Category Archives: राष्‍ट्रीय/अर्न्‍तराष्‍ट्रीय मुद्दे

देश की मेहनतक़श ग़रीब जनता के साथ एक भद्दा मज़ाक

लेकिन सवाल यह उठता है कि जिस देश में 80 प्रतिशत आबादी भरपेट खाने के लिए आवश्यक संसाधनों का भी बड़ी मुश्किल से इन्तज़ाम कर पाती हो; जहाँ भूखों, नंगों, बेघरों, बेरोज़गारों की फौज़ दिन-ब-दिन विशाल होती जा रही हो, वहाँ मुट्ठी-भर अमीरज़ादों के विलासितापूर्ण मनबहलाव के लिए धन की ऐसी बेहिसाब बर्बादी क्या देश की मेहनतकश ग़रीब आबादी के साथ किया गया एक अक्षम्य अपराध नहीं है? और ख़ासकर दलित वोट से चुनकर उ.प्र. की मुख्यमन्त्री बनी मायावती, जिनको कि दलितों के उत्थान के एक उदाहरण के रूप में दिखाया जाता है, से पूछा जाना चाहिए कि क्या उनकी सरकार यह सब दलित उत्थान के लिए कर रही है?

ऐसी त्रासदियों के लिए मूल रूप में मुनाफाकेन्द्रित व्यवस्था जिम्मेदार है

जब हम समस्या की तह तक जाते हैं तो पाते हैं कि पूँजीवादी विकास के साथ समाज में मुनाप़फ़ाखोरी की जो मानवद्रोही संस्कृति विकसित हुई है वह ऐसी त्रासदियों को टालने और उनसे निपटने की राह में आड़े आती है। सुरक्षा के समचित उपाय और आपदाओं से निपटने की तैयारी के लिए आवश्यक पूँजी एक पूँजीपतियों को ग़ैर-ज़रूरी ख़र्च लगता है। भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देशों में जनता के अपने अधिकारों के प्रति उदासीन रवैये और सरकार और नौकरशाही के जनविरोधी औपनिवेशिक ढाँचे का लाभ उठाकर सुरक्षा के उपायों को ताक पर रखने की वजह से जब ऐसी भीषण घटनायें घट जाती हैं तो फौरी तौर पर भले ही कुछ पूँजीपतियों और प्रबंधकों के साथ कुछ नौकरशाह गिरफ्रतार किये जाते हैं लेकिन अब यह किसी से छिपी बात नहीं है कि भारत में न्याय बिकता है और अपनी पूँजी के दम पर कोई शक्तिशाली व्यक्ति न्याय की प्रक्रिया को आसानी से अपने पक्ष में कर लेता है। इस प्रकार आम जनता की जान ख़तरे में डालकर धंधे करना भारत में ‘लो रिस्क हाई रिटर्न’ उपक्रम है जिसमें उद्योगपति अकूत मुनाफा कमाता है और उसके एक हिस्से की नेताओं, नौकरशाही और न्यायधीशों के बीच बन्दरबाँट होती है और इस प्रकार मौत का यह घिनौना खेल निहायत ठण्डे तरीके से जारी रहता है। चाहे वह भोपाल, उपहार या कोंबाकुणम जैसी भीषण त्रासदियाँ हों या फिर सुरक्षा उपायों की खामियों की वजह से आये दिन होने वाली छोटी-छोटी घटनायें हों, इन सबके पीछे मूल रूप से पूँजी की यही मानवद्रोही संस्कृति जिम्मेदार होती है।

स्टीव जॉब्स: सच्चा “नायक” : लेकिन किसके लिए?

ऐसे में ताज्जुब कोई पागल ही करेगा कि मीडिया स्टीव जॉब्स के लिए आँसू क्यों बहा रहा है। मीडिया सदा ही कॉर्पोरेट जगत के स्टीव जॉब्स, बिल गेट्स व अन्य लुटेरों को महान अन्वेषक मानता है तथा मानवता को नये आयामों तक ले जाने वाले हीरो की तरह पेश करती है। ख़ैर बुर्जुआ मीडिया का अपने मालिक के आगे पूँछ हिलाना लाजिमी ही है। स्टीव जॉब्स कम-से-कम उनका नायक तो है ही!

