लाल किले से मोदी का लोकरंजकतावादी भाषण और आम जन पर उसका जीरो इफेक्ट
यानी थोथा चना बाजे घना
मीनाक्षी
प्रचारक से प्रधानमन्त्री बने नरेन्द्र मोदी द्वारा पन्द्रह अगस्त को लाल किले की प्राचीर से दिये गये लगभग 70 मिनट के भाषण को यदि एक पंक्ति में समेटना हो तो एदुआर्दो गालियानो की यह प्रसिद्ध उक्ति ‘राजनीतिक सिर्फ़ बोलते हैं पर वास्तव में कहते कुछ भी नहीं’ सिर्फ़ सामान्यसूचक (राजनीतिक) संज्ञा की जगह नामसूचक (मोदी) संज्ञा की विशिष्टता के साथ बस दोहरा देनी होगी। मोदी की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघी आत्मा संघ प्रचारक की है। वहाँ उपदेश धर्मवाद या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रचार का सदा एक आवश्यक अवयव रहा है। यह अनायास नहीं है कि राष्ट्रीय परिदृश्य पर मोदी के प्रायोजित उभार के प्रारम्भिक दौर से ही उनके चुनावपूर्व सार्वजनिक भाषण उपदेशात्मक मुखरता और प्रचारात्मक शैली के घोल से सिक्त था( तब उनमें कार्यक्रमपरक रिक्तता लोगों को बहुत खटकती नहीं थी परन्तु देश के प्रधानमन्त्री की हैसियत से पन्द्रह अगस्त का ठोस योजना और अमली कार्यक्रम से रिक्त वही पुराना परउपदेश कुशल बहुतेरे शैली का भाषण इस बार मन्तव्य-उघाड़ू था। शब्दजाल का गुब्बारा फट चुका था और यह बिल्कुल साफ हो गया था कि पूँजी हितैषी और जनविरोधी नीतियों को और तेज़ी तथा और कुशलता के साथ आगे बढ़ानेवाला पूँजीपति वर्ग का यह चतुर नुमाइन्दा कितनी अधीरता से अपनी भूमिका निभाने के लिए प्रस्तुत था। किसी भी सूरत से वैश्विक पूँजी को आमंत्रित करने की मोदी की उत्कंठा उनके भाषण की कायल करनेवाली शब्दावली के प्रयोग में देखा जा सकता है: ‘हमारे पास हर क्षेत्र में प्रतिभा, निपुणता और अनुशासन है-इलेक्ट्रॉनिक से लेकर इलेक्ट्रिकल्स तक, केमिकल्स से लेकर फार्मास्युटिकल तक, पेपर से लेकर प्लास्टिक तक और ऑटोमोबाइल से लेकर एग्रीकल्चर तक आदि आदि – – -आप भारत आइये और यहीं बनाइये’ – (कम एण्ड मेक इन इण्डिया)। मेक या बनाने का सम्बन्ध केवल मैन्युफैक्चर या विनिर्माण से ही नहीं था, इसका मुख्य सम्बन्ध तो मुनाफे से था। यह पहलू भाषण में अबोला भले ही रह गया हो पूँजी निवेशकों के लिए इसका आशय बिल्कुल स्पष्ट था। उनकी अगवानी में पूरे भारत को ही विशेष आर्थिक क्षेत्र में तब्दील करने की मोदी के उतावलेपन से वे वाक़िफ़ थे।
मोदी ने अपने भाषण में यह स्पष्ट कर दिया कि उन्हें कच्चे माल का दोहन करने, सस्ते श्रम को निचोड़ने और तैयार उत्पाद को दुनिया के किसी भी देश के बाज़ार में बेचने की पूरी आज़ादी होगी। स्पष्ट था उन्हें अधिकतम मुनाफा कमाने की पूरी छूट दी जा रही थी। यह आकस्मिक नहीं था। मोदी पूँजीपरस्त नीतियों के तेज़ अमल की भरोसेमन्दी हासिल करके ही पूँजीपति वर्ग के चहेते बने थे। चुनावी घोषणापत्र में ही मोदी ने अपना यह