चतुर्थ अरविन्द स्मृति संगोष्ठी (12-16 मार्च, 2013), चण्डीगढ़
‘जाति प्रश्न और मार्क्सवाद’
जाति उन्मूलन का रास्ता मज़दूर इंक़लाब और समाजवाद से होकर जाता है, संसदवादी, अस्मितावादी या सुधारवादी राजनीति से नहीं!
गत 12 से 16 मार्च तक अरविन्द स्मृति न्यास द्वारा चण्डीगढ़ में चतुर्थ अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का आयोजन हुआ। इस बार संगोष्ठी पाँच-दिवसीय थी और इसका विषय था ‘जाति प्रश्न और मार्क्सवाद’। संगोष्ठी में देश भर से बुद्धिजीवियों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं, छात्रों -युवाओं और दलित संगठनों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। संगोष्ठी में आठ पेपर पेश किये गये और कुछ अन्य पेपरों को संगोष्ठी में वितरित किया गया। अरविन्द स्मृति न्यास का गठन प्रसिद्ध राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ता अरविन्द सिंह की स्मृति में 2009 में किया गया था। साथी अरविन्द मृत्यु से पूर्व ‘बिगुल’ के सम्पादन की जिम्मेदारी उठाने के साथ-साथ दिल्ली व उत्तर प्रदेश के मज़दूर आन्दोलनों में सक्रिय थे। वे गोरखपुर में दलित सफाई कर्मचारियों के एक आन्दोलन में भी नेतृत्वकारी भूमिका में थे। साथी अरविन्द का 24 जुलाई 2007 को बीमारी के कारण आकस्मिक निधन हो गया था। उसके बाद से ही, उनकी याद में हर वर्ष उनकी पुण्य तिथि पर अरविन्द स्मृति न्यास भारत के क्रान्तिकारी आन्दोलन के लिए सबसे ज्वलन्त और प्रासंगिक मुद्दों पर अखिल भारतीय संगोष्ठी का आयोजन कर रहा है। 2012 में उनकी पुण्य तिथि पर इस संगोष्ठी का आयोजन करने की बजाय, अरविन्द स्मृति न्यास ने 2013 में उनके जन्मदिवस पर एक बड़ी पाँच दिवसीय संगोष्ठी करने का निर्णय लिया, और साथ ही यह निर्णय भी लिया कि अब से इस संगोष्ठी का आयोजन हर वर्ष साथी अरविन्द की जन्मतिथि पर ही किया जायेगा। लिहाज़ा, 2013 में 12 से 16 मार्च के दरमियान ‘जाति प्रश्न और मार्क्सवाद’ विषय पर पाँव दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया।
मज़दूर आन्दोलन से लेकर छात्र-युवा आन्दोलनों तक में सक्रिय हर राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ता इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ़ है कि जाति का सवाल आज मज़दूरों और आम मेहनतकश जनता समेत छात्रों-युवाओं तक को संगठित करने में सबसे महत्वपूर्ण बाधाओं में से एक है। और ऐसा महज़ आज से नहीं बल्कि कई दशकों से है। देश की करीब 17 करोड़ दलित आबादी का बहुलांश मेहनतकश लोग हैं, जो कि भयंकर आर्थिक उत्पीड़न के साथ बर्बर जातिगत उत्पीड़न के भी शिकार हैं। हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान से लेकर तमिलनाडु और कर्नाटक तक मेहनतकश दलित आबादी के साथ आये दिन बर्बर और अमानवीय कृत्यों की ख़बरें आती रहती हैं। यह दलित मेहनतकश आबादी भारत के मज़दूर वर्ग का सबसे पीड़ित और साथ ही सबसे जुझारू हिस्सा है। यही कारण है कि इस दलित आबादी को मज़दूर वर्ग से अलग रखने के लिए जातिवादी अस्मितावादी राजनीति का जाल शासक वर्ग और उसके टट्टुओं द्वारा बिछाया गया है। चुनावी और ग़ैर-चुनावी अस्मितावादी दलित राजनीति करने वाले संगठन इस आबादी को एक राजनीतिक पार्थक्य में रखते हैं और उनके हितों के अकेले पहरेदार होने का दावा करते हैं। वहीं दूसरी ओर मज़दूर वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाला कम्युनिस्ट आन्दोलन दलित आबादी के संघर्षों में कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ने और बेमिसाल कुर्बानियाँ देने के बावजूद, दलित प्रश्न को सही ढंग से समझने में नाकाम रहा। दलित आबादी के बीच कम्युनिज़्म को बदनाम करने में संसदवादी संशोधनवादी कम्युनिस्टों की बड़ी भूमिका रही है, जिन्होंने अपने जीवन में सवर्णवादी मूल्यों-मान्यताओं पर अमल करते हुए लाल झण्डे पर धब्बा लगाने का काम किया। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट अपने जीवन में जाति व्यवस्था को ख़ारिज करने के बावजूद जाति की सामाजिक समस्या के ऐतिहासिक मूल और समाधान के बारे में कोई विस्तृत योजना पेश न कर सके। लेकिन इन सबके बावजूद यह आज का सच है कि सर्वहारा क्रान्ति और समाजवाद के बिना, बुर्जुआ व्यवस्था के दायरे के भीतर दलित आबादी की मुक्ति सम्भव नहीं है; साथ ही, यह भी उतना ही बड़ा सच है कि व्यापक मेहनतकश दलित आबादी की भागीदारी और उसकी बाकी मज़दूर आबादी के साथ फौलादी एकजुटता के बिना ऐसी कोई क्रान्ति सम्भव ही नहीं है। यह एकता कैसे कायम की जाय? अस्मितावादी राजनीति का मुकाबला कैसे किया जाय? अम्बेडकर के योगदानों की आलोचनात्मक समीक्षा किस रूप में की जाय? क्या अम्बेडकर के पास जाति उन्मूलन का कोई रास्ता था? दलित मुक्ति की क्रान्तिकारी समाजवादी परियोजना का ख़ाका कैसे तैयार किया जाय? फौरी कार्यभारों के तौर पर क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन को इस प्रश्न पर कौन-से कदम उठाने चाहिए? ये ऐसे कुछ सवाल हैं जिनका जवाब देना आज क्रान्तिकारियों के सामने एक अहम चुनौती है। और इसी चुनौती का जवाब देने के लिए एक व्यापक बहस-मुबाहसे के लिए चतुर्थ अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का विषय ‘जाति प्रश्न और मार्क्सवाद’ रखा गया। इस संगोष्ठी की रिपोर्ट हम आपके बीच पेश कर रहे हैं।
