सिरिज़ा की विजय पर क्रान्तिकारी ताक़तों को ख़ुश क्यों नहीं होना चाहिए

अन्तरा घोष

Greece Electionsयूनान के हालिया चुनावों में सिरिज़ा की जीत और फिर दक्षिणपन्थी पार्टी अनेल के साथ गठजोड़ बनाकर बनी उसकी सरकार पर पराजयबोध और निराशा के गर्त में पड़े वामपन्थियों में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी थी। लेकिन सरकार के कुछ सप्ताह पूरे होते ही सिरिज़ा की राजनीति की कलई खुलने लगी है। यूरोपियन संघ से हाल ही में सिरिज़ा की सरकार की वार्ता हुई। इस वार्ता में हुए समझौतों में सिरिज़ा सरकार ने उन तमाम वायदों पर अमल नहीं किया जिन पर कि उसने चुनाव से पहले वायदा किया था। हमने पहले भी सिरिज़ा की राजनीति का एक आलोचनात्मक विश्लेषण पेश किया था। लेकिन जब तक सिरिज़ा की सरकार नहीं बनती तब तक उस विश्लेषण का सत्यापन सम्भव नहीं था। अब जब कि सिरिज़ा की सरकार बन चुकी है, तो हम उसके कार्यकलाप के आधार पर यह काम कर सकते हैं।

सिरिज़ा सरकार ने हाल ही में यूरोपीय संघ के साथ हुए समझौते में जर्मनी के नवउदारवादी एजेण्डे के सामने एक प्रकार से घुटने टेक दिये हैं। इस समझौते में उस पुराने मेमोरैण्डम और ‘एप्लीकेशन’ क़ानूनों को जारी रखने पर सिरिज़ा सरकार ने सहमति जतायी है जिसके कारण यूनानी जनता को बेरोज़़गारी, महँगाई और ग़रीबी का सामना करना पड़ रहा था। साथ ही, सिरिज़ा ने चुनावों से पहले यूरोपीय संघ के समक्ष जिस प्रकार का रवैया रखने का एलान किया था, वह सरकार बनाने के बाद उससे एकदम ही मुकर गयी है। सिरिज़ा ने वायदा किया था कि सरकार बनाने के बाद वह एक ऐसे क़ानून का मसौदा पेश करेगी जो कि पुराने मेमोरैण्डम और विशिष्ट ‘एप्लीकेशन’ क़ानूनों को रद्द कर देगा। लेकिन ऐसा करने की बजाय, सिरिज़ा सरकार ने यूरोपीय संघ के समक्ष घुटने टेकते हुए पुराने मेमोरैण्डम और विशिष्ट क़ानूनों को जारी रखने पर रज़ामन्दी जता दी। इस प्रकार सिरिज़ा ने पुरानी सरकारों की नीति को ही जारी रखा है और अगर उनके गर्मा-गर्म जुमलों की बात छोड़ दें तो उनकी राजनीतिक कार्यदिशा में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं दिखता। हालाँकि अभी सिरिज़ा सरकार ने इन पुराने इन्तज़ामों को चार महीने तक बढ़ाने की सहमति दी है। लेकिन मुद्दे की बात यह है कि ये चार महीने ही निर्णायक सिद्ध होंगे और दूसरी बात यह है कि उन चार महीनों के बाद भी किसी नये जन-विरोधी समझौते की ही उम्मीद की जा रही है। सिरिज़ा ने वास्तव में ऋण समझौते को जारी रखने की बात की है, न कि मेमोरैण्डम को। लेकिन सभी को पता है कि ऋण समझौते को जारी रखना वास्तव में मेमोरैण्डम को ही जारी रखना है। पिछली यूनानी संसद में सिरिज़ा के नेता एलेक्सिस सिप्रास ने विपक्ष में बैठकर यही बात कही थी। लेकिन सरकार में आते ही उनकी भाषा और रवैया दोनों ही इस मसले पर बदल गया है।

