अस्मितावादी और व्यवहारवादी दलित राजनीति का राजनीतिक निर्वाण
अभिनव
हाल के लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी की भारी जीत हुई और उसके बाद के डेढ़-दो महीनों में दक्षिणपंथी ताक़तों के इरादे साफ़ तौर पर नज़र आने लगे हैं। मुम्बई में शिवसेना के नेताओं द्वारा एक मुसलमान कामगार के रोजे़ को ज़बरन तुड़वाया जाना, सिंघल और तोगड़िया द्वारा मुसलमानों को गुजरात और मुज़फ्रफरनगर को न भूलने की धमकी देना, सोशल मीडिया पर मुसलमानों और दलितों के ख़िलाफ़ आक्रामक और उकसाऊ बयानबाज़ियाँ करना, देश के तमाम हिस्सों में साम्प्रदायिक तनाव को बढ़ावा देने का प्रयास करना साफ़ तौर पर भविष्य की ओर संकेत करने वाले कुछ चिन्ह हैं। यह भी स्पष्ट है कि भारत में फासीवाद का यह नया दौर नयी ख़ासियतों के साथ आयेगा; मिसाल के तौर पर, नरेन्द्र मोदी को खुले तौर पर कट्टर हिन्दुत्ववादी फासीवादी कदम उठाने या बयान देने की अब कोई ज़रूरत नहीं है। वह कार्य संघ के अनुषंगी संगठन तृणमूल स्तर पर करते रहेंगे और मोदी प्रशासन उन्हें खुली छूट देगा कि वह हर प्रकार की कुत्सित हरक़तें कर सकें। इसके साथ मोदी अपने ‘मिनिमम गवर्नेट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ की जुमलेबाज़ी के साथ खुलकर कारपोरेट हितों की सेवा करेगा और मज़दूर-विरोधी, स्त्री-विरोधी, दलित-विरोधी और धार्मिक अल्पसंख्यक-विरोधी नीतियों पर अमल जारी रखेगा। इस जुमले की भी असलियत समझ में आ रही है। ‘गवर्नेंस’ एक अमूर्त वस्तु है जबकि ‘गवर्नमेंट’ एक मूर्त वस्तु है। अपनी आकांक्षाओं और जायज़ माँगों के न पूरा होने पर जनता ‘गवर्नमेंट’ को पकड़ सकती है, उसे कठघरे में खड़ा कर सकती है, क्योंकि सरकार एक ठोस, भौतिक चीज़ है। लेकिन मोदी इस ठोस यथार्थ को ख़त्म कर उसकी जगह एक अमूर्त जुमला रख रहा है। इसी वजह से कारपोरेट जगत मोदी को एक सीईओ की शैली में काम करने वाला प्रधानमन्त्री बताकर उसके गुणगान कर रहा है। मोदी की इन सारी कार्रवाइयों और इस पूरी राजनीति को चुनावों से पहले तमाम क्षेत्रीय पार्टियों ने सहयोग और समर्थन दिया और भाजपा के साथ मोर्चा बनाया। इसमें किसी को आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि अब एक आम राजनीतिक चेतना रखने वाला व्यक्ति भी जानता है कि क्षेत्रीय पार्टियों से ज़्यादा बिना पेंदे का कोई नहीं है। लेकिन कुछ लोगों को रामविलास पासवान, रामदास आठवले और उदित राज के भाजपा को समर्थन देने को लेकर बड़ा दुख और सदमा लग गया है। ख़ास तौर पर दलित राजनीति करने वाले बुद्धिजीवियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को काफ़ी झटका लगा है। कुछ इस झटके को खुलकर अभिव्यक्त कर रहे हैं, लेकिन कुछ इस सदमे को बताने में थोड़ा शर्मा और झिझक रहे हैं, लेकिन फिर भी उनके मुँह से ऐसी बात निकल ही जा रही है कि यह ‘बड़ी हैरानी की बात है’ या ‘यह बड़े दुख की बात है’ कि दलित हितों के झण्डाबरदार होने का दावा करने वाले ये लोग जो कल तक पानी पी-पीकर भाजपा के हिन्दुत्ववादी एजेण्डे को कोस रहे थे, वे द्वन्द्वमुक्त ढंग से भाजपा की गोद में जा बैठे हैं।
