‘आप’ के उभार के मायने

अभिनव

अन्ततः आम आदमी पार्टी दिल्ली में सरकार बनाने जा रही है। दिल्ली विधानसभा में किसी को भी स्पष्ट बहुमत न मिलने के कारण पिछले करीब 16 दिनों से जारी अनिश्चितता ख़त्म हुई जब अन्ततः आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस का समर्थन स्वीकार किया और सरकार बनाने का फैसला किया। ‘आप’ सरकार बनाने को लेकर ऊहापोह में थी। इसका कारण यह था कि सभी की तरह स्वयं ‘आप’ ने भी ऐसे चुनावी नतीजों की उम्मीद नहीं की थी। एक नयी पार्टी के तौर पर ‘आप’ का प्रदर्शन चौंकाने वाला था। चुनाव लड़ने से पहले भी ‘आप’ के ज़्यादातर ‘थिंकटैंक’ यही मानकर चल रहे थे कि एक लम्बे दौर में ‘आप’ भारतीय चुनावी राजनीति में अपनी जगह बनायेगी। लेकिन पुरानी मुख्य धारा की चुनावी पार्टियों से जनता का मोहभंग इतना ज़बर्दस्त था कि पहले ही प्रयास में ‘आप’ को 70 में से 28 सीटें हासिल हो गयीं! कांग्रेस ने अपने अनुभव का इस्तेमाल किया और बिना शर्त ‘आप’ को समर्थन दे दिया। अब ‘आप’ के लिए एक ‘धर्मसंकट’ की स्थिति पैदा हो गयी। ‘आप’ के श्रीमान सुथरे अरविन्द केजरीवाल शुरू से यह दावा करते रहे हैं कि उनकी पार्टी ‘मुद्दा-आधारित’ राजनीति करती है और विचारधाराओं और ‘लेफ़्ट-राइट-सेण्टर’ से परे है! चूँकि कांग्रेस ने ‘आप’ को अपने चुनावी वायदे पूरे करने के लिए बिना शर्त समर्थन दिया इसलिए अब भागने का कोई रास्ता नहीं बचा था। एक प्रयास 18-सूत्रीय पत्र के रूप में ‘आप’ ने किया, जो कि उन्होंने भाजपा और कांग्रेस को भेजा। भाजपा ने तो जवाब देने से ही इंकार कर दिया, लेकिन कांग्रेस ने स्पष्ट जवाब दिया और कहा कि 18 माँगों में से 16 माँगें ऐसी हैं, जो कि प्रशासनिक मुद्दे हैं, और सरकार बनने के बाद ‘आप’ को उन विशिष्ट मुद्दों पर कांग्रेस के समर्थन की आवश्यकता नहीं है, और दो मुद्दे ऐसे हैं जो कि कांग्रेस के चुनावी घोषणापत्र में भी थे और कांग्रेस उन पर ‘आप’ को बिना शर्त समर्थन देगी। इसके बाद ‘आप’ ने कहा कि वह जनता के बीच जनमत सर्वेक्षण करेगी ताकि यह पता लगा सके कि जनता उनके द्वारा सरकार बनाये जाने के पक्ष में है या नहीं! सभी जनसभाओं में और मीडिया पोल में ‘जनता’ की राय यह सामने आयी कि केजरीवाल को सरकार बनानी चाहिए। कारण यह था कि जनता केजरीवाल द्वारा किये गये वायदों को पूरा करने का इन्तज़ार कर रही है; मसलन, बिजली का बिल 50 फीसदी कम करना और 700 लीटर प्रतिदिन मुफ़्त पानी हर घर में पहुँचाना, 500 नये स्कूल खोलना और सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता को निजी स्कूलों से बेहतर बनाना, सभी साढ़े तीन लाख ठेका कर्मचारियों को स्थायी करना, आदि। इनमें से पहले दो वायदे ऐसे हैं जिनका पूरा होने का दिल्ली की आम जनता बेसब्री से इन्तज़ार कर रही है और केजरीवाल ने अपने बच्चों की कसम खाकर कहा था कि अगर उनकी सरकार बनती है तो वे अपने चुनावी वायदों में आधे एक माह में पूरे कर देंगे और बाकी छह महीनों में। अब ‘आप’ के लोग कांग्रेस को कुछ नहीं कह सकते थे (मसलन, कि कांग्रेस की तो आदत ही सरकार गिराने की है, वगैरह) क्योंकि छह महीने से पहले संवैधानिक तौर पर कांग्रेस सरकार गिरा नहीं सकती और केजरीवाल ने अपने वायदे पूरे करने के लिए इतने ही महीने माँगे हैं! लुब्बोलुआब यह कि सरकार बनाने के अलावा केजरीवाल के पास और कोई रास्ता नहीं बचा था और अब समस्या यह है कि जो वायदे केजरीवाल ने किये हैं, उन्हें पूरे कर पाना मुमकिन नहीं है। केजरीवाल अब इस उम्मीद में हैं कि अगर वे वायदों के 10 प्रतिशत को भी पूरा कर पाते हैं तो जनता के बीच में कुछ वाहवाही हो जायेगी और कांग्रेस इसी बात से थोड़ा डरी हुई है। लेकिन दिक्कत यह है कि केजरीवाल जिस आदर्शवादी, श्रीमान सुथरा की छवि बनाकर और कांग्रेस और भाजपा को जिस भाषा में कोसते हुए सत्ता में पहुँचे हैं वह  सबकुछ बड़े बारीक सन्तुलन पर खड़ा है, और एक हल्के धक्के से वह ज़मींदोज़ हो सकता है। यही कारण था कि सरकार बनाने के फैसले की घोषणा करने के लिए ‘आप’ ने जो प्रेस कान्फ्रेंस की उसमें केजरीवाल समेत सारे ‘आम आदमियों’ के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।

