरविन्द

हमारा देश क़रीब 200 साल की औपनिवेशिक गुलामी के बाद 15 अगस्त 1947 को आज़ाद हुआ। यह आज़ादी भी खण्डित आज़ादी थी, हमें आज़ादी समझौते के रूप में मिली। राष्ट्रीय आन्दोलन और स्वतन्त्रता संग्राम का पूरा इतिहास इस बात का गवाह है कि तमाम कुर्बानियों के बावजूद क्रान्तिकारी ताकतें अपेक्षाकृत तौर पर कमज़ोर रहीं और नेतृत्वकारी भूमिका में नहीं आ सकीं जिसके अलग ऐतिहासिक कारण हैं। अतएव आज़ादी समझौता-दबाव-समझौता की नीति के तहत मिली। समझौतावादी नेतृत्व ने जनता के संघर्षों का खूब इस्तेमाल करके होने वाले समझौतों में अपने ही हितों का ख़याल किया। निश्चय ही औपनिवेशिक गुलामी से आज़ादी एक प्रगतिशील कदम था परन्तु इसके साथ ही एक नये पीड़ादायी दौर की शुरुआत हुई। अंग्रेजों ने फूट डालो राज करो की नीति के तहत भारत को गुलाम बनाये रखने के मकसद से साम्प्रदायिकता का इस्तेमाल किया और जमकर धार्मिक दंगों को बढ़ावा दिया। यही कारण था कि भारत-पाकिस्तान बनने के रूप में विभाजन का दंश भी आज़ादी के साथ-साथ हमें झेलना पड़ा। हमारे देश की आज़ादी के दौरान दुनिया भर में लोग बड़े ऐतिहासिक बदलावों के साक्षी बन रहे थे। समाजवादी देश सोवियत संघ की जनता संघर्ष और निर्माण के शानदार प्रयोग कर रही थी। नव-जनवादी क्रान्ति के बाद समाजवादी चीन का उदय हो चुका था। लातिन अमेरिका, अफ्रीका और एशिया के जनगण उपनिवेशवादी ताकतों से टक्कर ले रहे थे। क्रान्तियों के भय से शासक वर्ग थर्राया हुआ था।

 भारत में अंग्रेज उपनिवेशवादी अपने दूरगामी हितों को साधने के मकसद से सत्ता की बागडोर भारत के पूँजीपति वर्ग को यानी उसके हितों की नुमाइन्दगी कर रही पार्टी कांग्रेस को सौंपकर गये थे। आज़ादी मिलने तक 1940 का दशक उथल-पुथल भरा दौर था। मज़दूरों-किसानों के जगह-जगह विद्रोह फूट रहे थे, सैन्य बल भी बगावती सुर दिखा रहे थे, यही नहीं किसानों के कई संघर्ष तो आज़ादी के बाद तक भी चले। इसलिए ज़ाहिर सी बात है पूँजीपति वर्ग की पार्टी और राज्य ने अधिक समझदारी का परिचय देते हुए मिश्रित अर्थव्यवस्था का निर्माण किया। यही 1940 के दशक में आया ‘टाटा-बिड़ला प्लान’ था। तुरन्त मुनाफ़ा पैदा करने वाले उद्यमों को निजी क्षेत्र में रखा गया और ऐसे क्षेत्र जिनमें पहले अवरचनात्मक ढाँचे की ज़रूरत पड़ी और जो तुरन्त मुनाफ़ा नहीं प्रदान करते जैसे इस्पात, परिवहन, बिजली, निर्माण उद्योग इत्यादि सार्वजनिक क्षेत्र में रखे गये। आम जनता से क़ुरबानी की बड़ी-बड़ी अपीलें की गयी और जनता ने खून-पसीना एक करके सार्वजानिक क्षेत्र (पब्लिक सेक्टर) को खड़ा कर दिया।