भारतीय पूँजीवादी राजनीति का प्रहसनात्मक यथार्थ

भारत की पूँजीवादी राजनीति आजकल ऐसी हो गयी है जिस पर कोई कॉमेडी फिल्म नहीं बन सकती। कॉमेडी शैली का मूल होता है अलग-अलग तत्वों का व्यंग्यात्मक रूप से छोर तक खींच दिया जाना, अत्युक्तिपूर्ण प्रदर्शन करना। लेकिन जब यथार्थ में यह प्रक्रिया पहले ही घटित हो गयी हो, तो!!?? जैसे कि सितम्बर महीने में गुजरात के मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने “सद्भावना मिशन” के नाम से एक जमावड़ा किया और तीन दिन का उपवास रखा!

मायावती का निरंकुश, स्वेच्छाचारी शासन

मायावती के रूप में भारतीय पूँजीवादी राजनीति का सबसे निरंकुश, स्वेच्छाचारी और जनविरोधी चरित्र उभर कर सामने आता है। जाहिरा तौर पर इसका सबसे अधिक खामियाजा समाज के सबसे निचले तबकों यानी मज़दूरों और किसानों को उठाना पड़ता है।

आजादी के 64 साल

यह किस बात की आजादी है? क्या आजादी के मायने यही होते हैं कि समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा तो अपना खून पसीना जलाकर सभी चीजें पैदा करे, लेकिन उस उत्पादन को पूंजी में बदल कर हड़प जाएं मुट्ठी भर धनकुबेर कतई नहीं? आजादी का मतलब होता है, उत्पादन करने वाले वर्गों के हाथों में वितरण के अधिकार का भी होना। यदि हर प्रकार का भौतिक उत्पादन करने के बाद भी मेहनतकश आवाम मोहताज है, तो यह आजादी नहीं है सही मायने में आजादी तभी आ सकती है, जब व्यापक मेहनतकश जनता संगठित होकर अपने संघर्षो के द्वारा निजी स्वामित्व पर आधारित व्यवस्था को ध्वस्त करके सामाजिक-आर्थिक समानतापूर्ण व्यवस्था का निर्माण करें जाहिरा तौर पर इसमें छात्र-नौजवानों की भी अहम भूमिका होगी जिन्हें भगतसिंह के शब्दों में क्रान्ति का सन्देश कल कारखानों तथा खेतो-खलिहानों तक लेकर जाना होगा। ताकि सचेतन तौर पर मेहनतकश वर्ग सही मायने में लोकसत्ता कायम कर सके।

परिवहन समस्या और पूंजीवादी व्यवस्था

यातायात समस्या के लिए जिम्मेदार ये पूरी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था हैं जिसके केन्द्र में इंसान नहीं मुनाफा है। यातायात समस्या अपने अन्दर दो प्रकार के सम्बन्धों को समाहित करती है। पहला रिश्ता होता है यात्री और यात्रा के साधनों के बीच जबकि दूसरा रिश्ता यात्री और यात्रा के बीच। यात्रा के साधन यानी सड़कें, मार्ग, गलियाँ निजी/समाजिक वाहन व्यवस्था यातायात तकनीक आदि। पूंजीपतियों की दिलचस्पी इसी में होती है। चूंकि यात्रा के साधनों को विकसित करने में श्रम की जरूरत होती है, जितना ज्यादा श्रम होगा उतनी ही श्रम की लूट संभव होगी और वाहन कम्पनी, निर्माण कम्पनी का मुनाफा भी उतना ही ज्यादा होगा। ऐसे में ये सभी कम्पनियां ताबड़तोड निर्माण, सड़क निर्माण, फ्लाईओवर निर्माण ,चौड़ीकरण, उन्नत मेट्रो आदि का विकल्प ही बताती हैं।

