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उतरती “मोदी लहर” और फासीवाद से मुक़ाबले की गम्भीर होती चुनौती

फासीवादियों की पुरानी फितरत रही है कि राजनीतिक तौर पर सितारे गर्दिश में जाने पर वे ज़्यादा हताशा में क़दम उठाते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध में हारते हुए नात्सी जर्मनी में यहूदियों व कम्युनिस्टों का फासीवादियों ने ज़्यादा बर्बरता से क़त्ले-आम किया था; उसी प्रकार हारते हुए फासीवादी इटली में मुसोलिनी के गुण्डा गिरोहों ने हर प्रकार के राजनीतिक विरोध का ज़्यादा पाशविकता के साथ दमन किया था। इसलिए कोई यह न समझे कि नरेन्द्र मोदी की फासीवादी सरकार गिरती लोकप्रियता के बरक्स देश के मेहनत-मशक़्क़त करने वाले लोगों और छात्रों-युवाओं पर अपने हमले में कोई कमी लायेगी। वास्तव में, मोदी को 5 साल के लिए पूर्ण बहुमत दिलवा कर देश के बड़े पूँजीपति वर्ग ने सत्ता में पहुँचाया ही इसीलिए है कि वह पूँजी के पक्ष में हर प्रकार के क़दम मुक्त रूप से उठा सके और 5 वर्षों के भीतर मुनाफ़े के रास्ते में रोड़ा पैदा करने वाले हर नियम, क़ानून या तन्त्र को बदल डाले। 5 वर्ष के बाद मोदी की सरकार चली भी जाये तो इन 5 वर्षों में वह शिक्षा, रोज़़गार से लेकर श्रम क़ानूनों तक के क्षेत्र में ऐसे बुनियादी बदलाव ला देगी, जिसे कोई भावी सरकार, चाहे वह वामपंथियों वाली संयुक्त मोर्चे की ही सरकार क्यों न हो, रद्द नहीं करेगी। यही काम करने के लिए अम्बानी, अदानी, टाटा, बिड़ला आदि ने नरेन्द्र मोदी को नौकरी पर रखा है।

‘लव जेहाद’ के शोर के पीछे की सच्चाई

यदि पूरे देश के आँकड़े जुटाये जायें तो वैवाहिक जीवन में स्त्रियों की प्रताड़ना एवं अलगाव तथा प्रेम में धोखा देने की लाखों घटनाएँ मिलेंगी। इनमें से उन अन्तर-धार्मिक प्रेम विवाहों और प्रेम प्रसंगों को छाँट लिया जाये जिनमें पति/प्रेमी मुस्लिम हों और पत्नी/प्रेमिका हिन्दू। विवाद की गर्मी में पत्नी/प्रेमिका की ओर से स्वयं या किसी प्रेरणा-सुझाव के वशीभूत होकर कोई भी आरोप लगाया जा सकता है, जिसमें धर्मान्तरण का आरोप भी शामिल हो सकता है। हो सकता है कुछ मामलों में धर्मान्तरण के दबाव का आरोप सच भी हो, लेकिन मात्र इस आधार पर यह भयंकर नतीजा कत्तई नहीं निकाला जा सकता कि संगठित तरीक़े से कुछ मुस्लिम संगठन मुस्लिम युवाओं को तैयार करके हिन्दू युवतियों को बहला-फुसलाकर प्रेमजाल में फँसाने की मुहिम चला रहे हैं।

आ गये “अच्छे दिन”!

