भारतीय विज्ञान कांग्रेस में वैज्ञानिक तर्कणा के कफ़न की बुनाई

तपीश

यूं तो मसला हाल ही में सम्पन्न हुई भारतीय विज्ञान कांग्रेस से जुड़ा है लेकिन मैं अपनी बात समय में थोड़ा पीछे जाकर, ज्यादा नहीं मात्र सालभर पीछे जाकर शुरू करूँगा। 2 मार्च 2013 के दिन राजनाथ सिंह ने बीजेपी की राष्ट्रीय परिषद में दिये अपने भाषण के दौरान कहा था, “यदि हम सत्ता में आते हैं तो भारत को विश्व की बौद्धिक राजधानी (पाठकगण इसे कूपमंडूकों की राजधानी भी पढ़ सकते हैं) बना देंगे, भारत पुनः जगतगुरू (आप इसे गुरू घण्टाल भी पढ़ सकते हैं) के आसन पर विराजमान होगा।” उसी भाषण में उन्होंने यह भी बताया कि भौतिकी का विश्व प्रसिद्ध अनिश्चितता सिद्धान्त वेदों में पहले ही कहा जा चुका है। इसके प्रवर्तक माने जाने वाले हाइज़नबर्ग को इस सिद्धान्त की जानकारी 1929 में भारत यात्रा के दौरान रविन्द्रनाथ ठाकुर से बातचीत के दौरान प्राप्त हुई थी। बेचारे राजनाथ सिंह शायद यह न जानते थे कि हाइज़नबर्ग अपना सिद्धान्त भारत यात्रा से दो वर्ष पूर्व यानि 1927 में ही प्रतिपादित कर चुके थे! इसी तरह विज्ञान और प्रौघोगिकी मंत्री श्री हर्षवर्धन द्वारा शुल्भ सूत्रों को तोड़—मरोड़कर पाइथागोरस थियुरम के समतुल्य पेश करने का मामला हो या फिर मोदी द्वारा प्लास्टिक सर्जरी (गणेश का उदाहरण देकर) का दावा या फिर संघ से जुड़े अथवा उसकी विचारधारा सेप्रभावित बौद्धिकों द्वारा जैनेटिक इंजीनीयरिंग, परमाणु बम के अस्तित्व, गुरुत्वाकर्षण के नियम की खोज यानि सभी आधुनिक वैज्ञानिक उपलब्धियों का प्राचीन वेदों में पहले से ही उल्लेख होने के दावोंकी इधर कुछ समय से झड़ी लगी हुई है।

vaidik scienceहमारे देश के पुराणपंथी और पुनरुत्थानवादी ताकतें जिस “बौद्धिक” माहौल के सृजन में तन—मन—धन से लगी हैं (ध्यान रहे कि यह धन देशी—विदेशी पूँजीपतियों की तिजौरियों से बरसरहा है) उसका प्रतिबिम्बन भारतीय विज्ञान कांग्रेस के मुम्बई सम्मेलन में भी देखने को मिला। भारतीय विज्ञान कांग्रेस के मुम्बई अधिवेशन में प्राचीन भारत में हुई वैमानिक तकनीकी (Aviation Technology) प्रगतिपर एक पर्चा पेश किया गया। इस पर्चे के लेखक आनन्द बोडसे ने दावा किया कि हमारे ॠषि—मुनियों ने आज से 7000 वर्ष पूर्व विमान बनाने की कला और तकनीक में महारत हासिल कर ली थी। ये विमान एक देशसे दूसरे देश, एक महादेश से दूसरे महादेश और यहाँ तक कि एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक यात्रा किया करते थे। दावा पेश करने वाले इस छदम् वैज्ञानिक ने बताया कि उसके द्वारा प्रस्तुत विवरण ‘वैमानिक शास्त्र’ नामकग्रंथ से लिए गये हैं। इस पाखण्डी ने यह भी दावा किया कि इस शास्त्र की रचना ॠषि भारद्वाज ने 7000 वर्ष पूर्व की थी। श्री बोडसे का दावा है कि ये विमान 60 फीट से 200 फीट लम्बे होते थे और इनमें40 छोटे इंजन लगे होते थे। इन विमानों को उड़ाने वाले पायलटों की वेशभूषा का वर्णन करने हुए वे बतातें हैं कि इनके कपड़े पानी में उगने वाली एक विशेष प्रकार की वनस्पति से बने होते थे। इसी तरह इसअधिवेशन में दो अन्य पर्चों के माध्यम से यह बताने की कोशिश की गयी कि प्राचीनकाल में ही आज जैसी उन्नत शल्य चिकित्सा (Surgical Science) मौजूद थी और वनस्पति शास्त्र (Botany) भी कमोबेश आज जैसे ही विकसित रूप में ही मौजूद था। आइये सबसे पहले आनन्द बोडसे द्वारा प्रस्तुत ‘वैमानिक शास्त्र’ के दावों को आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा किये गये शोध की कसौटी पर परखें और देखें कि इस विषय में उनकी क्या राय है।

