जल संकट : वित्तीय पूँजी की जकड़बन्दी का नतीजा
मीनाक्षी
भारत समेत कई देशों की जनता आज विकट जल संकट से जूझ रही है। विश्व बैंक के आँकड़ों की मानें तो ताजे जल स्रोतों की उपलब्धता के लिहाज से दुनिया के सर्वाधिक जल-समृ़द्ध दस देशों की सूची में भारत भी शामिल है फिर क्या वजह है कि साल दर साल यहाँ की जनता सूखे की मार झेलने के लिए अभिशप्त है? पूँजीवादी विकास और नवउदारवादी नीतियों के अमल ने जब पानी को सुगम और सर्वसुलभ ही न रहने दिया हो और उसे एक मुनाफ़ा देनेवाले उद्योग की शक्ल में बदल दिया हो तो क्रय शक्ति से कमजोर आम जन समुदाय के लिए उस तक पहुँच ही कठिन नहीं होगी बल्कि जल्दी ही यह उसके लिए एक विलासिता की सामग्री भी हो जायेगी, यह निश्चित है। पानी का एक मुनाफ़ेवाला कारोबार बनने के समय से ही पूरी दुनिया के कारोबारियों के बीच इस पर आधिपत्य के लिए भीषण प्रतिस्पर्धा जारी हो चुकी थी। लगभग 500 बिलियन डालर के इस वैश्विक बाज़ार के लिए यह होड़ बेशक अब और अधिक तीखी होने वाली है। फ़ॉरच्यून पत्रिका की रिपोर्ट के अनुसार बीसवीं शताब्दी के लिए तेल की जो कीमत थी इक्कीसवीं शताब्दी के लिए पानी की वही कीमत होगी। यह अनायास ही नहीं है कि पानी उद्योग का वार्षिक राजस्व आज तेल सेक्टर के लगभग 40 प्रतिशत से ऊपर जा पहुँचा है। यह तय है कि पानी की समस्या और अधिक विकराल होती जायेगी। अमेरिका से लेकर अफ्रीका, कई लातिन अमेरिकी देश और एशिया व यूरोप के कुछ देश भी इस संकट की चपेट में आ चुके हैं। कैलीफोर्निया में पिछले 4 वर्षों से पानी का संकट जारी है। फ्लिण्ट के जल संकट ने तो अमेरिकी जनता को सड़कों पर उतरने को मजबूर कर दिया था। पानी की कमी को लेकर दुनिया के कई शहरों में आन्दोलन हुए हैं और यह सिलसिला अभी थमा नहीं है। भारत की स्थिति तो और भी भयंकर है। भीषणता का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश के कुल 688 जिलों में से अधिकतम 80 जिले ही ऐसे हैं जिनका पानी पीने योग्य रह गया है। 91 जलाशयों का जल स्तर अब तक एक तिहाई घट चुका है। नदियाँ यहाँ जल की प्राकृतिक स्रोत हैं परन्तु तापमान वृद्धि के कारण जो स्वयं पूँजीवाद उत्पादन प्रणाली की देन है, गंगा, ब्रह्मपुत्र, कृष्णा, गोदावरी, नर्मदा, कावेरी जैसी बड़ी नदियाँ 33 से लेकर 49 फीट तक सिकुड़ चुकी हैं और यह सिकुड़ना जारी रहेगा क्योंकि मुनाफ़े की अन्धी हवस पृथ्वी के तापमान को घटने नहीं देगी। इसी पूँजीवादी लोभ के चलते नदियों का 75 प्रतिशत से भी ज्यादा पानी प्रदूषित हो चुका है और पीने व नहाने योग्य नहीं रह गया है। बाज़ार समाजवाद से खुले बाज़ार की तरफ छलांग मारते चीन में प्रदूषण की समस्या ने विकराल रूप ले लिया है। यहाँ नदियाँ 80 फीसदी से भी ज्यादा प्रदूषित हो चुकी हैं।