संगोष्ठी के पहले दिन साथी अरविन्द को क्रान्तिकारी श्रद्धांजलि अर्पित करने के साथ कार्यक्रम की शुरुआत हुई। इसके बाद अरविन्द स्मृति न्यास की ओर से संगोष्ठी का आधार आलेख ‘जाति प्रश्न और उसका समाधानः एक मार्क्सवादी दृष्टिकोण’ सत्यम वर्मा द्वारा पेश किया गया। यह आधार आलेख अरविन्द स्मृति न्यास की शोध टीम द्वारा तैयार किया गया था। आलेख को पेश करने में करीब 5 घण्टे लगे। आलेख में यह स्थापना रखी गयी कि भारत में सर्वहारा क्रान्ति की कोई भी परियोजना जाति के प्रश्न को सही ढंग से समझे बिना और उसके समाधान की दीर्घकालिक ऐतिहासिक योजना के बिना आगे नहीं बढ़ सकती है; साथ ही, जातिगत असमानता और उत्पीड़न का ख़ात्मा और समूची जाति व्यवस्था के उन्मूलन की भी कोई परियोजना पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर रहकर सुधारवाद, आरक्षण, संसदवाद और अस्मितावाद के रास्ते आगे नहीं बढ़ सकती है। आज क्रान्ति के हिरावलों को ज़रूरत है कि वे जाति उन्मूलन की एक सही वैज्ञानिक-ऐतिहासिक परियोजना पेश करें। निश्चित तौर पर, सर्वहारा क्रान्ति और समाजवाद की स्थापना के बाद जाति व्यवस्था स्वयं ही ख़त्म नहीं हो जायेगी और उसके बाद भी कई सांस्कृतिक क्रान्तियों और समाजवादी शिक्षा आन्दोलनों के बाद ही यह लक्ष्य पूरा हो पायेगा। लेकिन क्रान्ति होने तक जाति के प्रश्न को स्थगित भी नहीं किया जा सकता है, क्योंकि जाति के प्रश्न को पहले दिन से ही क्रान्तिकारी समझदारी के साथ उठाये बिना सर्वहारा वर्ग को क्रान्ति के लिए संगठित ही नहीं किया जा सकता है। जहाँ एक ओर देश की मेहनतकश आबादी में स्वतःस्फूर्त रूप से जातिगत विभेद के संस्कार मौजूद हैं, वहीं वोट बैंक की राजनीति करने वाली पूँजीवादी चुनावी पार्टियाँ भी वोटों के लिए जातिगत समीकरणों का ही इस्तेमाल करती हैं, जिससे कि समाज में जातिगत विभेद और भी ज़्यादा बढ़ता है। शासक वर्गों की हर सम्भव कोशिश होती है कि पहले से जाति में बँटी हुई आम मेहनतकश जनता के बीच जातिवादी चेतना को और ज़्यादा बढ़ावा दिया जाय।
आलेख में आगे स्पष्ट किया गया कि जाति व्यवस्था को उसकी ऐतिहासिकता के साथ ही समझा जा सकता है। जाति व्यवस्था अपने उद्भव से लेकर आज तक के दौर में स्थैतिक और जड़ नहीं रही है, बल्कि सतत् गतिमान रही है। अपने उद्भव के दौर में वर्ण वर्ग के रूप में ही पैदा हुए थे; लेकिन आगे धार्मिक कर्मकाण्डीय वैधीकरण प्राप्त करने के कारण वर्ण तुलनात्मक रूप से स्थैतिक श्रेणी बन गये जबकि वर्ग उत्पादन सम्बन्धों में आने वाले बदलावों के कारण अपेक्षाकृत ज़्यादा गतिमान रहे। फिर भी, औपनिवेशिक दौर के पहले तक जातियों के पदानुक्रम और वर्गों के पदानुक्रम के बीच कमोबेश अतिच्छादन की स्थिति बनी हुई थी। ब्रिटिश उपनिवेशवाद के आने के बाद उद्योगों, रेलवे आदि का जो सीमित विकास ब्रिटिश शासकों के लाभ के लिए किया, उसके कारण जाति के कुछ बन्धन कमज़ोर पड़े और जातियों के पदानुक्रम और वर्गों के पदानुक्रम के बीच के अतिच्छादन के तत्व में कमी आयी। आज़ादी के बाद भारतीय पूँजीपति वर्ग ने भारत में जो क्रमिक पूँजीवादी विकास का रास्ता अख्तियार किया, उसके कारण कम गति से ही सही, लेकिन जाति द्वारा आधारित अनमनीय श्रम विभाजन और खान-पान सम्बन्धी वर्जनाएँ टूटी हैं। लेकिन बेटी का रिश्ता अभी भी नहीं बन सका है। लेकिन उसका एक कारण यह है कि अन्तर्जातीय विवाह पूँजीवाद की ज़रूरत नहीं हैं। जातिगत विभेद और बँटवारा भारतीय समाज की पोर-पोर में समाये हुए है और जाति व्यवस्था के आर्थिक और एक हद तक राजनीतिक पहलुओं के पूँजीवादी विकास के साथ काफी हद तक कमज़ोर हो जाने के बावजूद सांस्कृतिक और सामाजिक रूप में यह अभी भी भारतीय समाज में अपनी सशक्त उपस्थिति आये दिन दर्ज कराती रहती है। यह विशेष रूप से दलित-उत्पीड़न की बर्बर घटनाओं के रूप में सामने आता है।
कुछ सहूलियतों और सुधारों से दलित आबादी को कुछ भी हासिल हो सकेगा इसकी उम्मीद कम ही है। आरक्षण के लगभग तीन दशक बीत जाने के बाद यह स्वयंसिद्ध है, कि आज आरक्षण एक जनवादी माँग नहीं बल्कि जनवादी विभ्रम में तब्दील हो चुका है। यह शासक वर्ग के हाथ में दलित आबादी के बीच भी लगातार फूट डालते जाने का एक अहम औज़ार बन चुका है। तीन दशक बीत जाने के बाद भी अगर आरक्षण की नीति के ज़रिये अगर सिर्फ 7-8 प्रतिशत दलित ही इसका लाभ प्राप्त कर सके हैं, तो यह सोचना पड़ेगा कि इस नीति से व्यापक दलित मेहनतकश आबादी को क्या हासिल हो सकता है? वहीं दूसरी तरफ़, शासक वर्ग ने इस नीति का इस्तेमाल लगातार न सिर्फ पूरी आम मेहनतकश आबादी की एकता को तोड़ने के लिए किया है, बल्कि स्वयं दलितों की आबादी को भी खण्ड-खण्ड में बाँटने में किया है। साथ ही, यह भी सोचने का विषय है कि अम्बेडकर के पास दलित मुक्ति की कोई ऐतिहासिक परियोजना थी या नहीं। जाति व्यवस्था के ऐतिहासिक मूल से लेकर उसकी गतिकी तक के बारे में अम्बेडकर की समझदारी बेहद उथली थी। नतीजतन, जाति उन्मूलन को कोई वैज्ञानिक रास्ता वह कभी नहीं सुझा सके। इसका एक कारण यह भी था कि अम्बेडकर की पूरी विचारधारा अमेरिकी व्यवहारवाद के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी हुई थी। लिहाज़ा, उनका आर्थिक कार्यक्रम अधिक से अधिक पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद तक जाता था, सामाजिक कार्यक्रम अधिक से अधिक धर्मान्तरण तक और राजनीतिक कार्यक्रम कभी भी संविधानवाद के दायरे से बाहर नहीं गया। कुल मिलाकर, यह एक सुधारवादी कार्यक्रम था और पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर ही कुछ सहूलियतें और सुधार माँगने से आगे कभी नहीं जाता था। अम्बेडकर का एक योगदान अवश्य था कि उन्होंने पहली बार दलित अस्मिता को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया और दलितों की मुक्ति के प्रश्न को राष्ट्रीय एजेण्डे पर स्थापित करने में योगदान किया। लेकिन जहाँ तक जाति उन्मूलन का सवाल है, उनके पास इसका कोई रास्ता नहीं था। साथ ही, अम्बेडकर के बाद के दौर में दलित राजनीति में पैदा हुए रैडिकल मोड़ भी अन्ततः पतन में समाप्त हुए। ऐसे में, विचारणीय है कि अस्मिता की ज़मीन पर खड़े होकर दलित मुक्ति की कोई भी परियोजना नहीं बनायी जा सकती है। आधार आलेख में फुले और पेरियार की जाति-विरोधी धाराओं का भी आलोचनात्मक विश्लेषण रखा गया और बताया गया कि पेरियार का जाति-विरोध निरीश्वरवाद और तर्कवाद की ज़मीन पर खड़ा था। लेकिन राजनीतिक तौर पर इसकी समझदारी बेहद कमज़ोर थी। मिसाल के तौर पर, उपनिवेशवाद का विरोध न करने का उनका फैसला अन्ततः जाति व्यवस्था के पक्ष में जाकर ही खड़ा होता था, क्योंकि कुछ बिखरे सामाजिक और शैक्षणिक सुधारों को छोड़ दिया जाय तो ऐतिहासिक तौर पर उपनिवेशवाद ने जाति व्यवस्था को मज़बूत करने का काम किया था। यही कारण था कि आगे भी पेरियार कभी अनमनीय जाति-विरोधी राजनीतिक व्यवहार नहीं कर पाये।
