Category Archives: राष्‍ट्रीय/अर्न्‍तराष्‍ट्रीय मुद्दे

पानी का निजीकरण: पूँजीवादी लूट की बर्बरतम अभिव्यक्ति

आज जब पूँजीवाद ने देश के सामने पानी के उपभोग का संकट खड़ा कर दिया है तो सरकार जनता को जल उपलब्ध करवाने के अपने कर्तव्य से बेहयायी से मुकरकर पूँजीपतियों से कह रही है कि लोग प्यास से मरेंगे, जाओ अब तुम लोगों को पानी बेचकर अपनी तिजोरियाँ भरो! निजीकरण पूँजीवाद की आम प्रवृति है और ऐसा प्रत्येक क्षेत्र जहाँ मुनाफे का स्वर्णिम अवसर है निजीकरण मानव जीवन तथा सम्पूर्ण मानवता की कीमत पर भी किया जायेगा। पानी, पर्यावरण तथा जीवन के लिए ज़रूरी किसी भी क्षेत्र की रक्षा एवं सर्वजन सुलभता, मुनाफा केन्द्रित समाज में नहीं बल्कि मानव केन्द्रित समाज में सम्भव होगी जो पूँजीवाद के रहते सम्भव नहीं।

विकास पुरुष नीतीश कुमार का ऐतिहासिक जनादेश और सुशासन का सच!

नीतीश कुमार की सरकार की जनपक्षधरता अभी हाल के ही एक और मसले में भी सामने आ गयी। अभी चैनपुर-बिशुनपुर इलाक़े में एक पूँजीपति एस्बेस्टस का कारख़ाना लगाने वाला है। इस इलाक़े की पूरी जनता इसके ख़िलाफ है और सड़कों पर उतर रही है। लेकिन नीतीश कुमार की सरकार इन पर लाठियाँ बरसाने और इन्हें गिरफ़्तार करने का काम कर रही है। इसी से पता चलता है कि नीतीश कुमार की सरकार किनके लिए विकास करना चाहती है। यह विकास पूँजीपतियों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है और इसकी सच्चाई आने वाले पाँच वर्षों में और अच्छी तरह से उजागर हो जायेगी।

साम्राज्यवाद की सेवा का मेवा

पिछले कुछ समय में जिन लोगों को शान्ति का नोबेल पुरस्कार दिया गया है, उसने तो नोबेल की विश्वसनीयता पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया है। अब बराक ओबामा, अल-गोर, हेनरी किसिंगर जैसे साम्राज्यवादी हत्यारों को क्या सोचकर नोबेल का शान्ति पुरस्कार दिया गया है, इस पर अलग से अनुसन्धान की आवश्यकता पड़ेगी! कुल मिलाकर, इस बार लियू ज़ियाओबो को जो नोबेल शान्ति पुरस्कार मिला है और अतीत में जिन शान्तिदूतों को यह पुरस्कार दिया जाता रहा है, वह नोबेल पुरस्कार के पीछे काम करने वाली पूरी राजनीति का चेहरा साफ कर देता है।

राष्ट्र खाद्य सुरक्षा कानून मसौदा: एक भद्दा मज़ाक

अगर सच्चाइयों पर करीबी से निगाह डालें तो साफ हो जाता है कि वास्तव में खाद्यान्न सुरक्षा मुहैया कराना सरकार का मकसद है ही नहीं। जिस प्रकार नरेगा के ढोंग ने यू.पी.ए. सरकार को एक कार्यकाल का तोहफ़ा दे दिया था, उसी प्रकार यू.पी.ए. की सरकार खाद्यान्न सुरक्षा कानून के नये ढोंग से एक और कार्यकाल जीतना चाहती है। इससे जनता को कुछ भी नहीं मिलने वाला; उल्टे उसके पास जो है वह भी छीन लिया जायेगा।

मूल निवास की राजनीति का दूसरा चेहरा

अमेरिका में पिछले हफ्ते इमिग्रेशन अधिकारियों ने वीज़ा कानून के उल्लंघन के आरोप में वैली विश्वविद्यालय के 18 भारतीय छात्रों के पैरों में इलेक्ट्रॉनिक टैग लगा दिये थे, ताकि उनकी हरकत पर नज़र रखी जा सके। यह दुर्व्यहार सम्बन्धी एक नया मामला है जो मध्य पूर्व एशिया में जारी गतिरोध के कारण मीडियाई बहसों में नहीं उभर पाया। बहरहाल इसे यूरोप में जारी अमानवीयता की शृखंला की नयी कड़ी के रूप में ही देखा जाना चाहिए।

प्रशासनिक सेवा की तैयारी में लगे “होनहारों” के सपने-कामनाएँ, व्यवस्था की ज़रूरत और एक मॉक इण्टरव्यू

“नौकरशाही” का यह चरित्र कोई नयी चीज़ नहीं है। अंग्रेज़़ों के समय में भी यह नौकरशाही ही थी, जिसने अंग्रेज़ी व्यवस्था की सेवा में जनता को लूटा, निचोड़ा, लाठियों-गोलियों से बेदर्दी से शिकार किया और बड़े-बड़े कीर्तिमान स्थापित किये। हर घण्टे हर दिन हर महीने व हर साल, आज़ादी तक अंग्रेज़ों की नौकरशाही ने जनता पर जु़ल्म ढाये। ग़ौरतलब है कि अंग्रेज़ों की नौकरशाही का केवल एक चरित्र, एक रंग-रूप होता है – मौजूदा व्यवस्था की हर हाल में हिफ़ाज़त करना। आज़ादी के बाद चूँकि शोषणकारी व्यवस्था में केवल एक परिवर्तन आया, बकौल भगतसिंह, गोरे साहबों के स्थान पर भूरे साहबों का काबिज़ होना। इससे लूट-शोषण का न केवल वही मूल ढाँचा बना रहा, बल्कि आज़ादी के बाद कितने जलियाँवाला बाग़ को भारतीय नौकरशाही ने अंज़ाम दिया इसकी कोई गिनती नहीं है।

देख फ़कीरे, लोकतन्‍त्र का फ़ूहड़ नंगा नाच!

