Tag Archives: आपदा

मालिन गाँव हादसा – यह प्राकृतिक नहीं पूँजी-जनित आपदा है

ये मुनाफ़ाखोर पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा मानवता पर थोपी गयी आपदाएँ हैं। इन आपदाओं की क़ीमत हमेशा की तरह आम मेहनतकश अवाम को सबसे ज़्यादा और सबसे पहले चुकानी पड़ती है, जैसा कि मालिन गाँव में हुआ है। मौजूदा मुनाफ़ाखोर व्यवस्था के दायरे के भीतर इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं है।

उत्तराखण्ड त्रासदीः हादसा बनाम हक़ीक़त

आज यह कहना पहले से भी बड़ी वास्तविकता बन गया है कि पूँजीवाद को एक जनक्रान्ति द्वारा इतिहास की कचरा पेटी के हवाले नहीं किया जाता तो मानवता के सामने एक ही विकल्प मौजूद होगा-विनाश! उत्तराखण्ड जैसी पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा जनित त्रासदियाँ मानवता ही नहीं बल्कि पृथ्वी और उस पर रहने वाले तमाम जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों या यूँ कहे कि उसके समूचे पारिस्थितिक तंत्र के अस्तित्व के लिए ख़तरे की घण्टी हैं। ऐसी आपदाएँ इस बात के स्पष्ट संकेत देती हैं कि यदि पूँजीवादी व्यवस्था को समय रहते नष्ट नहीं किया गया तो यह समूची मानवता को ही नहीं बल्कि समूचे भूमण्डल को नष्ट कर देगी। मनुष्य निश्चित तौर पर प्रकृति के साथ सामंजस्य में अस्तित्वमान रह सकता है। लेकिन लूट और मुनाफ़े की अन्धी हवस पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था के तहत नहीं!

उत्तराखण्ड त्रासदीः यह पूँजीवादी विकास की तार्किक परिणति है!

पिछले कुछ वर्षों से आश्‍चर्यजनक रूप से नियमित अन्तराल पर दुनिया के किसी न किसी कोने में ऐसी विभीषिकाएँ घटित हो रही हैं जो इस बात के स्पष्ट संकेत देती हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था का अस्तित्व न सिर्फ मानवता के लिए घातक है बल्कि यह पृथ्वी और उस पर रहने वाले तमाम जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों या यूँ कहें कि उसके समूचे पारिस्थितिक तन्त्र के लिए विनाश का सबब है। गत जून के दूसरे पखवाड़े में उत्तराखण्ड में बादल फटने, भूस्खलन, हिमस्खलन और बाढ़ से आयी तबाही का जो ख़ौफ़नाक मंज़र देखने में आया वह ऐसी ही विनाशकारी घटनाओं का एक प्रातिनिधिक उदाहरण है। इस त्रासदी से निपटने में पूरी तरह विफल साबित होने के बाद अपनी छीछालेदर से बचने के लिए उत्तराखण्ड सरकार ने अभी भी इस त्रासदी में मारे गये लोगों की ठीक-ठीक संख्या नहीं बतायी है, परन्तु विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं और स्वतन्त्र एजेंसियों का दावा है कि यह संख्या 10 से 15 हज़ार हो सकती है। यही नहीं उत्तराखण्ड के सैकड़ों गाँव तबाह हो गये हैं और लाखों लोगों के लिए जीविका का संकट उत्पन्न हो गया है।

सूखा प्राकृतिक आपदा या पूँजीवादी व्यवस्था का प्रकोप

आज सूखे की जिस गम्भीर हालात का महाराष्ट्र और कमोबेश देश के अन्य कई राज्य सामना कर रहे हैं, वह अनायास या संयोगवश नहीं पैदा हो गयी है, बल्कि पूँजीवादी विकास का परिणाम भी है और पूँजीवादी विकास का एक विशेष, महत्वपूर्ण और अभिन्न हिस्सा भी। सरकारी अधिकारियों-नेताओं-मन्त्रियों-धनाढ्यों की देश की ग़रीब जनता के प्रति घृणा और उनके दुःखों के प्रति उदासीनता का आज जो कुरूपतम और रुग्णतम चेहरा सामने आ रहा है वह पूँजी के सबसे मानवद्रोही और परजीवी रूप, यानी वित्तीय पूँजी की जकड़बन्दी, का ही एक उदाहरण है। जैसे पानी के लिए तरसते ठाणे के कुछ गाँवों में भीख-स्वरूप पानी के कुछ गिलास भर बँटवा देना “जनप्रतिनिधियों” द्वारा मानवीय संवेदनाओं और बेबसी के साथ किये जाने वाले घृणित खिलवाड़ की ऐसी ही एक ऐसी मिसाल पेश करता है जिसे शायद शब्द में व्यक्त नहीं किया जा सकता।

युद्ध, लूट व अकाल से जूझता कांगो!