syriza_tsipras_ap_imgयूरोपीय संघ के साथ नये समझौते में ऋण प्रबन्ध को जारी रखने का अर्थ यह है कि यूनान को जून में आर्थिक सहायता की नयी खेप प्राप्त करने के लिए नये विशिष्ट जनविरोधी क़ानून बनाने होंगे। इस तरह न सिर्फ़ यूनानी मेहनतकश जनता को यूरोपीय संघ की आर्थिक वर्चस्व से मुक्ति नहीं मिलेगी, बल्कि उन्हें वह जूठन भी नहीं मिलेगी जिसका वायदा सिरिज़ा ने सरकार बनाने से पहले किया था। अब सिरिज़ा सरकार कह रही है कि वह छोटे-मोटे सुधारों को भी तभी लागू करेगी जब ऋणदाता और देश की वित्तीय स्थिति इस बात की इजाज़त देगी! जो सिरिज़ा यूरोपीय आयोग, यूरोपीय केन्द्रीय बैंक और आईएमएफ़ को पहले साम्राज्यवादी ‘त्रेइका’ कह रही थी, वह अब उसे ‘तीन संस्थाएँ’ कह रही है, मानो कि अब वह यूरोपीय आयोग, यूरोपीय केन्द्रीय बैंक व आईएमएफ़ की बजाय किसी और चीज़़़ की बात कर रहे हों। सिरिज़ा द्वारा यूरोपीय संघ के साथ किया गया नया समझौता पहले की सरकारों द्वारा किये गये समझौतों के समान पूँजीपतियों के मुनाफ़े की रक्षा करता है, साम्राज्यवादी आर्थिक संकट का बोझ मज़दूरों पर डालता है। लेकिन सिरिज़ा ने इस समझौते का एक ऐसे समझौते के रूप में प्रचार करने का काफ़ी प्रयास किया है जिसमें यूनानी जनता को फ़ायदा होगा! लेकिन यह प्रचार असरदार साबित नहीं हुआ है। यही कारण है कि 27 फ़रवरी को इस समझौते के ख़िलाफ़ यूनानी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा रखे गये विरोध प्रदर्शन में हज़ारों लोगों ने हिस्सा लिया।

सिरिज़ा ने ऋण प्रबन्ध को और इस प्रकार पुराने मेमोरैण्डम को जारी रखते हुए न्यू डेमोक्रेसी और पासोक की सरकारों की नीति को ही जारी रखा है। ये वही नीतियाँ हैं जिन्होंने पिछले कुछ वर्षों में यूनानी जनता पर कहर बरपा किया है और वित्तीय पूँजी के लाभ को बचाये रखा है। यूनानी सरकार को यूरोज़़ोन में रहते हुए अप्रैल के अन्त तक करीब 2 बिलियन यूरो का भुगतान करना है। वैसे तो सिरिज़ा सरकार ने पहले यह दावा किया था कि वह प्रगतिशील कराधान के ज़रिये और पुराने देय करों की प्राप्ति के ज़रिये 7 बिलियन यूरो तक जुटा सकती है। लेकिन चुनावों के बाद से कारपोरेट और धनी वर्गों से आने वाले करों में भारी गिरावट आयी है और वह उम्मीद का केवल 20 प्रतिशत ही हो पाया है। सरकार के प्राथमिक अधिशेष में 2014 में कमी आयी थी। यूरोपीय संघ ने समझौते में 3 प्रतिशत के प्राथमिक अधिशेष की शर्त को कम करके 1.5 प्रतिशत कर दिया है। लेकिन स्पष्ट है कि इससे होने वाली बचत को यूनानी सरकार क़र्ज़ों की किश्तें चुकाने पर ख़र्च करेगी न कि मेहनतकश जनता की न्यूनतम मज़दूरी और पेंशन को बढ़ाने में। यूनानी सरकार को मार्च और अप्रैल में 4.4 बिलियन यूरो और 2.4 बिलियन यूरो का क़र्ज़ चुकाना है और उसे यूरोपीय संघ से जून तक कोई मदद नहीं मिलने वाली है क्योंकि नये समझौते में यूरोपीय संघ ने साफ़ कर दिया है कि पहले वह यह देखेगा कि सिरिज़ा सरकार किफ़ायतसारी की पुरानी नीतियों को जारी रखती है, न्यूनतम मज़दूरी में कटौती करती है, पेंशन को पुनर्स्थापित करने या बढ़ाने से इंकार करती है, या नहीं। यानी कि यूरोपीय संघ अगली मदद देने से पहले यह सुनिश्चित करेगा कि सिरिज़ा की सरकार साम्राज्यवादियों के आर्थिक संकट के बोझ को मेहनतकश जनता पर डालना जारी रखती है! और सिरिज़ा ने इन शर्तों पर सहमति जतायी है। लेकिन इसके बावजूद संकट ख़त्म नहीं होता और इस बात की पूरी गुंजाइश है कि यूनानी सरकार आईएमएफ़ के क़र्ज़ों को समय पर देने में अक्षम साबित हो। वित्त मन्त्री वारोफाकिस ने स्पष्ट शब्दों में माना है कि ऐसी सम्भावना है। इसका एक कारण यह भी है कि सिरिज़ा सरकार ने कारपोरेट कर को और उच्च मध्यवर्ग और धनी वर्ग पर कर को न बढ़ाने का वायदा किया है। साथ ही उसने सबसे प्रतिक्रियावादी कर, यानी कि वैट को बढ़ाने की आईएमएफ़ की माँग को स्वीकार करने का रुख़ भी दिखलाया है, जिसका पूरा बोझ आम जनता पर पड़ने वाला है।