लेकिन साथ ही यह भी एक सत्य है कि भारत का कम्युनिस्ट आन्दोलन दलित प्रश्न को कभी सही तरीके से समझ नहीं सका। तमाम रैडिकल आन्दोलनों में कम्युनिस्ट दलितों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़े, उनके ज़मीन और इज्ज़त के हक़ के लिए असाधाराण कुर्बानियाँ भी दीं और भाकपा और माकपा के संशोधनवाद के रास्ते पर चल पड़ने के बाद, देश के क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन के प्रमुख सिपाहियों में बिहार, पश्चिम बंगाल से लेकर आन्ध्रप्रदेश और कर्नाटक तक दलित आबादी ही थी। तमाम इलाकों में सवर्ण ज़मींदारों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष कर कम्युनिस्ट आन्दोलन ने दलितों को सिर ऊँचा करके चलने का हक़ दिलाया। लेकिन इन तमाम कुर्बानियों के बावजूद अपनी बौद्धिक-राजनीतिक कमज़ोरी के चलते भारत का कम्युनिस्ट आन्दोलन जाति के प्रश्न को न तो सही ढंग से समझ सका और न ही उसके समाधान की कोई ऐतिहासिक परियोजना सुझा सका। आज कई नव-मार्क्सवादी चिन्तक इस कमज़ोरी की चर्चा करते हुए अम्बेडकरवादी और अस्मितावादी दलित आन्दोलन के समक्ष आत्मसमर्पण की मुद्रा में हैं, और कम्युनिस्ट आन्दोलन में दलित लक्ष्य के लिए की गयी कुर्बानियों को नज़रअन्दाज़ करने पर आमादा हैं। लेकिन यह कम्युनिस्ट आन्दोलन का एक सही आलोचनात्मक विश्लेषण नहीं है। सही विश्लेषण हमें इस नतीजे पर पहुँचाता है कि जो कम्युनिस्ट आन्दोलन कभी सही विचारधारात्मक अवस्थिति नहीं अपना सका, जो कभी अपने देश की ठोस परिस्थितियों के अध्ययन के आधार पर कभी क्रान्ति का कार्यक्रम नहीं तैयार कर सका, जो रणनीति और आम रणकौशल के मसलों पर विदेशी नेतृत्व पर अपनी मानसिक निर्भरता के कारण लगातार गम्भीर चूकें करता रहा, उससे यह उम्मीद भी नहीं की जा सकती है कि वह जाति के जटिल प्रश्न का कोई सन्तुलित मूल्यांकन पेश करे। कम्युनिस्ट आन्दोलन मार्क्सवादी अप्रोच और प्रणाली से जाति प्रश्न का सही विश्लेषण नहीं कर सका। कभी बचकाने तरीके से जाति व्यवस्था को मूलाधार से सम्बन्धित बता दिया गया तो कभी अधिरचना से। कभी जाति को ही वर्ग बता दिया गया तो कभी दोनों को एकदम असम्बद्ध घोषित कर दिया गया।
अन्त में, जाति उन्मूलन की एक नयी समाजवादी परियोजना प्रस्तावित की गयी। इसे दो हिस्सों में रखा गया। एक हिस्सा तो दीर्घकालिक एजेण्डे का था, जिसमें समाजवादी किस प्रकार जाति के प्रश्न को आर्थिक धरातल और राजनीतिक धरातल से ख़त्म करता है, और किस प्रकार वह सामाजिक धरातल पर भी लम्बे एजेण्डे के साथ जातिगत विभेद को ख़त्म करता है, इस बात का संक्षेप में उल्लेख किया गया था। दूसरा हिस्सा फौरी कार्यभारों का था जिसमें जाति-विरोधी संगठन बनाने, मज़दूर माँगपत्रकों को दलित मज़दूरों की माँगों को प्रमुख स्थान देने, अन्तरजातीय विवाहों को बढ़ावा देने, अखबारों में जाति आधारित विज्ञापनों पर रोक लगाने, सार्वजनिक स्थलों पर धार्मिक समागमों पर रोक लगाने जैसे कार्यक्रम शामिल थे।
आलेख की प्रस्तुति पूरी होने के बाद सदन से प्रथम हस्तक्षेप आमन्त्रित किये गये। नेपाल से ‘नेपाल राष्ट्रीय दलित मुक्ति मोर्चा’ के अग्रणी नेता तिलक परियार ने कहा कि कुछ सीमाओं के साथ आधार आलेख ने भारत में जाति की समस्या का उत्कृष्ट विश्लेषण किया है। उन्होंने कहा कि दलित प्रश्न पूरे दक्षिण एशिया का प्रश्न है और इस विषय पर कोई महाद्वीपीय मंच बनाया जाना चाहिए। उनका मानना था कि अलग से दलित संगठन बनाये जा सकते हैं। अरविन्द स्मृति न्यास की ओर से स्पष्टीकरण देते हुए अभिनव ने कहा कि दलित मुक्ति के लिए ऐसे संगठन नहीं बनाये जाने चाहिए जिसकी सदस्यता महज़ दलितों तक सीमित हो। इसकी सदस्यता हर उस व्यक्ति के लिए खुली होनी चाहिए जो दलित मुक्ति के लक्ष्य के लिए प्रतिबद्ध हो। अन्यथा, वह आन्दोलन अस्मितावादी राजनीति के पंककुण्ड में जा गिरेगा। लेकिन इस बात पर सहमति जतायी गयी कि व्यापक दलित आबादी के बीच कम्युनिस्ट नेतृत्व के प्राधिकार को स्थापित करने के लिए लगातार वर्ग दृष्टिकोण से उनके बीच राजनीतिक प्रचार की ज़रूरत है।
महाराष्ट्र से आये ‘रिपब्लिकन पैंथर्स’ के सदस्य शरद गायकवाड़ ने कहा वह अम्बेडकर के मसले पर आधार आलेख से सहमत नहीं हैं। आज मज़दूर वर्ग और दलितों के आन्दोलन का नारा लाल सलाम के साथ-साथ “जय भीम’ भी होना चाहिए। शरद गायकवाड़ ने कहा कि अम्बेडकर की इण्डिपेण्डेण्ट लेबर पार्टी एक लाल झण्डे वाली पार्टी थी। उनके अनुसार केवल दलित ही दलित का दर्द समझ सकता है और इसलिए उसकी मुक्ति के लिए बोलने का प्राधिकार भी उसके पास ही है। संगोष्ठी के आयोजकों ने स्पष्ट किया कि अम्बेडकर से आज का मज़दूर आन्दोलन और यहाँ तक कि दलित आन्दोलन क्या ले सकता है, यह स्पष्ट किया जाना चाहिए। दलित अस्मिता को स्थापित करने के सिवा अम्बेडकर के पास दलित मुक्ति की कोई परियोजना नहीं थी। सिर्फ़ भावनाओं के धरातल पर और दलित आबादी के तुष्टिकरण के लिए एक ग़लत सोच को कैसे अपनाया जा सकता है। दलित आबादी भी इस तुष्टिकरण की राजनीति को समझती है और इससे आज तक उन्हें कोई भी अपने साथ जोड़ नहीं पाया है। आज ज़रूरत है कि वर्ग दृष्टिकोण के साथ दलितों के बीच राजनीतिक प्रचार कर उन्हें गोलबन्द किया जाय। अम्बेडकर की ‘इण्डिपेण्डेण्ट लेबर पार्टी’ कोई लाल झण्डे वाली पार्टी नहीं थी, बल्कि अम्बेडकर पर फेबियन समाजवाद के प्रभाव का नतीजा थी, जिसका मार्क्सवाद से ताल्लुक नहीं है। यह समझने की ज़रूरत है कि अम्बेडकर को कोई पवित्र वस्तु नहीं बना दिया जाना चाहिए, जो आलोचना से परे हो। उनके विचारों पर विस्तार से चर्चा की जानी चाहिए।
