आई.पी.एल.: बाज़ारू खेल बिकते खिलाड़ी!

नितिन

हाल ही में आईपीएल के छठे सत्र में इस तमाशे की असलियत आम जनता के सामने तब और साफ़ हो गयी जब 16 मई को दिल्ली पुलिस द्वारा राजस्थान रॉयल्स के तीन खिलाड़ियों (श्रीसंत, अजित चंदीला तथा अंकित चव्हाण) तथा ग्यारह सटोरियों की स्पॉट फिक्सिंग के आरोप में गिरफ़्तारी की ख़बर सामने आयी। इस पर पूँजीवादी मीडिया ने इसे क्रिकेट इतिहास की सबसे बड़ी घटना बताते हुए लगातार क्रिकेट जैसे तमाम खेलों के बढ़ते बाज़ारीकरण के बावज़ूद ऐसे पेश किया जैसे यह कोई अचम्भा हो या ऐसा होना स्वाभाविक न हो।

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पूँजीवादी मीडिया ने अपनी एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाकर इस मुद्दे को सनसनी बना लोगों का ध्यान क्रिकेट जैसे तमाम खेलों के हो रहे व्यापारीकरण और बाज़ारीकरण से चंद लोगों की बेईमानी की तरफ मोड़ दिया। हालाँकि बाद में हुए खुलासे से पता चला कि इसमें सिर्फ़ कुछ खिलाड़ी ही नहीं बल्कि असद रऊफ जैसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के अम्पायर, चेन्नई सुपर किंग्स के सीईओ व बीसीसीआई के मुखिया एन.श्रीनिवासन के दामाद गुरूनाथ मयप्पन तथा कई फिल्मी सितारे (शिल्पा शेट्टी, बिंदू दारा सिंह आदि) भी शामिल थे। इस खुलासे से एक बात तो साफ हो गयी कि यहाँ दाल में कुछ काला नहीं बल्कि पूरी दाल ही काली है। ऐसे में तमाम बुद्धिजीवियों ने इसका निवारण बिना इसके आधार को समझे कुछ नये क़ानून बनाकर ढूँढ़ना चाहा; इस बात को नज़रअन्दाज़ करते हुए कि किसी भी वस्तु का व्यापारीकरण व बाज़ारीकरण या मुनाफ़े की हवस नियमों तथा क़ानूनों की दीवारों को लाँघ ही जाती है। लेकिन बुनियादी सवाल यह है कि आईपीएल में ये घटना क्या चन्द लोगों की बेईमानी तक सीमित है? और क्या कुछ नए नियम क़ानून बनाकर ऐसी घटनाओं से बचा जा सकता है?

इन सवालों का जवाब सुसंगत ढंग से जानने के लिए ज़रूरी है कि हम इसके आर्थिक आधार को समझें। आईपीएल में मुख्यतः दो प्रकार की पूँजी  का निवेश होता है पहली प्रकार की पूँजी एक स्थायी पूँजी निवेश होती है जो कि फ्रेंचाइज़ी द्वारा टीम को ख़रीदने में निवेशित होती है (उदाहरण के तौर पर जैसे मुकेश अम्बानी द्वारा मुम्बई इण्डियन टीम का मालिकाना)। यह दस बराबर किश्तों में दस साल तक लाइसेंस शुल्क के तौर पर जमा कराना पड़ता है और इसके बाद फ्रेंचाइज़ी को दुबारा कोई शुल्क नहीं देना होता। दूसरी तरह की पूँजी खिलाड़ियों को ख़रीदने में लगती है, यह पूँजी स्थायी नहीं होती और हर साल फ्रेंचाइज़ी अपनी लागत कम करने के चलते इसमें कटौती करने की कोशिश करती हैं। ज़ाहिर सी बात है, फ्रेंचाइिज़यों द्वारा पूँजी का निवेश मुनाफ़ा कमाने के लिए ही होता है, हर फ्रेंचाइज़ी मुख्यतः सेण्ट्रल पूल, टिकटों की बिक्री, विज्ञापनों तथा प्रायोजनों द्वारा रिवेन्यू कमाती है।

सेण्ट्रल पूल में बीसीसीआई द्वारा बेचे गए टीवी राइट्स तथा प्रायोजनों को बटोरने से रिवेन्यू आता है इस रिवेन्यू में से एक हिस्सा (लगभग 40 फीसदी) बीसीसीआई अपने पास रख लेता है बाकी (लगभग 54 फीसदी) फ्रेंचाइिज़यों में वितरित हो जाता है और जो बचता है (6 फीसदी) टीमों को ईनाम देने के लिए रख लिया जाता है। (सेण्ट्रल पूल पर फ्रेंचाइिज़यों का नियन्त्रण नहीं होता यानी वे यहाँ से मुनाफ़ा बढ़ा नहीं सकते। अब टिकटों के बिकने से आने वाला रिवेन्यू भी तय ही होता है हालाँकि फ्रेंचाइज़ी अपने मुनाफ़े की हवस के चलते टिकटों के दामों में बढ़ोत्तरी कर सकते हैं (जैसे आईपीएल के पाँचवे सत्र में किया भी था) लेकिन एक हद से ज़्यादा नहीं। अब फ्रेंचाइज़ी अपने रिवेन्यू में बढ़ोत्तरी दो तरह से कर सकते हैं, एक ज़्यादा से ज़्यादा प्रायोजनों को जुटाकर दूसरा, लागत कम करके।