लेकिन हमें नहीं लगता कि इसमें कोई भी सदमे या दुख की बात है। उल्टे यह बड़ी नैसर्गिक बात है कि दलित हितों की बात करते हुए व्यवस्था की चाकरी करने वाले यह अस्मितावादी राजनीतिज्ञ आज ज़रूरत आन पड़ने पर भाजपा की पूँछ में कंघी करने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। रामविलास पासवान का रिकॉर्ड तो वैसे भी अपनी राजनीतिक निरन्तरता को कायम रखने में बेहद ख़राब रहा है और राजनीतिक फायदे और पद की चाहत में द्रविड़ प्राणायाम करने में वह पहले ही माहिर हो चुके हैं। लेकिन रामदास आठवले की ‘रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इण्डिया’ और उदित राज की ‘जस्टिस पार्टी’ ने जिस कुशलता और चपलता के साथ अचानक पलटी मारी है, उससे अस्मितावादी दलित राजनीति के पैरोकार काफ़ी क्षुब्ध हैं और उसे अम्बेडकरवाद से विचलन और ग़द्दारी बता रहे हैं। लेकिन हमें ऐसा लगता है कि रामदास आठवले भी पहले इस बात का चयन करने में किसी आलोचनात्मक निर्णय क्षमता का परिचय नहीं देते रहे हैं कि किसकी गोद में बैठकर ज़्यादा राजनीतिक हित साधे जा सकते हैं। सत्ता और शासक वर्ग की दलाली में रामविलास पासवान और रामदास आठवले ने पहले भी ऐसे झण्डे गाड़े हैं और ऐसे किले फतह किये हैं कि उनकी मिसालों को दुहरा पाना किसी के लिए भी एक चुनौतीपूर्ण काम साबित होगा। सबसे ज़्यादा लोग उदित राज के पलटी मारने पर स्यापा कर रहे हैं। कारण यह है कि अभी कुछ माह पहले तक ही उदित राज दिल्ली विश्वविद्यालय से लेकर तमाम जगहों पर प्रगतिशील लोगों के राजनीतिक आयोजनों में बुलाये जाते थे, वे भाजपा और राज्य की दमनकारी नीतियों और कानूनों के विरुद्ध काफ़ी गला फाड़ते थे; लेकिन उनके पक्ष-परिवर्तन की गति से कोई एण्टी बैलिस्टिक मिसाइल भी शर्मा सकती है। वास्तव में, ये सारे उदाहरण अस्मितावादी दलित राजनीति के विचलन नहीं हैं बल्कि उसके नियम को दिखलाते हैं। कुछ लोग समझते हैं कि यह अस्मितावादी दलित राजनीति के कुछ अपवाद अथवा विचलन हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि अस्मितावाद और संसदवाद की पूँजीवादी राजनीति के दलदल में धँस चुकी दलित राजनीति से आम ग़रीब और मेहनतकश दलित आबादी आज कोई उम्मीद नहीं कर सकती है।
एक अन्य सवाल है जिस पर स्पष्टीकरण की आवश्यकता है। एक व्यक्ति के तौर पर भीमराव अम्बेडकर के सरोकारों और उनकी ईमानदारी को उनकी विचारधारा, यानी कि ड्यूईवादी व्यवहारवाद से अलग करके देखना होगा। निश्चित तौर पर, अम्बेडकर के जाति के उन्मूलन के प्रति वास्तविक और ईमानदार सरोकार थे; उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में दलितों की बेहतरी के लिए तमाम रणनीतियाँ आजमाईं। लेकिन ये रणनीतियाँ कामयाब नहीं हो सकीं क्योंकि अम्बेडकर एक दृढ़ व्यवहारवादी थे। यह ड्यूईवादी व्यवहारवाद दो प्रमुख आधारों पर टिका हैः एक यह कि समाज में दमित, उत्पीड़ित जन की बेहतरी नीचे से होने वाले किसी क्रान्तिकारी परिवर्तन के ज़रिये नहीं हो सकती है, बल्कि ऐसी किसी भी बेहतरी के लिए हमें सरकार/राज्य से उम्मीद रखनी चाहिए; व्यवहारवाद की स्पष्ट आस्था है कि सरकार/राज्य समाज में सबसे तार्किक अभिकर्ता होता है। इसलिए नीचे से हिंसक या बलप्रयोग पर आधारित परिवर्तन के रास्ते से नहीं बल्कि राज्य अथवा सरकार में शामिल होकर, या उस पर प्रबुद्ध/बुद्धिजीवी वर्ग के ज़रिये दबाव बनाकर ही क्रमिक प्रक्रिया में, धीरे-धीरे एक-एक करके दलित जनता के लिए रियायतें प्राप्त की जा सकती हैं। इस ड्यूईवादी