बहरहाल, एक बात तो तय है कि भारतीय पूँजीवादी चुनावी राजनीति में ‘आप’ की विजय एक परिघटना है। ‘आप’ की विजय के क्या मायने हैं? ‘आप’ का राजनीतिक चरित्र क्या है? ‘आप’ की पूँजीवादी राजनीति में क्या प्रासंगिकता है? ‘आप’ क्या कोई लघुजीवी परिघटना है या फिर यह भारतीय राजनीति में एक दीर्घकालिक परिघटना के रूप में आयी है, यह भी एक चर्चा का विषय हो सकता है। इस लेख में हम इन्हीं मुद्दों पर चर्चा करेंगे।

Kejriwal

आप’ को पहले भी कहीं देखा है…

कई राजनीतिक विश्लेषक यह दावा कर रहे हैं कि ‘आप’ का उभार भारतीय राजनीति में एक नयी परिघटना है। उनका मानना है कि इससे भारत में पूँजीवादी चुनावी राजनीति ज़्यादा साफ़-सुथरी बनेगी, ज़्यादा भागीदारीपूर्ण बनेगी, अन्य चुनावी पार्टियों को भी ‘साफ़’ राजनीति करने पर मजबूर होना पड़ेगा, वगैरह। लेकिन हमें इस पूरे विश्लेषण पर गहरा सन्देह है क्योंकि ऐतिहासिक तथ्य इस विश्‍लेषण को ग़लत ठहराते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था अपने संकट के दौरों में हमेशा ही निम्न मध्यमवर्गीय आदर्शवाद और उच्च मध्यमवर्गीय प्रतिक्रियावाद का इस्तेमाल करती है। ‘आप’ के मौजूदा उभार के सन्दर्भ में हम पाठकों को सत्तर के दशक के जेपी आन्दोलन और ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ के जुमले और उसके बाद जनसंघ के उभार और जनता पार्टी और उसके बाद भाजपा के उदय की याद दिलाना चाहते हैं। सत्तर का दशक वह समय था जब नक्सलबाड़ी आन्दोलन को कुचलने की प्रक्रिया जारी थी, रेलवे की प्रसिद्ध हड़ताल हुई थी, इन्दिरा गाँधी की सरकार ने आपातकाल लागू किया था और पूरे के पूरे पूँजीवादी शासन के प्रति एक गहरा अविश्वास, मोहभंग और नापसन्दगी का माहौल था। पूँजीवादी शासन के प्रति यह मोहभंग जल्द ही पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति मोहभंग में तब्दील हो सकता था। पाठकों को शायद यह भी याद हो कि भारतीय अर्थव्यवस्था भी उस समय संकट का शिकार थी और बेरोज़गारी, महँगाई और भ्रष्टाचार चरम पर था। पूँजीवाद को उस समय एक ऐसे सामाजिक और राजनीतिक आन्दोलन की ज़रूरत थी, जो कि आम मेहनतकश और निम्न मध्यमवर्गीय जनता के असन्तोष को सुरक्षित चैनलों में अपचयित कर सके। जेपी आन्दोलन ने इसी काम को अंजाम दिया। जेपी आन्दोलन ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को फिर से मुख्यधारा में लाया और उसके परिणामस्वरूप जनसंघ और फिर जनता पार्टी के उभार के बारे में सभी जानते हैं। इस उभार के पीछे एक ओर धुर दक्षिणपंथी ताक़तें खड़ी थीं, तो दूसरी ओर विभिन्न प्रकार के समाजवादी भी खड़े थे। यहाँ पर सामाजिक-जनवाद और फासीवाद के बीच के जैविक सम्बन्ध शायद इतिहास में सबसे खुले तौर पर उजागर हुए थे।

आज भी ‘आप’ के उभार के पीछे जो दिमाग़ काम कर रहे हैं उनमें से अधिकांश जेपी-ब्राण्ड समाजवादी हैं, या फिर लोहियावादी समाजवादी। मिसाल के तौर पर, योगेन्द्र यादव और प्रोफेसर आनन्द कुमार। वहीं दूसरी ओर इस उभार के पीछे तमाम भूतपूर्व मार्क्सवादी, ख़ास तौर पर कथित पूर्व नक्सलवादी, और पूर्व एमएल के लोग, जो अब बेशर्म किस्म के दलाल बन चुके हैं, भी इस उभार के पीछे हैं। मिसाल के तौर पर, अभय कुमार दुबे और सीएसडीएस (सेण्टर फॉर स्टडी ऑफ डेवेलपिंग सोसायटीज़) में बैठे अन्य घाघ राजनीतिक चिन्तक-विश्लेषक। यह भी कोई इत्तेफ़ाक नहीं है कि सीएसडीएस के संस्थापक रजनी कोठारी थे, जो कि साम्राज्यवाद के एजेण्ट के रूप में भारत के वामपंथ में घुसाये गये व्यक्ति थे। यह भी अपवाद नहीं है कि सीएसडीएस द्वारा चलायी जाने वाली मीडिया पहल ‘सराय’ की फण्डिंग साम्राज्यवादी फण्डिंग एजेंसियों, विशेष तौर पर, डच फण्डिंग एजेंसी डीवाग से आती है। और अन्त में, यह भी अपवाद नहीं है कि विश्व बैंक ने भारत में शुरू हुए भ्रष्टाचार-विरोधी आन्दोलन ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन’ को समर्थन दिया था, जिससे कि अरविन्द केजरीवाल और उनकी ‘आप’ का जन्म हुआ। इस समय पूँजीवादी संकट को विद्रोहों और क्रान्तियों की ओर जाने से रोकने के लिए ‘आप’ जैसी पार्टियों की ज़रूरत पूँजीवादी शासक वर्ग को है, और यही बात जेपी आन्दोलन और उसके नतीजे के तौर पर पैदा हुए राजनीतिक दलों पर भी लागू होती है।

