Category Archives: फ़ासीवाद

‘वाम को प्रतिक्रियात्मक रक्षावाद से आगे बढना होगा’

दक्षिणपंथी उग्रवाद के अन्य रूपों से अलग, फासीवाद एक जनान्दोलन है जिसका कि एक सामाजिक जनाधार है जिसमें मुख्यत परिवर्ती वर्ग आते हैं, जैसे पेशेवर और गैर-पेशेवर निम्न बुर्जुआ वर्ग जिसे जर्मन ‘मितेलस्टैण्ड’ कहते थे, जिसमें निम्न व्यवसायियों, छोटे व्यापारियों, दलाल, प्रोपर्टी डीलरों, दुकानदारों व निम्न मध्यम वर्ग के अन्य हिस्सों का पूरा वर्ग शामिल है। इसके अतिरिक्त, फासीवाद के सामाजिक आधार में लम्पट सर्वहारा के एक हिस्से के साथ ही असंगठित मज़दूर वर्ग, खासकर वो जिसमें किसी मजदूर संगठन, जैसे ट्रेड यूनियन में कोई राजनीतिक शिक्षा पाने का अभाव होता है, भी शामिल हैं। पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष में निम्न मध्य वर्ग सर्वहारा वर्ग का एक सम्भावित सहयोगी है। हालांकि, क्रान्तिकारी ताकतों के एक संगठित हस्तक्षेप के अभाव में यह अक्सर उनकी राजनीतिक पहुँच से बाहर छूट जाता है जो कि बदले में इसे फासीवादी राजनीति की ओर ले जाता है, विशेषकर राजनीतिक व आर्थिक संकट के समय में, क्योंकि इसकी नाजुक सामाजिक स्थिरता खतरे में पड जाती है और इसे इस बात की कोई समझदारी नहीं होती कि इस सामाजिक व आर्थिक असुरक्षा व अनिश्चितता के लिए कौन जिम्मेदार है? यह हताशा इस वर्ग को फासीवादी प्रचार के लिए विशेष रूप से भेद्य बना देती है।

फ़ासीवादियों द्वारा इतिहास का विकृतीकरण

अगर जनता के सामने वर्ग अन्तरविरोध साफ़ नहीं होते और उनमें वर्ग चेतना की कमी होती है तो इतिहास का विकृतिकरण करके व अन्य दुष्प्रचारों के ज़रिये उनके भीतर किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय के लोगों के प्रति अतार्किक प्रतिक्रियावादी गुस्सा भरा जा सकता है और उन्हें इस भ्रम का शिकार बनाया जा सकता है कि उनकी दिक्कतों का कारण उस विशेष सम्प्रदाय, जाति या धर्म के लोग हैं। क्रान्तिकारी शक्तियों को फ़ासीवादियों की इस साज़िश का पर्दाफ़ाश करना होगा और सतत प्रचार के ज़रिये जनता के भीतर वर्ग चेतना पैदा करनी होगी। इतिहास को विकृत करना फ़ासीवादियों का इतिहास रहा है। और यह भी इतिहास रहा है कि फ़ासीवाद को मुँहतोड़ जवाब देने का माद्दा केवल क्रान्तिकारी ताक़तें ही रखती हैं। फ़ासीवाद को इतिहास की कचरा पेटी में पहुँचाने का काम भी क्रान्तिकारी शक्तियाँ ही करेंगी। और तब इतिहास को विकृत करने वाला कोई न बचेगा।

भारतीय विज्ञान कांग्रेस में वैज्ञानिक तर्कणा के कफ़न की बुनाई

आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े सैंकड़ो संगठन तथा छदम् बुद्धिजीवी पुराणों और शास्त्रोंमें मौजूद धर्म के आवरण में लिपटी महान भौतिकवादी परंपराओं और आघ वैज्ञानिक उपलब्धियों की जगह मिथकों, कहानियों, कल्पनाओं को प्राचीन भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों और इतिहास के रूप में प्रस्तुत करने के अपने फासीवादी ऐजण्डे पर ज़ोर—शोर से काम कर रहे हैं। हमें भूलना नहीं चाहिए कि फासीवादियों का सबसे पहला हमला जनता की तर्कशक्ति और इतिहासबोध पर ही होता है। तर्कणा और इतिहासबोध से रिक्त जनमानस को फासीवादी ऐजण्डे पर संगठित करना हमेशा से ही आसान रहा है। यह महज़ इत्तिफाक नहीं है कि जर्मनी में हिटलर ने स्कूली पाठ्य पुस्तकों को नये सिरे से लिखवाया था। उसने जर्मन समाज की खोई हुई प्रतिष्ठा को वापस दिलाने का आश्वासन दिया था और जर्मनी को विश्व का सबसे ताकतवर देश बनाने का सपना दिखलाया था। आज हम अपने चारों ओर ऐसी कई चीज़ों को होते हुए देख सकते हैं।