पश्चिम बंगाल से ‘सेण्टर फॉर सोशल साइंस स्टडीज़’ से आये प्रस्कन्न सिन्हारे ने कहा कि आधार आलेख में दलित समस्या को उनकी जगह पर खड़े होकर नहीं समझा गया है और पूरे देश में दलितों को एकसमान समझ लिया गया है। जबकि दलित आबादी देश के अलग-अलग हिस्सों में बिल्कुल भिन्न प्रकार की है। उनको एक राष्ट्रीय दृष्टिकोण से नहीं देखा जा सकता है, बल्कि उनकी अपनी अलग-अलग स्थिति से ही देखा जा सकता है। संगोष्ठी आयोजकों की ओर से अभिनव ने स्पष्ट किया कि आधार आलेख की मुख्य विषयवस्तु दलित जातियों के बीच देश पैमाने पर मौजूद अन्तर नहीं था। निश्चित तौर पर, देश के अलग-अलग हिस्सों में दलित जातियों के चरित्र और स्थिति में बहुत अन्तर है। लेकिन इसके बावजूद यह भी सच है कि उनका एक सामान्य एजेण्डा बनता है, और विशेष रूप से मेहनतकश दलित आबादी का एक सामान्य एजेण्डा और भी स्पष्ट तौर पर बनता है। ‘सन्हति’ के असित दास ने कहा वह आधार आलेख में प्रस्तुत मूल्यांकन से कुल मिलाकर सहमति रखते हैं और साथ ही जाति व्यवस्था की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की चर्चा भी प्रशंसनीय है। लेकिन इस बारे में आलेख में कुछ नहीं बताया गया कि अम्बेडकर और फुले जैसे व्यक्तित्वों को जनवादी कार्यभारों को पूरा करने में मित्र माना जाये या नहीं; साथ ही, जो दलित संगठन बेईमान और चुनावी राजनीति के दलदल में नहीं फँसे हैं, उनसे कोई साझा मोर्चा बन सकता है या नहीं, इसके बारे में भी स्पष्टीकरण की ज़रूरत है। संगोष्ठी के आयोजकों की ओर से अभिनव ने असित दास के समक्ष स्पष्टीकरण रखते हुए कहा कि निश्चित तौर पर समाजवादी क्रान्ति के दौर में छूटे-फटके जनवादी कार्यभारों की पूर्ति में ईमानदार दलित संगठनों के साथ मुद्दा-आधारित मोर्चा बनाया जा सकता है और बनाया जाना चाहिए; लेकिन यह एकता विचारधारात्मक और आम राजनीतिक एकता का रूप नहीं ले सकती है क्योंकि जहाँ तक दलित मुक्ति की एक वैज्ञानिक परियोजना का प्रश्न है, वह न तो अम्बेडकर के पास थी, न अन्य अस्मितावादी दलित संगठनों के पास है, चाहे वे ईमानदार ही क्यों न हों। पंजाब विश्वविद्यालय से आये प्रो. मंजीत सिंह ने कहा कि यह समझने की ज़रूरत है कि भारत में जाति व्यवस्था टूटी क्यों नहीं। पूँजीवाद ने इसे अपने तरीके से और मज़बूत करने का काम किया है, क्योंकि आर्थिक तौर पर भी कई क्षेत्रों में यह पूँजीपतियों को अतिरिक्त अधिशेष निचोड़ने का मौका देता है। उन्होंने कहा कि भारत में दास उत्पादन पद्धति, सामन्ती उत्पादन पद्धति और पूँजीवादी उत्पादन पद्धति का एक मिश्रण तैयार हुआ है। जाति व्यवस्था न सिर्फ एक सामाजिक असमानता है, बल्कि वह आर्थिक असमानता की ज़मीन भी तैयार करती है। अरविन्द न्यास स्मृति की ओर से प्रो. मंजीत सिंह की बातों से सशर्त सहमति जताते हुए अभिनव ने कहा कि हर समाज में एक सामाजिक संरचना होती है, जिसमें कई उत्पादन पद्धतियाँ सहअस्तित्व में होती हैं; उत्तर-औपनिवेशिक पूँजीवादी समाजों में यह बात और भी जटिलता के साथ लागू होती है, लेकिन दुनिया का कोई भी समाज इस स्थिति से मुक्त नहीं है। सवाल यह है कि कई उत्पादन पद्धतियों के तन्तुबद्धीकरण (आर्टिकुलेशन) वाली सामाजिक संरचना में प्रभावी और प्रमुख उत्पादन पद्धति कौन-सी है। साथ ही, दलित मज़दूरों को कई बार बंधुआ मज़दूरों के तौर पर रखा जाता है। लेकिन पूँजीवाद स्वयं अस्वतन्त्र श्रम का प्रयोग करता है। मार्क्स ने जब दोहरे अर्थों में स्वतन्त्र श्रम की बात की थी, तो उन्होंने ‘स्वतन्त्र’ को उद्धरण चिन्हों के बीच इसीलिए रखा था ताकि ‘स्वतन्त्र’ शब्द का कोई शाब्दिक अर्थ न निकाल ले। पूँजीवाद का समूचा इतिहास इस बात का गवाह है कि इसने बार-बार दास श्रम से लेकर भूदास श्रम और बेगारी तक का अतिरिक्त अधिशेष निकालने में हर उस जगह इस्तेमाल किया है, जहाँ ऐसा करना सम्भव था। भारत में जाति व्यवस्था ने कई जगह इस बात को सम्भव बनाया है। लेकिन यह अपने आपमें सामन्ती या दास उत्पादन पद्धति का प्रतीक नहीं है, बल्कि दिखलाता है कि हर सामाजिक संरचना का चरित्र ऐसा ही होता है। सिरसा से आये डॉ. सुखदेव हुन्दल ने आधार आलेख से सहमति जतायी लेकिन साथ ही इस ओर ध्यान आकर्षित किया कि बुद्धवाद के विश्लेषण को और विस्तृत और स्पष्ट रूप में रखने की ज़रूरत थी। सुखविन्दर ने अरविन्द स्मृति न्यास की ओर से स्पष्ट किया कि चूँकि आधार आलेख के फ्रेमवर्क की एक सीमा थी इसलिए इस सवाल पर बहुत तफ़सील से लिखना सम्भव नहीं था, लेकिन निश्चित रूप से यथोचित स्थान पर इस पर आगे ज़रूर लिखा जायेगा।