वहीं विश्व स्तर पर समाजवादी प्रचार से मजदूरों को बचाने के लिए पूँजीवाद का कल्याणकारी राज्य का सिद्धान्त अस्तित्व में आ चुका था। 1936 में ब्रिटेन के पूँजीवादी अर्थशास्त्री कीन्स ने अपनी पुस्तक ‘जनरल थ्यूरी ऑफ़ इम्प्लायमेण्ट इण्टरेस्ट एण्ड मनी’ में अपने कल्याणकारी राज्य के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। जिसका सार यह था कि पूँजीवादी राज्य को अपने नागरिकों से लिए गये कर या टैक्स के बदले में कुछ सुविधायें प्रदान करनी चाहियें। राज्य का मॉडल कल्याणकारी होना चाहिए। कहना नहीं होगा कि इसमें यह डर अन्तर्निहित था कि यदि फ़िलहाली तौर पर पूँजीवादी राज्य के द्वारा जनता के लिए कुछ भी नहीं किया गया तो मेहनतकश वर्ग की क्रान्तियाँ पूँजीवाद को उखाड़ फेकेंगी। कल्याणकारी राज्य के सिद्धान्त प्रतिपादन के बाद इसके मॉडल को अपना लेने के बाद पूँजीवाद को कुछ समय के लिए राहत ज़रूर मिली और कीन्स पूँजीवाद के लिए सुषेण वैद्य साबित हुए। किन्तु यह राहत अल्पकालिक ही थी। पूँजीवाद का स्वर्णिम युग ख़त्म हुआ और 1930 के संकट के बाद पुनः विश्व अर्थव्यवस्था नए आर्थिक संकट में फंस रही थी। दुनिया भर में 1970 के दशक तक कल्याणकारी राज्य का मॉडल काम करता रहा उसके बाद यह सन्तृप्ति बिन्दु तक पहुँच गया। फ़िर से मन्दी का दौर आया, नतीजतन सार्वजानिक जन-कल्याणकारी नीतियों में कटौती की जाने लगी। भारत में भी ज्यों-ज्यों पूँजीपति वर्ग आर्थिक रूप से सम्पन्न और मज़बूत होता गया त्यों-त्यों ही जनता के खून-पसीने से खड़े किये गये सार्वजनिक उद्यम निजी हाथों में सौंपे जाने लगे। यहाँ पर दो स्तर पर काम हुआ पहला अर्थव्यवस्था में विदेशी पूँजी के प्रवेश को उत्तरोत्तर सुगम किया जाने लगा दूसरा देशी पूँजीपतियों को भी लूट की खुली छूट दी गयी। इसका कारण था कि अब भारत का पूँजीपति वर्ग जोकि साम्राज्यवाद के कनिष्ठ साझीदार के तौर पर खुलकर अपना चरित्र दिखला रहा था पूँजी और तकनोलॉजी के मामले में साम्राज्यवादियों और उनकी आर्थिक संस्थाओं पर निर्भर हो रहा था। 1980 के दशक में ही लाइसेंस प्रणाली, परमिट व्यवस्था को ख़त्म करने के नाम पर पूँजीपति वर्ग को लूट की छूट दी गयी यही नहीं इसी समय उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को लागू करने की ज़मीन के रूप में भारतीय अर्थव्यस्था में प्रयोग भी किये गये तथा विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) के इशारों पर इसे ढालने की शुरुआत हुई। अन्ततोगत्वा 24 जुलाई 1991 को भारत में खुले तौर पर पूँजीपरस्त नीतियों को जनता पर थोप दिया गया। इसे आर्थिक सुधारों का नाम दिया गया तथा नीतियों को ‘नयी आर्थिक नीतियों’ के नाम से प्रचारित किया गया। उदारीकरण (असल में पूँजी के लिए उदार न कि श्रम के लिए), निजीकरण (सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को निजी हाथों में सौंपने की खुल्लमखुल्ला शुरुआत) और वैश्वीकरण (विदेशी पूँजी के लिए निवेश के रास्ते सुगम बनाना) की लुटेरी और पूँजीपरस्त नीतियों की शुरुआत भारत की अर्थव्यवस्था को विकसित करने के नाम पर की गयी। बड़ी ही बेशर्मी के साथ पी. वी. नरसिम्हाराव, मनमोहन सिंह और मोण्टेक सिंह अहलुवालिया की तिकड़ी के द्वारा ‘ट्रिकल डाउन थ्योरी’ प्रस्तुत की गयी। इस थ्योरी के अनुसार नयी आर्थिक नीतियों के प्रयोग के बाद समृद्धि समाज के ऊपरी तबके यानी अमीर वर्ग में आयेगी और वह फ़िर रिसकर नीचे यानी आम जनता तक पहुँच जायेगी। असल में यह जनता के साथ गन्दे और भद्दे मजाक के अलावा और कुछ नहीं था। आज क़रीबन 26 साल बाद ‘ट्रिकल डाउन थ्योरी’ की असल हकीक़त सामने है। समृद्धि रिसकर नीचे पहुँचने की बजाय सरकारी शह पर आम जनता का खून-पसीना निचोड़ कर लूटी गयी धन-सम्पदा ऊपर ज़रूर पहुँच गयी है तथा धनी व ग़रीब के बीच की खाई अभूतपूर्व गति से बढ़ी है। हमारे पुरखों की मेहनत से खड़े किये गये विशालकाय सार्वजानिक क्षेत्र के उद्यमों की लूट का तो कोई हिसाब ही नहीं है! यदि 26 साल पहले और आज के हालात की तुलना की जाये तो आम जनता के शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार से लेकर हर चीज़ के स्तर में भारी गिरावट दर्ज की गयी है। हम कहीं से भी नेहरूवादी मिश्रित अर्थव्यवस्था के नाम पर खड़े किये गये समाजवादी नामधारी राष्ट्रीय पूँजीवाद के मॉडल के कायल नहीं हैं असल में उसे कभी न कभी नंगे पूँजीवादी निजी मालिकाने के मॉडल में रूपान्तरित होना ही था परन्तु यहाँ यह दर्शाना है कि शासक वर्ग जनता के फायदे के नाम पर और उसे रंगीन गुलाबी सपने दिखाकर किस तरह से अपना उल्लू सीधा करता है!

