अमृतानन्दमयी के कुत्तों, आधुनिक धर्मगुरुओं और विघटित-विरूपित मानवीय चेतना वाले उनके भक्तों के बारे में चलते-चलाते कुछ बातें…

कात्यायनी

प्रसिद्ध कवयित्री व राजनीतिक कार्यकर्ता कात्यायनी का यह लेख धार्मिक बाबाओं और ‘अम्माओं’ की पूरी परिघटना के पीछे काम करने वाली सामाजिक और मनोवैज्ञानिक चेतना का विश्लेषण करता है। ‘फासीवाद-विरोधी विशेषांक’ में इस लेख के महत्व को देखने से पाठक चूक नहीं सकते। सभी जानते हैं कि हम जिस फासीवादी उभार को आज देख रहे हैं, उसके लिए ख़ास तौर पर टुटपुँजिया वर्गों में सामाजिक आधार तैयार करने में रामदेव और शहरी मध्यवर्ग में आधार तैयार करने में रविशंकर जैसे बाबाओं की एक अहम भूमिका है। बलात्कारी आसाराम बापू से भाजपा के नेताओं के करीबी सम्बन्ध किससे छिपे हुए हैं? ऐसे में, धार्मिक बाबाओं की परिघटना के पीछे काम करने वाले सामाजिक मनोविज्ञान के विश्लेषण में इस लेख की विशिष्ट प्रासंगिकता है। – सम्पादक

केरल में कोल्लम के निकट ‘अम्मा’ नाम से प्रसिद्ध साध्वी अमृतानन्दमयी के आश्रम में ‘थुम्बन’ और ‘भक्ति’ नाम के दो कुत्ते रहते हैं। इनके बारे में हाल ही में एक समाचार पत्र में पढ़ा।

ये दोनों कुत्ते सूर्योदय के साथ पारम्परिक प्रार्थना में हिस्सा लेकर दिनचर्या शुरू करते हैं, शाकाहारी खाना खाते हैं और प्रवचन स्थल से लेकर शयनकक्ष तक ‘अम्मा’ के साथ लगे रहते हैं। ‘अम्मा’ इनके समर्थन और लगन को लेकर इन्हें प्रायः दूसरों के लिए आदर्श के रूप में प्रस्तुत करती हैं।

Amritandmayi

कुत्ते हज़ारों वर्षों पहले जंगलों से मनुष्य के साथ बाहर आये, मनुष्य की अधीनता स्वीकार की, उसकी चाहतों, निर्देशों और एक हद तक मनोभावों को समझना सीखा। पालतू बनाये जाने वाले सभी कुत्तों में यह गुण होता है, कुछ नस्लों में ज़्यादा, कुछ में कम। एक ही नस्ल के कुत्तों में भी ये गुण कम या ज़्यादा हो सकते हैं। लेकिन ‘श्वान चेतना’ कहीं से भी ‘मानव चेतना’ के निकट नहीं होती। कुत्ते की  चेतना तर्क नहीं करती , वह विश्लेषण-आधारित सार-संकलन नहीं कर सकती। ‘कुत्ता-चेतना’ इन्द्रिय बोध (सेंस परसेप्शन) से अवधारणात्मक ज्ञान (कंसेप्चुअल नॉलेज) तक पहुँचने की ज्ञान-मीमांसीय यात्रा नहीं करती। कुत्ते का ज्ञान केवल इन्द्रियबोधी और अनुभवसंगत होता है पर यह इन्द्रिय बोध या अनुभव संगति भी मनुष्य से सर्वथा अलग होता है। कुत्तों के अन्दर प्रेम, भय, अवसाद, समर्पण, सेवा आदि की जो भावना होती है, वह वस्तुतः ऐसी पशु सुलभ सहज वृत्ति(इंस्टिंक्ट) और ऐसी प्रतिवर्ती सहज क्रिया (रिफ्लेक्स) होती है जो हज़ारों वर्षों से उनकी पीढ़ी-दर-पीढ़ी में संचरित होती हुई उन्नत होती गयी है।