नेपाल की ‘नेपाल की एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)’ की केन्द्रीय कमेटी के सदस्य और सांस्कृतिक मामलों के विशेषज्ञ कॉ. नीनू चपागाईं ने कहा कि आधार आलेख एक गम्भीर विश्लेषण पेश करता है और जाति प्रश्न के नेपाल में भी मौजूद होने के बावजूद ऐसा गम्भीर विश्लेषण देखने को कम मिलता है। लेकिन उनका मानना था कि एक अलग दलित संगठन बनाने का कम्युनिस्ट आन्दोलन से कोई अन्तरविरोध नहीं है। संगठन चाहे जैसा भी हो, राजनीति कौन सी लागू होती है, इससे फर्क पड़ता है। अगर नेतृत्व कम्युनिस्टों के हाथ में नही होगा तो वही संगठन पहचान की राजनीति की तरफ़ जा सकता है। नेपाल से आये तिलक परियार ने भी नीनू चपागाईं की बात का समर्थन किया। इस प्रश्न पर अभिनव ने अरविन्द स्मृति न्यास की तरफ़ से बात रखते हुए कहा कि संगठन किस किस्म का है, इसका भी राजनीति पर प्रभाव पड़ता है। अन्यथा, लेनिन कभी इस बारे में चिन्ता नहीं जताते कि कम्युनिस्ट पार्टी के संघटन में उन्नत मंजिलों में सर्वहारा तत्व की प्रधानता को सुनिश्चित किया जाना चाहिए। दूसरी बात यह कि यदि कोई ग़ैर-दलित दलित मुक्ति की परियोजना से उतना ही प्रतिबद्ध है जितना कि कोई दलित, और वह इस मुहिम को अपना प्रमुख उद्देश्य मानता है, तो क्या दलित संगठन के दरवाज़े उसके लिए बन्द होंगे? ऐसा करके तो दलित संगठन स्वयं अपने सम्भावित मित्रों को खो देगा और इसकी प्रतिक्रिया में एक सिर के बल खड़ा जातिवाद पैदा होगा। ऐसे में, हमारा मानना है कि जाति-विरोधी संगठन निश्चित तौर पर बनाये जाने चाहिए; लेकिन ऐसा संगठन जिसकी सदस्यता सिर्फ दलितों के लिए खुली हो, वह किसी भी कम्युनिस्ट पैमाने से ग़लत होगा। यह उसी उत्तर-आधुनिक तर्क की तरफ़ ले जायेगा कि दलित ही दलित के लिए बोल सकता है। यह अस्मितावादी राजनीति के गड्ढे में गिरने के लिए अभिशप्त होगा।
पहले दिन हस्तक्षेप करने वालों में हिमाचल से आये कॉ. सुखपाल, संगरूर से नौजवान भारत सभा के सन्दीप, बामसेफ के हरिकृष्ण, ‘डैफोड्वैम’ से आये अनन्त आचार्य, करावलनगर मज़दूर यूनियन के नवीन, सिरसा से आये कश्मीर सिंह प्रमुख थे। आधार आलेख पर दूसरे दिन भी बहस जारी रही जिसमें प्रस्कन्न सिन्हारे, असित दास, सुखविन्दर, अनन्त आचार्य, नीनू चपागाईं, अभिनव, सत्यम, शब्देश आदि ने हस्तक्षेप किया।
तीसरे दिन जाति प्रश्न और अस्मितावादी राजनीति से जुड़े दो आलेख प्रस्तुत किये गये। पहला आलेख कोलकाता के ‘सेण्टर फॉर सोशल साइंस स्टडीज़’ से आये अध्येता प्रस्कन्न सिन्हारे ने पेश किया। उन्होंने अपने आलेख ‘पश्चिम बंगाल में जाति और राजनीतिः वाम मोर्चे का बदलता चेहरा’ में प्रदर्शित किया कि किस प्रकार पश्चिम बंगाल में संशोधनवादी माकपा और भाकपा दलित आन्दोलन के प्रति एक सही दृष्टिकोण अपनाने में असफल रहे और किस प्रकार इस असफलता के कारण वहाँ अस्मितावादी जाति राजनीति का उदय हुआ। लेकिन साथ ही साथ उनका दृष्टिकोण था कि जाति की पहचान को कम्युनिस्टों को हूबहू अपने विश्लेषण में अपना लेना चाहिए और उसके साथ बाह्य तौर पर मोर्चा बनाना चाहिए। इस आलेख पर प्रतिक्रिया देते हुए ‘मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्नान’ के सम्पादक अभिनव ने कहा कि यह सच है कि संसदमार्गी वाम जाति के प्रश्न को पश्चिम बंगाल में न तो समझ पाया और न सही ढंग से उठा पाया। नतीजा यह हुआ कि भारी दलित आबादी वहाँ अस्मितावादी राजनीति के दलदल में जा फँसी। लेकिन यह भी सच है कि जातिगत अस्मिता को अनालोचनात्मक रूप से स्वीकार करने और उसके बाद उससे मोर्चा बनाने की राजनीति भी एक अलग किस्म के अस्मितावाद की तरफ़ ही ले जाती। जाति के प्रश्न की विशिष्टता को समझते हुए भी वर्ग दृष्टिकोण को लागू किया जाना बहुत ज़रूरी है। दलित समस्या के समाधान के लिए जहाँ कम्युनिस्टों को अलग से इसकी विशिष्टता को समझना होगा, वहीं यह भी समझना होगा कि अलग-अलग दलित जातियाँ भी कोई एकाश्मीय निकाय नहीं हैं; बल्कि वे स्पष्ट रूप से वर्ग विभाजित हैं। ऐसे में, जातिगत पहचान को अपने विश्लेषण में हूबहू अपना लेने की सोच भी अस्मितावाद का ही एक विशिष्ट संस्करण है। अगला आलेख दिल्ली विश्वविद्यालय से आयी “स्त्री मुक्ति लीग’ से जुड़ी राजनीतिक कार्यकर्ता शिवानी ने प्रस्तुत किया। इस आलेख का विषय था ‘जाति, वर्ग और अस्मितावादी राजनीति’। इस आलेख में शिवानी ने प्रदर्शित किया कि अस्मितावादी राजनीति का उत्तर-आधुनिक राजनीतिक एजेण्डे से गहरा सम्बन्ध है। बल्कि कहना चाहिए कि ‘तीसरी दुनिया’ के तमाम उत्तर-औपनिवेशिक देशों में अस्मितावादी राजनीति की शुरुआत ही वैश्विक पैमाने पर उत्तर-आधुनिक एजेण्डे को आगे बढ़ाने के लिए ही की गयी थी। यह सारा गोरखधन्धा 1970 के दशक से ही शुरू हो चुका था, जब लातिन अमेरिका के देशों में स्वयंसेवी संगठनों का नेटवर्क फैलाया गया, जिनका एकमात्र मकसद था कि वर्ग चेतना को भोथरा बनाकर विभिन्न प्रकार की अस्मिताओं को बढ़ावा दिया जाय। भारत में यही काम 1990 के दशक से ज़ोर-शोर से शुरू हुआ। राजनीतिक पटल पर इस काम को एन.जी.ओ. और विश्व सामाजिक मंच जैसे उनके फोरम अंजाम दे रहे थे, जबकि अकादमिक जगत में इसी काम को सबऑल्टर्न स्टडीज़ जैसी विचार-सरणियाँ अंजाम दे रही थीं। इस पूरी मुहिम में भारत में जाति का प्रश्न बेहद अहम बन गया और तमाम चुनावी और ग़ैर-चुनावी संगठन इसी मकसद से खड़े किये गये कि जातिगत पहचान को बढ़ावा देकर वर्ग चेतना को कुन्द किया जाय। आज भारत में दलित मुक्ति की किसी भी परियोजना को मज़दूर आन्दोलन से जोड़ना होगा और अस्मितावादी राजनीति और चिन्तन के हर रूप का खण्डन करते हुए आगे बढ़ना होगा। इसके अतिरिक्त, कोई भी रास्ता अन्ततः दलित मुक्ति की मुहिम को एक अन्धी गली में ले जाकर छोड़ देगा।