ज़ाहिर है, इतिहास कभी अपने आपको हूबहू दुहराता नहीं है। लिहाज़ा, ‘आप’ का जेपी आन्दोलन, जनसंघ और जनता पार्टी के साथ कोई सादृश्य निरूपण नहीं किया जा सकता है। न ही आज के पूँजीवादी संकट का सादृश्य निरूपण सत्तर के दशक के पूँजीवादी संकट के साथ किया जा सकता है। यहाँ तथ्यों, घटनाओं और दलों में समानता देखने की बजाय, पूँजीवाद की कार्यप्रणाली पर निगाह डालने की आवश्यकता है। इस रूप में ‘आप’ का उभार मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था की एक ज़रूरत के रूप में समझा जा सकता है। यह पूँजीवादी व्यवस्था के विभ्रमों को तोड़ने का नहीं, बल्कि उन्हें बनाये रखने और दीर्घजीवी बनाने का काम करता है। आगे ‘आप’ की पूरी राजनीति को अनावृत्त करते हुए हम इस बात को पुष्ट करेंगे।

आप’ यहाँ आये किसलिए?

अगर हम ‘आप’ के सामाजिक आधार और उसके घोषणपत्र पर निगाह डालें तो हमें उसकी प्रकृति और चरित्र को समझने में सहायता मिलेगी। जैसा कि हम बता चुके हैं, ‘आप’ की जड़ अण्णा हज़ारे द्वारा शुरू किये गये भ्रष्टाचार-विरोधी आन्दोलन में थी। यह आन्दोलन 26/11 के आतंकवादी हमले के बाद शुरू हुआ था। देश में उस समय भी शासक वर्ग के नग्न भ्रष्टाचार के विरुद्ध गहरा रोष था; आम मेहनतकश जनता महँगाई और बेरोज़गारी के बोझ तले कराह रही थी; देश के निर्धनतम लोग भुखमरी और कुपोषण से मर रहे थे। ऐसे समय में, जब देश के पूँजीवादी राजनीतिक वर्गों के साथ मोहभंग अपने चरम पर था, अण्णा हज़ारे अवतरित होते हैं! अण्णा हज़ारे का पूरा आन्दोलन एक गै़र-जनवादी आन्दोलन था; यह बुर्जुआ जनवाद की विफलता को हर प्रकार के जनवाद के नकार और एक तानाशाही जैसी व्यवस्था के समर्थन तक ले जाता था। पाठकों को याद होगा कि अण्णा हज़ारे का जनलोकपाल का प्रस्ताव चुनाव के सिद्धान्त को ख़ारिज करता था; विद्वत लोगों की परिषद् को जनलोकपाल चुनने की ज़िम्मेदारी देता था; उसे सभी चुने गये प्रतिनिधि (चाहे यह प्रतिनिधित्व कितना भी सीमित हो!) निकायों के ऊपर वरीयता और प्राधिकार देता था। अण्णा हज़ारे खुद कहते थे कि इस जनता के ऊपर कुछ भी कैसे छोड़ा जा सकता है जो टीवी और साड़ी के बदले अपना वोट दे आती है! रालेगण सिद्धि में अण्णा हज़ारे का प्रयोग भी दिखलाता था कि जनवाद के सिद्धान्त में अण्णा हज़ारे का कोई भरोसा नहीं है। उनके लिए परिवर्तन, विकास और सुधार का कार्य जनता नहीं कर सकती जो कि मूढ़ और अज्ञानी है; यह काम समाज के लिए कुछ विद्वतजन करते हैं और उनकी परिषद् को ही यह उत्तरदायित्व सौंपा जा सकता है, जो दण्ड और अनुशासन के ज़रिये जनता को रास्ते पर रखे! इसी आन्दोलन में अरविन्द केजरीवाल और उसकी वानर सेना भी शामिल थी। अण्णा हज़ारे तो महज़ एक ‘लांच पैड’ थे! इसी आन्दोलन से निकलकर अरविन्द केजरीवाल ने चुनावी दल बनाने का फैसला किया क्योंकि अण्णा हज़ारे का आन्दोलन अपने सन्तृप्ति बिन्दु पर पहुँच रहा था। अब जनता का भी एक हिस्सा समझ रहा था कि केवल धरना-अनशन कर कुछ हासिल नहीं होगा। ठीक इसी समय पर अरविन्द केजरीवाल ने अपना ‘मास्टर स्ट्रोक’ खेला। हालाँकि, इसके पीछे दिमाग़ योगेन्द्र यादव, आनन्द कुमार, अभय कुमार दुबे, प्रशान्त भूषण आदि जैसे सुधारवादियों, समाजवादियों का था। यहीं से अण्णा हज़ारे और केजरीवाल के रास्ते अलग हो गये। वास्तव में, यह पूँजीवादी शासक वर्ग के लिए अच्छा ही था क्योंकि उसे इन दोनों ही मदारियों की ज़रूरत है!