श्वान चेतना के विपरीत मानव चेतना तर्क करती है, विश्लेषण और समाहार करती है। मानव चेतना के पिछड़े और उन्नत स्तरों की गणना नहीं की जा सकती। इसके वैविध्य की व्यापकता को नहीं मापा जा सकता। एक सापेक्षतः उन्नत या औसत दर्ज़े की वैयक्तिक मानव चेतना किसी व्यक्ति के प्रति पूर्णतः समर्पित हो ही नहीं सकती। मनुष्य को बल या भय के ज़रिये दास या पालतू बनाया जा सकता है, स्वेच्छा से वह ऐसा कदापि नहीं कर सकता। यदि कहीं कोई ऐसा करता है तो वह विमानवीकृत मनुष्य है और उसकी चेतना विघटित मानवीय चेतना है। वैसे विघटित व्यक्तित्व भी प्रायः समाजद्रोही आचरण करते हैं; वे दयनीय होने का दिखावा कर सकते हैं,  पर वास्तव में पालतू बहुत कम ही होते हैं। ऐसा विमानवीकरण या व्यक्तित्व का विघटन वर्ग समाज में श्रम-विभाजन, श्रम के वियोजन तथा तज्जनित अलगाव (एलियनेशन) और आत्म-पृथक्करण से पैदा होता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। एक वर्ग समाज में एक आम नागरिक अपने परिवार, स्वजनों-परिजनों, अपने वर्ग और पूरे समाज के हित को जाने-अनजाने, अलग-अलग हदों तक, केन्द्र में रखकर अपना व्यवहार तय करता है। एक उन्नत समाज-चेतस व्यक्ति पूरे समाज और उत्पीड़ितों के हितों को ध्यान में रखकर आचरण करता है, जबकि एक पिछड़ी चेतना का व्यक्ति अपने निजी और पारिवारिक हितों को ही सर्वोपरि स्थान देता है। सामूहिकता में सुरक्षा ढूँढ़ने की सहज मानवीय वृत्ति से प्रेरित आम नागरिक जो साझा वर्ग हित के सामाजिक-आर्थिक यथार्थ और उसकी गतिकी को नहीं समझ पाते, वे प्रायः एक किस्म की मिथ्या चेतना से ग्रस्त होकर जातिगत और धार्मिक गोलबन्दी में शामिल हो जाते हैं। इस मिथ्या चेतना का वस्तुगत आधार हमारे समाज के इतिहास में और एक हद तक वर्तमान में निहित है। जातिगत उत्पीड़न की वर्गीय अन्तर्वस्तु को नहीं समझ पाने के कारण ऐसा होता है। शासक वर्ग न केवल इस मिथ्या समूह-चेतना का लाभ उठाता है, बल्कि इसे बढ़ावा भी देता है।

सार-संक्षेप यह कि अपने सामान्य और विरूपित-दोनों ही रूपों में मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होता है। यह सामाजिकता कुत्तों सहित समूचे पशु जगत में नहीं होती। जो सड़क के कुत्ते होते हैं, वे आत्मरक्षा की सहज वृत्ति से एक झुण्ड में रहते हैं। पर यदि आप डण्डा लेकर उन्हें दौड़ायें तो सभी अपनी जान बचाकर भागेंगे। यदि एक कुत्ते को पीटा जाये तो दूसरे उसे बचाने की चिन्ता से प्रेरित होकर आचरण करते हैं। और जो पालतू कुत्ते होते हैं, उनमें आत्मरक्षा-प्रेरित झुण्ड वृत्ति (समूह वृत्ति) भी नहीं होती। वे अपने अस्तित्व रक्षा के लिए मालिक पर निर्भर होते हैं और बदले में मालिक के प्रति पूर्णतः समर्पित होते हैं।

एक कुत्ता व्यक्ति के प्रति समर्पित हो सकता है। एक बेहद पिछड़ी चेतना का निर्बल-मानस और स्वार्थी इन्सान भी व्यक्ति के प्रति समर्पित हो सकता है। लेकिन एक थोड़ी उन्नत चेतना का व्यक्ति, जो तर्क करता है, वह कुछ सुनिश्चित विचारों (सही या ग़लत) के प्रति समर्पित या प्रतिबद्ध तो हो सकता है, पर व्यक्ति के प्रति कदापि नहीं हो सकता। समान विचार वाले, अपने से उन्नत चेतना वाले व्यक्ति का नेतृत्व या मार्गदर्शन स्वीकार करना एक बात है और किसी व्यक्ति के प्रति आँख मूँदकर समर्पण-भाव रखना एकदम दीगर बात है।