इरादा जाहिर कर दिया था, उसमें स्पष्टतः इस बात का उल्लेख किया गया था कि पूँजीनिवेशकों के मार्ग में आड़े आने वाली हर किस्म की लालफीताशाही को समाप्त कर सरकारी अनुमति हासिल करने सम्बन्धी प्रक्रिया को सरल बनाया जायेगा। इसके साथ ही उनकी सहूलियत के लिए अवसंरचनागत ढाँचे का निर्माण, निर्विघ्न विद्युत आपूर्ति, श्रम क़ानून को लचीला (वास्तव में इसका अर्थ लचर था) बनाने के उद्देश्य से श्रम क़ानून में सुधार का प्रस्ताव, और सुविधाजनक पर्यावरण देने के लिहाज से हर मुमकिन क़दम उठाना शामिल था। मोदी ने अपने भाषण में जिस ज़ीरो डिफ़ेक्ट (नकारात्मक प्रभाव से रहित) और ज़ीरो इफ़ेक्ट (नकारात्मक पर्यावरण से रहित) का नारा दिया उनकी जुगलबन्दी चाहे कितना भी कर्णप्रिय और प्रतीति चाहे जितनी भी सुहावनी हो उसका सीधा सा अर्थ है, पूँजी निवेश के पक्ष में पर्यावरण का निर्माण। यहाँ यह भी स्पष्ट है कि कारख़ाना अधिनियम, औद्योगिक विवाद क़ानून, और ट्रेड यूनियन क़ानून आदि में निहित प्रावधानों के रूप में श्रमिकों के जिन अधिकारों ने सुरक्षा पाकर वैधानिक शक्ल अख़्तियार की थी उसे श्रम सुधार के ज़रिये अपहृत किये बिना और पूँजीपतियों को पहले एक हद तक और फिर क्रमशः और अधिक वैधानिक प्रावधानों के बंधन से मुक्त किये बिना उन्हें सुविधाजनक पर्यावरण नहीं दिया जा सकता।
दूसरे, विखण्डित एसेम्बली लाइन की उत्पादन प्रक्रिया को और मुकम्मिल बनाना आज नवउदारवाद की ज़रूरत है। दस या उससे भी कम मज़दूरों वाले छोटे-छोटे कारख़ानों में जहाँ पृथक और स्वतन्त्र माल उत्पादन तो होता है लेकिन अन्तिम उत्पाद तैयार करने की पूरी उत्पादन प्रक्रिया का वह हिस्सा भी होता है, लिहाज़ा लचीले श्रम क़ानून के ज़रिये छोटे कारख़ानेदारों को भी क़ानूनी ज़िम्मेदारी से मुक्ति दिये बिना पूँजीपति वर्ग के हितों की रक्षा नहीं की जा सकती। इसलिए श्रम क़ानून में निम्नलिखित संशोधन प्रस्तावित करके अब मोदी सरकार की योजना श्रम क़ानून के दायरे में आने वाले उन सभी छोटे कारख़ानेदारों को भी क़ानूनी राहत देने की है जहाँ 20 (विद्युत संचालित) और 40 (बिना विद्युत संचालित) से कम संख्या में मज़दूर काम करते हैं। पहले यह सुविधा क्रमशः 10 और 20 की संख्या से कम मज़दूरों वाले कारख़ानों को मिली थी। इसी प्रकार ठेका मज़दूरी क़ानून को अब 50 या इससे अधिक मज़दूरों वाले कारख़ाने में लागू करने का प्रस्ताव है, इसके पहले यह संख्या 20 या इससे अधिक की थी। इसके अलावा 300 से कम मज़दूरों वाले कारख़ाने को बन्द करने के लिए अब कारख़ाना मालिक किन्हीं क़ानूनी प्रावधानों के पालन की बाध्यता से मुक्त होंगे। यही नहीं, यूनियन के पंजीकरण के लिए आवश्यक 10 प्रतिशत को बढ़ाकर अब 30 प्रतिशत कर देने का प्रावधान किया गया है। इसी प्रस्ताव के तहत अब मज़दूरों की ओवरटाइम की सीमा को एक महीने में 50 घण्टे से बढ़ाकर 100 घण्टा कर दिया गया है। परन्तु सिंगल रेट पर ओवरटाइम करने की मज़दूरों की विवशता पर सरकार की अहस्तक्षेपकारी नीति चलन में है। और अब पूँजीपतियों द्वारा श्रम क़ानून के पालन पर निगरानी रखने के लिए अधिकृत कारख़ाना इंस्पेक्टर का पद समाप्त करने का प्रस्वाव रखकर सरकार ने इस अहस्तक्षेपकारी नीति की सार्वजनिक घोषणा कर दी है।