आने वाले पाँच वर्षों तक नरेन्द्र मोदी की सरकार देशी-विदेशी पूँजी को अभूतपूर्व रूप से छूट देगी कि वह भारत में मज़दूरों और ग़रीब किसानों और साथ ही निम्न मध्यवर्ग को जमकर लूटे। इस पूरी लूट को “राष्ट्र” के “विकास” का जामा पहनाया जायेगा और इसका विरोध करने वाले “राष्ट्र-विरोधी” और “विकास-विरोधी” करार दिया जायेगा; मज़दूरों के हर प्रतिरोध को बर्बरता के साथ कुचलने का प्रयास किया जायेगा; स्त्रियों और दलितों पर खुलेआम दमन की घटनाओं को अंजाम दिया जायेगा; देश के अलग-अलग हिस्सों में साम्प्रदायिक दंगों और नरसंहारों को अंजाम दिया जायेगा और अगर इतना करना सम्भव न भी हुआ तो धार्मिक अल्पसंख्यकों को दंगों और नरसंहारों के सतत् भय के ज़रिये अनुशासित किया जायेगा और उन्हें दोयम दर्जे़ का नागरिक बनाया जायेगा। निश्चित तौर पर, यह प्रक्रिया एकतरफ़ा नहीं होगी और देश भर में आम मेहनतकश अवाम इसका विरोध करेगा। लेकिन अगर यह विरोध क्रमिक प्रक्रिया में संगठित नहीं होता और एक सही क्रान्तिकारी नेतृत्व के मातहत नहीं आता तो बिखरा हुआ प्रतिरोध पूँजी के हमलों का जवाब देने के लिए नाक़ाफ़ी होगा। इसलिए ज़रूरत है कि अभी से एक ओर तमाम जनसंघर्षों को संगठित करने, उनके बीच रिश्ते स्थापित करने और उन्हें जुझारू रूप देने के लिए काम किया जाये और दूसरी ओर एक सही राजनीतिक नेतृत्वकारी संगठन के निर्माण के कामों को पहले से भी ज़्यादा द्रुत गति से अंजाम दिया जाये।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की असली जन्मकुण्डली

संघ का सांगठनिक ढांचा भी मुसोलिनी और हिटलर की पार्टी से हूबहू मेल खाता है। इटली का फ़ासीवादी नेता मुसोलिनी जनतंत्र का कट्टर विरोधी था और तानाशाही में आस्था रखता था। मुसोलिनी के मुताबिक “एक व्यक्ति की सरकार एक राष्ट्र के लिए किसी जनतंत्र के मुकाबले ज़्यादा असरदार होती है।” फ़ासीवादी पार्टी में ‘ड्यूस’ के नाम पर शपथ ली जाती थी, जबकि हिटलर की नात्सी पार्टी में ‘फ़्यूहरर’ के नाम पर। संघ का ‘एक चालक अनुवर्तित्व’ जिसके अन्तर्गत हर सदस्य सरसंघचालक के प्रति पूर्ण कर्मठता और आदरभाव से हर आज्ञा का पालन करने की शपथ लेता है, उसी तानाशाही का प्रतिबिम्बन है जो संघियों ने अपने जर्मन और इतावली पिताओं से सीखी है। संघ ‘कमाण्ड स्ट्रक्चर’ यानी कि एक केन्द्रीय कार्यकारी मण्डल, जिसे स्वयं सरसंघचालक चुनता है, के ज़रिये काम करता है, जिसमें जनवाद की कोई गुंजाइश नहीं है। यही विचारधारा है जिसके अधीन गोलवलकर (जो संघ के सबसे पूजनीय सरसंघचालक थे) ने 1961 में राष्ट्रीय एकता परिषद् के प्रथम अधिवेशन को भेजे अपने सन्देश में भारत में संघीय ढाँचे (फेडरल स्ट्रक्चर) को समाप्त कर एकात्म शासन प्रणाली को लागू करने का आह्वान किया था। संघ मज़दूरों पर पूर्ण तानाशाही की विचारधारा में यक़ीन रखता है और हर प्रकार के मज़दूर असन्तोष के प्रति उसका नज़रिया दमन का होता है। यह अनायास नहीं है कि इटली और जर्मनी की ही तरह नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में मज़दूरों पर नंगे किस्म की तानाशाही लागू कर रखी है। अभी हड़ताल करने पर कानूनी प्रतिबन्ध तो नहीं है, लेकिन अनौपचारिक तौर पर प्रतिबन्ध जैसी ही स्थिति है; श्रम विभाग को लगभग समाप्त कर दिया गया है, और मोदी खुद बोलता है कि गुजरात में उसे श्रम विभाग की आवश्यकता नहीं है! ज़ाहिर है-मज़दूरों के लिए लाठियों-बन्दूकों से लैस पुलिस और सशस्त्र बल तो हैं ही!

