क्यों फल-फूल रहा है बांग्लादेश में इस्लामिक कट्टरपन्थ?
अखिल
पिछले कुछ वर्षों में बांग्लादेश में नास्तिक ब्लॉगरों, सेक्युलर बुद्धिजीवियों, धार्मिक अल्पसंख्यकों व समलैंगिकों की सिलसिलेवार ढंग से हत्या के बाद 1 जुलाई 2016 को ढाका के राजनयिक क्षेत्र में हुए इस्लामिक कट्टरपन्थी हमले ने पूरी दुनिया का ध्यान बांग्लादेश में तेज़ी से बढ़ते इस्लामिक कट्टरपन्थ की ओर खींचा। ग़ौरतलब है कि 1 जुलाई को इस्लामिक कट्टरपन्थियों ने ढाका के गुलशन 2 क्षेत्र में स्थित होली आर्टिसन बेकरी और ओ किचेन पर हमला बोल दिया। इस हमले में 6 कट्टरपन्थियों समेत 26 लोग मारे गये थे। मारे गये लोगों में से अधिकांश विदेशी नागरिक थे। हालाँकि इस हमले की ज़िम्मेदारी इस्लामिक स्टेट (आयी.एस.) ने ली थी, लेकिन बांग्लादेश की सरकार इस हमले में बांग्लादेश के प्रतिबन्धित इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठन जमात-उल-मुज़ाहिदीन बांग्लादेश (जे.एम.बी) का हाथ होने की बात कर रही है।
हालाँकि आयी. एस. का नाम आने और विदेशियों को निशाना बनाने की वजह से 1 जुलाई का हमला पूरी दुनिया की मीडिया की सुर्खियों में छाया रहा, लेकिन बांग्लादेश के इतिहास के वाकिफ़ लोग जानते हैं कि इस्लामिक कट्टरपन्थियों द्वारा बांग्लादेश में किया गया यह कोई पहला हमला नहीं था। इससे पहले भी वहाँ ऐसे हमले होते रहे हैं। हाल के वर्षों में बांग्लादेश के इस्लामिक कट्टरपन्थी सेक्युलर व नास्तिक लेखकों और ब्लॉगरों पर हमलों के लिये कुख़्यात रहे हैं। वे सेक्युलर लेखकों और ब्लॉगरों को इस्लाम का दुश्मन बताकर उन्हें मारते रहे हैं और आम मुसलमानों को उनके ख़िलाफ़ हिंसा के लिये उकसाते रहे हैं।
2013 में इस्लामिक कट्टरपन्थियों के ख़िलाफ़ हुए शाहबाग जनान्दोलनों के बाद से ऐसे हमलों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ी है। बांग्लादेश के अंग्रेज़ी अख़बार ‘दि डेली स्टार’ में प्रकाशित एक ख़बर के मुताबिक पिछले 18 महीनों में इस्लामिक कट्टरपन्थियों ने कम से कम 47 लोगों को मौत के घाट उतारा है। इन हमलों के निशाने पर नास्तिक ब्लॉगरों के अलावा अल्पसंख्यक समुदाय के धर्म गुरुओं, विश्वविद्यालय के अध्यापकों, समलैंगिकों, सूफ़ियों, पीरों और शिया मुसलमानों को निशाना बनाया गया। ध्यान देने वाली बात यह है कि इनमें से अधिकांश हमले पेशेवर आतंकवादियों द्वारा नहीं किये गये, बल्कि इनमें से कई मामलों में तो विश्वविद्यालय के छात्रों की भागीदारी पायी गयी है। मसलन नास्तिक ब्लॉगर अहमद रजीब हैदर का उदाहरण लें, तो उसके क़त्ल में ढाका के प्रमुख विश्वविद्यालयों में से एक नॉर्थ साउथ विश्वविद्यालय के छात्रों का हाथ था। यह बांग्लादेश के समाज में क्षरित होते सेक्युलर मूल्यों और तेज़ी से बढ़ते इस्लामिक कट्टरपन्थ की ओर साफ़ इशारा करता है। ऐसे में सभी तरक्की-पसन्द इंसानों को यह सवाल ज़रूर परेशान करता होगा कि आख़िर जो मुल्क इस्लाम के नाम पर बने राष्ट्र पाकिस्तान के ख़िलाफ़ मुक्ति युद्ध करके आज़ाद हुआ और जिसने टैगोर के ‘अमार शोनार बांग्ला’ को अपना राष्ट्रीय गीत व विद्रोही कवि काज़ी नज़रूल इस्लाम को अपना राष्ट्रीय कवि चुना, उसमें इस्लामिक कट्टरपन्थियों का इतना दबदबा कैसे बढ़ा?