अण्णा हज़ारे के समर्थन में तमाम टुटपुँजिया वर्ग इकट्ठा हुए थे, जिनकी पहचान राजनीतिक चेतना के त्रासद अभाव से की जा सकती है। एक तरफ़ उच्च मध्यवर्ग की प्रतिक्रिया अण्णा हज़ारे के आन्दोलन के साथ खड़ी थी, जिसे कि अण्णा हज़ारे का जनवाद-नकार बहुत रास आ रहा था; वहीं, निम्न मध्यमवर्गीय आबादी भी महँगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार आदि से तंग होकर इस आन्दोलन के पक्ष में खड़ी थी, क्योंकि अपनी चेतना की कमी के कारण वह इन समस्याओं के मूल कारण को नहीं देख पा रही थी और उसे लग रहा था कि अण्णा हज़ारे जैसा कोई ‘विजिलाण्टे’, रखवाला, रक्षक, महात्मा इन समस्याओं का जादू की छड़ी से समाधान कर देगा। हर समस्या को भ्रष्टाचार और हर निम्न मध्यवर्गीय असन्तोष को ‘भारत माता की जय’ और ‘वन्दे मातरम’ जैसे जुमलों में अपचयित कर दिया गया।

केजरीवाल का सामाजिक आधार भी इसी प्रकार है, हालाँकि अनुपात बदल गये हैं। केजरीवाल और उसकी ‘आप’ शुरुआत में शहरी उच्च और मध्य मध्यमवर्गीय आबादी में आधार बनाते हुए सामने आये। आई.आई.टी., मेडिकल, मैनेजमेण्ट के छात्र, सिविल सेवा के आकांक्षी युवा, विश्वविद्यालय आदि में पढ़ने वाले उच्च मध्यवर्गीय नौजवान केजरीवाल की ‘आप’ के शुरुआती सामाजिक आधार का निर्माण करते थे। इन वर्गों के भीतर जो प्रतिक्रियावाद मौजूद था वह केजरीवाल की सबसे अधिक सहायता कर रहा था। लेकिन योगेन्द्र यादव और आनन्द कुमार जैसे समाजवादियों ने इस उच्च मध्यवर्गीय परिघटना को निम्न मध्यम वर्गों और एक हद तक ग़रीब मज़दूर आबादी के एक हिस्से पर अपना वर्चस्व कायम करने के योग्य बनाया। यही वे लोग थे जो इस बात को समझ रहे थे कि ‘विकास’, ‘टेक्नोक्रैटिक एफिशियेंसी’, सामाजिक डार्विनवाद, ‘मुक्त’ प्रतियोगिता आदि के प्रति पढ़े-लिखे शहरी मध्यवर्ग के प्रतिक्रियावादी आग्रह के बूते पर ही ‘आप’ का चुनावी प्रयोग सफल नहीं हो सकता है। इन्होंने ‘आप’ के एजेण्डे में ग़रीब आबादी की माँगों को समेकित करने का काम किया। मिसाल के तौर पर, बिजली और पानी के सवाल के अलावा, अनधिकृत कालोनियों को नियमित करना, सभी झुग्गी निवासियों को पक्के मकान देना, सभी ठेका कर्मचारियों को नियमित करना, 500 नये सरकारी स्कूल बनवाना आदि जैसी माँगों को अलग-अलग समय पर ‘आप’ अपने माँगपत्रक में शामिल करती गयी। जिन समस्याओं का ज़िक्र ‘आप’ ने अपने घोषणापत्रें और पर्चों आदि में किया उनमें से एक के लिए भी पूरी पूँजीवादी व्यवस्था, उसमें निहित असमानता, संसाधनों के असमान वितरण, सम्पत्ति सम्बन्धों को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया गया। इन सबके लिए केवल कांग्रेस, भाजपा जैसी पार्टियाँ और उनका भ्रष्टाचार ज़िम्मेदार था! हर समस्या का एक ही कारण-भ्रष्टाचार! यहाँ तक कि ग़रीबी के लिए भी काले धन को ज़िम्मेदार ठहराया गया जो कि विदेश चला जाता है! इस बात पर कोई सवाल नहीं उठाया गया कि जो अकूत सम्पदा देश के बाहर नहीं जाती उसका असमान वितरण क्यों होता है, और यह कि अगर विदेशों में जमा काला धन वापिस आ गया तो क्या वही भी उसी अनुपात में विभाजित नहीं होगा, जिस अनुपात में देश में ही रहने वाली सम्पदा होती है? लेकिन अमीरी-ग़रीबी, असमानता के बुनियादी सामाजिक-आर्थिक मुद्दे और इस सवाल को कि इसके लिए ज़िम्मेदार वास्तव में कौन है, केजरीवाल कभी उठाते ही नहीं। क्यों? इसे समझना ज़रूरी है।

आप’ की आँखों में कुछ ‘महके’ हुए से राज़ हैं!

केजरीवाल दावा करते हैं कि ‘आप’ न तो वामपंथी है, न दक्षिणपंथी और न ही मध्यमार्गी! वह विचारधारा प्रेरित राजनीति नहीं करती है। उसकी राजनीति एक उत्तर-विचारधारा और उत्तर-राजनीति के दौर की राजनीति है! इतिहास गवाह है कि अन्ततः ऐसी सभी तथाकथित उत्तर-विचारधारा राजनीतियाँ दक्षिणपंथी राजनीति के किसी नये संस्करण की शुरुआत के पीछे काम करने वाले बहाने होते हैं। हम ‘आप’ के प्रतिक्रियावादी और दक्षिणपंथी चरित्र को दिखलाने के लिए ‘आप’ की कुछ चुप्पियों की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे।