अमृतानन्दमयी उर्फ ‘अम्मा’ कुत्तों के समर्पण और लगन को जब अपने भक्तों के सामने आदर्श के रूप में प्रस्तुत करती हैं, तो उनका आचरण एक धर्मगुरु के हिसाब से एकदम उचित ही प्रतीत होता है। सभी धर्मगुरु अपने भक्तों से यही बताते हैं कि तर्क मत करो, अपने गुरु पर आँख मूँदकर विश्वास करो, उसके कहे पर आँख मूँदकर आचरण करो, गुरु के आचरण पर प्रश्न मत उठाओ, वह तुम्हारी समझ से परे है। अपने तर्क और विवेक को ओवरकोट और छाते की तरह धर्मगुरु के आश्रम के बाहर ही रख देना होता है। बिडाडी आश्रम का स्वामी परमहंस नित्यानन्द (वही जिसका एक फिल्म अभिनेत्री के साथ कथित सेक्स टेप काफ़ी चर्चा में आया था और जो कुछ दिनों तक जेल की हवा भी खा चुका था, पर अब फिर पूर्ववत अपने आश्रम में भक्तपूजित प्रतिष्ठापित है) अपने भक्तों से प्रायः कहा करता है कि अपने दिमाग़ का इस्तेमाल मत करो, यह बन्दर है जो तुम्हें ग़लत रास्ते पर ले जाता है। वह प्रवचनों के दौरान अक्सर एक कहानी सुनाया करता हैः एक प्रोफेसर एक ज़ेन मास्टर के पास गया। ज़ेन मास्टर जब प्रोफेसर के कप में चाय ढाल रहा था, प्रोफेसर उस दौरान ज़ेन मास्टर से कुछ इधर-उधर की बातें कर रहा था। जब कप भर जाने के बाद भी मास्टर चाय उड़ेलता रहा तो प्रोफेसर बोल पड़ा, ‘यह भर गया है, इसमें और नहीं आ सकता।’ ज़ेन मास्टर बोला, ‘तुम्हारी भी यही स्थिति है। पहले तुम अपना कप (यानी दिमाग़) ख़ाली करो तो मैं तुम्हें जेन के बारे में कुछ ज्ञान दे सकूँगा।’