अरुणिमा को ग़लत साबित करने का कुचक्र रचती सिद्धान्तहीन राजनीति

उत्तर प्रदेश के शहर बरेली के निकट चनेहटी स्टेशन के पास ट्रेन में आधा दर्जन लुटेरों से भिड़ने वाली अरुणिमा को लुटेरों ने ट्रेन से फेंक दिया था। सोनू का एक पैर ट्रेन से कट गया, दूसरा टूट गया। पलक झपकते घटी इस घटना ने उसके भविष्य के सपने चकनाचूर कर दिये। मीडिया की नज़रें इनायत हुईं तो केन्द्रीय खेलमन्‍त्री ने 25 हज़ार रुपये की मदद की घोषणा कर दी। खेलमन्‍त्री का यह एक खिलाड़ी के साथ भद्दा मज़ाक था। एक खिलाड़ी अपना पूरा जीवन देश की सेवा में लगा देता है। पदक जीतकर पूरी दुनिया में नाम रोशन करता है। उसी पर मुसीबत पड़ने पर मदद के नाम पर 25 हज़ार रुपल्ली दिखाना कहाँ तक जायज़ है?

भूमण्डलीकरण उदारीकरण के दौर की हड़पनीति!

आज डलहौजी की आत्मा भारतीय शासक वर्ग के अन्दर प्रवेश कर अपने क्रूरतम रूप में अट्टहास कर रही है। देश के प्रत्येक प्रान्त में पूँजी व मुनाफ़े के लिए लोगों से उनकी ज़मीनें छीनी जा रही हैं। भट्टा से 178 हेक्टेअर व पारसौल से 260 हेक्टेअर ज़मीन ली गयी है। छत्तीसगढ़ में 1.71 लाख हेक्टेअर कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण ग़ैर-कृषि कार्यों के लिए किया गया जिसमें से 67.22 भूमि खनन के लिए ली गयी जो तमाम निजी कम्पनियों को दे दी गयी। मध्य प्रदेश में 150 कम्पनियों को 2.44 लाख हेक्टेअर भूमि अधिग्रहण की अनुमति दी गयी है जिसमें से लगभग 1.94 हेक्टेअर भूमि किसानों से ली गयी जबकि 12,500 हेक्टेअर जंगल की ज़मीन है। झारखण्ड बनने के बाद से खनिज सम्पदा से समृद्ध इस प्रदेश में कार्पोरेट कम्पनियों के साथ 133 सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किये गये जिसमें आर्सेलर ग्रुप, जिन्दल और टाटा प्रमुख हैं। मायावती सरकार द्वारा गंगा और यमुना एक्सप्रेस वे में 15,000 गाँवों के विस्थापन का अनुमान है। उड़ीसा में पॉस्को और वेदान्ता आदिवासियों की जीविका और आवास छीन रही हैं। एक अनौपचारिक अनुमान के अनुसार उड़ीसा में 331 वर्ग किलोमीटर भूमि 300 औद्योगिक संरचनाओं के लिए दी गयी है। 9,500 करोड़ रुपये के यमुना एक्सप्रेस वे के लिए लगभग 43,000 हेक्टेअर ज़मीन ली जायेगी जिसके लिए 1,191 गाँवों को नोटिफ़ाइड किया गया है।

नाभिकीय ऊर्जा की शरण: देशहित में या पूँजी के हित में?

सवाल यह है ही नहीं कि नाभिकीय ऊर्जा का उपयोग किया जाना चाहिए या नहीं। किसी भी ऊर्जा स्रोत का उपयोग किया जा सकता है, बशर्ते कि उस पूरे उपक्रम के केन्द्र में मुनाफा नहीं बल्कि मनुष्य हो। नाभिकीय ऊर्जा के जिन स्वरूपों के सुरक्षित उपयोग की तकनोलॉजी आज मौजूद है, उनकी भी उपेक्षा की जाती है और उचित रूप से उनका उपयोग नहीं किया जा सकता है। दूसरी बात, नाभिकीय रियेक्टर बनाने का काम किसी भी रूप में निजी हाथों में नहीं होना चाहिए क्योंकि इन कम्पनियों का सरोकार सुरक्षा नहीं बल्कि कम से कम लागत में अधिक से अधिक मुनाफा होगा। तीसरी बात, नाभिकीय ऊर्जा के जिन रूपों का उपयोग सुरक्षित नहीं है, उन पर कारगर शोध और उसके बाद उसे व्यवहार में उतारने के कार्य किसी ऐसी व्यवस्था के तहत ही हो सकता है, जिसके लिए निवेश कोई समस्या न हो। यानी, कोई ऐसी व्यवस्था जिसके केन्द्र में पूँजी न होकर, मानव हित हों।