निवेशकों के निवेश के लिए सुविधाजनक पर्यावरण की व्यवस्था श्रम क़ानून को ढीला-पोला बना कर ही नहीं किसानों से उनकी जमीन अधिकृत करके भी की जायेगी। जमीन के सुगमता पूर्वक अधिग्रहण के लिए जमीन अधिग्रहण क़ानून में भी संशोधन प्रस्तावित है। ज़ाहिर है इसकी मार निम्न मध्यम और छोटे किसानों पर ही होगी। मोदी की ग़रीब जनता की श्रेणी में मेहनतकशों की यह आम आबादी निश्चय ही नहीं आती जिसके प्रति अपने चिन्ता और सरोकार का उनका आडम्बरपूर्ण प्रदर्शन निरन्तर जारी रहता है। इसीलिए मोदी जी के भाषण में पूँजी को आमन्त्रण की चर्चा तो है परन्तु उसकी सेवा के लिए श्रम सुधार के ज़रिये क़ानूनी सुरक्षा से वंचित हो जाने वाली मेहनतकश जमात की चिन्ता नदारद है। साफ है, मोदी के भाषण में जिस आम जनता का जिक्र होता है दरअसल वह खाता पीता वह मध्यवर्ग है जो पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली के सामाजिक अवलम्ब के रूप में निरन्तर सक्रिय है। और उसकी क्रयशक्ति बाज़ार के साथ होड़ में लगातार मुब्तिला है। अति उत्पादन के संकट का एक हद तक ही सही यही तो तारनहार है। पूँजीपति वर्ग के प्रबन्धन समिति को इसीलिए यह खुशहाल वर्ग बहुत प्रिय है जो महँगाई आदि से निपटने के व्यक्तिगत रास्ते बिना किसी हो हल्ला के खामोशी से अपने स्तर पर (भ्रष्ट तरीक़े से) निकाल लेता है।
पन्द्रह अगस्त के अपने भाषण में देश को प्रगति पथ पर ले जाने की बात करते हुए भी मोदी ने कोई ठोस योजना नहीं रखी और न ही उसके किसी क्रियात्मक पहलू पर बात की। हमेशा की तरह लोगों के लिए उनके पास नसीहतों का पिटारा था। इस पिटारे का एक हिस्सा छात्रों युवाओं के हिस्से भी आया। उन्हें यह सलाह दी गयी कि ‘मैं परवाह क्यों करूं’ की सोच से बाहर आकर उन्हें अपनी भूमिका का निर्वाह करना चाहिए, उनके हुनर के विकास से ही हिन्दुस्तान हुनरमन्द होगा। (स्किल डेवलेपमेण्ट एण्ड स्किल इण्डिया)। इस लच्छेदार भाषा के सम्मोहन से अछूती युवा आबादी के सामने यह यक्ष प्रश्न तो था ही कि आख़िरकार निपुणता हासिल कैसे हो। नवउदारवादी नीतियों के प्रभाव से पूरी शिक्षा व्यवस्था ही बाज़ार के हवाले है। यानी जितनी बड़ी औकात उतनी ऊँची शिक्षा। आज स्थिति यह है कि पढ़ने योग्य छात्रों में 4 प्रतिशत तो कभी स्कूल नहीं जाते, 58 प्रतिशत प्राथमिक स्कूल की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते, 90 प्रतिशत हाईस्कूल की शिक्षा पूरी नहीं कर पाते, केवल 10 प्रतिशत ही कालेज तक पहुंच पाते हैं। वहाँ भी 80 प्रतिशत स्नातक की उपाधि तो प्राप्त करते हैं लेकिन उनके पास कोई विशेषज्ञता नहीं होती। 