सिर्फ नित्यानन्द ही नहीं, सभी ‘गॉडमेन’ या धर्मगुरु पहली बात जो ज़ोर देकर कहते हैं वह यही होता हैः तर्क मत करो, विश्वास करो, अपने गुरु पर पूर्ण आस्था रखो। भक्त का मस्तिष्क-प्रक्षालन करके उसे विवेकहीन, पशुवत् उन्मादी आज्ञाचारी बनाने की क्रिया एक सम्मोहनकारी, व्यवस्थित, चरणबद्ध अनुष्ठान के समान होती है जिसमें प्रवचनों के ज़रिये एक बन्द तर्क-प्रणाली को स्थापित करने (जिसमें तर्क किया नहीं जाता, गुरू एकतरफ़ा ढंग से कुछ आभासी तार्किक विचार रखता है, जिसे अनुभव और कुशलता से चयनित तथ्यों द्वारा पुष्ट किया जाता है) के साथ ही आदिम जादुई टोटकों से मिलते-जुलते कुछ अनुष्ठान किये जाते हैं, ध्यान, योगाभ्यास के नाम पर कुछ शारीरिक-मानसिक व्यायाम कराये जाते हैं, जिनके आंशिक प्रत्यक्ष प्रभाव और आंशिक मिथ्याभास से गुरु के निर्देशों पर विश्वास गहराता जाता है। कुछ गुरु जादूगरों और ज्योतिषियों के सस्ते हथकण्डों का इस्तेमाल करके चमत्कार के प्रति विश्वास पैदा करते हैं और भक्त को विवेकशून्य बनाने का काम करते हैं। इस प्रकार एक मिथ्या चेतना का निर्माण किया जाता है। ये धर्मगुरु सुव्यवस्थित तरीके से अपने अनुयायियों में असहायता और अशक्तता का अहसास पैदा करते हैं। उनके खास लोगों का गिरोह भक्तों पर नज़दीकी से नज़र रखता है और उनके समर्पण की मज़बूती को निरखता-परखता रहता है। पूर्ण समर्पण को बढ़ावा देने के लिए पुरस्कार और दण्ड का भी विधान किया जाता है और कुछ भक्तों को ‘मॉडल’ के रूप में या गुरू के विशेष कृपापात्र के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। सत्संगों में जो भारी आबादी शामिल होती है, वह गुरू लोगों के व्यापक सामाजिक आधार का काम करती है। इन्हीं में से कुछ नियमित भक्त आश्रमों में समय बिताने आने लगते हैं। आश्रमों के पूरे माहौल को अपने ख़ास लोगों के ज़रिये गुरू नियन्त्रित करते हैं, यहाँ तक कि आश्रमवासियों की पूरी दिनचर्या और समय पर भी पूरा नियन्त्रण रखा जाता है। इस तरह शिष्यों का क़दम-दर-क़दम मानसिक अनुकूलन किया जाता है, जिससे वे पूरी तरह अनजान रहते हैं। शंकालु या किंचित तर्कशील लोगों से गुरू यह भी कहते हैं कि उनके कहे पर आँख मूँदकर भरोसा न करें। ऐसे लोगों को जब लगने लगता है कि अपनी बातों पर सहमति के लिए बल नहीं दे रहा है तो वे और अधिक ग्रहणशील हो जाते हैं।

इस तरह सम्मोहन जैसी अवस्था में पहुँचे हुए, मिथ्या चेतना से लैस शिष्य गुरू को एक महान, शक्तिशाली, प्रबुद्ध, विवेकशील ‘सेल्फ-ऑब्जेक्ट’ के रूप में देखने लगता है। वह सोचता है कि गुरू की शक्ति और महानता में भागीदार बनने के नाते ये चीज़ें उसमें भी संचरित हो रही हैं। ऐसे भक्त के लिए फिर सही और ग़लत का कोई मतलब नहीं रह जाता। गुरू का चाहे जो भी घिनौना कुकृत्य सामने आये, वह एक स्वामिभक्त कुत्ते की तरह आक्रामकता से गुरू की हिफ़ाज़त करता है। मामला चाहे जो भी हो, वह इस सोच से संचालित होता है कि वह उसकी हिफ़ाज़त कर रहा है जो उसकी हिफ़ाज़त करता है। यहीं आकर कह सकते हैं कि एक पक्के गुरूभक्त की चेतना औसत मानव चेतना की सामाजिकता और तार्किकता को खोकर श्वान-चेतना जैसी हो जाती है। गुरू की हिफ़ाज़त में वह वफ़ादार कुत्ते जैसा व्यवहार करने लगता है (इसीलिए अमृतानन्दमयी द्वारा अपने कुत्तों के आचरण को भक्तों के लिए अनुकरणीय बताना उचित ही है)।