ऐसे में सिरिज़ा सरकार के पास क़र्ज़ों को चुकाने का एक ही रास्ता बचता है और वह है निजीकरण। और यह प्रक्रिया शुरू करते हुए सिरिज़ा ने निजीकरण के लिए विचाराधीन पब्लिक सेक्टर क्षेत्रों के निजीकरण को हरी झण्डी दिखला दी है। और निजीकरण भी ऐसा कि जिसमें यूनान की अर्थव्यवस्था के रणनीतिक क्षेत्र, जैसे कि एयरपोर्ट, पिरेयस पोर्ट, आदि पर निजी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का क़ब्ज़ा हो जायेगा। इन निजीकरणों में सरकार 50 प्रतिशत से ज़्यादा शेयरों को कारपोरेट घरानों के हवाले कर रही है। इन नीतियों का अर्थ है कि उन नीतियों को जारी रखना जिसके तहत ‘त्रेइका’ ने पुरानी यूनानी सरकारों को पिछले छह वर्षों में सार्वजनिक ख़र्च में सकल घरेलू उत्पाद के 30 प्रतिशत के बराबर कटौती, सार्वजनिक क्षेत्र की मज़दूरी में 29 प्रतिशत कटौती (जिसे अब जारी रखने पर सिरिज़ा सरकार ने सहमति दे दी है) और सामाजिक सुरक्षा पर होने वाले ख़र्च में 27 प्रतिशत की कटौती करने पर मजबूर किया था। वास्तव में, सिरिज़ा सरकार ने भी यूनानी अर्थव्यवस्था पर त्रेइका के नियन्त्रण को जारी रखना स्वीकार किया है, तथाकथित किफ़ायतसारी की नीतियों को जारी रखना स्वीकार किया है और तब भी इस बात को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है कि यूनानी सरकार आईएमएफ़ के क़र्ज़े वापस कर पायेगी। ऐसे में, यूनान एक बार फिर भयंकर संकट की तरफ़ बढ़ रहा है। इस संकट को तभी टाला जा सकता था जबकि यूनानी सरकार सभी बैंकों व बड़ी कम्पनियों का राष्ट्रीकरण करती, यूनान के भीतर सभी खानों-खदानों को जनता की सामूहिक सम्पत्ति घोषित करती, राजकीय निवेश और रोज़़गार सृजन की आर्थिक योजना को लागू करती और यूरोज़़ोन से रिश्ता तोड़कर अपनी मुद्रा को संस्थापित करती और अपनी अर्थव्यवस्था के लिए मौद्रिक लचीलेपन को सम्भव बनाती ताकि देश के सकल घरेलू उत्पाद का समानतामूलक वितरण हो सके। लेकिन इन सभी क़दमों का अर्थ होता देश के पूँजीपति वर्ग और यूरोपीय साम्राज्यवाद की मुख़ालफ़त; देश के अति-धनी कारपोरेट पूँजीपति वर्ग का सम्पत्ति-हरण, निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और एक समाजवादी नियोजित अर्थव्यवस्था की शुरुआत। निश्चित तौर पर, ये परिवर्तन शान्तिपूर्ण तरीक़े से नहीं होते। देश में आन्तरिक क्रान्तिकारी युद्ध छिड़ता और तीखे, हिंस्र वर्ग संघर्ष के ज़रिये ही इसका फ़ैसला होता। सिरिज़ा की राजनीतिक विचारधारा ही ऐसी है कि वह इस क्रान्तिकारी रास्ते को नहीं अपना सकती। यही कारण है कि वह चार महीने की मोहलत चाहती है, जिसमें कि वह यह उम्मीद करती है कि यूनान के भीतर और यूरोप भर में कल्याणकारी नीतियों के लिए राय बना सकती है और किफ़ायतसारी की नीतियों को समाप्त करने के लिए साम्राज्यवादी शक्तियों को राज़ी कर सकती है। ज़ाहिर है, यह दिवास्वप्न है। इसके पूरा न होने की सूरत में सिरिज़ा सरकार का दक्षिणपन्थ की ओर मुड़ना जारी रहेगा और कुछ समय के बाद ही उसकी आर्थिक नीतियों और यूरोपीय सामाजिक जनवादी पार्टियों की आर्थिक नीतियों में कोई विशेष अन्तर नहीं रह जायेगा। सिरिज़ा की स्थिति आने वाले समय में यूनानी सामाजिक जनवादी पार्टी पासोक जैसी ही हो जाये तो इसमें कोई ताज्जुब नहीं होगा!