वर्ष की शुरुआत में दावेस में विश्व आर्थिक मंच का छठा सम्मेलन आयोजित हुआ था। यह तमाशा भी खूब रहा। इस आयोजन में जल की समस्या को भी चिन्ता योग्य माना गया और संयुक्त राष्ट्र के सचिव बान की मून की उपस्थिति में इस पर ‘अत्यन्त गम्भीरता’ से विचार करने के बाद समाधान के तौर पर उसमें शामिल देशों के राष्ट्राध्यक्षों का एक आपातकालीन पैनल स्थापित कर दिया गया, ठीक वैसे ही जैसे दुनिया की विशाल आबादी को प्रभावित करने वाले इस तरह के संकटों में बिना किसी ठोस जवाबदेही के ऐसी तमाम किस्म की कमेटियाँ और पैनल पहले भी कायम किये जाते रहे हैं। यह पूछना बेमानी है कि जब आम जन-जीवन के लिए पानी एक अहम मुद्दा था तो फोरम के लिए यह अब तक अहम क्यों नहीं बना था। फोरम पहले ही यह स्पष्ट कर चुका था कि उसके प्राथमिकता क्रम में ‘अन्य अत्यावश्यक दबाववाले मुद्दे समाधान की बाट जोह रहे थे।’ तब भला पानी कोई आवश्यक मुद्दा हो ही कैसे सकता था! यह दीगर बात है कि ऐसे मुद्दे बाट जोहते रहते हैं और नये-नये मुद्दे कालान्तर से अहमियत ग्रहण कर उन बाट जोहने वालों में शामिल होते जाते हैं और अन्त तक असमाधेय ही रह जाते हैं। मुख्यतः अमेरिकी पूँजी के इशारों पर नाचनेवाले ये सभी अन्तरराष्ट्रीय संगठन, वैश्विक संस्थाएँ या मंच ऐसे मसलों पर जनता को भरमाने और अपने होने के औचित्य प्रतिपादन के लिए सम्मेलन और शिखर सम्मेलन आयोजित करते रहते हैं लेकिन आज तक ऐसे किसी आयोजन का कोई ठोस नतीजा अभी तक सामने नहीं आया है। जलवायु परिवर्तन के शिखर सम्मेलन की तरह जल संकट पर आर्थिक मंच का यह आयोजन भी बेनतीजा रहने के लिए ही अभिशप्त होगा। मंच के विभिन्न सत्रों में विश्व बैंक के मुखिया और खाद्य सामग्री व बोतलबन्द पानी बाजार से सर्वाधिक मुनाफ़ा पीटनेवाली नेस्ले कम्पनी के अध्यक्ष पीटर ब्रावेक जैसे लोगों की उपस्थिति इसी बात का प्रमाण है। भूलना नहीं होगा कि विश्व बैंक कमजोर अर्थव्यवस्था वाले देशों को निजीकरण और सुधारों की रफ़्तार तेज़ करने की शर्त पर वित्तीय सहायता देकर बर्बादी की कगार पर पहले ही पहुँचा चुका है। अब वह जल प्रबन्धन के क्षेत्र में विकासशील देशों को जाहिरा तौर पर जनता की सुविधाओं में कटौती की शर्त के साथ फण्ड मुहैया कराने वाला सबसे बड़ी दाता एजेंसी बना हुआ है। इससे अधिक हास्यास्पद बात भला क्या होगी कि कोई खाद्य व पेय पदार्थ, बोतलबन्द पानी और औषधि निर्माण जैसे सबसे अधिक पानी सोखने वाले प्रतिस्पर्धी उद्योगों के मुखियाओं/सरगनाओं से जल संकट से निजात पाने का उपाय पूछे!(?) उदाहरण के लिए नेस्ले या कोकाकोला या पेप्सी द्वारा निर्मित पेय पदार्थ में प्रति व्यक्ति 95 लीटर के हिसाब से पानी इस्तेमाल होता है। ठीक इसी प्रकार बोतलबन्द पानी के धन्धे में 1 लीटर साफ पानी के लिए 5 लीटर पानी इस्तेमाल हो जाता है। बोतलबन्द पानी के 160 बिलियन डालर वाले धन्धे पर जबरदस्त दबदबा रखनेवाली नेस्ले सहित बिसलेरी, पेप्सी, कोकाकोला, धारीवाल और पारले जैसी प्रमुख कम्पनियाँ क्या जल संकट को देखते हुए अपना खरबों का मुनाफ़ा छोड़ देंगी? ऐसा वे करने से रहीं, उल्टे वे इन संकटों से और ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने की फ़िराक में रहेंगी। मद्धिम गति से लगातार जारी मन्दी के इस दौर में जब पूँजीपतियों का मुनाफ़ा घटता है तो मुनाफ़े का यह संकट आम जन के संकटों से मुनाफ़ा पैदा करने की कोशिशों में लग जाता है और आम जनता के लिए और अधिक संकट ले आता है। यह दुष्चक्र चलता रहता है।
