बिपिन चन्द्र की पुस्तक पर भगवा हमला : भगतसिंह बनाम क्रान्तिकारी आतंकवाद

अखिल

मोदी के सत्तासीन होने के बाद से शिक्षा के भगवाकरण की मुहिम ज़ोर-शोर से चलायी जा रही है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालयी शिक्षा तक के पाठ्यक्रम को संघ तथा भाजपा संगठित ढंग से अपने दृष्टिकोण के अनुसार ढाल रहे हैं। हाल ही में केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय में राज्य मंत्री राम शंकर कठेरिया ने लखनऊ विश्वविद्यालय में एक कार्यक्रम के दौरान खुल्लम-खुल्ला और निर्लज्जतापूर्वक यह ऐलान किया कि “हम लोग शिक्षा और देश दोनों का भगवाकरण करेंगे।” शिक्षा के भगवाकरण को जायज़ ठहराने के लिए विश्वविद्यालयों में पहले से पढ़ायी जा रही पाठ्य-पुस्तकों में से कुछ संवेदनशील मुद्दों को संदर्भ से काटकर इस तरह प्रस्तुत किया जा रहा है कि जनता भी संघियों की इस मुहिम की ज़रूरत महसूस करे और इसकी सराहना करे या कम से कम इसका विरोध न करे।

bhgat-singhइसी तर्ज़ पर पिछले दिनों आधुनिक भारत के इतिहास की प्रसिद्ध पुस्तक ‘इण्डियाज़ स्ट्रगल फॉर इण्डिपेण्डेन्स’ (‘भारत का स्वतंत्रता संघर्ष’) पर वैचारिक हमला बोला गया था। यह पुस्तक मुख्यतः सुविख्यात लेखक तथा इतिहासकार दिवंगत बिपिन चंद्र द्वारा लिखी गयी है और दो दशक से भी अधिक समय से दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में पढ़ायी जाती रही है। ग़ौरतलब है कि उक्त पुस्तक के 20वें अध्याय “भगतसिंह, सूर्य सेन और क्रान्तिकारी आतंकवादी” में भगतसिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सूर्य सेन तथा अन्य क्रान्तिकारियों को “क्रान्तिकारी आतंकवादी” कहा गया है। भाजपा के नेताओं ने इसी बात को संदर्भ से काटकर इस ढंग से प्रचारित किया कि पुस्तक ने स्वतंत्रता संग्राम के क्रान्तिकारियों को आतंकवादी कहकर उनका अपमान किया है। मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी और भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर ने सदन में घड़ियाली आँसू बहाते हुए इस पुस्तक को शहीदों की “शैक्षणिक हत्या” बताया। मामले को तूल देने के लिए और शिक्षा के “शुद्धिकरण” की संघी मुहिम को जायज़ ठहराने के लिए संसद से लेकर प्रिण्ट  तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इस मुद्दे को खूब उछाला गया। बिपिन चंद्र और सेक्युलरिज़्म को पानी पी-पीकर कोसा गया। मज़े की बात यह है कि इस मुद्दे को जिस व्यक्ति ने सबसे पहले उठाया वह कोई और नहीं बल्कि भगतसिंह के भतीजे अभय सिंह संधु हैं जो भगतसिंह के छोटे भाई कुलबीर सिंह के बेटे हैं और जिनका भगतसिंह की विचारधारा से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। अभय सिंह ने मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी को चिट्ठी लिखकर पुस्तक में बदलाव किये जाने का अनुरोध किया था, जिसके बाद दिल्ली विश्वविद्यालय ने इस पुस्तक के हिन्दी संस्करण में संशोधन किये जाने तक इसके वितरण पर रोक लगा दी।

इस मुद्दे को उछालकर संघ ने एक तीर से कई निशाने लगाये हैं। जहाँ एक तरफ़ वह इसे शिक्षा के भगवाकरण को जायज़ ठहराने और प्रगतिशीलता तथा सेक्युलरिज़्म के ख़िलाफ़ माहौल तैयार करने में इस्तेैमाल कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ़ भगतसिंह को अपने नायक की तरह पेश करके संघ स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग न लेने, क्रान्तिकारियों की मुख़बिरी करने और अंग्रेज़ों के तलवे चाटने के कलंक को मिटाने की फ़िराक में है।