ग़ौरतलब है कि न्यू डेमोक्रेसी और पासोक जैसी संशोधनवादी और पूँजीवादी पार्टियों और साथ ही एसईवी (यानी, हेलेनिक फ़ेडरेशन ऑफ़ एण्टरप्राईजेज़) जैसे पूँजीपतियों के मंच ने इस नये समझौते का स्वागत किया है! ज़ाहिर है कि यह बिना वजह नहीं है। वैसे सिरिज़ा ने सरकार बनते वक़्त ही देश के पूँजीपतियों और कारपोरेट घरानों के डर को दूर करते हुए कहा था कि उन्हें सिरिज़ा सरकार से डरने की ज़रूरत नहीं है। सिरिज़ा की राजनीति स्पष्ट तौर पर क्रान्तिकारी परिवर्तन का निषेध करती है। सिप्रास ने एक बार कहा था कि उनकी पार्टी बोल्शेविक विचारधारा को नहीं मानती है और ‘शीत प्रासाद पर धावे’ का युग बीत चुका है। स्पष्ट तौर पर नयी समाजवादी क्रान्तियों में शीत प्रासाद पर धावे जैसी कोई चीज़़़ होगी, इसकी अपेक्षा करना बेकार है। लेकिन सिप्रास का ‘शीत प्रासाद पर धावे’ वाक्यांश का प्रयोग वास्तव में क्रान्तिकारी रास्ते से व्यवस्था-परिवर्तन के लिए एक रूपक था और उनके अनुसार वास्तव में बल प्रयोग से एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग से सत्ता छीनने के प्रयास ही व्यर्थ हैं। चुनाव जीतकर सरकार बनाने के बाद सिरिज़ा सरकार वही कर रही है जो कि उसकी राजनीतिक विचारधारा है– एक नये किस्म की सामाजिक जनवादी विचारधारा, एक किस्म का नवसंशोधनवाद! सामाजिक जनवाद के इस नये अवतरण में बुर्जुआ नारीवाद, अस्मितावाद, एनजीओ-ब्राण्ड ‘सामाजिक आन्दोलन’, तृणमूल जनवाद, भागीदारी जनवाद आदि जैसी विश्व बैंक पोषित अवधारणाओं का छौंका लगाया गया है। इस नये छौंके से इस सामाजिक जनवादी चरित्र प्रतीतिगत तौर पर कुछ धुँधला हो जाता है और इसके जुमले गर्म हो जाते हैं। लेकिन वास्तव में इस नये सामाजिक जनवाद का कार्य वही है जो पुराने सामाजिक जनवाद का था– पूँजीवादी व्यवस्था की आख़िरी सुरक्षा पंक्ति की भूमिका निभाना!