ऐतिहासिक पृष्ठमभूमि
बांग्लादेश में इस्लामिक कट्टरपन्थ के शैतान के इतने विशालकाय रूप अख्तियार करने के पीछे के कारणों को समझने के लिये हमें बांग्लादेश के इतिहास पर एक नज़र दौड़ानी पड़ेगी। 1947 में भारत के विभाजन की त्रासदी का दंश बंगाल को भी झेलना पड़ा था क्योंकि उसे भी धार्मिक आधार पर विभाजित कर दिया गया था। बंगाल के मुस्लिम बहुसंख्या वाला पूर्वी इलाका पाकिस्तान में चला गया था और इस प्रकार पूर्वी बंगाल पूर्वी पाकिस्तान बन गया था। ग़ौरतलब है कि ऐसा बंगाल की जनता की मर्जी से नहीं बल्कि साम्प्रदायिक आधार पर ‘टू नेशन थियरी’ के तहत किया गया था। पूर्वी पाकिस्तान की जनता का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान में शामिल होने से नाखुश था। पूर्वी पाकिस्तान की जनसंख्या पाकिस्तान की कुल जनसंख्या का 55 फ़ीसदी हिस्सा होने के बावजूद पाकिस्तान के आर्थिक व राजनीतिक क्षेत्र में उसकी नुमाइन्दगी बहुत कम थी क्योंकि राजस्व आवण्टन, औद्योगिक व कृषि के विकास एवं नौकरशाही व सेना में पश्चिमी पाकिस्तान का वर्चस्व था। पश्चिमी पाकिस्तान के पंजाबियों, मुहाजिरों और पश्तूनों के वर्चस्व की वजह से पूर्वी पाकिस्तान के बंगालियों को यह एहसास होने लगा कि वे पाकिस्तान में दोयम दर्जे के नागरिक हैं। ब्रिटिश गुलामी से आज़ादी मिलने के बाद भी पूर्वी पाकिस्तान में बढ़ रही ग़रीबी-बेरोज़गारी तथा पाकिस्तान में सैन्य तख्तापलट की वजह से वहाँ की जनता में पश्चिमी पाकिस्तान के ख़िलाफ़ असंतोष की भावना पनप रही थी और उनमें पाकिस्तान से अलग एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाने की चेतना पैदा कर रही थी।1950 के दशक में ही उर्दू को एकमात्र राष्ट्रीय भाषा के रूप में थोपने के ख़िलाफ़ ज़बर्दस्त जनान्दोलन चला था जिसके बर्बर दमन के बावजूद अन्तत: 1956 में पाकिस्तानी हुक्मरानों को बंगाली को भी राष्ट्रभाषा का दर्जा देना पड़ा। इस आन्दोलन का नेतृत्व अवामी मुस्लिम लीग कर रही थी जिसका धर्मनिरपेक्ष धड़ा बाद में अलग होकर अवामी लीग के नाम से जाना जाने लगा जिसका नेतृत्व शेख मुजीबुर रहमान कर रहे थे।
1960 के दशक में पाकिस्तान में पहले अयूब खान और बाद में याहया खान के नेतृत्व वाले सैन्य शासन के दौर में पूर्वी पाकिस्तान के लोगों पर ज़बर्दस्त जुल्म ढाये गये जिसकी वजह से वहाँ की जनता का अलगाव और बढ़ा। 1970 में हुए चुनावों के नतीजों में अवामी लीग के सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बावजूद याहया खान ने उसको सरकार बनाने के लिये आमंत्रित करने से साफ़ इनकार कर दिया। ग़ौरतलब है कि लोकतंत्र की क़समें खाने वाले पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के जुल्फि़कार अली भुट्टो ने भी इस अलोकतांत्रिक क़दम में याहया खान का समर्थन किया था। इस घोर नाइंसाफ़ी