प्रायोजक दो तरह से आकर्षित होते हैं। एक, टीम के अन्दर नामी खिलाड़ियों के होने से दूसरा, टीम के प्रदर्शन से। टीम का अच्छा प्रदर्शन करना निश्चित नहीं होता तब टीम में नामी खिलाड़ियों के होने की आवश्यकता और बढ़ जाती है जिसके लिए फ्रेंचाइज़ी नामी खिलाड़ियों की ज़्यादा से ज़्यादा बोली लगाती है और वही लागत कम करने के लिए टीम के बाकी सदस्यों को कम-से-कम में ख़रीदना चाहती है। हर खिलाड़ी ज़्यादा से ज़्यादा कीमत पर बिकने को हर वक़्त तैयार रहता है। ऐसे में आईपीएल या ऐसे आयोजनों से जुड़े खिलाड़ी, बोर्ड, फ्रेंचाइजी व अन्य घटक अपने-अपने स्तर पर अपने मुनाफ़े तथा अधिकाधिक धन बटोरने की अनियन्त्रित भूख के चलते तथाकथित नियमों व कानूनों के बाहर जाकर इस तरह की घटनाओं को अंजाम देते हैं। यहाँ प्रश्न व्यक्तिगत नैतिकता एवं शुचिता का नहीं वरन् उस समाज के मूलभूत नियम का है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को वैसे ही अनुशासित करता है। और अपनी गतिकी से एक ऐसी सभ्यता एवं जीवन रूप को रचता है जो व्यक्तिवाद व धनतन्त्र के दृष्टिहीन और दिशाहीन रास्ते पर बढ़ती है। इस घटना में शामिल खिलाड़ी, सटोरिये, अम्पायर, प्रबन्धक आदि पूँजीवाद के आम नियम-श्रम की लूट तथा धन एवं पूँजी को बढ़ाते जाने के अन्धे उन्माद से पैदा होने वाले उपोत्पाद हैं। यह भ्रष्टाचार पूँजी के किसी भी क्षेत्र की स्वाभाविक नियति का नमूना है चाहे यह खेल का क्षेत्र ही क्यों न हो।

यहाँ से जो आर्थिक सम्बन्ध खिलाड़ियों, फ्रेंचाइिज़यों व बीसीसीआई के बीच बनते हैं वे मुनाफ़े को ही सर्वोपरि रखते हैं और ऐसे सम्बन्ध खेल में खेल-भावना के बदले  बिज़नेस रणनीति को जन्म देते है। जहाँ ऐसी (16 मई जैसी) घटना कोई अचम्भा नहीं बल्कि स्वाभाविक ही होती है और ऐसे सम्बन्ध लगातार श्रीसंत जैसे खिलाड़ी, असद रऊफ जैसे अम्पायर आदि पैदा करते रहते हैं।

नये नियम-क़ानून मुनाफ़े की इस हवस को रोकने में असफल ही रहेंगे। हमेशा से ही मुनाफ़े की हवस नियम-क़ानूनों को तोड़ती ही आयी है। इस बुनियादी बात को समझे बिना हम किसी निवारण तक नहीं पहुँच सकते। जब तक क्रिकेट व अन्य खेलों में ऐसे आर्थिक सम्बन्ध स्थापित रहेंगे तब तक ऐसी घटनाएँ भी सामने आती रहेंगी। ज़ाहिर है कि ऐसे खुलासों से पहले भी क्रिकेट की दुनिया कोई पाक-साफ़ नहीं थी। पूँजी तब भी इस खेल में घुसी हुई थी। भारत में पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद के ढाँचे के 1991 में नयी आर्थिक नीतियों के श्रीगणेश के साथ टूटने और उसकी जगह पर खुले, नंगे, वीभत्स पूँजीवाद के लेने के साथ खेलों का और विशेष तौर पर क्रिकेट का व्यावसायीकरण अभूतपूर्व पैमाने पर हुआ। पूँजी के खेल ने असली खेल की हत्या कर दी। खेल का सामाजिक प्रकार्य किसी समाज में स्वस्थ मस्तिष्क और शरीर के सृजन में सहायता करना होता है। लेकिन पूँजी इसे डोपिंग, फिक्सिंग और सट्टेबाज़ी का अड्डा बना देती है और यह स्वस्थ शरीर और मस्तिष्क की जगह सड़े हुए शरीर और मस्तिष्क तैयार करने का यन्त्र बना देती है। आज हम जिस चीज़ के साक्षी बन रहे हैं वह एक उत्कृष्ट खेल की पूँजी के हाथों हत्या है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्‍त 2013

 

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