तीसरे दिन ही प्रसिद्ध दलित चिन्तक आनन्द तेलतुम्बड़े भी संगोष्ठी में कुछ घण्टों के लिए आये। उन्होंने अपने वक्तव्य में आधार आलेख में उनके विचारों के उल्लेख पर आपत्ति की। उन्होंने कहा कि आलेख में लिखा गया है कि आनन्द तेलतुम्बड़े अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद का समन्वय करते हैं, जबकि उन्होंने ‘समन्वय’ शब्द का इस्तेमाल कहीं नहीं किया है। साथ ही उन्होंने कहा कि जब उन्होंने अपनी एक रचना में अम्बेडकर की रचना ‘जाति का उन्मूलन’ को दलितों के लिए वैसा ही बताया था जैसे कि मज़दूर वर्ग के लिए ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ तो उनका अर्थ सिर्फ इतना था कि दोनों ही राजनीतिक लक्ष्यों की घोषणा करने वाली रचनाएँ थीं। उन्होंने आधार आलेख पर आरोप लगाया कि यह ब्राह्मणवादी मानसिकता से लिखा गया है और इसमें मार्क्सवाद के प्रति एक कठमुल्ला दृष्टिकोण अपनाया गया है। उन्होंने माना कि अम्बेडकर के सभी प्रयोग ‘महान विफलता’ में समाप्त हुए। लेकिन इसके लिए वह अम्बेडकर की विचारधारा को जिम्मेदार नहीं ठहराते क्योंकि उनका मानना है कि अम्बेडकर की कोई विचारधारा थी ही नहीं। वह पद्धति के तौर पर जॉन ड्यूई के प्रगतिशील व्यवहारवाद पर अमल करते थे, जिसका मूल तर्क प्राकृतिक विज्ञान जैसा है कि किसी भी परिकल्पना को प्रयोग के आधार पर परखा जाये और उसके आधार पर नयी परिकल्पना का निर्माण किया जाय। इसलिए अम्बेडकर को ख़ारिज नहीं किया जाना चाहिए, और न ही फुले को। आनन्द तेलतुम्बडे के अनुसार किसी भी विचारधारा पर अमल की बजाय सही वैज्ञानिक पद्धति का अनुसरण किया जाना चाहिए। उन्होंने माना कि वह जॉन ड्यूई के अनुयायी नहीं हैं, लेकिन जॉन ड्यूई का चिन्तन विज्ञान के करीब पड़ता है। उनका मानना था कि पहचान की राजनीति का खण्डन करना व्यर्थ है क्योंकि मार्क्सवाद स्वयं भी तो एक पहचान है। आनन्द तेलतुम्बड़े का जवाब देते हुए अभिनव ने कहा कि आलेख में आनन्द तेलतुम्बडे के बारे में मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद के समन्वय की जो टिप्पणी की गयी है, वह सही है और इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आनन्द तेलतुम्बडे ने ‘समन्वय’ शब्द का इस्तेमाल किया है या नहीं। आप जो करते हैं उसके बारे में आप क्या मानते हैं यह उतना अहम नहीं है जितना कि यह कि लोग उसे किस रूप में देखते और समझते हैं। अगर आप अम्बेडकर के अनुयायी नहीं हैं और फिर भी अम्बेडकर की हिमायत करते हैं, तो आपको बताना चाहिए कि अम्बेडकर से क्या सीखा जा सकता है, सिवाय इस सरोकार के कि वह भी जातिवाद के खिलाफ़ थे और हम भी जातिवाद के खिलाफ़ हैं? अभिनव ने कहा कि आनन्द तेलतुम्बड़े ने जॉन ड्यूई का भी अनुयायी होने से इंकार किया है लेकिन उनके व्यवहारवाद को विज्ञान के करीब बताया है। यह प्रयास मार्क्सवाद और ड्यूईवाद के बीच पुल बनाने का प्रयास है। लेकिन ऐसा हो ही नहीं सकता क्योंकि ड्यूई सचेतन तौर पर अमेरिकी उदारवाद और अमेरिकी शासक वर्ग के पक्ष में खड़े थे। वह सचेतन तौर पर मार्क्सवाद-विरोधी थे। उनका भी आनन्द तेलतुम्बड़े की तरह ही यह मानना था कि कोई भी विचारधारा नहीं मानी जानी चाहिए और केवल तथाकथित वैज्ञानिक पद्धति का अनुसरण किया जाना चाहिए। लेकिन विज्ञान में भी अप्रोच (पहुँच) का बहुत महत्व है। केवल पद्धति वैज्ञानिकों को कभी सही नतीजों तक नहीं पहुँचा सकती। अगर ऐसा होता तो वैज्ञानिकों के बीच कभी कोई बहस नहीं होती। ड्यूई का मकसद ही यह था कि किसी भी प्रकार की विचारधारा को नकार दिया जाय और वैज्ञानिक पद्धति की आड़ में प्रतिबद्धता के सवाल को नेपथ्य में धकेल दिया जाय। यही कारण है कि आज व्यवहारवाद अमेरिकी बुर्जुआज़ी की प्रिय विचारधारा है। ड्यूई साफ़ तौर पर मानते थे कि क्रान्ति अवांछित है और धीरे-धीरे कुछ सुधार होने चाहिए और वह भी सरकार के द्वारा, जनता के द्वारा नहीं। क्योंकि ड्यूई का जनता पर कोई भरोसा नहीं था। वह सरकार के यहाँ अरज़ी देने तक ही जाते हैं। यही सारी सोच अम्बेडकर भी थी। यही कारण था कि उनका चिन्तन अरिज़याँ देने, संविधानवाद, समझौतापरस्ती, और जनता पर अविश्वास के दायरों में ही सीमित रहा। अपनी तमाम सदिच्छाओं के बावजूद यह अम्बेडकर की विचारधारा ही थी जिसके कारण उनके सारे प्रयोग ‘महान विफलता’ में समाप्त हुए और आनन्द तेलतुम्बडे को यह बात समझनी चाहिए। सिर्फ पद्धति की बात करना और अप्रोच के सवाल को गोल कर देना ही व्यवहारवाद की निशानी है और आनन्द तेलतुम्बडे के वक्तव्य से यह ज़ाहिर होता है कि उनकी भी यही सोच है। सुखविन्दर ने तेलतुम्बडे द्वारा कम्युनिस्टों पर लगाये गये इस आरोप का खण्डन किया कि उन्होंने दलितों की मुक्ति के लिए कोई विशेष कदम नहीं उठाये और अम्बेडकर के प्रति उनका दृष्टिकोण सही नहीं था। सुखविन्दर ने बताया कि कम्युनिस्ट हमेशा साझा मोर्चा बनाने को तैयार थे और अम्बेडकर का रवैया इस प्रकार का था कि उनसे कोई मोर्चा बन नहीं पाया। उनकी अंग्रेज़परस्ती और समझौतापरस्ती किसी भी रूप में मज़दूर आन्दोलन और दलित मुक्ति की मुहिम से मेल नहीं खाती थी, और उनकी विचारधारा के अनुसार चलें तो दलित मुक्ति आन्दोलन भी सुधारवाद, संसदवाद और अरज़ीवाद के गलियारों में घूमता रह जायेगा। कम्युनिस्ट जाति के प्रश्न को समझ नहीं सके इसका अर्थ यही नहीं कि उन्होंने जाति उन्मूलन के सवाल को उठाया ही नहीं। सच तो यह है कि दलितों के मुक्ति के लिए जितने कम्युनिस्टों ने संघर्ष किया और कुर्बानी दी, अम्बेडकर कहीं उसके करीब भी नहीं पड़ते। जब तेलंगाना में दलितों के संघर्ष को खून के दलदल में डुबाया जा रहा था, तो अम्बेडकर इसके बारे में एक शब्द भी नहीं बोलते हैं और भारत सरकार से इस्तीफा देने की बजाय विधि मन्त्री के पद पर विद्यमान रहते हैं। इसलिए आनन्द तेलतुम्बडे को इतिहास को विकृत नहीं करना चाहिए। सुखविन्दर ने कहा कि बिहार, पश्चिम बंगाल, आन्ध्रप्रदेश से लेकर कर्नाटक तक तमाम इलाकों में आज दलित सम्मान के साथ सिर उठाकर चलते हैं, तो इसका श्रेय अम्बेडकर को नहीं बल्कि कम्युनिस्ट आन्दोलन को जाता है।