आज पूरी पूँजीवादी राजनीति सर से पाँव तक नंगी हो चुकी है। ऐसे में यदि संसद में कोई कार्रवाई हो भी जाती तो इससे जनता का क्या भला हो जाता? जब कार्रवाई चलती है तो भी तो उदारीकरण-निजीकरण की नीतियाँ बनती हैं, जनता के ख़िलाफ साज़िशें होती हैं, काले कानून पास होते हैं, और लूट-खसोट को चाक-चौबन्द करने के नियम-कानून बनते हैं। जब संसद में ही लुटेरे बैठेंगे तो आप और क्या उम्मीद कर सकते हैं? इसलिए, संसद में कोई कार्रवाई हो या न हो, इससे जनता को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। पूँजीवादी संसद की परजीवी संस्था अपने आप में इस देश की जनता पर बोझ है।

शिवराज उवाच – ”मध्यप्रदेश में फ़ायदेमन्द निवेश के लिए आपका स्वागत है“

मध्यप्रदेश में अब तक 80530 करोड़ के निवेश का नतीजा सामने यह आया है कि जहाँ एक तरफ पूँजीपति संसाधनों का दोहन व मज़दूरों के शोषण से अकूत मुनाफा कमा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ आम आबादी के ये हालात हैं कि कुपोषण से ग्रसित कुल बच्चों का प्रतिशत 1998-99 में 53.3 से बढ़कर 2008-09 में 60.3 पहुँच गया है तथा ख़ुद सरकारी आँकड़ों से ही म.प्र. में 12,2416 बच्चे भूख व कुपोषण से दम तोड़ चुके हैं जो कुल बाल आबादी का 60 फीसदी है। यह स्वयं म.प्र. के स्वास्थ्य मन्त्री अनूप मिश्रा का कहना है।

जयराम रमेश और उनका पर्यावरण एक्टिविज़्म

इन दूरदर्शी चिन्तकों ने ‘‘समेकित’‘ विकास के अन्तर्गत पर्यावरण संरक्षण का एक नया फार्मूला विकसित किया है – पर्यावरण संरक्षण को व्यापार तथा पूँजी निवेश के एक व्यापक क्षेत्र में विकसित कर इसे मुनाफे के स्रोत में बदलना। इस प्रकार पारम्परिक विकास के उल्टा ये फार्मूला औद्योगिकीकरण और पर्यावरण संरक्षण के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयास करता दिखता है। इस नयी विचारधारा को ‘‘हरित’‘ नव-उदारवाद या ‘‘मुक्त’‘ बाज़ार पर्यावरणवाद का नाम दिया गया है। पर्यावरण संरक्षण का यह बाज़ार हल मूल्य के मानक और पूँजीवादी सम्पत्ति अधिकारों पर आधारित है। पिछले एक दशक में इसके तहत ‘‘ग्रीन’‘ तकनीकों तथा प्रमाणित उत्सर्जन कटौतियों (सर्टीफाइड एमिसन्स रिडक्सन्स – सीईआर्स) का एक व्यापक लाभदायी विश्व बाज़ार विकसित हुआ है। वास्तव में कई मामलों में तो यह ‘‘ग्रीन’‘ व्यापार इतना अधिक फायदेमन्द साबित हुआ है कि कई इकाइयों ने मुख्य धारा के व्यापार की अपेक्षा कार्बन व्यापार से कई गुना मुनाफा कमाने की बात स्वीकारी है। अतः इस तेज़ी से उभरते बाज़ार पर अपना एकाधिकार स्थापित करने के लिए विभिन्न देशों व विभिन्न निजी पूँजीपतियों के बीच होड़ ओर तेज़ हो गयी है। जिसे ग्रीन रेस का नाम दिया जा रहा है।

चोरों, डकैतों, भ्रष्टाचारियों और अपराधियों के बीच हमारे ‘राहुल बाबा’!

अगर आप थोड़ा बारीकी से नज़र डालेंगे तो जितनी स्वतःस्फूर्तता के साथ राहुल जी उभरे हैं, उतनी ही स्वतःस्फूर्तता के साथ आप यह समझ जायेंगे कि राहुल गाँधी अपने-आप लोकप्रिय नहीं बन गये, बल्कि बहुत ही प्रायोजित ढंग से इस देश के प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा उन्हें लोकप्रिय बनाया जा रहा है। आप फिर तपाक से पूछेंगे कि अब इसकी क्या ज़रूरत पड़ गयी? क्या इस देश में लोकप्रिय नेताओं की कमी है और उससे भी बड़ा सवाल कि जब आज मीडिया के पास राखी साँवत से लेकर सचिन तेन्दुलकर तक हज़ारों ‘सेलेबल प्रोडेक्ट्स’ हैं तो फिर राहुल गाँधी को यह मौका क्यों दिया जा रहा है? दोनों ही सवाल जायज़ हैं!