के बाद पूर्वी पाकिस्तान के लोगों में अलगाव की भावना अपने चरम पर पहुँच गयी। राजनीतिक व आर्थिक स्वतंत्रता, बेहतर जीवन और एक सेक्युलर मूल्य-मान्यताओं वाले समाज के गठन के मक़सद से बंगाली जनता ने शेख मुजीबुर रहमान और अवामी लीग के नेतृत्व में बहादुराना मुक्ति युद्ध लड़ा जिसमेंं लाखों लोगों ने कुर्बानी दी जिसके फलस्वरूप 1971 में एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में बांग्लादेश का जन्म हुआ। पाकिस्तानी जेल से छूटने के बाद शेख मुजीबुर रहमान बांग्लादेश के पहले प्रधान मन्त्री बने। बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्ष बहुदलीय बुर्जुआ संसदीय लोकतांत्रिक संविधान का निर्माण हुआ और चूँकि उस वक्त समाजवाद के अस्तित्वमान होने और राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष की ऊष्मा के कारण बांग्लादेश के संविधान में कुछ समाजवादी सिद्धान्तों को भी जगह दी गयी। स्वतंत्र बांग्लादेश में भी शेख मुजीबुर रहमान के नेतृत्व में भारत के नेहरूवादी समाजवाद की तर्ज़ पर पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद स्थापित हुआ।
मुक्ति युद्ध के वक्त पाकिस्तान ने अपनी सेना के अलावा पूर्वी पाकिस्तान के स्थानीय लोगों के बीच से रज़ाकार, अल बदर और अल शम्स जैसे लड़ाकू संगठन खड़े किये थे, जिनमें जमात-ए-इस्लामी जैसे इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठन के लोग शामिल थे। इन लड़ाकों ने मुक्ति युद्ध के दौरान बहुत बड़े पैमाने पर नरसंहार को अंजाम दिया था, लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया था और लाखों औरतों का बलात्कार किया था। जनता में इनके ख़िलाफ़ घोर नफ़रत थी और शेख मुजीबुर रहमान की सरकार से यह उम्मीद थी कि वह उन्हें सख़्त से सख़्त सज़ा देगी। बांग्लादेश में इन युद्ध अपराधियों के ख़िलाफ़ एक ट्रिब्यूनल भी बना। इनमें से कई के ख़िलाफ़ अपराध भी तय हुए, कई को उम्र कैद की सज़ा हुई, लेकिन बाद में इनमें से ज़्यादातर को आम माफ़ी दे दी गयी। युद्ध अपराधियों को माकूल सज़ा न दिया जाना एक बहुत भयंकर ग़लती थी क्यों कि इससे इस्लामिक कट्टरपन्थ को बांग्लादेश के समाज में जड़ जमाने का मौका मिला। इस ग़लती का ख़ामियाजा बांग्लादेश आज तक भुगत रहा है।
बांग्लादेश बनने के बाद वहाँ की जनता को यह उम्मीद थी कि उनके जीवन में बेहतरी आयेगी। लेकिन स्वतंत्रता के बाद भी वहाँ की जनता को ग़रीबी, महँगाई और बेरोज़गारी से निजात न मिली। जनता की आकांक्षाओं को पूरा न होने की वजह से वहाँ मज़दूरों और आम मेहनतकशों के आन्दोलन शुरू हो गये जिससे निपटने के लिये मुजीबुर रहमान ने दिसम्बर 1974 में सभी विपक्षी दलों को प्रतिबन्धित कर दिया और आपातकाल की घोषणा कर दी। इसके बाद 1975 में सेना द्वारा मुजीबुर रहमान की हत्या करके सरकार का तख़्तापलट किया गया और उसके बाद से बांग्लादेश में सैन्य शासन के एक लम्बे सिलसिले की शुरुआत हुई। 