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मुनाफ़े के मकड़जाल में फँसा विज्ञान

मेडिकल विज्ञान में हुए विकास के कारण मानवता इस पड़ाव पर पहुँच चुकी है कि प्लेग जैसी बीमारी जो किसी समय यूरोप की एक-तिहाई आबादी को ख़त्म कर देती थी, जिसका डर इतना भयंकर था कि भारत में आम लोग इस बीमारी का नाम भी अपने मुँह पर नहीं आने देते थे, अब पूरी तरह मनुष्य के क़ाबू में है। अनेकों डॉक्टरों तथा वैज्ञानिकों की अथक मेहनत ने मानवता को इस मंज़िल तक पहुँचाया है। परन्तु अब एक बार फिर से आदमी के सामने उसी समय में वापिस पहुँचने का ख़तरा खड़ा हो रहा है, जिसका कारण दवाओं का बिना-ज़रूरत तथा ग़ैर-वैज्ञानिक इस्तेमाल है।

शिक्षा में सेमेस्टर प्रणाली – सुशिक्षित गुलाम तैयार करने का नुस्खा

वार्षिक प्रणाली के अधीन विद्यार्थियों के पास आपसी बहस, विचार-चर्चाएँ, सेमीनारों और सांस्कृतिक सरगर्मियों के लिए कुछ-कुछ वक़्त होता था, परन्तु सेमेस्टर प्रणाली ने विद्यार्थियों को अपने ख़ुद के लिए समय से पूरी तरह वंचित कर दिया है। सांस्कृतिक सरगर्मियाँ और सेमीनारों के नाम पर प्रशाशन से “मंजूरशुदा” कुछ दिखावे होते हैं, इससे अधिक कुछ नहीं। विद्यार्थियों की तरफ़ से ख़ुद पहलक़दमी करके बहस, सेमीनार आदि करवाने को शिक्षण संस्थानों का प्रशासन सख़्ती के साथ रोकता है, जिसके लिए विद्यार्थियों को डराने-धमकाने तक के हथकण्डे इस्तेमाल किये जाते हैं। कॉलेजों, यूनिवर्सिटियों के कैम्पसों को समाज से अलग-थलग करने में भी सेमेस्टर प्रणाली काफ़ी प्रभावी है। विद्यार्थी ग्रेड-नम्बरों के चक्कर में उलझ कर सामाजिक घटनाओं और समस्त मानवता से टूटकर रह जाते हैं और भयंकर हद तक व्यक्तिवादी चेतना का शिकार हो रहे हैं।