व्यवहारवाद की दूसरी आस्था यह है कि समाज को एक नैतिक संहिता के तौर पर किसी मानवतावादी धर्म की आवश्यकता होती है। इसलिए ड्यूईवादी व्यवहारवादी धर्म का नकार नहीं करता या किसी वैज्ञानिक अवस्थिति से धर्म की कोई आलोचना नहीं रखता बल्कि उसकी ज़रूरत को रेखांकित करता है। अम्बेडकर एक सच्चे ड्यूईवादी व्यवहारवादी थे और अपनी इस बौद्धिक विरासत के प्रति वे हमेशा वफ़ादार बने रहे। उन्होंने खुद कहा था, “मैं अपने पूरे बौद्धिक जीवन के लिए जॉन ड्यूई का ऋणी हूँ।” अम्बेडकर द्वारा सुझाये गये जाति उन्मूलन के समाधान ड्यूईवादी व्यवहारवादी की इन्हीं दोनों आस्थाओं से निकलते थेः एक यह कि राज्यसत्ता में जो भी मौजूद हो उसके साथ तालमेल करते हुए दलितों के लिए जो भी रियायतें, सुधार आदि हासिल किये जा सकते हों वे किये जाने चाहिए! इसीलिए अम्बेडकर अपने पूरे राजनीतिक जीवन में सरकार के नुमाइन्दों के साथ यह तालमेल बिठाते रहे। कई लोग अम्बेडकर की पूरी विचारधारात्मक पृष्ठभूमि को जाने बग़ैर औपनिवेशिक राज्यसत्ता में पद ग्रहण करने, औपनिवेशिक प्रशासकों के साथ तालमेल करने के लिए उन्हें शुद्ध ब्रिटिश उपनिवेशवाद-समर्थक क़रार देते हैं। यह एक सन्तुलित व्याख्या नहीं है। वास्तव में, अम्बेडकर को ब्रिटिश या उपनिवेशवाद से कोई अनुराग नहीं था; वे अपने व्यवहारवादी दृष्टिकोण से जब भी दलित हितों की पूर्ति को देखते थे, तो जो भी उन्हें तात्कालिक तौर पर हित-साधन का माध्यम लगता था, उसे वे अपनाते थे। यही कारण है कि जिस तत्परता से वे वायसराय काउंसिल में मेम्बर ऑफ लेबर बने, उसी तत्परता से वे आज़ादी के बाद संविधान निर्माण के कार्य में योगदान का अवसर दिये जाने पर कांग्रेस को धन्यवाद ज्ञापन करते हैं और उसी तत्परता के साथ वे कानून मन्त्री का पद भी स्वीकार करते हैं, हालाँकि उनकी इच्छा श्रम मन्त्रालय की थी। अम्बेडकर के राजनीतिक जीवन में अनिरन्तरता कोई चौंकाने वाली चीज़ नहीं है, अगर आप उनके व्यवहारवादी दर्शन को समझते हों। अम्बेडकर ने एक बार स्वयं ही कहा था, “निरन्तरता (कंसिस्टेंसी) गधे की ख़ासियत होती है।” यह व्यवहारवाद का एक प्रतीक वाक्य है। यह वाक्य विचारधारा और कूटनीति में फर्क नहीं करता। निश्चित तौर पर, कूटनीति में निरन्तरता के प्रति आग्रह मूर्खता है। लेकिन विचारधारा के मसले में निरन्तरता न हो तो आपकी राजनीति भविष्य में किसी भी पक्ष में जाकर खड़ी हो सकती है और किसी भी स्तर तक गिर सकती है। विचारधारा का प्रश्न पक्षधरता का प्रश्न होता है, प्रतिबद्धता का प्रश्न होता है। ड्यूई का स्पष्ट मत था कि कोई भी दर्शन या विचारधारा नहीं होनी चाहिए और केवल एक सही पद्धति होनी चाहिए जो कि प्राकृतिक विज्ञान की पद्धति जैसी हो। यह एक दीगर बात है कि यह पूरी बात स्वयं एक विचारधारा है; बस एक ऐसी विचारधारा जो जानती नहीं है कि वह विचारधारा है, या इस बात से इंकार करती है और ‘डेनायल मोड’ में रहती है। अम्बेडकर व्यक्तिगत तौर पर दलित हितों के प्रति समर्पित थे। लेकिन निश्चित तौर पर यह व्यवहारवादी दर्शन उन्हें दलित प्रश्न के समाधान तक नहीं ले सका। अम्बेडकर का राजनीतिक व्यवहारवाद अन्त में एक अन्धी गली में जाकर समाप्त हुआ और अपने तमाम वास्तविक और ईमानदार सरोकारों के बावजूद वे जाति-उन्मूलन का कोई पथ अन्वेषित नहीं कर सके।