12 प्रतिशत छात्रों को स्नातकोत्तर की उपाधि मिल पाती है, 1 प्रतिशत को शोध कार्य, और 1 प्रतिशत को डिप्लोमा कोर्स की। कालेज पहुंचे दस फ़ीसदी छात्रों में से 19 प्रतिशत विज्ञान के क्षेत्र में, और 18 प्रतिशत कामर्स और मैनेजमेण्ट की उपाधि ले पाते हैं। इंजीनियरिंग व तकनीकी क्षेत्र में 16 प्रतिशत छात्रों को, और महज़ 4 प्रतिशत को चिकित्सा विज्ञान में उपाधि मिलती है। आँकड़ों से स्पष्ट है कि छा़त्रों की एक नगण्य सी आबादी को ही उच्च शिक्षा तक पहुँचने का अवसर मिल पाता है। दूसरी तरफ़, उच्च मानक के प्रतिष्ठित समझे जानेवाले 30 प्रतिशत कालेज व विश्वविद्यालय के करीब 55 प्रतिशत छात्र ही इस योग्य बन पाते हैं कि रोज़गार हासिल कर सकें। यहाँ यह ग़ौरतलब है कि यह मानक घरेलू है, वैश्विक मानकों के हिसाब से यह प्रतिशत और कम हो जाता है। यह बड़े शहरों की स्थिति है, छोटे-छोटे शहरों में विश्वविद्यालयी शिक्षा पानेवालों का प्रतिशत अपेक्षाकृत और भी कम है। देश को डिजिटल बनाने की वकालत करनवाले प्रधानमन्त्री महोदय को शायद यह जानकर हैरानी हो कि छोटे छोटे शहरों और कस्बों के 50 प्रतिशत से ज़्यादा युवा कम्प्यूटर की जानकारी हासिल करने के संसाधनों से वंचित हैं। देश की ज़मीनी हकीकत से इस कदर कटा हुआ कोई प्रधानमन्त्री इसी तरह की खोखली बातें कर सकता है। मोदी को यह मालूम होना चाहिए कि विशेषज्ञता और हुनर हासिल करने का सवाल मन की मर्जी से नहीं जुड़ा हुआ है। यह वस्तुगत आर्थिक परिस्थितियों का दबाव है जिसके तले पिसकर निपुणता अर्जित करने की बात तो दूर रही कोई छात्र सामान्य पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाता। मोदी जी से यह पूछा जाना चाहिए कि जिस देश में छात्र आबादी का मात्र 10 प्रतिशत ही स्नातक तक पहुँच पाता हो और जहाँ उच्च शिक्षा तक पहुँच की दर लगातार घटती जाती हो वहाँ छात्रों युवाओं को देश की तरक्की की खातिर अपनी काबलियत और कौशल विकास के लिए ललकारना उनके साथ किया गया क्या एक अश्लील मज़ाक नहीं है।
देश के 47 प्रतिशत ग्रेजुएट युवा के लिए रोज़गार सृजन की ठोस व्यावहारिक योजना की जगह भाषण में डिजिटल इण्डिया, दूरस्थ शिक्षा प्रणाली और टेलीमेडिसिन के माध्यम से गाँव के आखिरी छोर तक शिक्षा पहुँचा देने, तथा ग़रीबों के लिए सही चिकित्सीय इलाज के चुनाव की दिशा निर्धारित करने में मार्गदर्शन करने और ऐसी ही अन्य आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध कराने के थोथे वादे भी किये गये। जहाँ सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता का यह आलम हो कि पाँचवी दर्जा के छात्र दूसरी-तीसरी कक्षा के गणित या विज्ञान के प्रश्नों को हल न कर पाते