आज से 40 साल पहले IISC बंग्लौर के प्रोफेसर मुकुन्द, एस.एस.देशपाण्डे, एच.आर. नागेन्द्र, ए.प्रभु और एस.पी गोविन्दराजू की टीम ने 1974 में Scientific Opinion नामक शोध—पत्रिका में एक पेपर प्रकाशित किया था जिसका शीर्षिक था “Critical Study of the Work Vyamanika Shastra”। इस पेपर में इन वैज्ञानिकों ने ‘वैमानिक शास्त्र’ किताब के अध्ययन के आधार पर कुछ निष्कर्ष निकाले थेजो गैर—वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले लोगों की काल्पनिक उपलब्धियों पर पानी फेरने के लिए काफी हैं। इस पेपर में वैज्ञानिकों ने किताब के अध्ययन के आधार पर कहा है कि यह किताब पण्डित सुभ्भार्या शास्त्री द्वारा 1900 से 1922 के बीच खोजी गई है, जिसे 1951 में International Academy of Sanskrit Research at Mysore के संस्थापक ए.एम. जोयसेर द्वारा प्रकाशित किया गया था। यह कहना कि यह किताब 7000साल पहले ऋषि भरद्वाज द्वारा लिखी गई है गलत है। इस पेपर में ‘वैमानिक शास्त्र’ में लिखे गये विमानों के बारे में प्रोफेसर मुकुन्द ने टीम के साथ काफी विस्तार से निरीक्षण किया और बताया है कि “इस किताब में विमानों के बारे में वास्तविक तथ्यों के बजाय मनगढ़ंत विवरण दिये गये हैं। किसी भी वर्णित विमान की न तो ऐसी योग्यता है और न ही ऐसे लक्षण जिसके आधार पर उन्हें उड़ाया जा सके;इनका ज्यामितीय स्वरूप उड़ाने के हिसाब से अकल्पनीय रूप में भयावह है, और जिन सिद्धान्तों का वर्णन विमान को उड़ाने के लिए किया गया है वे वास्तव में ऐसे सिद्धान्त हैं जो उसे उड़ने नहीं देंगे।”1