देश में नये फासीवादी उभार की तैयारी

इतिहास गवाह है कि बुर्जुआ मानवतावादी अपीलों और धर्मनिरपेक्षता का राग अलापने से साम्प्रदायिक फ़ासीवाद का मुकाबला न तो किया जा सका है और न ही किया जा सकता है। फ़ासीवादी ताकतों और फ़ासीवाद की असलियत को बेपर्दा करके जनता के बीच लाना होगा और जनता की फौलादी एकजुटता कायम करनी होगी। फ़ासीवाद का मुकाबला हमेशा मज़दूर वर्ग ने किया है। क्रान्तिकारी ताक़तों को मज़दूर वर्ग को उनकी आर्थिक माँगों पर तो संगठित करना ही होगा, साथ ही उनके सामने इस पूरी व्यवस्था की सच्चाई को बेपर्द करना होगा और राजनीतिक तौर पर उन्हें जागृत, गोलबन्द और संगठित करना होगा। इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है। हम अपनी आँखों के सामने नये सिरे से फासीवादी उभार देख रहे हैं। न सिर्फ़ भारत में बल्कि वैश्विक पूँजीवादी संकट के इस दौर में यूनान, पुर्तगाल, फ्रांस और स्पेन से लेकर अमेरिका और इंग्लैण्ड तक में। हमारे देश में यह उभार शायद सर्वाधिक वर्चस्वकारी और ताक़तवर ढंग से आ रहा है। जनता के बीच शासन से मोहभंग की स्थिति को पूरी व्यवस्था से मोहभंग में तब्दील किया जा सकता है और हमें करना ही होगा। मौजूदा संकट ने जो दोहरी सम्भावना (क्रान्तिकारी और प्रतिक्रियावादी) पैदा की है, उसका लाभ उठाने में क्रान्तिकारी ताक़तें फिलहाल बहुत पीछे हैं, जबकि फासीवादी ताक़तें योजनाबद्ध ढंग से आगे बढ़ रही हैं। हमें अभी इसी वक़्त इस स्थिति से निपटने की तैयारी युद्धस्तर पर करनी होगी, नहीं तो बहुत देर हो जायेगी।

जर्मनी में फ़ासीवाद का उभार और भारत के लिए कुछ ज़रूरी सबक़

जर्मनी में जो कुछ हुआ वह आज भारत में हरेक प्रगतिशील व्यक्ति के लिए बेहद प्रासंगिक है। भारत में भी आर्थिक संकट अपने पूरे ज़ोर के साथ इस दशक ही आने वाला है। अभी भी स्थिति कोई बेहतर नहीं है और मन्दी जारी है, लेकिन कुछ वर्षों में ही यह मन्दी एक गम्भीर संकट में तब्दील होने वाली है। फासीवादी ताक़तें उस समय के मुताबिक अपनी तैयारियाँ कर रही हैं। क्रान्तिकारी ताक़तों को भी मज़दूर वर्ग को आधार बनाते हुए इस फासीवादी उभार का मुकाबला करने की तैयारियाँ आज से ही शुरू कर देनी चाहिए। वहीं दूसरी ओर क्रान्तिकारी शक्तियों को लगातार निम्न और मँझोले मध्यवर्ग में भी क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार करना चाहिए और उन्हें इस बात का अहसास कराना चाहिए कि मौजूदा संकट, अनिश्चितता और असुरक्षा के लिए समूची पूँजीवादी व्यवस्था ज़िम्मेदार है; क्रान्तिकारी हिरावल को संगठित करना और पूँजीवाद का एक वैज्ञानिक-व्यावहारिक विकल्प पेश करनाः यही आज का सबसे अहम कार्यभार है। इस कार्यभार को पूरा करने में युवाओं और छात्रों की विशेष और पहलकारी भूमिका की ज़रूरत है। क्या हम इतिहास के इस आह्वान का जवाब नहीं देंगे?