हों, जिन्हें ढंग से हिन्दी भाषा भी पढ़नी लिखनी न आती हो वहाँ प्रधानमन्त्री जी की प्राथमिकता बुनियादी शिक्षा का ढाँचा मज़बूत बनाने की होनी चाहिए। इसके बग़ैर डिजिटल और टेलीमेडिसिन, दूरस्थ शिक्षा आदि आदि की बात करना हास्यास्पद ही है। प्रधानमन्त्री का वह भाषण वास्तव में मशक़्क़त के साथ चुने और तराशे गये गड़गड़ाते शब्दों की बरसात भर थी जो आम आदमी की उम्मीदों और ज़रूरतों को सूखा ही छोड़ गयी थी। मुहावरे में कहें तो वह ‘थोथा चना बाजे घना’ की विशेषता रखता था।
सार्वजनिक मंचों से दिये गये प्रधानमन्त्री के पहले के भाषणों में भी फ़िकरेबाज़ी के अलावा बहुत कुछ नहीं होता था। कभी देश की प्रगति के लिए पाँच टी (टेलेण्ट, ट्रेडिशन, ट्रेड, टूरिज्म, टेक्नॉलाजी) की तान छेड़ दी जाती, कभी छप्पन इंची सीने की दम्भपूर्ण उक्ति होती, स्मार्ट सिटी जैसे सारहीन चौंकाऊ शब्द भी होते, कभी ज़ीरो डिफ़ेक्ट व ज़ीरो इफ़ेक्ट की तुकबन्दी होती तो कभी ई गवर्नेन्स से ईज़ी गवर्नेन्स की ओर बढ़ने की नारेबाज़ी होती और कभी ‘न खाऊँगा न खाने दूँगा’ जैसे धमाकेदार फ़िल्मी जुमले भी होते। फिर भी मोदी को इस बात का श्रेय तो देना ही पड़ेगा कि उन्होंने भूमण्डलीय नीतियों और उसकी कार्यप्रणाली के अनुरूप ‘मिनिमम गवर्नमेण्ट मैक्सिमम गवर्नेन्स’ का एक ठोस वज़नी नारा भी दिया था। यह तो मानना पड़ेगा कि नवउदारवादी व्यवस्था द्वारा उनकी सरकार से जिस अहस्तक्षेपकारी भूमिका (मिनिमम गवर्नमेण्ट) और पूँजीपक्षीय प्रबन्ध कौशल की (मैक्सिमम गवर्नेन्स) माँग की गयी थी उसमें खरा उतरने की उनकी तैयारी ज़बर्दस्त थी। यह भूलना नहीं चाहिए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रचारकों को लोकप्रियतावादी चमत्कृत करनेवाली शब्दावलियों के इस्तेमाल के लिए शुरू से ही शिक्षित-प्रशिक्षित करने की परम्परा रही है। प्रचारकों का प्रशिक्षण कोर्स चार ‘पी’ पर आकर समाप्त होता है। पिक-अप यानी छाँटो, पिन-अप अर्थात तैयार करो, पुश-अप यानी आगे बढ़ाओ और पुल-अप अर्थात ओहदे तक पहुँचाओ। यह प्रबन्धकीय गुरुडम और कैरियरवाद की भाषा है जो आडम्बरपूर्ण शैली में अभिव्यक्ति पाती है। साफ है, आर एस एस से चार ‘पी’ में प्रशिक्षित होकर आये मोदी की भाषा भाव भंगिमा और पूरी की पूरी चिन्तन प्रणाली जब इसी सांचे-खांचे में ढली होगी तो उनके भाषण की प्रस्तुति इससे अलग हो भी कैसे सकती है।
जनहित और समाज कल्याण वास्तव में मोदी की समस्त कार्रवाइयों का प्रतीतिगत यथार्थ ही है, उसका सारभूत यथार्थ है पूँजीपति वर्ग के व्यापक हितों की पूर्ति। मोदी इस बात से बख़ूबी परिचित है कि पूँजीपतियों की नज़रों में चढ़ने व सत्ता में बने रहने की बस यही एक तरक़ीब है, करनी में पूँजीपति वर्ग का व्यापक हित हो और कथनी में जनकल्याणकारी वादों की पोटली। मोदी के भाषण की अति चर्चित और बहुप्रशंसित ‘सांसद आदर्श