1975-1990 तक अधिकांश समय वहाँ सैन्य शासन रहा। इस दौरान इस्लामिक कट्टरपन्थ को बांग्लादेशी समाज में अपनी जड़ जमाने का भरपूर मौका मिला। बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के संस्थापक और 1977 में तख़्तापलट के फलस्वरूप बांग्लादेश के राष्ट्रपति बने ज़िया उर रहमान ने बांग्लादेश के संविधान में धर्म-निरपेक्षता के प्रावधानों से छेड़छाड़ करने की शुरुआत की। जमात-ए-इस्लामी के जो लोग बांग्लादेश की स्वतंत्रता के बाद पाकिस्तान चले गये थे, वे भी ज़िया उर रहमान के शासन के दौरान वापस लौटने लगे। हुसैन मोहम्मद इरशाद के शासन (1982-1990) में तो इस्लामिक कट्टरपन्थियों को खुली छूट दे दी गयी। यह इसी बात से समझा जा सकता है कि 1989 में इरशाद ने संविधान में संशोधन के ज़रिये इस्लाम को बांग्लादेश का राज्य धर्म बना दिया।
1990 में सरकार-विरोधी प्रदर्शनों के बाद इरशाद को अपदस्थ कर दिया गया। इसके बाद 1991 में पूर्व राष्ट्रपति ज़िया उर रहमान की विधवा और बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बी.एन.पी.) की नई नेता खालिदा ज़िया प्रधानमन्त्री बनी। इस दौरान इस्लामिक कट्टरपन्थी ताक़तों ने खुद को संगठित करना शुरू किया और बांग्लादेश की राजनीति में सक्रिय दख़ल देना शुरू किया। उनकी इन कोशिशों और बी.एन.पी. द्वारा उन्हें खुली छूट दिये जाने का ही नतीजा था कि 2001 के चुनाव में जमात-ए-इस्लामी 17 सीटों पर विजयी रही थी और सीटों के लिहाज़ से बांग्लादेश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गयी थी। बी.एन.पी. के नेतृत्व में बनी चार पार्टियों के गठबन्धन वाली सरकार में जमात-ए-इस्लामी भी शामिल थी और उसके दो ऐसे सदस्य मन्त्री बने जिन्होंने मुक्ति युद्ध के दौरान हुए नरसंहारों में भागीदारी की थी। इस दौरान इस्लामिक कट्टरपन्थी ताक़तों ने सेना से लेकर नौकरशाही, शिक्षा, उद्योग आदि में अपनी गहरी पैठ बनायी। उद्योग मंत्रालय तो जमात-ए-इस्लामी के पास ही था। 2001-2006 का दौर इस्लामिक कट्टरपन्थियों की आतंकी कार्रवाइयों में अभूतपूर्व तेज़ी का दौर था। इसी दौरान 2005 में बांग्लादेश के 64 जिलों में से 63 में सिलसिलेवार बम विस्फ़ोट हुए जिसकी जिम्मेदारी इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठन जमात-उल-मुज़ाहिदीन बांग्लादेश (जे.एम.बी.) ने ली थी जिसे जमात-ए-इस्ला़मी की सरपरस्ती हासिल है।
नवउदारवादी नीतियों की वजह से पुख्ता होती इस्लामिक कट्टरपन्थ की ज़मीन
