पंजाब को भी संघी प्रयोगशाला का हिस्सा बनाने की तैयारियाँ
गौतम
गुजरात, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, केरल आदि प्रान्तों को साम्प्रदायिकता की आग भड़काने के अड्डे बनाने के बाद संघी फासीवाद ने उत्तरप्रदेश के मुज़फ्फ़रनगर को दंगों की आग में झोंककर वोटों की फसल काटी। अब पंजाब को भी यह अपनी प्रयोगशालाओं के नेटवर्क के तहत लाने की कोशिश में है। पिछले कुछ महीनों में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने पंजाब के कई चक्कर काटे हैं। वह शहर मानसा में संघ के एक “शिक्षा शिविर” के दौरान एक धार्मिक डेरे के मुखिया के साथ बन्द-कमरा मीटिंग करके गये हैं और पंजाब के कई शहरों में इनके “शिक्षा शिविर” हुए हैं और हो रहे हैं। इस साल जून महीने में जालन्धर और मलेरकोटला में संघ ने “रूट मार्च” किये हैं। याद रहे, रूट मार्च सेना की तरफ़ से शान्ति के समय में नये रंगरूटों को लड़ाई के लिए तैयार करने और युद्ध की हालत में सैन्य टुकड़ियों को मोर्चे पर भेजने से पहले मोर्चे से दूर किसी जगह पर लड़ाई के लिए मानसिक रूप में तैयार करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। रूट मार्च के दौरान सैनिक अपना पूरा साजो-सामान मतलब कि हथियार आदि लेकर एक निर्धारित दूरी के लिए निर्धारित रास्ते के द्वारा मार्च करते हैं। संघ भी अपने काडर को बिल्कुल इसी तर्ज पर रूट मार्च करवाता है और संघ को अपने “सिपाही” कहाँ इस्तेमाल करने हैं, यह इसका इतिहास पढ़ने के बाद कोई समझ न आने वाली बात नहीं है। इसके अलावा, अभी एक महीना पहले ही बरनाला, जैतो नाम के दो शहरों में संघ के काडरों ने पिस्तौलें, बन्दूकें लहराते हुए मार्च निकाले जिनको प्रशासन “शान्तिपूर्ण” बता रहा है।
मलेरकोटला पंजाब का ऐसा शहर है जहाँ बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी है जिसके कारण पंजाब के इतिहास के साथ जुड़े हुए हैं। यह शहर संघ के मुख्य निशाने पर दिखायी दे रहा है। पिछले साल अगस्त (अगस्त, 2013) में गौ-हत्या के मामले को लेकर धार्मिक साम्प्रदायिक ताक़तों की तरफ़ से माहौल ख़राब करने की पुरजोर कोशिश की गयी परन्तु उनके प्रयत्नों को कोई फल न पड़ा। इसके बाद, कुछ महीने पहले ही एक बच्चे की दर्दनाक मौत को इसी मकसद के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश की गयी। जाँच तेज़ी के साथ करने के लिए प्रशासन पर दबाव बनाने की जगह संघ और शिवसेना के “सिपाहियों” ने दूसरे धर्म के लोगों को निशाना बनाने की कोशिश की। जबरन दुकानें बन्द करवाने, बच्चे की मौत के लिए दूसरे धर्म के लोगों पर बिना सबूतों और बिना किसी जाँच-पड़ताल के दोष लगाकर पूरे समुदाय को इसके लिए दोषी ठहराने की चालों के द्वारा साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयत्न किये गये लेकिन एक बार फिर इनकी कोशिशों को आम लोगों ने कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी। लोकसभा ख़त्म होने के बाद से ही अब चुनाव के बाद एक बार फिर मलेरकोटला निशाने पर है। बीती 16 जून की तारीख़ को “शिक्षा शिविर” के ख़त्म होने के बाद संघ के “स्वयं-सेवकों” ने “रूट मार्च” निकाला जिसमें बाकायदा एक बड़ी भीड़ ने लाठियाँ कन्धों पर रखकर सैनिक मार्च की तर्ज पर शहर की सड़कों पर मार्च किया। आज के समय में यह रूट मार्च किस तैयारी के लिए है? मामला बिल्कुल साफ़ है, इसका एक ही मकसद अल्पसंख्यकों को डराना और लुम्पन-बेरोज़गार और धार्मिक उन्माद के शिकार लोगों को दूसरे धर्म के लोगों के खि़लाफ़ भड़काना, उनके अन्दर फासीवादी भीड़-मानसिकता को बढ़ावा देना। सितम्बर महीने में कुछ पशुओं की हड्डियाँ आदि मिलने को गौ-हत्या का मामला बनाकर एक बार इन्होंने अच्छा-ख़ासा हंगामा खड़ा करना चाहा, मगर अभी तक इनको आम लोगों ने ज़्यादा मुँह नहीं लगाया है।
दूसरी तरफ़ प्रशासन तथा पुलिस हरसम्भव कोशिश करके इनकी मदद कर रहे हैं। अपने जायज़ हक़ माँगते आम मेहनतकश लोगों, मज़दूरों, किसानों, बेरोज़गार नौजवानों आदि द्वारा शान्तिपूर्ण धरना या रैली को भी मुश्किल बनाने के लिए हरसम्भव ढंग-तरीक़ा अपनाने वाले, और आम निहत्थे लोगों (समेत औरतें, लड़कियाँ) पर लाठियाँ बरसाने के हुक्म चढ़ाने वाले प्रशासन को इन रूट मार्चों में कुछ भी भड़काने जैसा नज़र नहीं आता, बल्कि इन मार्चों के लिए “भारी” और पुख्ता सुरक्षा प्रबन्ध किये जाते हैं। वास्तव में फासीवाद के सत्ता में आने और पैर जमाने से पहले ही, पूँजीपति वर्ग की सत्ता के दूसरे रूप जैसे संसदीय लोकतन्त्र भी फासीवादी राजनीति को आगे बढ़ने में मदद करने लगते हैं और मेहनतकश लोगों को कुचलने के लिए फासीवाद के बढ़ते क़दमों के लिए रास्ता ख़ाली करवाते जाते हैं। इतिहास यह भी दिखला चुका है कि फासीवादी ताक़तें पूँजीवादी संसदीय लोकतन्त्र के दायरे के भीतर भी सत्ता में आ सकती हैं और उस संसदीय ढाँचे के भीतर ही अपने नापाक मंसूबों को अंजाम भी दे सकती हैं। साथ ही इतिहास में ऐसी मिसालें भी हैं जिनमें पूँजीपति वर्ग का आर्थिक और राजनीतिक संकट गहराने के साथ इसको मेहनतकश लोगों के संघर्षों का ख़ौफ़ दिन-रात सताने लगता है और पूँजीपति वर्ग की तानाशाही पर चढ़ा संसदीय पूँजीवादी जनवाद का मुखौटा भी उतर जाता है और तानाशाहाना ढंग की, नंगे-सफ़ेद आतंकवाद पर आधारित फासीवादी राजसत्ता कायम हो जाती है जिसका निशाना मेहनतकश लोग, अल्पसंख्यक, औरतें (और भारत में दलित भी) होते हैं। भारत का पूँजीपति वर्ग भी इस घड़ी के लिए तैयार हो रहा है और इस मुश्किल घड़ी के लिए ही उसने संघी फासीवाद को आज़ादी के बाद से पाल-पोसकर रखा है। भारत के विशिष्ट राजनीतिक इतिहास के मद्देनज़र इस बात की गुंजाइश कम है कि भारत के फासीवादी संसदीय ढाँचे को ही भंग करके किसी तानाशाह को सत्ता में बिठायें। ज़्यादा गुंजाइश इस बात की नज़र आती है कि फासीवादी ताक़तें संसदीय पूँजीवादी जनवाद के दायरे के भीतर ही पूरी की पूरी राजनीति का फासीवादीकरण करें और मेहनतकश अवाम पर हमले की मशीनरी और उनके प्रतिरोध को कुचलने की मशीनरी को चाक-चौबन्द करें। जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि संघ परिवार के फासीवादी भारतीय पूँजीवाद को उसके संकट के दौर में मज़दूर वर्ग के आन्दोलनों और विद्रोह से बचाने के लिए देश की टटपुँजिया आबादी और मज़दूर वर्ग की आबादी को धर्म के नाम पर बाँटने, उन्हें अल्पसंख्यकों के रूप में एक काल्पनिक शत्रु प्रदान करने, संकट के असली ज़िम्मेदार