सुदूरअतीत में मौजूद एक स्वर्णिम इतिहास की मादक कल्पना वास्तविक विज्ञान की प्रगति का मार्ग किस प्रकार प्रशस्त करेगी यह फैसला हम पाठकों पर छोड़ते हैं और इस विज्ञान कांग्रेस में प्रस्तुत वनस्पति शास्त्रके विकास और शल्य चिकित्सा से संबंधित अतिरंजित दावों की सच्चाई को परखने के लिए आगे बढ़ते हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के भारतीय दर्शनशास्त्री देवीप्रसाद चटृोपाध्याय ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘प्राचीन भारत में विज्ञान और समाज’ के ग्यारहवें अध्याय में चरक संहिता, सुश्रुत संहिता और अष्टांग—हृदय संहिता में दर्ज वनस्पतियों के संबंध में स्पष्ट उल्लेख किया है — “सबसे पहले पादपों [पौदों] की चर्चाकरें — ठाकुर बलवन्त सिंह और के. सी. चुनेकर ने कई दश्कों तक धैर्यपूर्वक अनुसंधान कर आयुर्वेद विषयक 3 प्रमुख ग्रंथों में उल्लिखित जड़ी—बूटियों, वनस्पतियों की पहचान की है।इनकी संख्या के बारे में वे लिखते हैंः ‘इन तीनों संहिताओं में उल्लिखित जड़ी—बूटियों, वनस्पतियों की मोटे तौर पर कुल संख्या 600 से 700 के बीच अनुमानित है।…’ यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है किइन आयुर्वेद ग्रंथों में इन पादपों/वनस्पतियों पर पादपों/वनस्पतियों के रूप में विचार नहीं किया गया है। इसमें तो केवल इस बात की विवेचना हुई है कि इन वनस्पतियों के विभिन्न हिस्सों या उनके उत्पादों का उपयोग करके मनुष्य शरीर पर क्या प्रभाव होता है।”2 पाठक यहाँ देख सकते हैं कि आयुर्वेदाचार्यों की वनस्पति जगत में रुचि का मुख्य कारण पेड़—पौदों में मौजूद औषधीय गुण थेन कि वनस्पति शास्त्र का वह आधुनिक नज़रिया जिसने ज्ञान की इस शाखा को एक स्वतंत्र अनुशासन में बांध दिया है।

इसी विज्ञान कांग्रेस में अश्विन सावंत द्वारा शल्य चिकित्सा पर प्रस्तुत एक पर्चे में दावा कियागया है कि भारत में आज से 8000 वर्ष पूर्व प्लास्टिक सर्जरी के अलावा कपाल तथा आँखों की भी सर्जरी हुआ करती थी। यह बात सच है कि चरक संहिता में शल्य चिकित्सा का वर्णन मिलता है। लेकिन अश्विन सावंतद्वारा आज से 8000 वर्ष पूर्व! जिस किस्म की शल्य चिकित्सा पद्धतियों के व्यवहार का दावा किया गया है उसकी सच्चाई को जानने के लिए हमें इस विषय को विस्तार से टटोलना होगा।

सच तो यह है कि आयुर्वेद के विकास का इतिहास भारत की प्रगतिकामी और प्रतिक्रियावादी शक्तियों के बीच चले संघर्षों का इतिहास रहा है। पुरातन काल में ही आयुर्वेद को जब वह अपने विकास की आरंभिक मंज़िलों में ही था समाजबहिष्कृतकर दिया गया और इस तरह पुरातन भारत की महान वैज्ञानिक भौतिकवादी परंपरा को रूढ़ीवादियों और पोंगापंथियों द्वारा मटियामेट कर दिया गया। अब इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि उसज़माने के पोंगापंथियों के वारिस यानि आज के आर.एस.एस मार्का संस्कृति के धर्मध्वजाधारी नये तरीकों से विज्ञान विरोधी प्रचार में लगे हैं।