इस पूरे मामले को तार्किक ढंग से समझने के लिए आइये सबसे पहले यह समझें कि आतंकवाद का अर्थ क्या है? आज जनता जहाँ कहीं भी आतंकवाद शब्द को पढ़ती-सुनती है तो उसके सामने आतंकवाद की वही छवि उपस्थित हो जाती है जो पिछले लगभग दो-ढाई दशक में उसके दिमागों में घर कर गयी है या पूँजीवादी मीडिया तंत्र द्वारा पैठा दी गयी है। और वह छवि है: निर्दोष लोगों पर गोलियाँ चलाना, बम विस्फोट करना, क़त्लेआम करना आदि-आदि। इसीलिए भगतसिंह को आतंकवादी कहे जाने का मुद्दा उछाल कर लोगों को आसानी से बरगलाया जा सकता है। लेकिन आतंकवाद की यह समझ बेहद उथली है। ऐसे में आतंकवाद की परिघटना को गहराई से समझना बेहद ज़रूरी है।

आज हम लोग एक पूँजीवादी समाज में जी रहे हैं, जो लोकतंत्र और जनवाद के तमाम दावों के बावजूद अपने पूर्ववर्ती वर्ग-समाजों की तरह एक तानाशाही ही है: मुट्ठी भर धनिक वर्ग की आम मेहनतकश जनता पर तानाशाही। बेशक, अतीत के वर्ग-समाजों से भिन्न यह अपनी सैन्य ताक़त के अतिरिक्त शोषित वर्ग के ऊपर अपने विचारों का वर्चस्व स्थापित कर अपनी तानाशाही को सुदृढ़ करता है। लेकिन तब भी इसकी आधारभूत ताक़त सेना ही होती है, जो शोषित वर्ग में खौफ़ और आतंक पैदा कर उन्हें इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को बिना किसी विरोध के स्वीकार करने के लिए बाध्य करती है। पूँजीवादी राज्य सत्ता के इस आतंक की प्रतिक्रिया के रूप में ही आतंकवाद का जन्म होता है जिसकी मोटे तौर पर दो धाराएँ होती हैं— क्रान्तिकारी आतंकवाद और प्रतिक्रियावादी आतंकवाद। आतंकवाद की क्रान्तिकारी धारा में वे प्रगतिशील और सेक्युलर क्रान्तिकारी आते हैं, जिन्हें जनता की सामूहिक शक्ति की बजाय अपनी वीरता, कुर्बानी के जज़्बे और हथियारों पर अधिक भरोसा होता है और जिन्हें शासक वर्ग में आतंक पैदा कर व्यवस्था को बदल देने का मुग़ालता होता है। लेकिन तब भी वे निष्ठावान और बहादुर होते हैं, जो जनता से कटे होने के बावजूद जनता के दुःख-दर्द को महसूस करते हैं और एक सेक्युलर, जनवादी या समाजवादी समाज का निर्माण करने के लिए प्रतिबद्ध होते हैं। इसके विपरीत, आतंकवाद की प्रतिक्रियावादी धारा एक पुनरुत्थानवादी धारा होती है, जो बेशक पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के प्रतिरोध के रूप में ही पैदा होती है, लेकिन समाधान के लिए भविष्य की बजाय अतीत की ओर देखती है। इस धारा के आतंकवादी साम्राज्यवाद को अपना शत्रु समझने के साथ-साथ प्रगतिशीलता, सेक्युलरिज़्म, जनवाद और समाजवाद को भी अपना शत्रु समझते हैं। आई.एस., अलकायदा और तालिबान जैसे धार्मिक कट्टरपन्थी संगठन आतंकवाद की इसी श्रेणी में आते हैं किन्तु यहाँ पर यह भी ध्यान रहे कि इन आतंकवादी संगठनों को परोक्ष-प्रत्यक्ष रूप से खड़ा करने में साम्राज्यवादी ताकतों ने अपने राजनीतिक हित साधने के मकसद से भरपूर मदद दी है अब चाहे ये बेशक पागल कुत्ते की तरह अपने मालिक पर भी झपट पड़ने में कोई गुरेज शायद ही करें!