पूँजीपति वर्ग को कठघरे से बाहर कर एक नक़ली शत्रु को कठघरे में खड़ा करने और मिथकों को यथार्थ बनाने का काम शुरू कर चुका है। बीच-बीच में अपने रूट मार्च संघ तब से ही करता आ रहा है, लेकिन अब यह सबकुछ ज़्यादा खुले रूप में तथा बड़े पैमाने पर होने वाला है। यहाँ तक कि भारत की सरकार ने संघ को अपना मिलिटरी स्कूल चलाने की खुली छूट दे रखी है जो महाराष्ट्र के शहर नासिक में सैकड़ों एकड़ में फैले ‘भौंसला मिलिटरी स्कूल’ के नाम के नीचे चल रहा है और जिसका नाम मालेगाँव और अन्य कई शहरों में हुए बम-धमाकों के साथ भी जुड़ चुका है। इसके बावजूद कोई भी सरकार, चाहे वह कांग्रेस की हो या फिर भाजपा या किसी अन्य पार्टी की, इस स्कूल को बन्द करवाने के बारे कभी एक लफ्ज़ भी नहीं बोली। क्योंकि भारत का पूँजीपति वर्ग अच्छी तरह जानता है कि संकट के दौर में उन्हें अपने ज़ंजीर से बन्धे कुत्ते को छोड़ने की ज़रूरत भी पड़ सकती है।
भारतीय पूँजीपति वर्ग के लिए देश का कोई भी हिस्सा फासीवादी-प्रभाव क्षेत्र से बाहर रह जाना ख़तरे से ख़ाली नहीं है। आज़ादी के बाद चाहे संघ का संसदीय गिरोह भाजपा (पहले जनसंघ) सिर्फ़ एक दशक से भी कम समय के लिए सरकार बना सकी है, परन्तु संघ का ताना-बाना लगातार फैलता ही गया है। सरकार में होना या न होना, फासीवाद के फैलाव के लिए कोई विशिष्ट कारक नहीं है और सबसे अहम और ज़रूरी कारक भी नहीं है। सबसे अहम और ज़रूरी कारक यह है कि ऐतिहासिक तौर पर पूँजीपति वर्ग को फासीवाद की ज़रूरत है। सरकार में आने के साथ इसकी सरगर्मियाँ सिर्फ़ तेज़ होती हैं। इसने भारत के कई प्रान्तों में अपने पैर पहले ही अच्छी तरह जमा लिये हैं परन्तु पंजाब में अभी यह उस हैसियत में नहीं है, अब इसकी तैयारी पंजाब को भी अपनी शिकारगाह का हिस्सा बना देने की है। बीते लोकसभा चुनावों के बाद संघ के संसदीय गिरोह भाजपा के सरकार बना लेने के बाद पंजाब में संघ की सरगर्मियों में तेज़ी आयी है। अगर पंजाब के भीतर भी आने वाले दिनों में कोई मुज़फ्ऱफ़रनगर पैदा हो जाता है, तो यह बिल्कुल भी अचानक हुई और विलक्षण घटना नहीं होगी, बल्कि वर्तमान ऐसे ही भविष्य घटनाक्रम के संकेत दे रहा है। आम लोगों की एकता कायम करने, बनाये रखने और मज़बूत करने के लिए, आम लोगों को साम्प्रदायिकता के ज़हर से ख़बरदार करने के लिए और ऐसे किसी भी घटनाक्रम के साथ निपटने के लिए जनपक्षधर ताक़तों को अभी से तैयारियाँ करनी चाहिए। जनपक्षधर ताक़तों की फासीवाद-विरोधी साँझा सरगर्मी कुछ एक मीटिंगों, सेमीनारों, गोष्ठियों, माँगपत्रों और कुछ एक रिपोर्टें जारी करने तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, यह सक्रियता हर गाँव, शहर, गली, मुहल्ले, नुक्कड़ और घर तक पहुँचनी चाहिए और इसके ढंग-तरीक़े अधिक से अधिक वैविध्य भरे और विस्तृत पहुँच वाले होने चाहिए। इसके लिए हमारे पास इन्तज़ार का कोई समय नहीं है। साम्प्रदायिक-फासीवादी ताक़तों द्वारा “कुछ कर लेने” के मंजर की प्रतीक्षा करना पूरी जनता के लिए और मेहनतकशों के आन्दोलन के लिए घातक सिद्ध होगा।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्बर-दिसम्बर 2014
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