Category Archives: फ़ासीवाद

हिन्दुत्व की नयी प्रयोगशाला : उड़ीसा

सच्चाई तो यह है कि ग़रीबी के कारण ही अधिकांश धर्मांतरित लोग ईसाइयत की तरफ़ आकर्षित हुए हैं । लेकिन सबसे बड़ी समस्या हिन्दुत्व की लहर पर सवार होकर सत्ता पाने की इच्छुक साम्प्रदायिक फासीवादी भगवा ब्रिगेड है । सच्चाई यह है कि वोटों का खेल करीब आ रहा है और अपनी गोटियाँ लाल करने की ख़ातिर एक बार फिर कफनखसोट–मुर्दाखोर चुनावी पार्टियाँ ग़रीबों की लाशों पर रोटियाँ सेंकने से बाज़ नहीं आएँगी । यही उड़ीसा में हो रहा है । हमें इसकी सच्चाई को समझने की ज़रूरत है ।

बजरंग दल : हिन्दु आतंकवाद

चाहे दिसम्बर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस का मामला हो या 2002 में गुजरात काण्ड हो या अभी उड़ीसा के कंधमाल की घटना हो सभी जगहों पर पूरे योजनाबद्ध तरीके से बजरंगदलियों ने अपनी नपुंसक मर्दानगी का नंगा नाच किया । यही नहीं इन मानवद्रोही घटनाओं को अंजाम देने में राज्य सरकारें पूरा सहयोग देती दिखायी दीं । 2002 में गुजरात काण्ड इसका जीता जागता नमूना है । इस घृणित योजना को अमली जामा पहनाने में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का मुख्य योगदान था । तहलका काण्ड के माध्यम से लोगों को यह भी पता चला कि इनका आनुषंगिक संगठन भाजपा भी इन नृशंस जनसंहारों में अपनी पूरी भूमिका निभा रहा है ।

संघ परिवार शाखाओं में बूढ़ो के बचे रह जाने पर चिन्तित!

अखबार में छपी एक ख़बर के मुताबिक, पिछले कुछ वर्षों में संघ परिवार की शाखाओं की संख्या 60 हज़ार से घटकर 20 हज़ार के करीब रह गयी है। पहले हर जगह संघ की दो शाखाएँ लगा करती थीं-तरुण और प्रौढ़। शाखाओं में युवा वर्ग की अरूचि के चलते दोनों वर्ग की शाखाओं को मिला दिया गया है! इसके बावजूद, एक तिहाई शाखाएँ बंद हो गयी हैं।

राजस्थान और मध्य प्रदेश:‘हिन्दुत्व’ की नयी प्रयोगशालाएँ

गुज़रात के बाद राजस्थान और मध्यप्रदेश के रूप में इन दो नयी प्रयोगशालाओं में का लगातार आगे बढ़ता प्रयोग सभी प्रगतिशील, जनवादी और धर्मनिरपेक्ष लोगों के सामने गम्भीर चुनौती के रूप में खड़ा है। साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताकतों के मंसूबों को अगर चकनाचूर करना है तो देशभर में अपनी गोलबन्दी तेज़ करनी होगी। बहादुर, इंसाफ़पसन्द और प्रगतिचेता युवाओं को अँधेरे की इन काली ताक़तों के खिलाफ़ आने वाले दिनों में सड़कों पर मोर्चा लेने के लिए कटिबद्ध हो जाना होगा।

रामसेतु: किसके हेतु??

यहाँ प्रश्न यह है कि भारतीय जनमानस में तर्कपरकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रति आग्रह इतना कम क्यों है? इसके कई कारण हैं। एक प्रमुख कारण रहा है कि भारतीय समाज का विकास क्रमिक रहा है, यह क्रान्तियों से होकर नहीं गुज़रा। समाज हमेशा गतिमान रहता है, लेकिन क्रान्ति सामाजिक चेतना को एक स्तर से दूसरे तक छलाँग लगाने में मदद करती है। यह छलाँग पूर्व की प्रवृत्तियों से निर्णायक विच्छेद करने में मदद करती है। जब यूरोप प्रबोधन की रोशनी में नहा रहा था उस समय हमारा देश औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के तहत आकर अपने स्वाभाविक विकास की गति को खो रहा था। भारत में धार्मिक सुधार आन्दोलनों में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के लिए नये उदीयमान वर्गों का दावा दिखना अभी भ्रूण रूप में शुरू ही हुआ था कि अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद ने भारत को उपनिवेश बना लिया। भारत में भी स्वाभाविक विकास होने की सूरत में निश्चित रूप से ऐसे आन्दोलन शुरू हो सकते थे जो तर्कपरकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को जनमानस में स्थापित करते और उसे अन्धविश्वास, ढकोसलों, पाखण्ड और अवैज्ञानिकता से मुक्त करते।

आदर प्रकट करने के लिए कानून बनाने के राजनाथ सिंह के विचार के बारे में कुछ बहके-बहके विचार

तुलसीदास ने मानस में कई जगह लिखा है कि रावण अपने दसों सिरों से बोल उठा या दसों मुँह से ठठाकर हँस पड़ा। रावण ज़्यादातर अपने एक मुँह का इस्तेमाल करता था और जब दसों मुँहों से बोलता भी था तो एक ही बात। पर भाजपा एक ऐसे रावण जैसा व्यवहार करती है जो हमेशा दसों मुँह से दस परस्पर विरोधी बातें करता रहता है।