आसाराम और नारायण साईं के मामले में यही हो रहा है। बलात्कार, हत्या और ज़मीन कब्ज़ाने के चाहे जितने मामले सामने आयें, उनके बहुतेरे भक्तों को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। उनके लिए वे फिर भी अवतारी पुरुष बने रहेंगे। नागपुर में और टेक्सास स्थित आश्रम में अपहरण और बलात्कार जैसे आरोप लगने के बाद भी कृपालु महाराज और प्रकाशानन्द के धन्धे पर कोई असर नहीं पड़ा (इन मामलों में गवाहों के मुकर जाने से वे बरी हो गये थे)। दुनिया भर में अपने मिशन की 1000 शाखाओं वाले नित्यानन्द का एक अभिनेत्री के साथ सेक्स टेप सामने आया, कुछ समय तक जेल में भी रहा। पर बंगलुरु से 30 कि.मी. दूर बिडाडी स्थित उसके आश्रम में आज भी भक्तों की भीड़ देखते बनती है। कांची मठ के शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती मठ-संचालित मन्दिरों में से एक के प्रबन्धक की हत्या के आरोप में 2004 में गिरफ़्तार हुए, पर उनकी पूजनीयता में कोई कमी नहीं आयी। डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम पर पर महिला शिष्यों के साथ यौन दुर्व्यवहार, बलात्कार, हत्या करवाने जैसे कई आरोप लगे, पर उसकी व्यापक लोकप्रियता में कोई गिरावट नहीं आयी। पी.वी. नरसिंह राव और चन्द्रशेखर जैसे बुर्जुआ राजनीतिज्ञों के करीबी रह चुके तान्त्रिक चन्द्रास्वामी पर हथियार व्यापारी अदनान खशोगी से सम्बन्ध होने और राजीव गाँधी की हत्या में हाथ होने जैसे कई आरोप लगे, पर उसका रहस्यमय आभामण्डल अभी भी का़यम है। ऐसा भी होता है कि कुछ आध्यात्मिक गुरुओं के सितारे एकदम गर्दिश में चले जाते हैं। जैसे, त्रिची साईं बाबा नाम से प्रसिद्ध प्रेमानन्द को हत्या और कई ब्लात्कारों सहित अनेक आरोपों में 1997 में आजीवन कारावास की सज़ा हुई और जेल में ही 2011 में उसकी मौत हो गयी। इच्छाधारी सन्त भीमानन्द सेक्स रैकेट चलाते हुए पकड़ा गया और फिलहाल जेल में है। स्वामी सदाचारी इन्दिरा गाँधी सहित कई शीर्ष बुर्जुआ नेताओं का सलाहकार हुआ करता था। 2005 में वेश्याओं का अड्डा चलाते हुए वह पकड़ा गया और जेल जाने के बाद उसके सितारे गर्दिश में चले गये। लेकिन कुछ गुरुओं के पराभव से ‘गॉडमेन’-परिघटना पर कोई असर नहीं पड़ता है। कुछ गुरुओं का यदि पतन होता है तो वैसे ही कुछ नये गुरू पैदा हो जाते हैं। इस परिघटना का मूल कारण सामाजिक संरचना की बनावट-बुनावट में अन्तर्निहित है। तर्कशीलता और वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि का प्रचार-प्रसार एक प्रगतिशील कार्य है, लेकिन महज़ इतने से ही गुरुओं के धर्म-धन्धे और धार्मिक अन्धविश्वासों का ख़ात्मा नहीं किया जा सकता। जो सामाजिक-आर्थिक संरचना इन्हें पैदा करती है, उसे समझे बिना और उसे बदले बिना जनसमुदाय धर्म और धर्मगुरुओं की मानसिक गुलामी से पूरी तरह छुटकारा नहीं पा सकता।

पूँजीवादी समाज में धर्म विविध रूपों में एक व्यापार है (चाहे वह चढ़ावे की अकूत धनराशि से धर्मोद्धार ट्रस्ट-सोसायटी बनाकर, टैक्स बचाकर, स्कूल, कॉलेज, धर्मशाला, अस्पताल, रिसॉर्ट आदि चलाना हो, धार्मिक चैनल चलाना हो, बेशुमार भूसम्पत्ति इकठ्ठी करनी हो, या फिर पूँजीपतियों को काले को सफेद बनाने की सुविधा मुहैया करानी हो)। यह भी सही है कि पूँजीवादी राज्यसत्ता पूँजी के वर्चस्व को बनाये रखने के लिये जनता में धार्मिक अन्धविश्वासों, भाग्यवाद, धार्मिक भेदभावों आदि को सचेतन तौर पर बढ़ावा देती है। पर बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली अपनी स्वतःस्फूर्त आन्तरिक गति से धार्मिक विश्वास के पुराने रूपों का पोषण करती है और नये-नये आधुनिक रूपों को जन्म देती रहती है। माल उत्पादन और अधिशेष-विनियोजन की मूल गतिकी जनता की नज़रों से ओझल रहती है और अपने जीवन की तमाम आपदाओं का कारक उसके लिए अदृश्य बना रहता है। इसी अदृश्यता का विरूपित परावर्तन सामाजिक मानस में अलौकिक शक्तियों की अदृश्यता के रूप में होता है। इसी से धार्मिक चेतना नित्य प्रति पैदा होती रहती है और आम लोग अलौकिक शक्तियों और उनके एजेण्टों (धर्मगुरुओं) के शरणागत होते रहते हैं। ये अलग-अलग धर्मगुरु अलग-अलग बीमा कम्पनियों के एजेण्ट के समान होते हैं जो तरह-तरह के प्रॉडक्ट ज़्यादा से ज़्यादा आकर्षक बनाकर उपभोक्ताओं को बेचते रहते हैं। पूँजीवादी समाज में धर्म के सामाजिक आधार को सारगर्भित-संक्षिप्त रूप में समझाने के लिए लेनिन के प्रसिद्ध लेख ‘धर्म के प्रति मज़दूर वर्ग की पार्टी का दृष्टिकोण’ से एक उद्धरण देना काफ़ी होगाः

