Category Archives: राष्‍ट्रीय/अर्न्‍तराष्‍ट्रीय मुद्दे

लक्ष्मीनगर हादसा: मुनाफे की पूँजीवादी मशीनरी की बलि चढ़े ग़रीब मज़दूर

मुनाफा! हर हाल में! हर कीमत पर! मानव जीवन की कीमत पर। नैतिकता की कीमत पर। नियमों और कानूनों की कीमत पर। यही मूल मन्त्र है इस मुनाफाख़ोर आदमख़ोर व्यवस्था के जीवित रहने का। इसलिए अपने आपको जिन्दा बचाये रखने के लिए यह व्यवस्था रोज़़ बेगुनाह लोगों और मासूम बच्चों की बलि चढ़ाती है। इस बार इसने निशाना बनाया पूर्वी दिल्ली के लक्ष्मीनगर स्थित ललिता पार्क स्थित उस पाँच मंजिला इमारत में रहने वाले ग़रीब मज़दूर परिवारों को जो देश के अलग-अलग हिस्सों से दिल्ली काम की तलाश में आये थे। इमारत के गिरने से लगभग 70 लोगों की मौत हो गयी और 120 से अधिक लोग घायल हो गये, जिनमें कई महिलाएँ और बच्चे भी शामिल हैं।

राष्ट्रमण्डल खेल – ”उभरती शक्ति“ के प्रदर्शन का सच

पूँजी की लूट और गति, जिसने उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों एवं स्थान की तलाश में पूरे विश्व में निर्बाध रूप से तूफान मचा रखा है, से खेल भी अछूता नहीं है। खेल आयोजन एवं समूचा खेल तन्त्र आज एक विशाल पूँजीवादी उद्योग बन गया है जहाँ सब कुछ मुनाफे को केन्द्र में रखकर विभिन्न राष्ट्रपारीय निगमों, कम्पनियों एवं इनके सर्वोच्च निकाय पूँजीवादी राज्यव्यवस्था द्वारा संचालित किया जाता है।

बिल गेट्स और वॉरेन बुफे की चैरिटी: जनता की सेवा या पूँजीवाद की सेवा?

वॉरेन बुफे की सम्पत्ति का 99 प्रतिशत से ज़्यादा हिस्सा उनकी व्यक्तिगत सम्पत्ति से नहीं आता है। यह आता है वॉल मार्ट और गोल्डमान साक्स जैसे वित्तीय दैत्य कारपोरेशनों में शेयर से। वॉल मार्ट अमेरिका में सबसे कम मज़दूरी देने के लिए जाना जाता है और इसकी दुकानों में अमेरिकी मज़दूर लगभग न्यूनतम मज़दूरी पर काम करते हैं। वॉल मार्ट अपनी कई कपड़ा फैक्टरियों को चीन ले जा चुका है या ले जा रहा है जहाँ वह चीनी मज़दूरों से 147 डॉलर प्रति माह पर काम करवा रहा है। गोल्डमान साक्स वही वित्तीय संस्था है जिसके प्रमुख ने अभी कुछ महीने पहले स्वीकार किया था कि उसकी संस्था ने लापरवाही से सबप्राइम ऋण दिये जिनके कारण विश्व वित्तीय व्यवस्था चरमराई, संकट आया और दुनिया भर के मज़दूर और नौजवानों का एक बड़ा हिस्सा आज सड़कों पर बेरोज़गार है या गुलामी जैसी स्थितियों में काम कर रहा है। इन कम्पनियों का मुनाफा खरबों डॉलरों में है, जिसके लाभांश प्राप्तकर्ताओं में वॉरेन बुफे का स्थान शीर्ष पर है। ये तो सिर्फ दो उदाहरण हैं। ऐसे बीसियों साम्राज्यवादी कारपोरेशनों की विश्वव्यापी लूट का एक विचारणीय हिस्सा वॉरेन बुफे के पास जाता है। उनकी व्यक्तिगत सम्पत्ति उनके इस मुनाफे के सामने बेहद मामूली है।

निजी पूँजी का ताण्डव नृत्य जारी, लुटती जनता और प्राकृतिक संसाधन!