ग्राम योजना’ और ‘प्रधानमन्त्री जन धन योजना’ को इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए। ये योजनाएँ दरअसल मुनादी वाले ढोल हैं। यूँ तो सांसद आदर्श ग्राम योजना का उद्देश्य जनता और तथाकथित जनकल्याणकारी नीतियों के प्रति सांसदों की जवाबदेही सुनिश्चित करना है। परन्तु पड़ताल करने पर असलियत सामने आ जाती है। यदि प्रत्येक सांसद प्रधानमन्त्री की मंशा के अनुरूप 2016 तक एक गाँव और 2019 तक दो गाँवों को आदर्श गाँव बनाने में जी जान से जुट भी जाये तो कुलमिलाकर 543 सांसदों द्वारा अधिकतम 1086 गाँव ही आदर्श गाँव की परिधि में खींच-खाँचकर शामिल हो पायेंगे। यहाँ सवाल यह है कि देश के बाकी बचे रह गये 637510 गाँवों के बारे में प्रधानमन्त्री जी ने अपने भाषण में तो कोई ज़िक्र नहीं किया, क्या उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जायेगा, या उसके बारे में भी कोई योजना ली जायेगी। यह भी बहुत स्पष्ट नहीं हो सका कि सांसद सम्भावित गाँव में डेरा डाल कर उसे आदर्श बनायेंगे या आ जाकर सम्बन्धित ग्रामीण प्रशासन के ज़रिये इस काम को अंजाम देंगे। दूसरे, यह सवाल भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इस आदर्श गाँव का स्वरूप क्या होगा। क्या इसमें सबके लिए बिजली, पीने का साफ पानी, इलाज के लिए उपयुक्त उपकरण-दवाएं व कुशल चिकित्सीय स्टाफ वाले चिकित्सालय और उपयुक्त इमारत, शिक्षण सामग्री व प्रशिक्षित योग्य शिक्षकों वाले विद्यालय होंगे? क्या गाँव के पूरे कृषि क्षेत्र के लिए बीज, खाद, सिंचाई योग्य जलापूर्ति और ट्रैक्टर व हार्वेस्टर की उपलब्धता सुगम रहेगी? जाहिर है डिजिटल इण्डिया में कृषि कार्य पद्धति के आधुनिक हुए बिना कोई गाँव आदर्श स्वरूप तो ग्रहण कर नहीं सकता। क्या इसके आधुनिकीकरण की भी कोई योजना है? ऐसा दिखता तो नहीं। हकीकत यही है कि जिस आदर्श गाँव की मोदी बात कर रहे हैं निजीकरण और उदारीकरण के दौर में आज उतना भी सम्भव नहीं है। जहाँ देश भर में पीने योग्य साफ पानी तक उपलब्ध न हो, बोतलबन्द और आर ओ का पानी केवल मुट्ठीभर हैसियतदारों के लिए हो और बाकियों के लिए कुएँ, बावड़ी, ताल, हैण्डपम्प और क्लारीन मिला सप्लाई का पानी, वहाँ जाहिर है गाँवों तो क्या शहरी बस्तियों में भी साफ पानी की ज़रूरत पूरी नहीं की जा सकती। अगर यह मान लिया जाये कि आदर्श ग्राम में चिकित्सा और शिक्षा प्रणाली को भी आदर्श रूप दिया जायेगा तब प्रश्न यह उठता है कि प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक में शिक्षकों और हर स्तर के सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों के पद जबकि हर जगह रिक्त पड़े रहते हों वहाँ चुने गये सम्भावित आदर्श गाँव के लिए क्या अलग से रिक्त पद भरे जायेंगे। परन्तु ऐसा होना सम्भव ही नहीं है। वास्तव में यहाँ प्रश्न आर्थिक नीतियों का है। उसमें किसी बुनियादी परिवर्तन के बिना ये सारी बातें और योजनाएं धरी रह जायेंगी, पिछले 68 वर्षों का इतिहास इसकी पुष्टि करता है।