अपने आखिरी वक्तव्य में आनन्द तेलतुम्बडे ने कहा कि जो बातें उनके पहले वक्तव्य के बारे में कही गयीं, उनसे वह मोटे तौर पर सहमत हैं। साथ ही वह आधार आलेख को ब्राह्मणवादी नहीं कहना चाहते थे, उनका मकसद केवल अपने उल्लेख पर सवाल खड़ा करना था। उन्होंने कहा कि इस प्रश्न पर वह आगे बात करने का तैयार हैं। तीसरे दिन ‘सन्हति’ के असित दास ने भी जाति के सवाल पर अपनी प्रस्तुति दी जो कि अनुराधा गाँधी की पुस्तक की एक आलोचनात्मक समीक्षा पर आधारित थी।
चौथे दिन की शुरुआत अभिनव के आलेख ‘जाति व्यवस्था सम्बन्धी इतिहास-लेखनः कुछ आलोचनात्मक प्रेक्षण’ की प्रस्तुति के साथ हुई। इस आलेख में अभिनव ने जाति के प्रश्न पर जो इतिहास-लेखन हुआ है, उसकी एक संक्षिप्त समीक्षा की। औपनिवेशिक काल से ही जाति के प्रश्न पर अंग्रेज़ इतिहासकारों और प्रशासकों ने लिखना शुरू कर दिया था। उनका लेखन जाति को समझने की जटिलता की एक तस्वीर है। उन्होंने गहरे अध्ययन के आधार पर कुछ प्रेक्षण रखे, जिनमें से कुछ सही तो कुछ ग़लत थे। आज़ादी के बाद इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों ने भी जाति के प्रश्न को समझने का प्रयास किया। इसमें इतिहासकार ज़्यादा सफल रहे क्योंकि समाजशास्त्रियों का दृष्टिकोण वर्तमान में कैद रहा है और ऐतिहासिक दृष्टि से उनका लेखन लैस नहीं रहा है। आगे आलेख में बताया गया कि जाति का उद्भव किस प्रकार एक आरम्भिक श्रम विभाजन और उसके बाद वर्ग विभाजन के तौर पर हुआ। इस वर्ग विभाजन को सही ठहराने के लिए ही वैदिक काल के उत्तरार्द्ध में ब्राह्मणों ने वर्ण/जाति की विचारधारा खड़ी की। इस विचारधारा ने तत्कालीन वर्ग विभाजन को जाति/वर्ण विभाजन के तौर पर वैधीकरण दिया और उसे धार्मिक कर्मकाण्डीय तौर पर अश्मीभूत और जड़ बना दिया। इसके बाद से समाज में उत्पादन सम्बन्धों के बदलने और उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ वर्ग विभाजन बदलते गये। लेकिन जातियों का विभाजन उस गति से नहीं बदल सकता था, क्योंकि उसका कर्मकाण्डीय अश्मीभूतीकरण कर दिया गया था। नतीजतन, मध्यकाल आते-आते जाति और वर्ग एक दूसरे को पूर्णतः अतिच्छादित नहीं करते थे, बल्कि उनमें एक संगति (करेस्पॉण्डेंस) का सम्बन्ध स्थापित हो गया था। यह संगति औपनिवेशिक काल आते-आते और कमज़ोर पड़ चुकी थी, और स्वातंत्रयोत्तर भारत में पूँजीवादी विकास ने जाति व्यवस्था के साथ वर्ग विभाजन की संगति को और अधिक कमज़ोर बना दिया। आज जाति व्यवस्था के तीन मूल तत्वों यानी कि खान-पान सम्बन्धी रोक, जन्म-आधारित अनमनीय श्रम विभाजन और विवाह के रिश्ते पर प्रतिबन्ध, में से पहले दो लगभग समाप्त हो चुके हैं, और तीसरा भी कम-से-कम शहरी पढ़े-लिखे युवाओं में टूट रहा है। तीसरा पहलू कम कमज़ोर इसलिए हुआ है क्योंकि समाज में पूँजीवादी पितृसत्तात्मक ढाँचा बरकरार है, बल्कि मज़बूत हुआ है। इसका दूसरा कारण यह है कि विवाह के रिश्तों में प्रतिबन्ध बुर्जुआ सम्पत्ति को और ज़्यादा पवित्र ही बनाते हैं। इसलिए पूँजीवाद से इसका कोई अन्तरविरोध नहीं है। जाति व्यवस्था के बने रहने का दूसरा कारण पूँजीवादी राजनीति के चुनावी समीकरण हैं, जिसमें शासक वर्ग के अलग-अलग हिस्से भी आपस में जातिगत आधारा पर प्रतिस्पर्द्धा करते हैं, और साथ ही जनता को भी वे जातिगत आधार पर बाँटकर ही राज कर सकते हैं। इस रूप में जाति की विचारधारा हर युग में अपने परिवर्तनों के साथ शासक वर्गों के हाथों में एक कारगर औज़ार साबित हुई है। आज की जाति व्यवस्था को पूँजीवादी जाति व्यवस्था कहा जाना चाहिए क्योंकि हर उत्पादन पद्धति ने अपने हितों के अनुसार जाति व्यवस्था को सहयोजित किया है, उसे समायोजित किया है और परिवर्तित किया है।
पाँचवे दिन की शुरुआत ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक सुखविन्दर के आलेख ‘अम्बेडकरवाद और दलित मुक्ति’ से हुई। सुखविन्दर ने अपने आलेख में प्रदर्शित किया कि अम्बेडकर के चिन्तन में कोई निरन्तरता नहीं है। सामाजिक एजेण्डे के प्रश्न पर पहले वह हिन्दू धर्म में ही सुधार करना चाहते थे; बाद में उन्होंने बुद्धवाद में धर्मान्तरण के रास्ते की वकालत की; और मरने से पहले उन्होंने इसे भी नाकाफ़ी करार दिया। उनका चिन्तन निरीश्वरवादी चिन्तन भी नहीं था और उनका मानना था कि समाज में धर्म रहना चाहिए क्योंकि इसी से समाज में कोई आचार या अच्छे मूल्य रहते हैं। इसलिए वे कम्युनिस्टों और निरीश्वरवादियों की नास्तिकता पर हमला करते थे। आर्थिक पहलू देखें तो अम्बेडकर के पास जो आर्थिक कार्यक्रम था वह पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद का ही कार्यक्रम था; बल्कि नेहरू का पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद का एजेण्डा कुछ मायनों में अम्बेडकर से ज़्यादा रैडिकल था, या कम-से-कम दिखता था। जाति के ख़ात्मे के लिए उन्होंने जो रास्ता सुझाया वह शहरीकरण और उद्योगीकरण का था। लेकिन इतिहास ने दिखलाया है कि शहरीकरण और उद्योगीकरण ने जाति का स्वरूप बदल डाला है, लेकिन उसका ख़ात्मा नहीं किया। अम्बेडकर राजनीतिक तौर पर पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं देते थे। उनकी राजनीति अधिक से अधिक रैडिकल व्यवहारवाद और संविधानवाद तक जाती थी। जनता इतिहास को बदलने वाली शक्ति होती है, इसमें उनका कभी यकीन नहीं था, बल्कि वे नायकों की भूमिका को प्रमुख मानते थे। इसीलिए उन्होंने जाति के उन्मूलन में बुद्धिजीवियों की भूमिका को सबसे अहम बताया है। यहाँ तक कि उनकी रचना ‘जाति का उन्मूलन’ में वह कहीं भी नहीं बताते कि जाति का उन्मूलन कैसे होगा; उल्टे अन्त में वह इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि जाति का उन्मूलन हो ही नहीं सकता क्योंकि ब्राह्मण ऐसा होने नहीं देंगे। जाहिर है, ब्राह्मणों से इजाज़त लेकर जाति का ख़ात्मा नहीं हो सकता है। अम्बेडकर अन्त में बौद्ध धर्म को अपना लेने में ही दलितों की मुक्ति देख रहे थे। लेकिन इतिहास ने प्रदर्शित कर दिया है कि बौद्ध धर्म अपनाने वाले दलित नवबौद्ध कहलाये और उस धर्म में भी जाति का प्रवेश हो गया। वहाँ भी उनकी स्थिति दलितों जैसी ही बनी रही। साथ ही, अम्बेडकर का पूरा राजनीतिक कैरियर जाति के ख़ात्मे के प्रति उनके सरोकार के बावजूद राजनीति समझौतापरस्ती, अंग्रेज़परस्ती और अनिरन्तर चिन्तन का आईना है। ऐसे में, अम्बेडकर को आलोचना के दायरे में खड़ा किये बग़ैर दलित मुक्ति की परियोजना एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सकती। जब तक अम्बेडकर को आलोचना से परे एक पूज्य मूर्ति बनाकर रखा जायेगा, दलित आन्दोलन एक गोल चक्कर में घूमता रहेगा।