‘आप’ का खुद का सर्वेक्षण बताता है कि दिल्ली में उसके अधिकांश समर्थकों का कहना है कि वे दिल्ली में केजरीवाल को मुख्यमन्त्री पद पर देखना चाहते हैं, जबकि केन्द्र में वे मोदी को वोट करने वाले हैं। यह अनायास नहीं है। इसके पीछे गहरे कारण हैं।

‘आप’ जिन मुद्दों पर चुप है या कोई अवस्थिति नहीं अपनाती है, या फिर जिन मुद्दों को बस वह भ्रष्टाचार का नतीजा बताकर कन्धे उचका देती है, वे अहम मुद्दे हैं। मिसाल के तौर पर, जब ‘आप’ का चुनाव प्रचार जारी था उसी समय मुज़फ़्फ़रनगर में दंगे हुए। अब इस बात के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं कि ये दंगे सोचे-समझे तौर पर संघी गिरोह ने करवाये थे। लेकिन अरविन्द केजरीवाल और ‘आप’ इस पर एक अहम बयान भी जारी नहीं करते! क्या यह चुप्पी चौंकाने वाली नहीं है? केजरीवाल उस सबसे बड़े ख़तरे पर चुप हैं जो आज भारत के सामने खड़ा है-मोदी के नेतृत्व में नया साम्प्रदायिक फासीवादी उभार! इस पर केजरीवाल एक शब्द तक नहीं बोलते। वह कांग्रेस की जो आलोचना करते हैं, वही आलोचना वह भाजपा की भी करते हैं जो भ्रष्टाचार के मुद्दे से कहीं आगे नहीं जाती है।

केजरीवाल ‘यूथ फॉर इक्वॉलिटी’ जैसे समूहों की राजनीति पर भी चुप हैं जो कि सवर्णवादी अवस्थिति से आरक्षण का विरोध करते हैं। यह भी बताया जाता है कि केजरीवाल खुद ‘यूथ फॉर इक्वॉलिटी’ के सदस्य थे! यह कोई चौंकाने वाली बात नहीं है क्योंकि केजरीवाल जिस उच्च मध्यवर्गीय प्रतिक्रियावादी राजनीति की नुमाइन्दगी करते हैं, उसकी नैसर्गिक एकता इसी प्रकार की राजनीति से बनती है। स्त्रियों और पुरुषों के बीच की असमानता पर भी केजरीवाल का कोई स्टैण्ड नहीं है। वह महिलाओं की सुरक्षा के लिए कमाण्डो दस्ते बनाने की बात करते हैं। लेकिन यह पुरुषों द्वारा महिलाओं को दी जाने वाली सुरक्षा ही होगी। यह अपने आपमें पूरी की पूरी पितृसत्तात्मक सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था पर प्रश्न नहीं है।

केजरीवाल की ‘आप’ कश्मीर और उत्तर-पूर्व में दमित राष्ट्रीयताओं के उत्पीड़न पर, आफ्स्पा, डिस्टर्ब्ड एरियाज़ एक्ट, पोटा, टाडा, यूएपीए, मकोका, आदि जैसे कानूनों पर बिल्कुल शान्त है! छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उड़ीसा और झारखण्ड में आदिवासियों के कत्लेआम पर ‘आप’ चुप है! और इससे भी ख़तरनाक बात यह है कि इन सारे मुद्दों को केजरीवाल हमेशा भ्रष्टाचार पर अपचयित करने, इसके लिए भ्रष्ट कांग्रेस और भाजपा को ज़िम्मेदार ठहराने के लिए तत्पर रहता है। इस प्रकार भ्रष्टाचार का पूरा मुद्दा एक ऐसा उपकरण बन जाता है जो कि समस्याओं के असली कारण और हल तक पहुँचने की बजाय, उन मूल समस्याओं को ढँकने और छिपाने का उपकरण बन जाता है।

जिन मुद्दों पर ‘आप’ चुप है, वे सभी वे मुद्दे हैं जिन पर बोलना मोदी की फासीवादी राजनीति को ‘अनसेटल’ कर सकता है। मोदी इन मुद्दों पर सीधे एक प्रतिक्रियावादी अवस्थिति से बोलता है; ‘आप’ इन पर सीधे नहीं बोलती (इसके लिए भी सम्भवतः योगेन्द्र यादव और आनन्द कुमार जैसे समाजवादी दल्लों को धन्यवाद देना चाहिए!)। लेकिन इन पर एक साज़िशाना चुप्पी कायम रखती है। या फिर इन मुद्दों को भी भ्रष्टाचार की पैदावार बता देती है। तो सारा मसला अन्त में एक जनलोकपाल बनाने और भ्रष्टाचार का सफ़ाया करने पर आकर केन्द्रित हो जाता है! यह पूरी राजनीति सचेतन तौर पर न भी सही, तो वस्तुगत तौर पर अन्त में फासीवादी राजनीति की मदद करती है, क्योंकि ‘आप’ जिस प्रकार के राजनीतिक दल के तौर पर उभरी है, उसी रूप में उसका भारतीय पूँजीवादी राजनीति में बने रह पाना सम्भव नहीं है; या तो यह पार्टी ही बिखर जायेगी और इसके अधिकांश तत्व दक्षिणपंथी उभार के पक्ष में जाकर खड़े हो जायेंगे, या फिर इस पार्टी का स्वरूप काफ़ी हद तक कांग्रेस, भाजपा जैसा ही हो जायेगा। इन दो सम्भावनाओं के अलावा हमें और कोई सम्भावना नज़र नहीं आती।