बिपिन चन्द्र ने अपनी पुस्तक में भगतसिंह और उनके साथियों को क्रान्तिकारी आतंकवाद की श्रेणी में रखा है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास पर नज़र डालें तो हम पाते हैं कि 20वीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों से ही क्रान्तिकारी आतंकवाद युगान्तर और अनुशीलन जैसे गुप्त संगठनों के रूप में अपनी प्रारंभिक अवस्था में मौजूद था। उस समय ये संगठन अरबिन्द घोष, रासबिहारी बोस और जतीन्द्रनाथ मुखर्जी जैसे क्रान्तिकारियों के नेतृत्व में बंगाल में सक्रिय थे और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आतंक की छिटपुट कार्रवाइयों को अंजाम दे रहे थे। क्रान्तिकारी आतंकवादियों की यह पहली पीढ़ी अतीतोन्मुखी थी और धार्मिक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त थी। फि‍र भी औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध लड़ने और अपनी कार्रवाइयों से जनता में प्रेरणा का संचार करने के चलते उनमें प्रगतिशीलता का पहलू हावी था। इसके बाद ग़दर पार्टी और हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी (एच.आर.ए) के रूप में भारत की क्रान्तिकारी आतंकवादी धारा में जनवादी और सेक्युलर विचारों का प्रवेश होता है। इन संगठनों के क्रान्तिकारी फ्रांसीसी तथा अमरीकी क्रान्ति के विचारों से प्रेरित थे। युगान्तर-अनुशीलन के विपरीत ये संगठन जनवादी और सेक्युलर विचारों से लैस थे। इन संगठनों में सभी धर्मों और सभी जातियों के लोग शामिल थे। इन संगठनों का लक्ष्य बिना किसी समझौते के अंग्रेज़ों को देश से बाहर खदेड़ना था और एक जनवादी और सेक्युलर समाज का निर्माण करना था। और इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए वे पूरी तरह आतंकी कार्रवाइयों पर आश्रित थे। इसके बाद 1920 में गाँधी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन के कारण जनता में उम्मीद की एक नयी किरण जगी। आन्दोलन में पूरी जनता उमड़ पड़ी। कुछ समय के लिए क्रान्तिकारी आतंकवादी संगठनों ने भी आतंकवादी कार्रवाइयों को स्थगित कर दिया। लेकिन 1922 में चौरी-चौरा की घटना के बाद गाँधी ने अपना आन्दोलन अचानक वापस ले लिया। असहयोग आन्दोलन से जनता में जो उम्मीद जगी थी वो घोर निराशा में बदल गयी। यही वह दौर था जब भगतसिंह की पीढ़ी के युवा, क्रान्तिकारी संगठनों की ओर आकर्षित हुए। इसी दौर में भारत के स्वतंत्रता संग्राम की क्रान्तिकारी आतंकवादी धारा पर 1917 की रूसी समाजवादी क्रान्ति का प्रभाव पड़ा। और भगतसिंह की अगुवाई में राष्ट्रीय मुक्ति के साथ ही समाजवाद को अपने अन्तिम लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया और हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी का नाम बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (एच.एस.आर.ए.) रखा गया। लेकिन इस दौर का महत्व केवल यहीं तक सीमित नहीं है। एच.एस.आर.ए. के क्रान्तिकारियों ने भगतसिंह, सुखदेव और भगवतीचरण वोहरा के नेतृत्व में अपनी क्रान्तिकारी आतंकवादी राजनीति की आलोचना भी प्रस्तुत की और क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए मुट्ठीभर क्रान्तिकारियों की वीरता और आतंक की बजाय मज़दूर-किसान आबादी को संगठित करने की ज़रूरत को समझा।