प्रसिद्ध बुद्धिजीवी और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शिक्षक प्रो. तुलसी राम ने सुखविन्दर के आलेख से असहमति जताते हुए कहा कि अम्बेडकर के प्रति सही दृष्टिकोण नहीं अपनाया गया है। उनके अनुसार आज अम्बेडकर को कम्युनिस्टों को अपना लेना चाहिए। अम्बेडकर ने एक वैकल्पिक इतिहास और समाजशास्त्र दिया। उन्होंने जाति के इतिहास पर जो कार्य किया वह दिखलाता है कि वह कितने बड़े बुद्धिजीवी थे। प्रो. तुलसीराम ने कहा कि अम्बेडकर का मार्क्सवाद और कम्युनिस्टों के प्रति शत्रुतापूर्ण रुख का कारण कम्युनिस्टों का व्यवहार था। इसे उनके मज़दूर-विरोध के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। इसीलिए उन्होंने इण्डिपेण्डेण्ट लेबर पार्टी बनायी, जिससे वह अपने आपको मज़दूर आन्दोलन से जोड़ना चाहते थे। लेकिन बाद में, उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इण्डिया बना ली। अम्बेडकर ने राजकीय समाजवाद की बात की थी, जो दिखलाता है कि वह भी समाजवाद के पक्षधर थे। उनका यह भी कहना था कि जब तक हिन्दू धर्म और ब्राह्मणवाद ख़त्म नहीं होगा तब तक दलित समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। उनके वक्तव्य के बाद अभिनव ने प्रो. तुलसी राम के वक्तव्य पर स्पष्टीकरण रखते हुए कहा कि सवाल अम्बेडकर को ख़ारिज करने का नहीं बल्कि यह तय करने का है उनसे क्या सीखा जा सकता है। हर वक्ता आकर यह कहता है कि हमारा रुख़ अम्बेडकर के प्रति नरम होना चाहिए वरना दलित कभी आपकी बात नहीं सुनेंगे। हमारा कहना है कि तुष्टिकरण और असत्य की राजनीति से आज तक कम्युनिस्ट कहाँ दलितों को जीत पाये। अम्बेडकर के प्रश्न पर आत्मसमर्पणवादी और क्षमायाचक रुख़ अपनाने का समय अब बीत चुका है क्योंकि इससे पहले ही बहुत नुकसान हो चुका है। अभिनव ने कहा कि प्रो. तुलसी राम ने अम्बेडकर को एक महान अध्येता बताया लेकिन यह नहीं बताया कि उनके वैकल्पिक इतिहास और राजनीति में क्या सही था? अगर वह राजकीय समाजवाद की बात कर रहे हैं, तो यह वास्तव में राजकीय पूँजीवाद था। “राजकीय समाजवाद” जैसी कोई चीज़ नहीं होती। समाजवाद का असली पैमाना होता है राज्यसत्ता का वर्ग चरित्र। अगर पूँजीवादी राज्यसत्ता के तहत सबकुछ पब्लिक सेक्टर के तहत हो तो वह समाजवाद नहीं हो जाता। अम्बेडकर का पूरा आर्थिक कार्यक्रम इसी राजकीय पूँजीवाद पर समाप्त हो जाता था। जहाँ तक बात है बौद्ध धर्म में धर्मान्तरण के ज़रिये हिन्दू धर्म का ख़ात्मा करने का, तो इस रास्ते की विफलता आज सामने आ चुकी है। अम्बेडकर कम्युनिस्टों के व्यवहार से नहीं चिढ़े थे, वे कम्युनिस्टों की विचारधारा से नफ़रत करते थे। यही कारण था कि उन्होंने मार्क्सवाद को ‘सुअरों का दर्शन’ कहा था। वास्तव में, यहाँ अम्बेडकर ड्यूई के सच्चे अनुयायी की तरह बात कर रहे थे। अम्बेडकर अगर आज जीवित होते तो वह खुद कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों से किसी भी किस्म के मोर्चे के खिलाफ़ होते। यही उनकी सोच थी। अभिनव ने कहा कि जाति व्यवस्था के इतिहास के बारे में भी प्रो. तुलसीराम ने महज़ एक दृष्टिकोण रखा है, जो उनकी सोच को पुष्ट करने में सहायता करे, जबकि उन सभी ऐतिहासिक प्रश्नों पर मार्क्सवादी इतिहासकारों में लम्बी और गम्भीर बहस है। अगर आज सबसे अधिक मान्य और प्रमाणों द्वारा पुष्ट इतिहास-लेखन को देखें, तो पता चलता है कि अम्बेडकर की जाति व्यवस्था के इतिहास के बारे में समझदारी बेहद कमज़ोर थी, और उनका अध्ययन भी बेहद कमज़ोर था। मार्क्सवाद के बारे में भी अम्बेडकर की कोई समझदारी नहीं थी और मार्क्सवादी के बारे में उनकी ज़्यादातर विरोधी टिप्पणियाँ यही बताती हैं, कि वह बिना पढ़े बोल रहे थे। इसलिए अम्बेडकर से क्या सीखा जाय और क्या नहीं इसके बारे में नाम लेकर और विशिष्ट तौर पर बात होनी चाहिए, अन्यथा ऐसी कोई भी अपील वास्तव में तुष्टिकरण की राजनीति होगी।
पाँचों दिन जो बहस जाति प्रश्न पर चलती रही, उसने दिखलाया कि इस प्रश्न पर पाँच दिन भी कम थे बात करने के लिए। जितने सवालों के जवाब मिले उतने ही नये सवाल भी खड़े हुए। अरविन्द स्मृति न्यास की तरफ़ से आखि़री दिन संगोष्ठी के समापन पर बोलते हुए सत्यम वर्मा ने कहा कि आगे भी इस विषय पर संवाद की ज़रूरत इस संगोष्ठी ने सिद्ध कर दी है। और आगे अरविन्द स्मृति न्यास की तरफ़ से इस विषय पर संगोष्ठियों, विचार-विमर्श और परिचर्चा आदि का आयोजन किया जायेगा। संगोष्ठी के दौरान द्वितीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी के आलेखों के संकलन का लोकार्पण भी किया गया। संगोष्ठी का समापन सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के गीत “अभी लड़ाई जारी है….’ के साथ किया गया।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-जून 2013
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