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सोशल नेटवर्किंग का विस्तार

मध्यवर्ग से आने वाले 50 फ़ीसदी सोशल नेटवर्किंग यूज़र 24 साल से कम उम्र के हैं और सामान्य रूप से इनकी राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक जानकारी का स्रोत सोशल नेटवर्किग या टीवी है। यह वर्ग बिना कोई ख़ास सोचने का प्रयास किये सभी सूचनाओं को कचरा-पेटी की तरह ग्रहण कर लेता है। जो काम किताबों और संजीदा लेखों के माध्यम से होना चाहिए उसकी जगह इन साइटों पर एक-दो लाइनों की टिप्पणियों ने ले ली है, जोकि आजकल की नयी ‘जेन-जी’ (नवयुवा) पीढ़ी के “ज्ञान” और सूचनाओं का स्रोत माना जा रहा है। एक या दो लाइनों की टिप्पणियों से कोई व्यक्ति अपने व्यावहारिक अनुभव और वर्गीय विश्व-दृष्टि के अनुरूप अनुभवसंगत रूप से सहमत या असहमत तो हो सकता है, लेकिन अपने विचारों का कोई विश्लेषण प्रस्तुत नहीं कर सकता। साथ ही इन छोटी-छोटी टिप्पणियों के माध्यम से किसी को सोचने के लिए मजबूर भी नहीं किया जा सकता, न ही आलोचनात्मक विवेक पैदा किया जा सकता है। पूँजीवादी मीडिया द्वारा किया जाने वाला तथ्यों का चुनाव और सूचनाओं का प्रस्तुतीकरण भी पूँजीवादी वर्ग हित से मुक्त नहीं हो सकता, इसलिए ज़्यादातर सूचनाएँ भी समाज के यथार्थ को सही ढंग से प्रस्तुत नहीं करतीं। ऐसे में निश्चित है कि सोशल नेटवर्किंग पर मौजूद कई समूहों से आम लोगों को जो सूचनाएँ मिलती हैं, वे समाज को देखने के उनके छिछले और अवैज्ञानिक नज़रिये का निर्माण करने में एक अहम भूमिका निभा रही हैं।

क्यों ज़रूरी है रूढ़िवादी कर्मकाण्डों और अन्धविश्वासी मान्यताओं के विरुद्ध समझौताहीन संघर्ष?

ग़ौर करने वाली बात यह है कि पूरी दुनिया के हर धर्म में जो रूढ़िवादी परम्पराएँ प्रचिलित हैं उनमें से ज़्यादातर असमानता को सही ठहराती हैं। यही कारण है कि शासक वर्ग शोषित उत्पीड़ित जनता को गुमराह करने के लिए इन कर्मकाण्डों और रूढ़ियों का प्रचार करते हैं। टीवी में, अखबारों में और पत्रिकाओं में इन मूर्खताओं के लिए चलाए जा रहे कई कूपमण्डूक विज्ञापन देखे जा सकते हैं, और साथ ही धर्म गुरुओं के आश्रम भी इन्हीं रूढ़ियों के प्रचार के अड्डे बने हुए हैं जो लोगों को गुमराह करके करोड़ों का धन्धा चला रहे हैं। इन परिस्थितियों में धार्मिक कर्मकाण्डों को मानना और पण्डे-पुजारियों (या मुल्ला-मौलवियों) तथा पितृसत्तात्मक मूल्यों को बढ़ावा देना समाज-विरोधी, प्रगति-विरोधी काम है, जिसे हर व्यक्ति को सचेतन रूप से समझना चाहिए और इनके विरुद्ध वैचारिक रूप से तथा व्यवहारिक रूप में प्रचार करना चाहिए।

पूँजीवादी न्याय और मानवता के प्रचार का झूठा, अधूरा और वर्ग-केन्द्रित चरित्र

पूँजीपति वर्ग के ये ‘‘न्‍याय” के प्रचारक सिर्फ उसी सीमा तक न्याय, मानवता और भावनाओं की बातों का समर्थन और प्रचार करते हैं जहाँ तक शासक वर्ग का और ख़ुद उनका असली चेहरा उजागर न हो। पूरा पूँजीवादी प्रचारतन्‍त्र अपने प्रचार माध्यमों से कुछ मध्यवर्गीय घटनाओं की आड़ लेकर ग़रीब मेहनतकश जनता पर हर दिन, हर समय और हर जगह हो रहे अनेक पूँजीवादी अत्याचारों से लोगों का ध्यान भटकाने, बहुसंख्यक आबादी की सभी समस्याओं को लेकर उठने वाली माँगों को दबाने और सच को लगातार पर्दे के पीछे ढकेलने के साथ लोगों की सामाजिक भावनाओं, मानवीय आदर्शों और जनवादी मूल्यों को वर्ग सीमाओं में संकुचित करने का कार्य करता है।