‘आप’ पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को कभी कठघरे में खड़ा नहीं करती। केजरीवाल ने एक कारपोरेट घराने के ‘काम करने के तरीकों’ पर सवाल उठाना शुरू किया था, लेकिन इस मुद्दे पर जल्द ही वह चुप्पी साध गये। बाकी कारपोरेट घरानों पर केजरीवाल ने कभी मुँह तक नहीं खोला। उल्टे पूँजीपति वर्ग को भी वह ‘विक्टिम’ और पीड़ित के रूप में दिखलाते हैं! अपने घोषणापत्र में केजरीवाल लिखते हैं कि कांग्रेस और भाजपा जैसी भ्रष्ट पार्टियों के कारण मजबूर होकर पूँजीपतियों को भ्रष्टाचार करना पड़ता है! यह दोगलेपन की इन्तहाँ नहीं तो क्या है? आप देख सकते हैं कि भ्रष्टाचार के मुद्दे को किस प्रकार नंगी और बर्बर पूँजीवादी लूट को छिपाने के लिए इस्तेमाल किया गया है। पूँजीपति जो श्रम कानूनों का उल्लंघन करते हैं क्या वह मजबूरी के कारण करते हैं? ठेकाकरण क्या वह भ्रष्टाचार से मजबूर होकर करते हैं? यह तो पूरी तस्वीर को ही सिर के बल खड़ा करना है। वास्तव में, सरकार (चाहे किसी की भी हो!) और पूँजीपति वर्ग मिलकर मज़दूरों के विरुद्ध लूट और हिंसा को अंजाम देते हैं! केजरीवाल की इस महानौटंकी के पहले अध्याय के लिखे जाते समय ही दिल्ली के पड़ोस में मारुति सुजुकी के मज़दूरों का संघर्ष चल रहा था लेकिन केजरीवाल ने इस पर एक शब्द नहीं कहा; दिल्ली में ही मेट्रो के रेल मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी और ठेका प्रथा ख़त्म करने के लिए संघर्ष चल रहा था, इस पर भी केजरीवाल ने एक बयान तक नहीं दिया! क्या केजरीवाल को यह सारी चीज़ें पता नहीं है? ऐसा नहीं है! यह एक सोची-समझी चुप्पी है! मज़दूरों के लिए कुछ कल्याणकारी कदमों जैसे कि पक्के मकान देना आदि की बात करना एक बात है, और मज़दूरों के सभी श्रम अधिकारों के संघर्षों को समर्थन देना एक दूसरी बात। केजरीवाल कहीं भी पूरी पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग पर हमला नहीं करते। उनके लिए पूँजीपति वर्ग शासक वर्ग नहीं है; मेहनतकश जनता तो ख़ैर शासक वर्ग है ही नहीं! तो फिर शासक वर्ग है कौन? यह एक भ्रष्ट राजनीतिक व नौकरशाह वर्ग है जो किसी वर्ग की नुमाइन्दगी नहीं करता, बल्कि अपनी ही सेवा में संलग्न है! और पूँजीपति वर्ग और मज़दूर वर्ग एक दूसरे के दुश्मन नहीं है, बल्कि वे दोनों ही पीड़ित वर्ग है; भ्रष्टाचारियों से पीड़ित! यहाँ भी आप देख सकते हैं कि असली सवाल को ढाँपने के लिए भ्रष्टाचार के जुमले का कैसे इस्तेमाल किया गया है। केजरीवाल के लिए इस पूरी व्यवस्था में कोई दिक्कत नहीं है! बस इसमें से भ्रष्टाचार के सफ़ाये की ज़रूरत है! अगर ग़रीबों को रोटी और रोज़गार नहीं मिलता तो यह पूँजीवादी व्यवस्था की समस्या नहीं है; पूँजीवादी व्यवस्था तो उन्हें रोटी और रोज़गार देती है, लेकिन वह भ्रष्टाचारियों के कारण उन तक पहुँच नहीं पाता! इसलिए समस्या आपूर्ति की है! केजरीवाल इस समस्या को कैसे दूर करेंगे? एक साक्षात्कार में वह कहते हैं कि पटेल जैसी राजनीति करके; शास्त्री जैसी राजनीति करके! नेहरू का नाम सोचे-समझे तौर पर इस सूची से ग़ायब है। समझने वाले समझ सकते हैं कि क्यों!

इस समूचे आदर्शवादी भ्रष्टाचार-विरोध का मिश्रण किया जाता है अन्धराष्ट्रवादी जुमलों के साथ। ‘आप’ का एक चुनाव उम्मीदवार एक सैनिक था, जो कि सीमा पर झड़प में विकलांग हो गया था। उससे केजरीवाल ने कहा कि आप अब तक देश के बाहर के आतंकवादियों से लड़ रहे थे, अब आप ‘आप’ की ओर से चुनाव लड़कर देश के भीतर के आतंकवादियों के विरुद्ध लड़िये। यह पूरी जुमलेबाज़ी और भाषा एक दक्षिणपंथी अन्धराष्ट्रवाद की है। इसमें वास्तविक मुद्दों और सच्चाइयों को आदर्शवादी, अन्धराष्ट्रवादी और प्रतिक्रियावादी जुमलों के तहत छिपा दिया गया है।

‘आप’ तृणमूल और भागीदारीपूर्ण जनवाद की बात करती है। ‘आप’ का कहना है कि वह सत्ता में आयेगी तो स्थानीय विकास कार्यों आदि को लेकर मोहल्ला सभाओं को सारे अधिकार दे देगी। यह एक राजनीतिक जनवाद की बात है। लेकिन अगर मौजूदा सम्पत्ति सम्बन्धों, असमानतापूर्ण सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों को और उत्पादन के साधन पर मालिकाने और नियन्त्रण तक पहुँच के सम्बन्धों को छेड़े बग़ैर मोहल्लों में सभाएँ बनाकर उन्हें नियन्त्रण सौंप भी दिया जाये, तो अन्ततः उसमें किन लोगों की चलेगी? ज़ाहिर सी बात है, मोहल्लों में रहने वाले ठेकेदारों, दल्लों, छुटभैया मालिकों, पैसेवालों, और अमीरों की ही चलेगी! आम ग़रीब और निम्न मध्यवर्गीय आबादी उनके पीछे-पीछे चलेगी। ऐसे में, यह राजनीतिक जनवाद का अधिकार भी अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता जब तक कि आर्थिक सम्बन्धों को भी आमूल-चूल रूप में न बदला जाये! लेकिन ‘आप’ तो इन सम्बन्धों को किसी भी तरह से बहस और चर्चा से दूर रखना चाहती है!

‘आप’ की पूरी राजनीति वास्तव में देश की आम मेहनतकश आबादी की ज़िन्दगी की समस्याओं के मूल कारणों को छिपाने और ढँकने का काम ज़्यादा करती है। इसके लिए जिस उपकरण का इस्तेमाल किया जाता है वह है भ्रष्टाचार-विरोध, देश-सेवा आदि के नाम पर की जाने वाली प्रतिक्रियावादी, दक्षिणपंथी राजनीति। ‘आप’ एक ऐसी पूँजीवादी व्यवस्था की हिमायत करती है जिसमें कोई भ्रष्टाचार न हो, सभी नागरिक सम्भावित उद्यमी हों, मुक्त व्यापार और मुक्त प्रतिस्पर्द्धा हो, उपयुक्ततम की उत्तरजीविता हो, और यह सारा क्रिया-व्यापार अपनी सैद्धान्तिक शुद्धता में चले! यह एजेण्डा आज के दौर में एक तकनोशाहाना कुशलता वाले उद्यमी पूँजीवाद का सपना दिखाता है जो कि उद्यमी बनने की आकांक्षा रखने वाले टुटपुँजिया वर्गों को आकृष्ट करता है। ज़ाहिर है, यह एक शेखचिल्लीवादी सपना है जो कभी पूरा नहीं हो सकता। लेकिन इसी रूप में इस राजनीति का चल पाना बहुत मुश्किल है। इसके कारणों की चर्चा हम ‘आप’ के घोषणापत्र के मुद्दों के चरित्र और उसके सामाजिक आधार के चरित्र के द्वारा कर सकते हैं।

आप’ का क्या होगा, जनाबे-आली!

‘आप’ आज भारतीय पूँजीवाद की ज़रूरत है। लेकिन ‘आप’ का पूरा राजनीतिक घोषणापत्र, माँगपत्रक और यहाँ तक कि उसका सामाजिक आधार मूलतः योगात्मक (एग्रीगेटिव) है; यानी कि उनमें कोई जैविक एकता नहीं है। ‘आप’ ने उच्च मध्यवर्गीय प्रतिक्रियावाद के वर्चस्व को निम्न मध्यवर्गीय आदर्शवाद पर स्थापित किया और एक ऐसा माँगपत्रक तैयार किया है जो कि प्रकृति से ही एक योगात्मक समुच्चय है और उसके पीछे कोई एक सुसंगत विचारधारात्मक दृष्टि नहीं है। अगर ‘आप’ पार्टी इनमें से कुछ मुद्दों और वायदों पर ही अमल शुरू करती है, तो एक ओर ‘आप’ पार्टी के भीतर ही टूट-फूट और बिखराव की प्रक्रिया शुरू हो जायेगी, वहीं उसके सामाजिक आधार में भी बिखराव शुरू हो जायेगा। मिसाल के तौर पर, ‘आप’ ने छोटे मालिकों और व्यापारियों को ‘सरकार द्वारा वसूली’ और भ्रष्टाचार से छूट दिलाने का वायदा किया है; यही कारण है कि छोटे मालिकों और व्यापारियों के वोट बड़े पैमाने पर ‘आप’ को मिले। लेकिन साथ ही, ‘आप’ ने ठेका प्रथा समाप्त करने और दिल्ली के साढ़े तीन लाख ठेका कर्मचारियों को स्थायी करने का वायदा भी किया है। लेकिन इन साढ़े तीन लाख ठेका कर्मचारियों की मेहनत को ही लूटने का काम तो ये छोटे मालिक और ठेकेदार सबसे ज़्यादा करते हैं। ठेका प्रथा का अगर कोई सबसे बड़ा लाभप्राप्तकर्ता है, तो वह छोटा मालिक और ठेकेदार वर्ग है। स्पष्ट है कि ये दोनों वायदे अन्तरविरोधी हैं और इन पर अमल के साथ ही छोटा मालिक वर्ग ‘आप’ का साथ छोड़कर निरंकुश तरीके से भूमण्डलीकरण, निजीकरण, ठेकाकरण की नीतियों को लागू करने वाली फासीवादी ताक़तों के पक्ष में जा खड़ा होगा।