पिछले दो दशकों के दौरान भारतीय पूँजीवाद का सबसे मानवद्रोही चेहरा उभरकर हमारे सामने आया है। उत्पादन के हर क्षेत्र में लागू की जा रही उदारीकरण-निजीकरण की नीतियाँ, एक तरफ मुनाफे और लूट की मार्जिन में अप्रत्याशित वृद्धि दरें हासिल करा रही हैं, वहीं दूसरी ओर आम जनजीवन से लेकर पर्यावरण के ऊपर सबसे भयंकर कहर बरपा करने का काम भी कर रही हैं। भारतीय खनन उद्योग इन नीतियों की सबसे सघन प्रयोग-भूमि बनकर उभरा है। यही कारण है कि कभी रेड्डी बन्धुओं के कारण, तो कभी सरकार द्वारा चलाये जा रहे ‘ऑपरेशन ग्रीन हण्ट’ के कारण खनन उद्योग लगातार चर्चा में रहा है।

चुनावी पार्टियों के अरबों की नौटंकी भी नहीं रोक सकी महँगाई डायन के कहर को!

महँगाई के विरोध में भाजपा द्वारा आयोजित रैली के एक दिन पहले मैं अपने कुछ मित्रों के साथ नयी दिल्ली स्टेशन जा रहा था। पूरा शहर मानो भगवा रंग में डुबो दिया गया था। सड़कों, गलियों, दीवारों को बड़े-बड़े होर्डिंग, पोस्टर, वाल राइटिंग, झण्डे और चमचमाते चमकियों से पाट दिया गया था। अख़बारों के पन्ने का भी रंग रैली के विज्ञापनों से सराबोर था। स्टेशन का दृश्य भी कुछ वैसा ही था। जगह-जगह स्वागत डेस्क और सहायता डेस्क लगे हुए थे जहाँ पर कार्यकर्ता चमकते-दमकते कपड़ों में जूस और स्वादिष्ट व्यंजनों का रसास्वदन कर रहे थे। उन्हें देखने से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि महँगाई का ज़रा भी असर उनकी सेहत पर नहीं था, उल्टे कुछ की तो कुम्भकरणा स्वरूपम काया थी जिसे देखकर तो मँहगाई डायन भी मूर्छित हो जाती! प्लेटफार्म पर खड़े कुछ लोग बता रहे थे कि कई जगहों से पूरी ट्रेन रिज़र्व होकर रैली के लिए आ रही है। वहीं मज़दूरों की छोटी-बड़ी टोलियाँ भी स्वागत डेस्क के करीब से गुज़र रही थी। यह वह आबादी थी जिस पर मँहगाई डायन ने अपना कहर बरपाया है, जिसे यह भव्य आयोजन खाये-पिये व्यक्ति के द्वारा आयोजित एक भव्य नौटंकी से ज़्यादा कुछ नहीं दिखायी पड़ता होगा।

ग़रीबी के बढ़ते समुद्र में अमीरी के द्वीप

भारत में बढ़ती ग़रीबी की सच्चाई बताने के लिए शायद ही आँकड़ों और रिपोर्टों की ज़रूरत पड़े। देश के नगरों-महानगरों में करोडों की तादाद में गाँव-देहात से उजड़कर आयी ग़रीब आबादी को राह चलते देखा जा सकता है। लेकिन फिर भी शासक वर्ग सूचना तन्त्र के माध्यम से ‘विकास’ के आँकड़े (जैसे – जीडीपी, सेंसेक्स की उछाल) दिखाकर आबादी में भ्रमजाल फैलाने की कोशिश करता है। ज़ाहिरा तौर पर झूठ के इस भ्रमजाल से आम आबादी भी प्रभावित होती है और एक मिथ्याभासी विकास के सपने देखती है। जबकि हकीकतन मुट्ठीभर लोगों के विकास की कीमत इस आम-आबादी को चुकानी पड़ती है।

स्त्री मुक्ति का रास्ता पूँजीवादी संसद में आरक्षण से नहीं समूचे सामाजिक-आर्थिक ढाँचे के आमूल परिवर्तन से होकर जाता है!

संसद में महिलाओं को आरक्षण? एक ऐसे निकाय में आरक्षण को लेकर बहस और झगड़े का क्या अर्थ है जो किसी भी रूप में जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करता; जो जनता को गुमराह करने के लिए की जाने वाली बहसबाज़ी का अड्डा हो; जो पूँजीपतियों के मामलों का प्रबन्धन करने वाला एक निकाय हो। जो संसद वास्तव में देश की जनता का प्रतिनिधित्व करती ही नहीं है, उसमें स्त्रियों को आरक्षण दे दिया जाय या न दिया जाय, इससे क्या फर्क पड़ने वाला है? संसद में महिला आरक्षण को लेकर आम जनता की ताक़तों का बँट जाना नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण के मुद्दे पर बँट जाने से भी अधिक विडम्बनापूर्ण है।