पूँजी एक डायन की तरह मुनाफ़े की खोज में बदहवास भागती रहती है हर चीज़ को माल में बदले बिना वह ज़िन्दा नहीं रह सकती। बालू, मिट्टी, पानी, जंगल, पहाड़ जैसी प्रकृति प्रदत्त चीजें भी उसके खुले जबड़े में समा जाती हैं। पूँजीपरस्त सरकारें उसकी सहूलियत के लिए प्रबन्धन समिति की अपनी भूमिका के अनुरूप तरह-तरह के हथकण्डे अपनाती हैं। भारत में भी सरकारें रोज़गार वृद्धि और आर्थिक समृद्धि का बहाना लेकर बहुराष्ट्रीय और राष्ट्रपारीय निगमों की अगवानी के लिए नाक रगड़ने उनके देशों तक जा पहुँचती रही हैं। काँग्रेस शासन में यह अपेक्षाकृत धीमी गति से होता था लेकिन मोदी सरकार इसे बेशर्मी से खुले आम और डंके की चोट पर तेज़ गति से करती है। ये कम्पनियाँ प्राकृतिक संसाधनों का भीषण दोहन करके मुनाफ़ा कमाती हैं और उसका एक टुकड़ा अपने छोटे साझीदार, देशी पूँजीपतियों की झोली में डाल देती है। उनका हिसाब-किताब देखनेवाली सरकार, उसके नेताओं और नौकरशाहों को भी उसका जूठन मिल जाता है पर यह जूठन-छाड़न ही इतना होता है कि उनकी कई अगली पीढ़ियों का आर्थिक भविष्य सुरक्षित हो जाये। तेल निकालने और शोधन करने से लेकर औषधि, कम्प्यूटर, मोबाइल और विद्युत संयंत्र लगाने और संचालित करनेवाली ये कम्पनियाँ भारत में अरसे से सरकार की छत्रछाया में जल समेत देश के प्राकृतिक संसाधनों को खुले हाथ लूटने में लगी हैं। इतना ही नहीं, वे अपने जहरीले रासायनिक कचरे से भूमिगत जल और नदियों के पानी को विषाक्त बनाती रही हैं। पानी की अधिक मात्रा के लिए ये कम्पनियाँ 800 फीट की गहराई से पानी खींचती हैं और आसपास के क्षेत्रों को सूखाग्रस्त बना डालती हैं। इस्तेमाल पानी को शोधित कर पुनः इस्तेमाल की जगह ये लगातार ताजे पानी का उपयोग करती हैं। शोधन में होनेवाले व्यय को इस प्रकार बचाकर ये मुनाफ़़े की दर बढ़ाने में सफल हो जाती हैं। यह सिलसिला और तेज़ हुआ है। हालाँकि इन कम्पनियों के खिलाफ जनता लगातार प्रतिरोध करती रही है। विगत दिनों तमिलनाडु में पेप्सीकोक और जैतपुर में परमाणु विद्युत संयंत्र के विरुद्ध वहाँ की जनता कई बार सड़कों पर उतर चुकी है। जाहिर है सरकार ने पूँजी के हित में खड़े होकर जनता का दमन करने में हमेशा बड़ी फुर्ती दिखायी है।