प्रधानमन्त्री जन धन योजना के साथ यही बात लागू होती है। चार राज्यों में विधानसभा के उपचुनाव के हालिया नतीजों में मोदी के आभामण्डल के क्षीण होने का संकेत पाकर और महाराष्ट्र व हरियाणा में आसन्न चुनाव को देखते हुए उनकी सरकार ने इसकी शुरुआत में तेज़ी तो दिखायी है लेकिन दोनों राज्यों के विधान सभा चुनाव सम्पन्न होने के बाद इसमें सुस्ती आना लाज़िमी है। हर नागरिक के लिए बैंक खाता और हर ग़रीब परिवार के लिए एक लाख का बीमा जन कल्याणकारी होने का चाहे जितना भ्रम पैदा करे वास्तव में नवउदारवादी नीतियों को बड़ी कुशलता से लागू करने का यह उपक्रम है साथ ही हर स्तर पर ग्रामीण पूँजी के संचलन के माध्यम से यह आर्थिक संकट से उबरने की कोशिश भी है जिसका व्यापक लाभ अन्ततः पूँजीपति वर्ग को ही मिलना है। दूसरे, जहाँ देश की 77 प्रतिशत से भी अधिक की आबादी के सामने महज़ 20 या उससे भी कम रुपये पर जीवन यापन की विवशता हो, लगभग 40 करोड़ युवाओं पर बेरोज़गारी की मार हो और तमाम प्रयासों के बाद महँगाई नियन्त्रणमुक्त हो चुकी हो वहाँ यदि बैंक खाता खुल भी जाये तो नियमित रोज़गार और आय के बिना (इसीलिए तो वह ग़रीब है) उसका खाता निष्क्रिय ही पड़ा रहेगा। ठीक वैसे ही जैसे स्कूल के दिनों में मोदी जी को देना बैंक द्वारा दिया गया गुल्लक। अब यह पता नहीं कि वे उन दिनों आर्थिक छुआछूत के शिकार थे या नहीं।
मोदी ने अपने भाषण में स्त्री के ख़िलाफ़ बढ़ते यौन अपराधों और उसके रोकथाम के उपाय का भी जिक्र किया। मंच से ही माँ-बाप के सामने प्रवचनात्मक सुझाव प्रस्तुत किये गये और इससे निपटने की तरकीब बतायी गयी जो सरल भी था और व्यावहारिक भी। उन्हें बस इतना ही करना था कि वे बेटियोँ की तरह अपने बेटों को प्रश्नों के दायरे में रखें, बाहर निकलने पर उनसे भी सवाल पूछें। कैसा बढिया समाधान! न कोई झंझट, न अतिरिक्त प्रयास। अब तक के तमाम समाजशास्त्री और चिन्तक व्यर्थ ही पितृसत्तात्मक मानसिकता, भूमण्डलीय संस्कृति और पूँजीवादजनित विमानवीकृत परिस्थितियों का प्रभाव, सामाजिक अलगाव और पृथक्करण और ऐसी ही कितनी जटिल बातों से मामले को उलझाये हुए थे। वैसे, भाषण से यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि अलग-अलग समयों पर स्त्रियों की घरेलू हिंसा, कार्यस्थल पर छेड़खानी या यौन उत्पीड़न से सुरक्षा सम्बन्धी क़ानूनों का फिर औचित्य क्या था और क्या मोदी के सुझाव के अमल के बाद इनकी ज़रूरत आगे भी रहेगी? भाषण में मोदी ने यह भी नहीं बताया कि उनके ही कैबिनेट में मौजूद बलात्कारी और यौन-उत्पीड़न के आरोपी मन्त्रियों को बर्खास्त क्यों नहीं किया गया? शायद मोदी इन व्याभिचारियों को भी अपने प्रवचनों से सुधारने वाले हैं!