जातिगत उत्पीड़नः सभ्य समाज के चेहरे पर एक बदनुमा दाग

आज हम 21वीं सदी में जी रहे हैं। आज़ादी के वक्त लोकतांत्रिक, ‘‘समाजवादी’‘, धर्मनिरपेक्ष वगैरह-वगैरह लच्छेदार भ्रमपूर्ण शब्दों का जो मायाजाल रचा गया था वह आज छिन्न-भिन्न हो चुका है। एक ओर देश का अस्सी फीसदी मेहनतकश अवाम भयंकर अभाव और ग़रीबी में जी रहा है और वहीं इस मेहनतकश अवाम के एक विशाल हिस्से, यानी दलित आबादी को जातिगत उत्पीड़न और अपमान का दंश भी झेलना पड़ता है। हरियाणा के मिर्चपुर गाँव की घटना इसी बात का ताज़ा उदाहरण थी।

‘‘उभरती अर्थव्यवस्था’’ की उजड़ती जनता

हमारे देश का कारपोरेट मीडिया और सरकार के अन्य भोंपू समय-समय पर हमें याद दिलाते रहते हैं कि हमारा मुल्क ‘‘उभरती अर्थव्यवस्था’’ है; यह 2020 तक महाशक्ति बन जाएगा; हमारे मुल्क के अमीरों की अमीरी पर पश्चिमी देशों के अमीर भी रश्क करते हैं; हमारी (?) कम्पनियाँ विदेशों में अधिग्रहण कर ही हैं; हमारी (?) सेना के पास कितने उन्नत हथियार हैं; हमारे देश के शहर कितने वैश्विक हो गये हैं; ‘इण्डिया इंक.’ कितनी तरक्की कर रहा है, वगैरह-वगैरह, ताकि हम अपनी आँखों से सड़कों पर रोज़ जिस भारत को देखते हैं वह दृष्टिओझल हो जाए। यह ‘‘उभरती अर्थव्यवस्था’’ की उजड़ती जनता की तस्वीर है। भूख से दम तोड़ते बच्चे, चन्द रुपयों के लिए बिकती औरतें, कुपोषण की मार खाए कमज़ोर, पीले पड़ चुके बच्चे! पूँजीपतियों के हितों के अनुरूप आम राय बनाने के लिए काम करने वाला पूँजीवादी मीडिया भारत की चाहे कितनी भी चमकती तस्वीर हमारे सामने पेश कर ले, वस्तुगत सच्चाई कभी पीछा नहीं छोड़ती। और हमारे देश की तमाम कुरूप सच्चाइयों में से शायद कुरूपतम सच्चाई हाल ही में एक रिपोर्ट के जरिये हमारे सामने आयी।

विकास के रथ के नीचे भूख से दम तोड़ते बच्चे

मध्यप्रदेश के मुखमन्त्री शिवराज सिंह चौहान सवेरे नहा–धोकर माथे पर तिलक लगाकर, चमकता सूट डालकर जब साइकिल पर सवार होकर विधानसभा की ओर कूच करते है तो मीडिया की आँखे फटी की फटी रह जाती है कि ये क्या हो गया है ? दुनिया के सबसे बड़े ‘लोकतन्त्र’ के एक प्रदेश का मुख्यमन्त्री साइकिल पर ? गजब की बात भाई! मोटरसाइकिल से, कार से चलने वाले मध्यवर्ग का एक हिस्सा हर्षातिरेक से मुख्यमन्त्री जी के जीवन की सादगी पर लोट–पोट हो जा रहा है। पत्र–पत्रिकाओं के कवर पेज पर और अखबारों आदि में मध्यप्रदेश की सरकार द्वारा छपवाये जा रहे विज्ञापनों से पता चलता है कि मुख्यमन्त्री शिवराज चौहान के नेतृत्व में स्व. प. दीनदयाल अत्ंयोदय उपचार योजना, दीनदयाल रोज़गार योजना, दीनदयाल चलित उपचार योजना, दीनदयाल अंत्योदय मिशन जैसी परियोजनाएँ चल रही है, जिनके केन्द्र में ‘सबसे कमज़ोर’ आदमी है। इन विज्ञापनों में विशेष रूप से यह बात दर्ज़ रहती है कि मध्यप्रदेश की सरकार प. दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानवतावाद के सिद्धान्त पर चल रही है। इस तरह विज्ञापनों द्वारा बजाये जा रहे ढोल–नगाड़ों के साथ सरकार के मजूबत हाथ ‘कमज़ोर आदमी’ तक पहुँच चुके हैं। लेकिन ज्योंही कुछ सरकारी आँकड़ों की ही थाप पड़ी इस ढोल की पोल खुलने में देर नहीं लगी। तो आइये आँकड़ो और तथ्यों की रोशनी में हम इस ‘एकात्म मानवतावाद’ के फोकस बिन्दु की और उसके नाभिक की सच्चाई को पहचानें।