ज़ख़्म

बदलते हुए मौसमों की तरह राजधानी में साम्प्रदायिक दंगों का भी मौसम आता है। फर्क इतना है कि दूसरे मौसमों के आने-जाने के बारे में जैसे स्पष्ट अनुमान लगाये जा सकते हैं वैसे अनुमान साम्प्रदायिक दंगों के मामले में नहीं लगते। फिर भी पूरा शहर यह मानने लगा है कि साम्प्रदायिक दंगा भी मौसमों की तरह निश्चित रूप से आता है। बात इतनी सहज-साधारण बना दी गयी है कि साम्प्रदायिक दंगों की ख़बरें लोग इसी तरह सुनते हैं जैसे “गर्मी बहुत बढ़ गयी है’ या “अबकी पानी बहुत बरसा’ जैसी ख़बरें सुनी जाती हैं। दंगों की ख़बर सुनकर बस इतना ही होता है कि शहर का एक हिस्सा कर्फ्यूग्रस्त हो जाता है। लोग रास्ते बदल लेते हैं। इस थोड़ी-सी असुविधा पर मन-ही-मन कभी-कभी खीज जाते हैं, उसी तरह जैसे बेतरह गर्मी पर या लगातार पानी बरसने पर कोफ़्त होती है। शहर के सारे काम यानी उद्योग, व्यापार, शिक्षण, सरकारी काम.काज सब सामान्य ढंग से चलता रहता है। मन्त्रिमण्डल की बैठकें होती हैं। संसद के अधिवेशन होते हैं। विरोधी दलों के धरने होते हैं। प्रधानमंत्री विदेश यात्राओं पर जाते हैं, मंत्री उद्घाटन करते हैं, प्रेमी प्रेम करते हैं, चोर चोरी करते हैं। अखबार वाले भी दंगे की ख़बरों में कोई नया या चटपटापन नहीं पाते और प्रायः हाशिये पर ही छाप देते हैं। हाँ मरने वालों की संख्या अगर बढ़ जाती है तो मोटे टाइप में ख़बर छपती है, नहीं तो सामान्य।

चार राज्यों में विधानसभा चुनाव के नतीजे और भावी फासीवादी उभार की आहटें

फासीवादी उभार हमेशा ही किसी न किसी किस्म के ‘फ़्हूरर’ या ‘ड्यूस’ के कल्ट पर सवार होकर आता है। भारत में यह कल्ट ‘नमो नमः’ के नारे पर सवार होकर आ रहा है। मुम्बई में एक रईसों के होटल ने मोदी की मोम की प्रतिमा का अनावरण मोदी द्वारा ही करवाया है। इसी प्रकार की कवायदें मोदी समर्थक देश भर में कर रहे हैं। ‘फ़्यूहरर’ कल्ट का भारतीय संस्करण हमारे सामने है। निश्चित तौर पर यह अभी नहीं कहा जा सकता है कि चार विधानसभा चुनावों के नतीजे लोकसभा चुनावों के नतीजों में परिवर्तित हो जायेंगे। लेकिन उतने ही ज़ोर के साथ यह भी कहा जा सकता है कि इस सम्भावना से इंकार भी नहीं किया जा सकता है। जर्मनी या इटली की तरह भारत में फासीवादी उभार होगा, इसकी सम्भावना कम है। वास्तव में, उस प्रकार का फासीवादी उभार भूमण्डलीकरण के दौर में कहीं भी सम्भव नहीं है। इतिहास अपने आपको दुहराता नहीं है। लेकिन एक नये रूप में, नये कलर-फ़्लेवर में दुनिया के कई देशों में अपनी-अपनी विशिष्टताओं के साथ फासीवादी ताक़तें सिर उठा रही हैं।

ख़बरदार जो सच कहा!