भगतसिंह और उनके साथियों के शुरुआती लेखों में जहाँ हम औपनिवेशिक सत्ताओं के प्रतिरोध के रूप में आतंकवाद की कारगरता की भूरि-भूरि प्रशंसा देखते हैं, वहीं बाद के वर्षों में जेल में रहते समय किये गये गहन अध्ययन के बाद हम उन्हें क्रान्तिकारी आतंकवाद की आलोचना करते हुए पाते हैं। 2 फ़रवरी 1931 को लिखे गये महत्वपूर्ण दस्तावेज़ “क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा” के पहले हिस्से “नौजवान राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र” में भगतसिंह लिखते हैं, “मैं पूरी ताक़त से यह कहना चाहता हूँ कि क्रान्तिकारी जीवन के शुरू के चन्द दिनों के सिवाय न तो मैं आतंकवादी हूँ और न ही था; और मुझे पूरा यक़ीन है कि इस तरह के तरीक़ों से हम कुछ भी हासिल नहीं कर सकते।” इसी पत्र में एक और जगह वे कहते हैं: “…बम का रास्ता 1905 से चला आ रहा है और क्रान्तिकारी भारत पर यह एक दर्दनाक टिप्पणी है। …आतंकवाद हमारे समाज में क्रान्तिकारी चिन्तन की पकड़ के अभाव की अभिव्यक्ति है; या एक पछतावा। इस तरह यह अपनी असफलता का स्वीकार भी है। …सभी देशों में इसका इतिहास असफलता का इतिहास है — फ़्रांस, रूस, जर्मनी में, बाल्कन देशों में, स्पेन में — हर जगह इसकी यही कहानी है। इसकी पराजय के बीज इसके भीतर ही होते हैं।”

भगतसिंह के साथी शिव वर्मा भी इस बात की पुष्टि करते हैं और अपने लेख “क्रान्तिकारी आन्दोलन का वैचारिक विकास” में एक जगह कहते हैं:

“लाहौर तथा कानपुर के क्रान्तिकारियों ने 1926-27 से ही समाजवाद की ओर बढ़ना शुरू कर दिया था। आठ-नौ सितम्बर 1928 को दिल्ली मीटिंग में हालाँकि समाजवाद को सिद्धान्त के रूप में और समाजवादी समाज की स्थापना को अन्तिम उद्देश्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया था, अमल में हम लोग उसी पुराने व्यक्तिवादी ढंग के कामों में ही लगे रहे। हम मज़दूरों, किसानों, युवकों और मध्यवर्ग के बुद्धिजीवियों को संगठित करने की बात तो करते थे लेकिन पंजाब में नौजवान भारत सभा के गठन को छोड़कर और कहीं भी संजीदगी से उस दिशा में क़दम उठाने की कोशिश नहीं की गयी। …हम हिंसात्मक गतिविधियों को, जिसमें ज़ालिम सरकारी अधिकारियों की हत्या और छुटपुट विद्रोह शामिल थे, मज़दूरों, किसानों, युवकों और विद्यार्थियों के जन-संगठन बनाने के काम में मिलाना चाहते थे। लेकिन अमल में हमारा ज़ोर हिंसात्मक गतिविधियों और सशस्त्र कामों की तैयारी तक ही सीमित रहा।”

यह स्पष्ट है कि भगतसिंह और उनके साथी अपने शुरुआती राजनीतिक काल में क्रान्तिकारी आतंकवाद से प्रभावित थे। लेकिन पहले बाहर और फिर जेल के भीतर मार्क्सवाद के अपने गहन अध्ययन के बाद, उन्होंने क्रान्तिकारी आतंकवाद की आलोचना की थी और युवाओं को बहुसंख्यक मज़दूर-किसान आबादी को संगठित कर संघर्ष के लिए तैयार करने की सलाह दी थी। ऐसे में बिपिन चन्द्र ने अपनी पुस्तक में इस बारे में जो कुछ लिखा है वह ऐतिहासिक तथ्य है। और इसी ऐतिहासिक तथ्य को संघ और भाजपा ने भगतसिंह के अपमान के तौर पर प्रचारित किया है।