औद्योगिक कचरे के साथ-साथ नदी के पानी में सीवेज और फ्लोराइड सहित अन्य खतरनाक किस्म के रसायन घुलने से प्रदूषित पानी मानव ही नहीं पशुजीवन के भी उपयोग लायक नहीं रहा। राष्ट्रीय राजधानी होने के बावजूद अकेले दिल्ली में ही लगभग 45 प्रतिशत आबादी सार्वजनिक सीवरेज तंत्र के अन्तर्गत नहीं आती। पूँजीपतियों की चाकरी बजानेवाली सरकार को इसका उपाय निकालने में, ज़ाहिर है कोई दिलचस्पी नहीं हो सकती। बरसात के मौसम में वर्षाजल का 48 फीसद इन नदियों में गिरता है लेकिन वह भी प्रदूषित और इस कारण व्यर्थ हो जाता है जो कि अन्यथा उपयोगी हो सकता था। छोटे बाँधों की जगह विकास के नाम पर सरकारों ने बड़े बाँधों को बढ़ावा दिया है जब कि बड़े बाँध वर्षा जल को ज़मीन तक पहुँचने से रोकते हैं। जल प्रदूषण के साथ यह भी पानी के संकट की एक वजह है। जल संकट या अन्य आपातकालीन स्थितियों से निपटने के लिए अक्सर कुछ नासमझ बुद्धिजीवी पूँजीपतियों से सामाजिक दायित्व निभाने की अपील करते हैं तथा उनका मुँह जोहने लगते हैं। परन्तु किसी नदी को प्रदूषणमुक्त करने में औद्योगिक घरानों की सीधी सी बात है कोई दिलचस्पी नहीं हो सकती जबतक कि उसे उनके निजी हाथों में सौंप न दिया जाये, जिससे वे उस पानी को शोधित कर सरकार, व्यक्तियों या अधिक पानी की खपत वाले छोटे उद्योगों को महँगे दामों पर बेचकर मुनाफ़ा कमा सकें। सरकार को महँगे दामों पर पानी बेचने के सवाल पर यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि वास्तव में वे सरकार से मुनाफ़ा नहीं कमाते, जनता का पैसा निचोड़ते हैं जिसे सरकार पहले ही प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों के रूप में वसूलकर सरकारी खजाने में डाल चुकी होती है।
यह एक नंगी सच्चाई है कि सरकारें जनकल्याण का वितण्डा खड़ा करके वास्तव में पूँजीपतियों के लिए मुनाफ़ा बढ़ाने की खुली व्यवस्था कायम करती हैं और उसके प्रबन्धन का दायित्व सँभालती हुई उनके हितों के पोषण में मुस्तैदी से लग जाती हैं। एक बार फिर यह याद करना होगा कि भारतीय आर्थिक व्यवस्था को जब भूमण्डलीकरण की नीतियों के साथ नत्थी करने की ज़मीन तैयार की जा रही थी तो तत्कालीन सरकार ने किस तरह उनके पक्ष में माहौल बना कर अपनी प्रबन्धकीय भूमिका को उत्कट वफ़ादारी से निभाया था। पूँजीवादी देशों में संसद भी, ग्राम्शी के शब्दों में कहा जाये तो ‘सहमति निर्माण का एक उपकरण ही है’। साम्राज्यवादी पूँजी के लिए भारत के बाज़ार ने एक जबरदस्त अवसर मुहैया कराया और सरकारी नीतियों ने उसे संरक्षण प्रदान किया। पानी, बिजली, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा जैसी जन-सुविधाओं और जनवादी अधिकारों वाले मदों में कटौती का सिलसिला शुरू हुआ जो अब तक जारी है। ज़ाहिर है जल संकट पैदा करने में पूँजी की सेवा में तत्पर रहनेवाली सरकार का सक्रिय योगदान था। आज जो पानी उपलब्ध भी है वह सरकार की घनघोर उपेक्षा और जनविरोधी नीतियों की भेंट चढ़ गया। इसी का नतीजा है कि जलापूर्ति के लिए बिछे पाइपों की मरम्मत करने या उसे बदलने के लिहाज से तीसों सालों तक बल्कि कहा जाये तो उससे भी ज्यादा समय तक कोई ध्यान नहीं दिया गया और न ही इसकी कोई सुनिश्चित योजना ली गयी। लिहाजा जगह-जगह पाइप के फटे दरारों या छिद्रों से काफ़ी पानी निकलकर बर्बाद होता रहा। इस ओर उपेक्षात्मक रवैया अपनाया गया। सरकारी निकाय और संस्थाएँ जानबूझकर आँखें मूँदे रहीं। आज स्थिति यह है कि इन छिद्रों-दरारों से 50 प्रतिशत पानी रिसकर बर्बाद हो जाता है। सूखे और बाढ़ से देश के बार-बार प्रभावित होने के बावजूद पानी को साफ़ करने, बारिश के समय उसका संग्रह करने और उसे आपातकाल के लिए पहले से ही सुरक्षित रखने की तकनीक को विकसित करने में कभी कोई खास दिलचस्पी नहीं ली गयी। औद्योगिक कचरे पर रोक लगाने के लिए यदि कानून बनाये भी गये तो वे वित्तीय दण्ड और जेल की सजा जैसे प्रावधानों के बिना अमल के धरातल पर नख-दन्त विहीन ही बने रहे। उल्टे उन उद्योगों को रिहायशी बसेरों के आसपास न केवल स्वयं को स्थापित करने बल्कि हर तरह की अवरचनागत और अन्य सुविधाएँ हासिल करने की छूट भी दी गयी। जलापूर्ति करनेवाले निकायों में निजी कम्पनियों को पैठ बनाने का मौका और सहूलियत दी गयी। याद दिलाते चलें कि आन्ध्रप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू ने पेय पदार्थ बनानेवाली कम्पनियों को सरकारी खर्चे से संग्रहित और साफ़ किया हुआ पानी 25 पैसे प्रति लीटर के हिसाब से मुहैया कराया था किन्तु उक्त कम्पनी ने एक बोतल के लिए उस समय 12 रुपये अपने ग्राहकों से वसूले। निजी कम्पनियों के लिए जल-समृद्ध क्षेत्रों से पानी खींचने, पाइप बिछाने और शहरों व छोटे उद्योगों को मनमाने दामों पर बेचकर मुनाफ़ा कमाने के रास्ते में आनेवाली सभी अड़चनें दूर की गयीं। यह पूरे देश के पैमाने पर हुआ। इस अन्धाधुन्ध दोहन के कारण पानी से चलने वाले ऐसे कई छोटे सार्वजनिक या कम पूँजीवाले उद्योग पानी की कमी या उसके महँगे दर के चलते बन्द भी हो गये। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में बड़ी पूँजी शार्क मछली की तरह छोटी पूँजी को निगलती ही है।
आज पानी की जो भी उपलब्धता है वहाँ तक अब एक अल्पसंख्यक समृद्ध आबादी की पहुँच ही हो सकती है। भारतीय मानक ब्यूरो के अनुसार प्रति व्यक्ति प्रति दिन के औसत दर से सामान्यतः 160 लीटर और महानगरों में 280 -300 लीटर पानी निकालता है। लेकिन यह एक फ़रेबी आँकड़ा है। यहाँ जल वितरण में असमानता के कारक की अनदेखी की गयी है। यूँ भी असमान वितरण पूँजीवाद की अभिलाक्षणिकता है। अकेले दिल्ली में देखा जाये तो पॉश कालोनियों के लिए प्रतिदिन प्रति व्यक्ति यह औसत जहाँ 225 लीटर से भी ज़्यादा है वहीं आम मध्यवर्गीय घरों और सामान्य कालोनियों के लिए यह 155 लीटर है और झुग्गी झोपड़ियों के लिए जो कुल आबादी का लगभग 78 फीसद हिस्सा है, प्रति व्यक्ति यह औसत 50 लीटर है। घरेलू उपयोग के लिए समृद्ध तबका विद्युत पम्प के ज़रिये भूमिगत जल की मनचाही मात्रा खींचने में सक्षम है। अगर कृषि के क्षेत्र में पानी की खपत की बात की जाये तो यह सच है कि कृषि उपलब्ध पानी का 70-80 प्रतिशत हिस्सा सोखती है लेकिन वह भी पूँजीवादी फार्मरों और कुलकों के हिस्से आता है जो अपने खेतों में कई-कई शाक्तिशाली पम्प लगाकर भूमिगत जल का भयंकर दोहन करते हैं। ऐसे में उन क्षेत्रों में जल