‘फासीवाद के विरुद्ध लम्बी लड़ाई की सांस्कृतिक रणनीति बनानी होगी’

पिछले जिन 25 वर्षों के दौरान देश में हिन्‍दुत्‍ववादी कट्टरपंथ और उसीसे होड़ करते इस्‍लामी कट्टरपंथ का उभार हुआ है उन्‍हीं वर्षों के दौरान नवउदारवादी आर्थिक नीतियां भी परवान चढ़ी हैं, यह महज़ संयोग नहीं है। पूंजीवादी व्‍यवस्‍था के आर्थिक संकट के कारण बढ़ती बेरोजगारी, महंगाई, अराजकता और भ्रष्‍टाचार से तबाह-परेशान आम जनता के सामने एक काल्‍पनिक शत्रु खड़ा करके और समस्‍याओं का एक फर्जी सरल समाधान प्रस्‍तुत करके फासिस्‍ट शक्तियां जनता में अपना आधार बढ़ाने में कामयाब हुई हैं। इनका मुकाबला करने के लिए हमें भी व्‍यापक अवाम के बीच जाकर इनके असली चेहरे का पर्दाफाश करना होगा, केवल महानगरों में और मध्‍य वर्ग के बीच रस्‍मी विरोध कार्रवाइयों से काम नहीं चलेगा और न ही सर्वधर्म समभाव की ज़मीन पर खड़ा होकर इनका सामाजिक आधार कमज़ोर किया जा सकता है। हमें फासीवाद की एक सही वैचारिक समझ बनानी होगी और यह समझना होगा कि दुनिया में पहले कहर बरपा कर चुके फासीवाद और आज हमारे सामने मौजूद फासीवाद के बीच क्‍या समानताएं हैं और क्‍या भिन्‍नताएं हैं। हमें समझना होगा कि अतीत की ‘पॉपुलर फ्रंट’ की रणनीति आज नहीं चल सकगी क्‍योंकि बुर्जुआ वर्ग का आज कोई भी हिस्‍सा ऐसा नहीं है जो फासीवाद के विरुद्ध लम्‍बी लड़ाई में हमारे साथ खड़ा होगा। फासीवाद की पूरी परिघटना को समझने के लिए मौजूद मार्क्‍सवादी लेखन के साथ ही हमें इसके सांस्‍कृतिक प्रतिरोध के वैचारिक पहलुओं पर अपनी नज़र साफ करने के लिए विशेषकर बर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट, वाल्‍टर बेन्‍यामिन, अन्‍र्स्‍ट ब्‍लोख और अदोर्नो की रचनाओं को पढ़ना चाहिए।

पेशावर की चीख़ें

पाकिस्तान और ऐसे ही कई मुल्कों में आतंकवाद दरअसल साम्राज्यवादी पूँजीवाद और देशी पूँजीवाद की सम्मिलित लूट की शिकार जनता के प्रतिरोध को बाँटने के लिए खड़े किये गये धार्मिक कट्टरपन्थ का नतीजा है। इस दुरभिसन्धि में जनता दोनों ही आतंक का निशाना बनती है चाहे वह धार्मिक कट्टरपन्थी आतंकवाद हो या फिर उसके नाम पर राज्य द्वारा किया जाने वाला दमनकारी आतंकवाद।

अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न – संघ की अथक सेवा का मेवा!

अटल जी को संघ की अथक सेवा का मेवा मिलने के लिए इससे मुफ़ीद वक़्त और कोई हो ही नहीं सकता था! 1939 से लेकर अब तक उदारता का मुखौटा पहनते-उतारते, कविता उचारते, ऊँचाइयाँ आँकते, गहराइयाँ नापते उनके राजनीतिक जीवन का सात दशक से भी ज़्यादा वक़्त गुज़र गया। दरअसल संघ जैसा भारत बनाना चाहता है उसके “रत्न” अटल जी हो सकते हैं, इसमें कोई आश्चर्य नहीं। और मोदी को उत्तराधिकार का धर्म भी तो निभाना था!