बांग्लादेश में इस्लामिक कट्टरपन्थियों के फलने-फूलने के विशिष्ट ऐतिहासिक कारणों के अलावा नवउदारवादी नीतियों की भी बहुत बड़ी भूमिका रही है। हालाँकि ज़िया उर रहमान के दौर से ही पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद की बजाय मुक्त बाज़ार वाले पूँजीवाद की ओर रुझान साफ़ दिखने लगा था, लेकिन सुसंगत ढंग से नवउदारवादी नीतियों को लागू करने की शुरुआत 1990 के दशक की शुरुआत में हुई। तीसरी दुनिया के तमाम मुल्कों की ही तरह बांग्लादेश में भी इन नीतियों का नतीजा भयंकर आर्थिक असमानता, ग़रीबी, भुखमरी एवं बेरोज़गारी के रूप में सामने आया है। इनकी वजह से पिछले ढाई दशकों में बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था अधिकाधिक रूप से निर्यात पर आधारित होती गयी है। गारमेण्ट उद्योग बांग्लादेश की अर्थव्यथवस्था का आधार स्तम्भ बनकर उभरा है। पश्चिम की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ आउटसोर्सिंग के ज़रिये बेहद सस्ते श्रम की लालच में निहायत ही अमानवीय हालातों में उत्पादन करवाती हैं जिसका खौ़फ़नाक नज़ारा हमें 2013 में राणा प्लाज़ा इमारत के ढहने के रूप में दिखा था जिसमेंं 1100 से भी अधिक मज़दूर मारे गये थे। विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी के दौर में निर्यात पर टिकी बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था में आम जनता का जीवन और भी ज्यादा असुरिक्षत कर दिया है।
इस प्रकार नवउदारवादी नीतियों ने बांग्लादेश में वे भौतिक परिस्थितियाँ तैयार की हैं जो इस्लामिक कट्टरपन्थी फ़ासिस्ट ताक़तों को फलने-फूलने के लिये खाद-पानी देती हैं। नवउदारवादी नीतियों से उत्पन्न सामाजिक असुरक्षा का लाभ उठाकर इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठनों ने भाँति-भाँति के गैर-सरकारी संगठनों के ज़रिये बांग्लादेशी समाज में अपने आधार को मज़बूत किया है। इस दौरान जमात-ए-इस्लामी ने ‘राज्य के भीतर राज्य’ और ‘अर्थव्यवस्था के भीतर अर्थव्यवस्था’ क़ायम की है। बड़े वित्तीय संस्थानों से लेकर छोटी माइक्रो-क्रेडिट संस्थाओं तक, मदरसों से लेकर मीडिया तक, और बड़े व्यापार घरानों से लेकर गैर-सरकारी संस्थानों तक हर जगह उन्होंने खुद को मजबूती से स्थापित किया है। इस्लामिक कट्टरपन्थियों की आर्थिक ताक़त का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज जमात-ए-इस्लामी का सालाना मुनाफ़ा 278 मिलियन डॉलर से भी अधिक है और जमात-ए-इस्लामी के मुनाफ़े की वृद्धि दर बांग्लादेश की जी.डी.पी. की वृद्धि दर से भी अधिक है। इसी मुनाफ़े का एक हिस्सा इस्लामिक कट्टरपन्थी विचारों को फैलाने और आतंकी कार्रवाइयों को अंजाम देने के काम आता है।
जहाँ एक ओर जमात-ए-इस्लामी और जमात-उल-मुज़ाहिदीन बांग्लादेश जैसे स्थानीय इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठनों ने बांग्लादेश के निम्नवर्गों के बीच अपना आधार बनाया है वहीं दूसरी ओर हाल के कुछ वर्षों में वहाँ के खुशहाल मध्यवर्ग के बीच इस्लामिक स्टेट और अल कायदा जैसे विदेशी इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठनों के विचारों की पहुँच बढ़ी है। इण्टरनेट और सोशल मीडिया ने इन विचारों को फैलाने में अहम भूमिका अदा की है। 1 जुलाई के हमले में अधिकांश हमलावर पढ़े-लिखे मध्यमवर्ग या उच्च वर्ग से आते थे।