स्तर काफी नीचे चला जाता है और सूखे से तबाही मच जाती है। ग़रीब किसानों और आम ग्रामीण आबादी के लिए पानी का संकट विकराल रूप ले लेता है। महाराष्ट्र का उदाहरण सामने है जहाँ इस साल भीषण सूखा पड़ा है। परन्तु सिंचाई का लगभग 72 प्रतिशत जल सोखने के बावजूद गन्ने की खेती और गन्ना मिलों पर यहाँ इसलिए कोई रोक अभी तक नहीं लगायी गयी है क्योंकि इन मिलों के मालिक सरकार में बैठते हैं। उल्टे वहाँ 3 सालों में 30 और नयी मिलें खोली गयी हैं। यह सच कितना भी घृणास्पद क्यों न हो इससे यह तो स्पष्ट ही हो जाता है कि पानी की कमी या सूखे की स्थिति प्राकृतिक नहीं पूँजीपतियों के लोभ लालच और सरकार के उनके हितपोषण में आगे आने से पैदा हुआ है। सरकार के इसी असंवेदनशील और जनविरोधी चरित्र के चलते आज 35 राज्यों में से केवल 7 राज्यों के ग्रामीण इलाकों में पानी उपलब्ध है। एक तरफ आम शहरी और ग्रामीण जनता भीषण सूखे और पानी के संकट से जूझ रही है, देश के दो-तिहाई घरों के लिए पीने तक का पानी उपलब्ध नहीं है तो दूसरी तरफ उसके ‘प्रतिनिधि’ उसकी ही कीमत पर पानी का बेरहमी से इस्तेमाल कर रहे हैं। इस आपातस्थिति में भी प्रति मंत्री आवास पानी की खपत प्रतिदिन 30,000 लीटर है, प्रधानमंत्री आवास की खपत 73,000 लीटर और राष्ट्रपति भवन में यह 67,000 लीटर प्रति दिन है। ये गरीब जनता के अमीर प्रतिनिधि हैं। मराठवाड़ा के भीषण रूप से सूखाग्रस्त लातूर इलाके में पानी की रेल भेजने के लिए कुछ कूपमण्डूक किस्म के पत्रकार और बुद्धिजीवी मोदी सरकार की तारीफ़ में कसीदे पढ़ने लग गये थे लेकिन कोई भी आम समझ का व्यक्ति यह जान चुका था कि वह प्रचार पाने का एक सस्ते किस्म का हथकण्डा मात्र था। अन्यथा जहाँ पानी की कमी से अस्पतालों को मरीजों की सर्जरी पर रोक लगा देनी पड़ी हो वहीं पाँच सितारा होटलों में एक कमरे के प्रतिदिन पानी का खर्च 1,600 लीटर नहीं होता। और न ही बोरीवली में 210 तरण तालों वाले भवन के बारे में साजिशाना चुप्पी छायी रहती। सवाल यह है कि ऐसी विलासिता पर प्रतिबन्ध लगाने की ज़रूरत क्यों नहीं समझी गयी। यह कैसे सम्भव हुआ कि देश के 13 से अधिक राज्यों के सूखे की चपेट में होने के बावजूद वाटर पार्क और जल आधारित मनोरंजन केन्द्र बदस्तूर न केवल चल रहे हैं बल्कि नये-नये खोले भी जा रहे हैं, जबकि केन्द्र सरकार को यह अधिकार है कि वह जनहित में पानी की इस बर्बादी पर रोक लगाने के लिए कड़े कदम उठाये। परन्तु सरकार का काम जनता के पक्ष में कदम उठाना नहीं होता। ऐसे कड़े कदमों की ज़रूरत उसे जनता की बुनियादी ज़रूरतों और जनवादी अधिकारों का अपहरण करने और अपने वाजिब हकों के लिए संघर्षरत छात्रों, युवाओं और मेहनतकशों के प्रतिरोध को कुचलने के लिए ही पड़ती है, और यही पूँजीवादी मुनाफ़े और मौजूदा संसदीय व्यवस्था का राजनीतिक अर्थशास्त्र है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मई-जून 2016
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