“वामपन्थी” लोकरंजकता और दक्षिणपन्थी लोकरंजकता: एक अतिसंक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन

सिरिज़ा तमाम किस्म और नस्लों के वामपन्थियों, सामाजिक-जनवादियों, सामाजिक आन्दोलन वालों, नारीवादियों, पर्यावरणवादियों के इकट्ठा होने से बनी थी। इसमें तमाम अतिवामपन्थी गुट भी मौजूद थे, हालाँकि उनकी संख्या अब कम होती दिख रही है। सिरिज़ा का पूरा जुमला शुरू से “वामपन्थी” आमूलगामिता से भरा हुआ था। वह पूँजीवाद का विरोध करने का दावा करती थी, नवउदारवाद और साम्राज्यवाद का विरोध करने का दावा करती थी। इसने मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी और सरकार कर्मचारियों की पेंशन बढ़ाने, निजीकरण समाप्त करने, यूरोज़़ोन से रिश्ता तोड़ने और देश से महँगाई और बेरोज़़गारी ख़त्म करने का वायदा किया था।

हमारे देश में जो राजनीतिक और आर्थिक संकट था, उसने एक ‘आम आदमी पार्टी’ को जन्म दिया। इस पार्टी में एनजीओपन्थी, ‘सामाजिक आन्दोलन’ वाले, दक्षिणपन्थी-पुनरुत्थानपन्थी (जो ‘इण्डिया अंगेंस्ट करप्शन’ के अंग थे), लोहियापन्थी समाजवादी, इकट्ठा हुए थे। इसका जुमला शुरू से विचारधारा-विहीन होने का था लेकिन हर अहम मुद्दे पर इसकी अवस्थिति दक्षिणपन्थी थी, या फिर कुछ अहम राजनीतिक मसलों पर यह हमेशा से चुप थी, जैसे कि कश्मीर और उत्तर-पूर्व का मसला, साम्प्रदायिक फ़ासीवाद का मसला (जब इस पर इस पार्टी ने कुछ बोला भी तो इसके वाहकों, यानी कि संघ परिवार को स्पष्ट रूप में चिन्हित नहीं किया और साम्प्रदायिक फ़ासीवाद को एक अवैयक्तिक परिघटना बना दिया, मानो वह हवा में हो!), निजीकरण और श्रम क़ानूनों का मसला। इस पार्टी ने हर समस्या को भ्रष्टाचार पर अपचयित कर दिया और अन्य नग्न हो चुकी पूँजीवादी पार्टियों जैसे कि भाजपा, कांग्रेस के भ्रष्टाचार के प्रति आक्रामक रवैया अख़्ति‍यार किया। इसने चुनावों से पहले बिजली के बिल आधे करने, पानी निशुल्क करने, 20 नये कॉलेज बनाने, 8 लाख नयी नौकरियाँ पैदा करने, 55 हज़ार ख़ाली सरकारी पदों को भरने, 17 हज़ार शिक्षकों को भर्ती करने, सभी झुग्गियों की जगह पक्के मकान देने और ठेका प्रथा ख़त्म करने का (गोलमाल शब्दों में) वायदा किया।