उसी प्रकार ‘आप’ का यह वायदा कि वह बिजली के बिल आधे कर देगी एक ही सूरत में सम्भव है। वह यह है कि विद्युत वितरण का निजीकरण समाप्त किया जाय और उसके बाद भी सरकारी ख़ज़ाने से पर्याप्त सब्सिडी दी जाय। उसी प्रकार हर दिन हर नागरिक को 700 लीटर मुफ़्त पानी भी तभी दिया जा सकता है, जब सब्सिडी दी जाय। ऐसी सब्सिडी देने के लिए राजस्व सिर्फ़ भ्रष्टाचार ख़त्म करने से आ ही नहीं सकता है। यह केवल कर का बोझ दिल्ली के अमीरज़ादों पर डालकर ही सम्भव है, क्योंकि मेहनतकश आबादी पर प्रत्यक्ष करों का बोझ डाला ही नहीं जा सकता है और अप्रत्यक्ष कर पहले से ही काफ़ी ज़्यादा हैं। ऊपर से, ‘आप’ वैट को भी ख़त्म करने की बात कर रही है। अगर कराधान का बोझ दिल्ली के उच्च मध्यवर्ग पर बढ़ता है, तो वह भी जल्द ही ‘आप’ से छिटक जायेगा।

स्पष्ट है, अगर ‘आप’ अपने वायदों के 20 प्रतिशत पर भी अमल करती है, तो उसके संगठन और सामाजिक आधार का बिखराव शुरू हो जायेगा। ऐसे में, या तो ‘आप’ खुलकर पूँजीवादी व्यवस्था और खुली उदारवादी नीतियों के समर्थन में खड़ी होगी, जिस सूरत में वह अप्रासंगिक हो जायेगी क्योंकि यह काम करने वाली मुख्य धारा की पूँजीवादी पार्टियाँ पहले से मौजूद हैं; या फिर, उसका हश्र वही होगा जो जनता पार्टी का हुआ थाः वह खण्ड-खण्ड हो जायेगी और उसके ज़्यादातर धड़े अन्ततः मोदी के फासीवादी उभार के साथ जा खड़े होंगे।  ‘आप’ का भविष्य फिलहाल इसी रूप में दिख रहा है, बशर्ते कि वह अपने मुख्य राजनीतिक मुद्दे भ्रष्टाचार को छोड़कर कांग्रेस, भाजपा जैसी ही एक चुनावी पार्टी न बन जाये। मौजूदा राजनीतिक माँगपत्रक और घोषणापत्र के साथ इसी रूप में यह पार्टी बनी नहीं रह सकती है क्योंकि उसका योगात्मक चरित्र इस बात ही इजाज़त ही नहीं देता है।

लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि आज भारतीय पूँजीपति वर्ग के लिए ‘आप’ की प्रासंगिकता नहीं है। वास्तव में, पूँजीवादी राजनीति और अर्थव्यवस्था जिस संकट से गुज़र रही है और विश्वसनीयता का संकट जिस हद तक जा पहुँचा है, उसमें ‘आप’ की सख़्त ज़रूरत है। यह पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा किये बग़ैर जनता के गुस्से को निकलने का एक सुरक्षित ‘आउटलेट’ देती है। इस रूप में ‘आप’ आज एक नये अर्थ और रूप में वही भूमिका निभा रही है जो एक दौर में जेपी आन्दोलन और फिर जनता पार्टी ने निभायी थी।  जैसा कि हम पहले इंगित कर आये हैं, ‘आप’ के उभार में योगेन्द्र यादव और आनन्द कुमार जैसे समाजवादी मदारी जो भूमिका निभा रहे हैं, वह वास्तव में वही भूमिका है, जो कि पूँजीवादी व्यवस्था को संकट के दौर में बचाने के लिए सभी समाजवादी (हर ब्राण्ड के!), सुधारवादी और संशोधनवादी निभाते हैं। लेकिन यह भी सच है कि ‘आप’ जैसी किसी भी परिघटना की प्रासंगिकता उसी रूप में दीर्घकालिक नहीं हो सकती है। या तो वह अपना रूप बदलकर पारम्परिक चुनावी पूँजीवादी पार्टी बनकर किसी हद तक कायम रख सकती है, या फिर उसकी नियति में बिखराव होता है। ऐसे बिखराव के बाद कुल मिलाकर फायदा फासीवादी राजनीति को ही पहुँचता है। जैसा कि जनता पार्टी के बिखराव के बाद हुआ था। भारत में चुनावी राजनीति के दायरे में सही मायने में दक्षिणपंथी उभार के लिए तो जयप्रकाश नारायण और उसके लग्गू-भग्गुओं को ही दोषी ठहराया जाना चाहिए, जिसने ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ का भ्रामक नारा देकर जनता की क्रान्तिकारी ऊर्जा को सुरक्षित चैनलों में दिशा-निर्देशित कर दिया और अन्ततः यह सबकुछ दक्षिणपंथी फासीवादी राजनीति के पक्ष में जा खड़ा हुआ।

इसलिए ‘आप’ की पूरी परिघटना में कुछ भी अनोखा और नया नहीं है। आज के पूँजीवादी संकट के दौर में आदर्शवादी, प्रतिक्रियावादी मध्यवर्गीय राजनीति का पूँजीपति वर्ग द्वारा इस्तेमाल किया जाना लाज़िमी है। पूँजीवादी संकट विद्रोह की तरफ़ न जा सके, इसके लिए पूँजीपति वर्ग हमेशा ही टुटपुँजिया वर्ग के आत्मिक व रूमानी उभारों का इस्तेमाल करता रहा है। कभी यह खुले फासीवादी उभार के रूप में होता है, तो कभी ‘आप’ जैसे प्रच्छन्न, लोकरंजकतावादी प्रतिक्रियावाद के रूप में। और अन्त में उसकी नियति भी वही होती है जिसकी हमने चर्चा की है।

अब यह देखना काफ़ी मनोरंजक और दिलचस्प होगा कि यह पूरी प्रक्रिया कैसे घटित होगी।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्‍बर-दिसम्‍बर 2013

 

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