“आधुनिक पूँजीवादी देशों में धर्म की जड़ें मुख्यतया सामाजिक हैं। आज धर्म की सबसे गहरी जड़ का कारण मेहनतकश जनता की सामाजिक रूप से पददलित स्थिति तथा पूँजीवाद की उन अन्धी शक्तियों के सामने प्रत्यक्ष दिखने वाली उसकी पूर्ण असहायावस्था है, जो हर रोज़ और हर घण्टा उसे सर्वाधिक भयंकर यातनाओं तथा बर्बर उत्पीड़न की चक्की में पीसती रहती है। ये यातनाएँ और यन्त्रणाएँ उन यातनाओं और यन्त्रणाओं से भी हज़ार गुना अधिक कठोर होती हैं, जो युद्धों, भूचालों आदि जैसी असाधारण घटनाओं के कारण उसे भोगनी पड़ती है। “देवताओं का जन्म भय से हुआ है।” पूँजी की अन्धी शक्ति के भय से-यह शक्ति अन्धी इसलिए होती है कि जनता उसे पहले से नहीं देख-जान सकती। यह शक्ति ऐसी है जो सर्वहारा वर्ग और छोटे मालिकों की ज़िन्दगी के हर क़दम पर न केवल ‘अचानक’, ‘अप्रत्याशित’, ‘आकस्मिक’, तबाही, विध्वंस, दरिद्रता, वेश्यावृत्ति, भुखमरी से मौत के भय से उन्हें आक्रान्त रखती है, बल्कि इन मुसीबतों के पहाड़ों को उनके ऊपर ढाती भी रहती है-यह है आधुनिक धर्म की जड़ जिसे भौतिकवादी को यदि वह ‘दूध पीता’ भौतिकवादी नहीं बने रहना चाहता-सबसे पहले और सर्वप्रमुख रूप से ध्यान में रखना चाहिए। इन जन समुदायों के मस्तिष्कों से, जो पूँजीवादी कठोर श्रम के मार से कुचले हुए हैं और जो पूँजीवाद की अन्धी विनाशकारी शक्तियों की ‘दयादृष्टि’ पर आश्रित रहते हैं, शिक्षा की कोई भी पुस्तक धर्म को नहीं निकाल सकती जबतक कि ये जनसमुदाय स्वयं धर्म की इस जड़ से लड़ना नहीं सीख लेते, जबतक कि सर्वथा एकताबद्ध, संगठित, सुनियोजित तथा सचेत ढंग से वे पूँजी के शासन के सभी रूपों के विरुद्ध संघर्ष करना नहीं सीख लेते।”

इसका अर्थ क्या यह होता है कि धर्म के विरुद्ध लिखी गयी शैक्षणिक पुस्तकें हानिकर अथवा अनावश्यक हैं? नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। इसका अर्थ यह है कि क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट प्रचार के नास्तिकतावादी प्रचार को उसके बुनियादी कर्त्तव्य के – शोषकों के विरुद्ध शोषित जनसमुदायों के वर्ग संघर्ष को विकसित करने के बुनियादी कर्त्तव्य के – अधीन होना चाहिए।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्‍बर-दिसम्‍बर 2013

 

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