आयुर्वेद के इतिहास की चर्चा करते हुए देवी प्रसादचटृोपाध्याय ने अपनी रचना ‘प्राचीन भारत में विज्ञान और समाज’ में अन्यत्र बतलाया है कि “आयुर्विज्ञान को भारतीय परंपरा में आयुर्वेद कहा गया है। इसके तीन प्रमुख स्रोत ग्रंथ हैं जिन्हें आलांकारिक भाषामें वृद्धत्रयी अर्थात तीन प्राचीन ग्रंथ कहते हैं। ये हैं ः चरक संहिता, सुश्रुत संहिता और अष्टांग संग्रह।…”3 प्राचीन काल में चरक संहिता की उपेक्षा और इस ज्ञान राशि की अवमानना का ठोस ऐतिहासिकप्रमाण उपलब्ध है। चटृोपाध्याय बताते हैं कि संहिता के अन्तिम संस्कारकर्ता दृढ़बल ने स्वयं ही इस तथ्य को स्वीकार किया है कि “अग्निवेश द्वारा तंत्रबद्ध और चरक द्वारा प्रतिसंस्कृत रूप के उस तक[दृढ़बल तक] पहुँचते—पहुँचते इस संहिता का लगभग एक—तिहायी हिस्सा लुप्त हो चुका था।”4 पाठकगण ध्यान दें कि दृढ़बल का जन्म गुप्तकाल में या छठी सदी के आसपास कभी हुआ था। भारतीय विधि निर्माताओं में सबसे प्राचीन माने जाने वाले आपस्तंब, गौतम और वसिष्ठ के कथनों को उद्धृत कर चटृोपाध्याय ने काय चिकित्सकों (Physicians) और शल्य चिकित्सकों के प्रति ब्राहमण और पुरोहित वर्ग द्वारा फैलायी गयी तीव्र घृणा कीभावना का ज़िक्र करते हुए बताया है कि “आपस्तंब धर्मसूत्र कहते हैं ः ‘किसी काय चिकित्सक, शिकारी, शल्य चिकित्सक और व्यभिचारणी या षंढ (हिजड़ा) द्वारा प्रदत्त अन्न ग्रहण नहीं करनाचाहिए…।’ गौतम धर्मसूत्र में इस बात पर बल दिया गया है कि ‘ब्राहमण ऐसे किसी व्यापारी से तो अन्न ग्रहण कर सकता है जो स्वयं दस्तकार न हो किन्तु उसे किसी दस्तकार, व्यभिचारणी स्त्री, अपराधी, बढ़ई,शल्य चिकित्सक और ऐसे ही अन्य व्यक्तियों से अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए।’ इसी तरह वसिष्ठ का भी कथन है कि ‘याचना न करने पर भी यदि कोई काय चिकित्सक, शिकारी, शल्य चिकित्सक …भिक्षा देना चाहे तो उसे ग्रहण करने का निषेध किया जाता है।’”5

चटृोपाध्याय आगे लिखते हैं कि धर्मसूत्रों से लेकर समृतियों की रचना तक के लम्बे काल में चिकित्सकों और उनके चिकित्सा कर्म के प्रतिलगभग सभी धर्मसूत्रकारों/समृतिकारों की ओर से तिरस्कार की भावना ज्यों की त्यों बनी रही। वे आगे लिखते हैं मनु ने तो यहाँ तक घोषित किया कि “चिकित्सक से प्राप्त अन्न मवाद की तरह दूषित होता है।”6इस तरह हम पाते हैं कि भारतीय चिकित्सा शास्त्र के महान वैज्ञानिकों को भी शूद्रों की कोटि में डाल दिया गया।

आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े सैंकड़ो संगठन तथा छदम् बुद्धिजीवी पुराणों और शास्त्रोंमें मौजूद धर्म के आवरण में लिपटी महान भौतिकवादी परंपराओं और आघ वैज्ञानिक उपलब्धियों की जगह मिथकों, कहानियों, कल्पनाओं को प्राचीन भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों और इतिहास के रूप में प्रस्तुत करने के अपने फासीवादी ऐजण्डे पर ज़ोर—शोर से काम कर रहे हैं। हमें भूलना नहीं चाहिए कि फासीवादियों का सबसे पहला हमला जनता की तर्कशक्ति और इतिहासबोध पर ही होता है। तर्कणा और इतिहासबोध से रिक्त जनमानस को फासीवादी ऐजण्डे पर संगठित करना हमेशा से ही आसान रहा है। यह महज़ इत्तिफाक नहीं है कि जर्मनी में हिटलर ने स्कूली पाठ्य पुस्तकों को नये सिरे से लिखवाया था। उसने जर्मन समाज की खोई हुई प्रतिष्ठा को वापस दिलाने का आश्वासन दिया था और जर्मनी को विश्व का सबसे ताकतवर देश बनाने का सपना दिखलाया था। आज हम अपने चारों ओर ऐसी कई चीज़ों को होते हुए देख सकते हैं।