सिरिज़ा की “वामपन्थी” लोकरंजकता और ‘आम आदमी पार्टी’ की दक्षिणपन्थी लोकरंजकता की कलई चुनाव में विजय मिलने के बाद खुलने लगी है। सिरिज़ा सरकार ने क्रान्ति के रास्ते को पहले ही ठुकरा दिया था; बुर्जुआ राज्यसत्ता के ध्वंस के बिना, महज़ चुनावों के रास्ते सरकार बनाकर उन वायदों पर अमल हो ही नहीं सकता है, जो कि सिरिज़ा ने चुनावों से पहले किये थे; मसलन, यूरोपीय संघ से बाहर होना, साम्राज्यवादी क़र्ज़ों को रद्द करना, बैंकों और बड़ी कम्पनियों का राष्ट्रीकरण, न्यूनतम मज़दूरी में बढ़ोत्तरी, नयी सरकारी नौकरियाँ पैदा करना, इत्यादि। सरकार बनाने के लिए धुर दक्षिणपन्थी अनेल पार्टी से समर्थन लेना और उसके बाद वार्ता में यूरोपीय संघ के सामने घुटने टेकने, किफ़ायतसारी की नीतियों को लागू रखने, न्यूनतम मज़दूरी को न बढ़ाने, पेंशन को न बढ़ाने और धुँआधार निजीकरण की छूट देकर सिरिज़ा ने दिखला दिया है कि चुनावों से पहले उसके सारे वायदे और दावे वोटों के लिए थे; उसकी गर्म जुमलेबाज़ी वास्तव में यूनानी जनता के भीतर किफ़ायतसारी की नीतियों के ख़िलाफ़ व्याप्त भयंकर असन्तोष को लाभ उठाने के लिए ज़्यादा थी। चुनावों के बाद सिरिज़ा के इन वायदों के पूरा होने का जनता अभी तक इन्तज़ार ही कर रही हैः किफ़ायतसारी की नीतियों की समाप्ति, मज़दूरी में बढ़ोत्तरी, अर्थव्यवस्था पर से जर्मनी-नीत यूरोपीय संघ की जकड़ का ख़ात्मा, बैंकों और बड़ी कम्पनियों का राष्ट्रीकरण। लेकिन सिरिज़ा ने सरकार बनने के बाद इन वायदों के विपरीत आचरण किया है।

‘आम आदमी पार्टी’ की लोकरंजकता और जुमलेबाज़ी का चरित्र “वामपन्थी” नहीं बल्कि दक्षिणपन्थी है, लेकिन चुनावों के पहले किये गये वायदों और चुनाव जीतने के बाद किये जाने वाले आचरण की बात करें, तो ‘आम आदमी पार्टी’ और सिरिज़ा में कई समानताएँ हैं। ‘आम आदमी पार्टी’ ने जीतने पर बिजली के बिल बिना शर्त आधे करने की घोषणा की थी, लेकिन जीतने के बाद इसने इसमें दो उपशर्तें जोड़ दीं: पहली यह कि सब्सिडी केवल ‘कैग’ के ऑडिट तक जारी रहेगी, और उसके बाद बिलों का ऑडिट के आधार पर निर्धारण होगा (सभी जानते हैं कि ‘कैग’ ने कभी कोई कारपोरेट-विरोधी ऑडिट किया ही नहीं है!) और दूसरी यह कि यह छूट केवल 400 यूनिट तक ही लागू होगी; इसने अपनी 49 दिनों की पहली सरकार के बनने के पहले दिल्ली में नियमित प्रकृति के कार्य से ठेका प्रथा के उन्मूलन का वायदा किया था, लेकिन बाद में उससे साफ़ मुकर गयी थी और इस बार भी ठेका प्रथा को निजी व सार्वजनिक क्षेत्र से समाप्त करने के वायदे पर ‘आम आदमी पार्टी’ चुप है। मज़दूरों और मेहनतकशों के वोटों को हासिल करने के लिए ‘आम आदमी पार्टी’ ने उनसे तमाम वायदे किये और उनके वोट हासिल भी किये। लेकिन सरकार में आते ही उसने व्यापारियों, कारख़ाना-मालिकों और उद्यमियों के लिए फ़ायदेमन्द तमाम क़दम उठाने शुरू कर दिये हैं, जबकि मज़दूरों से किये गये वायदे कोल्ड स्टोरेज में डाल दिये गये हैं। स्पष्ट है कि आम आदमी पार्टी ने लोकरंजक वादे और दावे कर दिल्ली की मेहनतकश जनता का वोट हासिल किया है, लेकिन उसे सेवा पूँजी के हितों की ही करनी है।