यह जानना भी दिलचस्प होगा कि जिन लोगों ने भगतसिंह के अपमान का मुद्दा उछाला है, भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनकी अपनी क्या भूमिका रही है। ग़ौरतलब है कि 1925 में अपने गठन से लेकर भारत के आज़ाद होने तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस) ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बड़े या छोटे, एक भी आन्दोलन में हिस्सा नहीं लिया। पूरे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वैसे तो आर.एस.एस का एक भी कार्यकर्ता जेल नहीं गया, लेकिन अगर भूले-भटके गया भी तो अंग्रेज़ों के सामने नाक रगड़कर और माफ़ीनामा लिखकर बाहर आ गया। हाँ, इस दौरान संघ की एक भूमिका अवश्य थी — क्रान्तिकारियों की मुख़बिरी करना, साम्प्रदायिक तनाव पैदा करके हिन्दू-मुस्लिम एकता को कमज़ोर करना, दंगे करवाना और इसके ज़रिये स्वतंत्रता संग्राम को कमज़ोर करना। आर.एस.एस. के उस दौर के पूरे साहित्य में आपको अंग्रेज़ों की तारीफ़ तो मिल जायेगी, लेकिन स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कुर्बान होने वाले क्रान्तिकारियों के लिए एक शब्द भी नहीं मिलेगा। यह एक घिनौना मजाक ही तो है कि यही संघ और इसके अनुषंगिक संगठन आज सबसे बड़े देशभक्त बन बैठे हैं और खुद को भगतसिंह का वारिस बता रहे हैं। दरअसल, भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा न लेना आर.एस.एस के माथे पर सबसे बड़ा कलंक है। इस कलंक को धोने की वह कितनी भी कोशिश करे, उसे यह भली-भाँति पता है कि वह इसमें सफल नहीं हो सकता। यह भी एक कारण है कि आर.एस.एस. इतिहास के इस अध्याय को फिर से लिखना चाहता है।

भगतसिंह के अपमान के नाम पर बिपिन चन्द्र की पुस्तक पर जो हमला बोला गया है, वह अपने आपमें कोई अलग-थलग घटना नहीं है। यह मोदी के सत्तासीन होने के बाद से ही जारी शिक्षा के भगवाकरण की मुहिम का एक हिस्सा है। इसी मुहिम के तहत प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में दीनानाथ बत्रा जैसे संघ “विचारकों” की पुस्तकों को शामिल किया जा रहा है। और इसी के तहत पुस्तकों में से ऐसी घटनाओं को हटाया जा रहा है, जिनसे संघ व उसकी विचारधारा के अनुयायी असहज महसूस करते हैं। मसलन, राजस्थान में सातवीं कक्षा की सामाजिक विज्ञान की पुस्तक में से नाथूराम गोडसे द्वारा गाँधी की हत्या की घटना को हटा दिया गया है। एक तरफ़ जहाँ संघ तृणमूल स्तर पर अपने प्रचार तथा कार्रवाइयों के ज़रिये जनता को अपने पक्ष में करने में लगा हुआ है, वहीं दूसरी तरफ़ शिक्षा के भगवाकरण के ज़रिये वह पूरे देश में चेतना को कुन्द करके समाज की मेधा को अपने नियंत्रण में करने की कोशिश कर रहा है। यही नहीं वह मिथ्या और झूठ को सामान्य ज्ञान के रूप में स्थापित कर अपने नापाक इरादों की पूर्ति को सुगम बना रहा है। संघ के इन नापाक इरादों को विफल करने के लिए, आज देश की तमाम प्रगतिशील और क्रान्तिकारी ताक़तों का यह दायित्व बनता है कि वे शिक्षा के भगवाकरण की मुहिम का पुरज़ोर विरोध करें और अपनी समझ को लेकर जनता के बीच जाएँ और संघी फ़ासिस्टों के नापाक मंसूबों के ख़िलाफ़ जनान्दोलनों को तेज़ करें। l

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मई-जून 2016

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