हमें यह भी ध्यान रखना होगाकि हमारे देश में वैसे भी ऐतिहासिक कारणों से तर्कणा और जनवाद की जमीन बेहद कमज़ोर रही है। यहाँ यूरोप की भांति प्रचण्ड पूँजीवादी क्रान्तियाँ नहीं हुईं जिसके परिणामस्वरूप हमारे सामाजिक ताने—बाने में मौजूदमध्यकालीन सामंती मूल्य—मान्यताएँ पूँजीवाद द्वारा सहयोजित कर ली गयीं। 1947 के बाद सत्तासीन होने वाले बूढ़े—विकलांग पूँजीपति वर्ग की ही तरह हमें एक जर्जर विकलांग जनवाद मिला।

यहाँ इसबात पर भी ध्यान देना ज़रूरी है कि अंधविश्वास और अतीतोन्मुखता के उठते हुए ज्वार का संबंध केवल आर.एस.एस, भाजपा या उनके सहयोगी संगठनों तक ही सीमित नहीं है। आज यह एक विश्वव्यापीपरिघटना बनकर उभर रही है और भांति—भांति के धार्मिक कटृरपंथी और पुनरुत्थानवादी ताकतें इसमें शामिल हैं। इस परिघटना का वस्तुगत आधार पूँजीवाद की विश्वव्यापी पतनोन्मुखता में निहित है।आज विश्व पूँजीवाद अपनी आन्तरिक गति से उस मुकाम तक पहुँच चुका है जहाँ उसके पास जनता को देने के लिए कुछ भी सकारात्मक नहीं बचा है। विज्ञान, कला और इतिहास का क्षेत्र भी इसका अपवाद नहीं है।पूँजी के वर्चस्व को कायम रखने के लिए पूँजीवाद स्वयंस्फूर्त गति से समाज में अंधविश्वास, अंधभक्ति, कूपमंडूकता और इतिहासोन्मुखता के सड़े—गले मूल्य पैदा कर रहा है। पूँजी की अंधी शक्तियों को कायम रखने केलिए आवश्यक है कि सभी किस्म के पुरातन और नूतन अंधे उन्मादी विचारों को समाज के पोर—पोर में पैठा दिया जाय। आर.एस.एस और भाजपा का तथाकथित वैज्ञानिक—सांस्कृतिक ऐजण्डा असल में भारतीयपूँजीपति वर्ग की इसी अवचेतन वस्तुगत आवश्यकता की सचेतन अभिव्यक्ति मात्र है।

यही वे आम हालात हैं जिनकेपरिप्रेक्ष्य में हम भारतीय विज्ञान कांग्रेस के मुम्बई अधिवेशन में हुई इस शर्मनाकघटना को देख—समझ सकते हैं। चूंकि अबकी बार हमले के लिए देश में विज्ञान के लिए जानी जाने वाली सर्वोच्च संस्था के मंच को चुना गया है इसलिए मामला गम्भीर बन जाता है।साम्प्रदायिक फासीवादियों ने इस मंच को निशाना बनाकर विज्ञान का नारा लगाते हुए देश की बची—खुची वैज्ञानिक तर्कणा की कब्र खोदने की घोषणा कर दी है।

स्रोत

1 लेख ‘वैदिक—विज्ञान ः महाकाव्यों के मिथकों और फिक्सन को देखने के नज़रिये पर कुछ सवाल’, Blog: The Spark of Change

2 पेज 96,’प्राचीन भारत में विज्ञान और समाज’,देवी प्रसादचटृोपाध्याय

3 पेज 28,उपरोक्त

4 पेज 39,उपरोक्त

5 पेज 241,उपरोक्त

6 पेज 243,उपरोक्त

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-अप्रैल 2015

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