आज पूँजीवादी व्यवस्था दुनिया भर में जिस संकट का शिकार है, उसमें “वामपन्थी” और दक्षिणपन्थी, दोनों ही किस्म की लोकरंजकताओं का पैदा होना स्वाभाविक है। लोकरंजकता हमेशा व्यवस्था के विभ्रमों को दीर्घजीवी बनाने का ही काम करती है। एक प्रकार से वह व्यवस्था की एक सुरक्षा-पंक्ति का काम करती है। सिरिज़ा और ‘आप’ जैसी अन्य मायनों में अतुलनीय पार्टियों के उदय के कारण लगभग समान हैं। अभी ऐसे राजनीतिक रुझानों के उभार की ज़रूरत व्यवस्था को है जो कि तीखे होते वर्ग संघर्ष पर पर्दा डाले या फिर उन्हें कुन्द करने का प्रयास करें। ऐसी सभी राजनीतियों की एक ख़ास बात होती है उनका योगात्मक सामाजिक आधार (एग्रीगेटिव सोशल बेस) और उनका योगात्मक एजेण्डा या माँगपत्रक। हम ‘आप’ और सिरिज़ा दोनों के बारे में यह बात कह सकते हैं। वर्ग संघर्ष के तीव्रतर होने में समस्याओं और अन्तरविरोधों का समाधान है और ये राजनीतिक रुझान इसी चीज़़़ को निलम्बित या विलम्बित करना चाहते हैं। “वामपन्थी” और दक्षिणपन्थी लोकरंजकताओं के इन दो अतुलनीय प्रतीत होने वाले उदाहरणों में वस्तुतः कुछ अहम समानताएँ भी हैं।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-अप्रैल 2015

'आह्वान' की सदस्‍यता लें!

 

ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीआर्डर के लिए पताः बी-100, मुकुन्द विहार, करावल नगर, दिल्ली बैंक खाते का विवरणः प्रति – muktikami chhatron ka aahwan Bank of Baroda, Badli New Delhi Saving Account 21360100010629 IFSC Code: BARB0TRDBAD

आर्थिक सहयोग भी करें!

 

दोस्तों, “आह्वान” सारे देश में चल रहे वैकल्पिक मीडिया के प्रयासों की एक कड़ी है। हम सत्ता प्रतिष्ठानों, फ़ण्डिंग एजेंसियों, पूँजीवादी घरानों एवं चुनावी राजनीतिक दलों से किसी भी रूप में आर्थिक सहयोग लेना घोर अनर्थकारी मानते हैं। हमारी दृढ़ मान्यता है कि जनता का वैकल्पिक मीडिया सिर्फ जन संसाधनों के बूते खड़ा किया जाना चाहिए। एक लम्बे समय से बिना किसी किस्म का समझौता किये “आह्वान” सतत प्रचारित-प्रकाशित हो रही है। आपको मालूम हो कि विगत कई अंकों से पत्रिका आर्थिक संकट का सामना कर रही है। ऐसे में “आह्वान” अपने तमाम पाठकों, सहयोगियों से सहयोग की अपेक्षा करती है। हम आप सभी सहयोगियों, शुभचिन्तकों से अपील करते हैं कि वे अपनी ओर से अधिकतम सम्भव आर्थिक सहयोग भेजकर परिवर्तन के इस हथियार को मज़बूती प्रदान करें। सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग करने के लिए नीचे दिये गए Donate बटन पर क्लिक करें।