शहीद मेले में अव्यवस्था फैलाने, लूटपाट और मारपीट करने की धार्मिक कट्टरपंथी फासिस्टों और उनके गुण्डा गिरोहों की हरकतें

बवाना और होलम्बी में साम्प्रदायिक तनाव भड़काने की घटनाओं से सभी वाकिफ हैं। मजदूर बस्तियों में जो लम्पट नशेड़ी-गँजेड़ी अपराधी गिरोह मौजूद हैं, वे मौका पड़ने पर किन लोगों द्वारा इस्तेमाल किये जाते हैं, यह सभी जानते हैं? इन्हीं बस्तियों में ठेकेदारों, दलालों, सूदखोरों, दुकानदारों की एक ऐसी आबादी भी रहती है, जो गरीब मेहनतकशों को संगठित करने की हर कार्रवाई से नफरत करती है। इसके पहले भी ‘शहीद भगतसिंह पुस्तकालय’ पर ढेले-पत्थर फेंकने, पुस्तकालय का बोर्ड उतारने और पोस्टर फाड़ने की घटनाएँ घट चुकी हैं। इतना तय है कि ऐसे तमाम प्रतिक्रियावादियों से सड़कों पर मोर्चा लेकर ही काम किया जा सकता है। इनसे भिडंत तो होगी ही। जिसमें यह साहस होगा वही भगतसिंह की राजनीतिक परम्परा की बात करने का हक़दार है, वर्ना गोष्ठियों-सेमिनारों में बौद्धिक बतरस तो बहुतेरे कर लेते हैं।

पंजाब को भी संघी प्रयोगशाला का हिस्सा बनाने की तैयारियाँ

आज़ादी के बाद चाहे संघ का संसदीय गिरोह भाजपा (पहले जनसंघ) सिर्फ़ एक दशक से भी कम समय के लिए सरकार बना सकी है, परन्तु संघ का ताना-बाना लगातार फैलता ही गया है। सरकार में होना या न होना, फासीवाद के फैलाव के लिए कोई विशिष्ट कारक नहीं है और सबसे अहम और ज़रूरी कारक भी नहीं है। सबसे अहम और ज़रूरी कारक यह है कि ऐतिहासिक तौर पर पूँजीपति वर्ग को फासीवाद की ज़रूरत है। सरकार में आने के साथ इसकी सरगर्मियाँ सिर्फ़ तेज़ होती हैं। इसने भारत के कई प्रान्तों में अपने पैर पहले ही अच्छी तरह जमा लिये हैं परन्तु पंजाब में अभी यह उस हैसियत में नहीं है, अब इसकी तैयारी पंजाब को भी अपनी शिकारगाह का हिस्सा बना देने की है।

मोदी की जापान यात्रा के निहितार्थ

इन यात्राओं के दौरान होने वाले व्यापारिक समझौतों का लाभ तो देश के पूँजीपति वर्ग और मुट्ठीभर मध्यवर्गीय तबके तक ही सीमित रहने वाला है। मेहनतकशों और मज़दूर वर्ग के लिए तो इसका एक ही परिणाम निकलने वाला है कि उन्हें और अधिक पाशविक हालातों में अपना जांगर खटाना होगा।

थोथा चना बाजे घना

मोदी की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघी आत्मा संघ प्रचारक की है। वहाँ उपदेश धर्मवाद या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रचार का सदा एक आवश्यक अवयव रहा है। यह अनायास नहीं है कि राष्ट्रीय परिदृश्य पर मोदी के प्रायोजित उभार के प्रारम्भिक दौर से ही उनके चुनावपूर्व सार्वजनिक भाषण उपदेशात्मक मुखरता और प्रचारात्मक शैली के घोल से सिक्त था( तब उनमें कार्यक्रमपरक रिक्तता लोगों को बहुत खटकती नहीं थी परन्तु देश के प्रधानमन्त्री की हैसियत से पन्द्रह अगस्त का ठोस योजना और अमली कार्यक्रम से रिक्त वही पुराना परउपदेश कुशल बहुतेरे शैली का भाषण इस बार मन्तव्य-उघाड़ू था। शब्दजाल का गुब्बारा फट चुका था और यह बिल्कुल साफ हो गया था कि पूँजी हितैषी और जनविरोधी नीतियों को और तेज़ी तथा और कुशलता के साथ आगे बढ़ानेवाला पूँजीपति वर्ग का यह चतुर नुमाइन्दा कितनी अधीरता से अपनी भूमिका निभाने के लिए प्रस्तुत था।