इतिहास और विज्ञान से हमेशा ही फासीवादियों का छत्तीस का आँकड़ा रहा है। फासीवाद का आधार ही अज्ञान और झूठ होता है। अतीत का आविष्कार, मिथकों का सृजन और झूठों की बरसात-इन्हीं रणनीतियों का इस्तेमाल कर फासीवाद पनपता है और पूँजीपतियों की सेवा करता है। जर्मनी और इटली में फासीवादियों ने इन्हीं रणनीतियों का इस्तेमाल किया। जर्मनी के बर्लिन में 10 मई 1933 को नात्सियों द्वारा ऑपेरा स्क्वायर में 25,000 किताबें जलायी गयीं, जिनमें फ्रायड, आइन्स्टीन, टॉमस मान, जैक लण्डन, एच.जी. वेल्स आदि लेखकों, विचारकों की किताबें शामिल थीं। हिटलर के प्रचार मन्त्री गोयबल्स ने वहाँ उपस्थित नात्सी छात्रों को सम्बोधित करते हुए कहा, “भविष्य का जर्मन नागरिक किताबों का मुखापेक्षी नहीं होगा बल्कि वह अपनी चारित्रिक दृढ़ता से पहचाना जायेगा। आज इतिहास के बौद्धिक कचरे को आग के हवाले कर दिया गया है। और आप इस महान क्षण के साझीदार हैं।” प्रगतिशीलता और जनवाद से फ़ासीवाद को हर-हमेशा ख़तरा रहता है। इसलिए वह संस्कृति की दुहाई देकर इस तरह के विचारों को ख़त्म कर देने की कोशिश करता है।

फ़ासीवाद का मुक़ाबला कैसे करें

फ़ासीवाद और प्रतिक्रियावाद दस में से नौ बार जातीयतावादी, नस्लवादी, साम्प्रदायिकतावादी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का चोला पहनकर आता है। वैसे तो हमें शुरू से ही बुर्जुआ राष्ट्रवाद के हर संस्करण का पुरज़ोर विरोध करना चाहिए, लेकिन ख़ास तौर पर फ़ासीवादी प्रजाति का सांस्कृतिक अन्धराष्ट्रवाद मज़दूर वर्ग के सबसे बड़े शत्रुओं में से एक है। हमें हर कदम पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, प्राचीन हिन्दू राष्ट्र के गौरव के हर मिथक और झूठ का विरोध करना होगा और उसे जनता की निगाह में खण्डित करना होगा। इसमें हमें विशेष सहायता इन सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों की जन्मकुण्डली से मिलेगी। निरपवाद रूप से अन्धराष्ट्रवाद का जुनून फैलाने में लगे सभी फ़ासीवादी प्रचारक और उनके संगठनों का काला इतिहास होता है जो ग़द्दारियों, भ्रष्टाचार और पतन की मिसालें पेश करता है। हमें बस इस इतिहास को खोलकर जनता के सामने रख देना है और उनके बीच यह सवाल खड़ा करना है कि यह ”राष्ट्र” कौन है जिसकी बात फ़ासीवादी कर रहे हैं? वे कैसे राष्ट्र को स्थापित करना चाहते हैं? और किसके हित में और किसके हित की कीमत पर? ”राष्ट्रवाद” के नारे और विचारधारा का निर्मम विखण्डन – इसके बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते। राष्ट्र की जगह हमें वर्ग की चेतना को स्थापित करना होगा। बुर्जुआ राष्ट्रवाद की हर प्रजाति के लिए ”राष्ट्र” बुर्जुआ वर्ग और उसके हित होते हैं। मज़दूर वर्ग को हाड़ गलाकर इस ”राष्ट्र” की उन्नति के लिए खपना होता है। इसके अतिरिक्त कुछ भी सोचना राष्ट्र-विरोधी है। राष्ट्रवाद मज़दूरों के बीच छद्म गर्व बोध पैदा कर उनके बीच वर्ग चेतना को कुन्द करने का एक पूँजीवादी उपकरण है और इस रूप में उसे बेनकाब करना बेहद ज़रूरी है। यह न सिर्फ मज़दूरों के बीच किया जाना चाहिए, बल्कि हर उस वर्ग के बीच किया जाना चाहिए जिसे भावी समाजवादी क्रान्ति के मित्र के रूप में गोलबन्द किया जाना है।