हाल के वर्षों में बांग्लादेश में इस्लामिक कट्टरपन्थी हमलों में तेज़ी 2013 के बाद से आयी जब अवामी लीग की सरकार द्वारा युद्ध अपराधियों को सज़ा देने के लिये स्थापित किये गये इंटरनेशनल क्राइम ट्रिब्युनल ने युद्ध अपराधियों को सज़ा सुनाना शुरू किया। 2013 में ही सेक्युलर ताक़तों ने युद्ध अपराधियों को सख़्त सज़ा देने और जमात-ए-इस्लामी जैसे धार्मिक कट्टरपन्थी संगठनों पर प्रतिबन्ध लगाने जैसी माँगों के साथ शाहबाग जनान्दोलनों की शुरुआत की। शाहबाग जनान्दोलनों के दबाव की वजह से ही जमात-ए-इस्लामी के अब्दुल कादिर मुल्लाह और 11 अन्य को फाँसी की सज़ा सुनायी गयी। शाहबाग आन्दोलन से इस्लामिक कट्टरपन्थियों को अपना अस्तित्व ख़तरे में नज़र आने लगा। उन्होंने लोगों के बीच यह प्रचार करना शुरू कर दिया कि शाहबाग आन्दोलन नास्तिकों द्वारा संगठित किया गया है और वह इस्लाम के ख़िलाफ़ है। उसके बाद से ही नास्तिकों और सेक्युलर लोगों पर हमलों की बाढ़ सी आ गयी।
दक्षिण एशिया के लिये निहितार्थ
बांग्लादेश में इस्लामिक कट्टरपन्थ के फैलाव के निहितार्थ समूचे दक्षिण एशिया के लिये बेहद ख़तरनाक हैं। बांग्लादेश (और पाकिस्तान) में इस्लामिक कट्टरपन्थ की राजनीति और भारत में हिन्दू कट्टरपन्थ की राजनीति एक दूसरे के लिये पूरक का काम करती है। दक्षिण एशिया में साम्प्रदायिक फ़ासीवादी उभार आने वाले दिनों में समूचे क्षेत्र को हिंसा की चपेट में लेने वाला है। विडम्बना यह है कि बांग्लादेश में सेक्युलर ताक़तों की नुमाइन्दगी करने का दम भरने वाली अवामी लीग इस्लामिक कट्टरपन्थ के इस हिंसक उभार को रोक पाने में नितान्त अक्षम है। हालाँकि शेख हसीना के नेतृत्व वाली अवामी लीग की सरकार ने जनदबाव में आकर जमात-ए-इस्लामी के कुछ नेताओं को सख्त सज़ाएँ दी हैं, लेकिन वह वोट बैंक खोने के भय से फैसलाकुन ढंग से इस्लामिक कट्टरपन्थ से निपटने में आनाकानी करती रही है और इस्लामिक कट्टरपन्थियों के नरम हिस्से का तुष्टीकरण भी करती रही है। कट्टरपन्थियों को फलने-फूलने के लिये उपजाऊ ज़मीन मुहैया करवाने वाली नवउदारवादी नीतियों को उसने मुस्तैदी से लागू किया है। ज़ाहिरा तौर पर अवामी लीग जैसी बुर्जुआ पार्टी से इस्लामिक कट्टरपन्थियों पर काबू पाने की अपेक्षा करना व्यर्थ है। समूचे दक्षिण एशिया में समाजवादी क्रान्ति की लहर ही इंसानियत के इन दुश्मनों को नेस्त नाबूद कर सकती है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अगस्त 2017
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