देश का विकास मोदी का प्रिय नारा है जो उनके सभी भाषणों में छाया रहता है और यह मौजूदा भाषण में था। उन्होंने साम्प्रदायिकता को दस वर्षों के लिए रोककर देश का विकास करने का इरादा जाहिर किया। विकास पुरुष की छवि को क़ायम रखने के लिए भी यह ज़रूरी था। परन्तु इस मामले में वे बिचारे दो पाटों, पूँजीवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बीच फंस गये लगते हैं। दोनों का ही लक्ष्य साम्प्रदायिक एजेण्डे के बिना पूरा नहीं हो पायेगा। लिहाज़ा लाल किले से 10 वर्षों की सीमा तय करने के बाद भी इन दिनों उत्तर प्रदेश प्रयोग स्थली बना हुआ है, और मुज़फ़्फ़रनगर, सहारनपुर, मुरादाबाद, बरेली, मेरठ और अब अयोध्या व फ़ैज़ाबाद में चिंगारी सुलग रही है। लेकिन मोदी मौन है, इनकी मुखरता अवाक हो गयी लगती है।
अब स्वच्छता और साफ-सफ़ाई के बारे में कुछ बातें। पन्द्रह अगस्त को प्रधानमन्त्री जी ने भाषण मंच से जैसे ही स्वच्छ भारत और शौचालय निर्माण की बात की और प्रत्येक व्यक्ति को उसके साफ सफ़ाई के कर्तव्य की याद दिलायी वैसे ही मोदी को हटाकर विद्या बालन की छवि आँखों के सामने आ खड़ी हुई। दोनों के बीच की प्रचारात्मक साम्यता और विज्ञापनी छवि इतनी एक-सी और सटीक थी कि उनके अन्दाज में भेद कर पाना मुश्किल था। एक हल्का सा अन्तर बस तब दिखायी पड़ा जब मोदी ने इसी प्रसंग में एम पी लैड स्कीम के तहत सांसदों को शौचालय बनाने का उपदेश दे डाला। अब विद्या बालन यह तो कर नहीं सकती थीं। वे मात्र अभिनेत्री ठहरीं, राजनीतिक तो थीं नहीं, लिहाज़ा संसदीय गरिमा का सवाल उठ सकता था। बहरहाल अब सांसदों-मंत्रियों को शौचालय उद्घाटन करने की अपनी भूमिका से आगे बढ़ कर शौचालय निर्माण के काम को हाथ में लेने का समय आ गया था। स्वच्छता को लेकर देश के प्रधानमन्त्री की संवेदनशीलता देखते ही बनती थी। परन्तु उन्हें इस बात की जानकारी तो होगी ही कि गन्दगी सिर्फ़ घरेलू कूड़े से नहीं होती, सबसे अधिक कचरा और प्रदूषण तो उद्योग और उद्योगनुमा अस्पतालों से होता है। जहाँ मुनाफ़ा बचाने की खातिर कूड़े के निस्सारण के लिए कोई मद ही नहीं रखा जाता। यूँ तो यह कोई छुपा तथ्य भी नहीं कि कई औद्योगिक पट्टियाँ और उनसे लगे इलाक़े जहरीले कचरे के कारण रिहाइश योग्य नहीं रह गये हैं। जल, जमीन हवा और पूरा वातावरण ही ख़तरनाक हदों तक प्रदूषित हो गया है। और उसके चपेट में आये लोग जानलेवा बीमारियों के शिकार हो जाते रहे हैं। 2009 की पर्यावरण प्रदूषण निर्देशिका (सी ई पी आई) के अनुसार 88 औद्योगिक क्षेत्रों में जब मापा गया तो उसमें 43 गम्भीर रूप से प्रदूषित थे और 43 अत्यन्त गम्भीर रूप से। औद्योगिक कचरा पर रोक लगाये बिना स्वच्छता की बात नहीं हो सकती। इसके अतिरिक्त, व्यक्ति निजी स्तर पर घरेलू कूड़े का निस्सारण नहीं कर सकता। मोदी ने यदि अपशिष्ट पदार्थ से जुड़ी योजना आयोग की 2012-13 की रिपोर्ट ही पढ़ी होती तो उन्हें यह जानकारी होती कि सरकारी स्तर पर भी सम्पूर्ण कचरे का निस्तारण नहीं हो पाता। (ख़ैर, उन्होंने योजना आयोग ही भंग कर दिया, न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।) इस रिपोर्ट के मुताबिक़ देश के स्थानीय प्रशासनिक निकाय वाले इलाक़ों से 133760 मीट्रिक टन कचरा प्रति दिन निकलता है जिसमें से सिर्फ़ 91152 टन उठाया जाता है और निस्तारण केवल 25884 टन का ही रोज़ हो पाता है। यह राजनीति की ही तरह सरकारी मशीनरी की अराजकता और लापरवाह कार्यशैली का प्रमाण है, जिसके वे मुखिया हैं। ज़ाहिर है इसे प्रचारकीय प्रवचन से दूर नहीं किया जा सकता।
और अन्त में, प्रधानमन्त्री ने इसी भाषण में ख़ुद को प्रधान मन्त्री नहीं प्रधान सेवक बताया। बिल्कुल सच, लेकिन किसका? जनता का या पूँजी और हिन्दुत्व का!
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2014
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