यह बात बेहद गौर करने लायक है कि आज देश की तमाम चुनावी पार्टियाँ उदारीकरण-निजीकरण और वैश्वीकरण की जनविरोधी नीतियों को लागू करने की हिमायती हैं। कांग्रेस, भाजपा समेत क्षेत्रीय पार्टियाँ हों या फ़िर सीपीआई, सीपीएम सरीखी नामधारी मार्क्सवादी पार्टियाँ ही क्यों न हों, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इन नीतियों को बढ़ावा देती रही हैं। विरोध की नौटंकी केवल विपक्ष में बैठकर ही की जाती है। उदाहरण के लिए भाजपा और वामपन्थी पार्टियों की बात की जाये तो स्थिति साफ़ हो जाती है। भाजपा और संघ परिवार से जुड़ा स्वदेशी जागरण मंच एक तरफ़ छोटी पूँजी को रिझाने के मकसद से व अपने पुश्तैनी वोट बैंक को साथ रखने की मजबूरियों के चलते विदेशी निवेश का कड़ा विरोधी रहा है वहीं भाजपा सत्ता में आते ही तुरन्त पलटी मारने में माहिर है। 1998 से 2004 के बीच के दो कार्यकालों में भाजपा ने ‘वैश्वीकरण’ और ‘शाइनिंग इण्डिया’ के नाम पर विदेशी निवेश और निजीकरण को जमकर बढ़ावा दिया। विदेशी पूँजी को खुला हाथ देने के कारण भाजपा को स्वदेशी जागरण मंच और आरएसएस तक के जुबानी विरोध का सामना करना पड़ा। 2004 से लेकर 2014 तक विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई), नोटबन्दी, जीएसटी आदि उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों का जमकर विरोध किया किन्तु सत्ता में आते ही चमत्कारिक ढंग से गिरगिट की तरह रंग बदल लिया और डण्डे के ज़ोर से उन्हीं नीतियों को लागू किया। भाजपा ने यह साबित कर दिया कि सत्ता सुख के लिए दक्षिणपन्थी-फ़ासीवादी किसी भी हद तक झूठ बोल सकते हैं! भारत की तथाकथित वामपन्थी पार्टियाँ भी नेहरू के समय खड़े किये गये पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद के लिए आँसू तो खूब बहाती हैं किन्तु जब सत्ता में भागीदारी की बात आती है तो उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों की शुरुआत करने वाली और लम्बे समय तक इन नीतियों की सबसे बड़ी पक्षपोषक रहने वाली पार्टी कांग्रेस के साथ गलबहियाँ कर लेते हैं। जिन राज्यों में  वाम मोर्चे की सरकारें रही हैं वहाँ भी निजीकरण और विदेशी निवेश के मामले में कमोबेश ‘वही ढाक के तीन पात’ वाली स्थिति रही है। अतः यह स्पष्ट है कि आज के दौर में जनता के ऊपर मुसीबतों का पहाड़ बनकर टूटने वाली आर्थिक नीतियों की सभी चुनावी दल हिमायत व हिफ़ाजत करते रहे हैं। पार्टियों के झण्डों के रंग और नारों में अन्तर हो सकता है परन्तु आर्थिक नीतियों के मामले में सभी सुर में सुर मिलाती हैं।

उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों का भारतीय जन-जीवन पर प्रभाव

अब उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों के भारतीय जनगण पर पड़े प्रभाव पर थोड़ी सी निगाह डाल लेते हैं। नवउदारवाद के दौरान बेरोज़गारी में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। रोज़गार के अवसर बहुत कम सृजित हुए और जो अवसर सृजित हुए भी हैं वे अनौपचारिक क्षेत्र में ही हुए हैं जहाँ सामाजिक सुरक्षा की कोई गारण्टी नहीं! संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट कहती है 1991-2013 के बीच भारत में 30 करोड़ रोज़गार की चाहत रखने वालों में से मात्र 14 करोड़ को ही काम मिला और जिन्हें मिला भी उनमें से 60% को साल भर अनियमित काम मिला। कुल रोज़गार में संगठित क्षेत्र लगातार सिकुड़ता गया और आज यह मात्र 7 प्रतिशत रह गया है जबकि असंगठित क्षेत्र जहाँ पर पक्के रोज़गार की गारण्टी नहीं है और श्रम कानूनों की कोई पालना नहीं होती 93 प्रतिशत हो गया है। उदारीकरण के 26 वर्षों के दौरान हुए रोज़गार-विहीन विकास का सारा लाभ बड़े पूँजीवादी घरानों को ही हुआ है। इन 26 वर्षों में पूँजी संचय कितनी तेज़ी से बढ़ा है इसे कुछ आँकड़ों से भी समझा जा सकता है। भारत में 1990 के दशक के मध्य में सिर्फ़ 2 अरबपति (डॉलर अरबपति) थे, 2017 तक अरबपतियों की संख्या 111 तक पहुँच गयी। इस दौरान अरबपतियों की सम्पत्ति जीडीपी के 1 प्रतिशत से बढ़कर जीडीपी के 10 प्रतिशत से भी अधिक हो गयी। क्रेडिट स्विस की एक रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया है कि देश की कुल सम्पदा का 50 फ़ीसदी हिस्सा शीर्ष के सिर्फ़ 1 प्रतिशत लोगों के पास इकट्ठा हो गया है। वहीं ऑक्सफैम की 2017 की रिपोर्ट के अनुसार सम्पत्ति का 58 प्रतिशत ऊपर के 1 प्रतिशत धन्नासेठों के पास एकत्रित हो चुका है। यहीं नहीं 2017 में पैदा हुई कुल सम्पदा का तो 73 प्रतिशत हिस्सा ऊपर के 1 फ़ीसदी अमीरों के पास गया है। क्रेडिट सुईस की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में पिछले  15 साल के दौरान देश की धन-सम्पदा में 2.28 ख़रब डॉलर की बढ़ोत्तरी हुई है इस बढ़ोत्तरी का 61 फ़ीसदी हिस्सा सबसे अमीर 1 फ़ीसदी की झोली में गया है यही नहीं ऊपर के 10 फ़ीसदी अमीरों के हिस्से में जाने वाली सम्पदा 81 फ़ीसदी है। सीधी-साफ़ बात है नीचे के 90 फ़ीसदी के हिस्से में तो सिर्फ़ जूठन ही गयी है। अमीर-ग़रीब की खाई नयी आर्थिक नीतियों के बाद और भी चौड़ी होती गयी है। भारत में आय असमानता पर आयी दो फ़्रांसीसी अर्थशास्त्रियों लुकास चांसल और थॉमस पिकेट्टी, की रिपोर्ट गैरबराबरी के और भी भयावह हालात को रेखांकित करती है। रिपोर्ट के मुताबिक़ 1922 के औपनिवेशिक गुलामी के दौर की बजाय 2014 के खरबपतियों के राज में आय असमानता और भी अधिक हो गयी है।