अपवादों को छोड़कर, पूर्वी कांगो में सारा खनन अनौपचारिक क्षेत्र में होता है। खदान मज़दूर या तो नंगे हाथों काम करते हैं या फिर कुछ पिछडे़ औज़ारों के सहारे। खदानों की कार्य-स्थितियाँ बेहद अमानवीय हैं। मज़दूरों को खनन का कोई प्रशिक्षण नहीं दिया जाता, न ही खदानों में काम करने के लिए ज़रूरी औज़ार व वर्दी उनके पास होती है। मज़दूरों का गम्भीर रूप से घायल हो जाना या मृत्यु की गोद में चले जाना, आम बात है। खदानों के मज़दूरों में एक बड़ी संख्या बाल मज़दूरों की है। काम के घण्टे तय नहीं हैं। हथियारबन्द सैनिकों के कहने पर काम न करने पर मज़दूरों को जान गँवानी पड़ती है। समय-समय पर ये सैनिक महिलाओं व बच्चों को अपनी पाशविकता का शिकार बनाते हैं। अभी तक इस युद्ध के दौरान 2 लाख महिलाओं के साथ बलात्कार हो चुका है।

बाढ़ : मानव–जनित आपदा नहीं, व्यवस्था–जनित आपदा

1954 में गठित गंगा आयोग की ऐसी कई बहुउद्देशीय योजनाओं की सिफ़ारिश की थी जिससे कोसी के नकारात्मक पहलुओं को सकारात्मक कारकों में बदला जा सकता था । ऐसी ही एक योजना थी ‘जलकुण्डी योजना’ जिसके तहत नेपाल में बांध बना कर इस नदी के द्वारा लाए जा रहे सिल्ट (गाद) को वहीं रोक दिया जाना था और इस बांधों पर विद्युत परियोजनाएं लगाने की योजना थी । इसका लाभ दोनों ही देश, नेपाल और भारत उठाते । लेकिन इन योजनाओं को कभी अमल में नहीं लाया गाया । तब इस योजना की लागत 33 करोड़ थी और आज यह इसकी लागत 150 करोड़ से है तब भी बाढ़ नियंत्रण पर पानी की तरह बहाए जाने वाले करोड़ों रुपयों से कम है । कुछ पर्यावरणविद नदियों पर बनाए जा रहे बांधों के विरोधी हैं, तकनोलॉजी को अभिशाप मानते हैं और ‘बैक टू नेचर’ का नारा देते हैं । लेकिन तकनोलॉजी अपने आप में अभिशाप नहीं होती । यह इसपर निर्भर करता है कि इसका इस्तेमाल किस लिये किया जा रहा है । एक मुनाफ़ा–केन्द्रित व्यवस्था में बड़े बांध अभिशाप हो सकते हैं । लेकिन एक मानव–केन्द्रित व्यवस्था में यह वरदान भी साबित हो सकते हैं ।

बाढ़: प्राकृतिक या पूँजीवादी?

आज अगर बाढ़ को रोकने के लिए सिल्ट को हटाने से लेकर, नदियों को आपस में जोड़ने और वृक्षारोपण के काम को पूरी योजनाबद्धता के साथ किया जाए तो करोड़ों हाथों को रोज़गार मिल पाएगा। यही नहीं नदियों के तल में जो सिल्ट जमा होती है वह काफ़ी उपजाऊ होती है, जिससे ऊँचे-ऊँचे प्लेटफ़ार्म बनाए जा सकते हैं जिस पर टाउनशिप और गाँव बसाए जा सकते है। लेकिन इस व्यवस्था में किसी भी आवश्यक काम में पूँजीपति या सरकार निवेश करने को तैयार नहीं होती। लाखों लोगों को बिलखने और बरबाद होने के लिए छोड़ दिया जाता है ताकि इस बरबादी से भी मुनाफ़ा कमाने का कोई भी मौका पूँजीपति या नेता न गँवाए। इसलिए बाढ़ कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है बल्कि इसी मानवद्रोही व्यवस्था द्वारा निर्मित एक आपदा है और तब तक इससे निजात नहीं मिल सकता है जब तक कि यह व्यवस्था बनी रहेगी।