यही रिपोर्ट बताती है कि 1922 में अंग्रेज नौकरशाहों, व्यापारियों राजे-रजवाड़ों से बनी शीर्ष 1 प्रतिशत आबादी के हिस्से में राष्ट्रीय आमदनी का 21 फ़ीसदी हिस्सा जाता था जो 2014 में 22 फ़ीसदी हो चुका है।

यदि प्रति व्यक्ति प्रति दिन कैलोरी के वास्तविक मापदण्ड से ग़रीबी की पड़ताल की जाय (2,100 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रति दिन शहरों में और 2,200 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रति दिन देहातों में) तो हम पाते हैं कि शहरों और देहातों दोनों में नवउदारवाद के दौर में ग़रीबी बढ़ी है। नेशनल न्यूट्रीशन मॉनिटरिंग ब्यूरो के 2012 के सर्वे के अनुसार 1979 के मुक़ाबले आज औसतन हर भारतीय ग्रामीण को प्रतिदिन 550 कैलोरी, 13 ग्राम प्रोटीन, 5 मिलीग्राम आयरन, 250 मिलीग्राम कैल्सियम और 500 मिलीग्राम विटामिन ए कम उपलब्ध हो रहे हैं, शहरी आबादी के हालात भी कोई बेहतर नहीं हैं।

कुल मिलाकर देखा जाये तो उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों ने भारत के आम जनगण का जीना दूभर कर दिया है। एक तरफ़ समाज में ग़रीबी, बेरोज़गारी, भुखमरी और कुपोषण जैसी समस्याएँ बढ़ी हैं वहीं दूसरी तरफ़ यही दौर भारत में साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति के उभार का भी साक्षी बना है। यह अनायास ही नहीं था कि 1990 के दशक में ही नयी आर्थिक नीतियों की शुरुआत हुई और इसी दशक में प्रतिक्रियावादी फ़ासीवादी ताकतों ने राम मन्दिर आन्दोलन संगठित किया तथा सम्प्रदाय विशेष के ख़िलाफ़ जनता के आक्रोश को भड़काकर देश की आम जनता को आपस में लड़ाने का काम किया और भयंकर ख़ूनी साम्प्रदायिक दंगों को अंजाम दिया। आज संस्कृति के हर क्षेत्र में भी रुढ़िवाद, अन्धविश्वास, कट्टरपन और अन्धराष्ट्रवादी विचारों का बोलबाला है। हम एक बार फ़िर से रेखांकित कर दें कि नवउदारवाद-पूर्व पब्लिक सेक्टर पूँजीवादी दौर में वापसी सम्भव नहीं है बल्कि बाहर निकालने का रास्ता अतीत की बजाय भविष्य की ओर है। किन्तु ऊपर आयी पूरी बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि नवउदारवाद की नीतियाँ देश की आम जनता के ऊपर कहर बनकर टूटी हैं। और सभी चुनावी पार्टियाँ इन्हें आगे बढ़ाने के लिए संकल्पबद्ध हैं।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मई-जून 2018

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