लेकिन बात यहाँ ख़त्म नहीं होती। अम्बेडकर ने जिस व्यवहारवादी राजनीति को भारत में अमल में उतारा उसे अम्बेडकर के बाद आगे लेकर चलने वाले जहाँ पहुँचे हैं, वह अम्बेडकरवादी व्यवहारवाद से कोई प्रस्थान नहीं है, जैसा कि तमाम दलित चिन्तक और बुद्धिजीवी कह रहे हैं। कहने का अर्थ यह है कि आज अगर रामदास आठवले, रामविलास पासवान और उदित राज जैसे लोग सत्ताधारियों की गोद में जा बैठे हैं, तो यह व्यवहारवाद का निषेध नहीं है। वस्तुतः यह व्यवहारवादी राजनीति की विभिन्न प्रकार की तार्किक परिणतियाँ हैं। मायावती से लेकर थिरुमावलवन तक, रामदास आठवले से लेकर रामविलास पासवान और उदित राज तक हम दलित राजनीति में जिन परिघटनाओं को देख रहे हैं वे इसी व्यवहारवादी राजनीति की तार्किक परिणतियाँ हैं। यहाँ बस युगों का फर्क है। 1920 और 1930 के दशक में भारतीय पूँजीवाद और उसकी राजनीति जिस मुकाम पर खड़े थे उस मुकाम पर व्यवहारवादी राजनीति के ऐसे विद्रूप संस्करण नहीं पैदा हो सकते थे। लेकिन आज पूरी पूँजीवादी राजनीति पतन, व्याभिचार, भ्रष्टाचार और अवसरवाद के जिस कीचड़ में लथपथ है वहाँ अस्मितावाद और व्यवहारवाद दलित राजनीति में रामदास आठवले, रामविलास पासवान, मायावती, थिरुमावलवन, उदित राज जैसे लोगों को ही पैदा कर सकती है और कर रही है। यह व्यवहारवाद की राजनीति और दर्शन से प्रस्थान नहीं है, जैसा कि कुछ दलित बुद्धिजीवी और चिन्तक हमें बता रहे हैं। सच यह है कि यह उसी व्यवहारवादी राजनीति और दर्शन का राजनीतिक निर्वाण और तार्किक परिणति है।
यही कारण है कि आज यह अस्मितावादी और व्यवहारवादी राजनीति पूरी दलित मुक्ति की परियोजना को प्रतीकवाद पर ले जाकर सीमित कर दे रही है। विश्वविद्यालयों का नाम दलित आन्दोलन के नेताओं के नाम पर रखना, अम्बेडकर-नेहरू कार्टून विवाद, आदि पर तो काफ़ी शोर मचाया जाता है (जो अपने आप में सही या ग़लत नहीं है) लेकिन दलित उत्पीड़न के वास्तविक मुद्दों पर अस्मितावादी और व्यवहारवादी दलित राजनीति चुप है। लक्ष्मणपुर बाथे और बथानी टोला नरसंहार के हत्यारों को अदालत द्वारा छोड़ दिये जाने पर यह आन्दोलन नहीं करती; झज्जर, गोहाना, भगाना, खैरलांजी और मिर्चपुर जैसी बर्बर घटनाओं पर कोई जुझारू आन्दोलन नहीं खड़ा किया जाता। कई बार तो ऐसी घटनाओं पर बयान तक नहीं दिया जाता। लेकिन प्रतीकवादी अस्मितावादी प्रश्नों पर काफ़ी हल्ला मचाया जाता है। क्या यह एक अफ़सोसनाक स्थिति नहीं है? और अगर है तो क्या यह सोचने की बात नहीं है कि ऐसा क्यों है? क्या ऐसी दलित राजनीति के उदाहरण अपवाद हैं? हम सभी जानते हैं कि ऐसा नहीं है। आम तौर पर, अस्मितावादी-व्यवहारवादी दलित राजनीति प्रतीकवाद के गड्ढे में जा रही है। लेकिन इस पर कोई तार्किक विश्लेषण करने की बजाय तमाम अग्रणी दलित चिन्तक और बुद्धिजीवी इसे व्यवहारवादी राजनीति की विरासत से प्रस्थान बता रहे हैं और उसे विचलनों और अपवादों के रूप में चित्रित कर रहे हैं। इसे ही जूते के हिसाब से पैर काटना कहते हैं। ऐसे विश्लेषणों का नतीजा पहले ही तय कर लिया गया है और फिर तय नतीजों के हिसाब से मनमाना विश्लेषण कर दिया गया है। हम समझते हैं कि अगर दलित मुक्ति की परियोजना को एक कदम भी आगे बढ़ाना है तो हमें साहस के साथ एक ईमानदार विश्लेषण करना चाहिए और यह समझना चाहिए कि दलित मुक्ति की परियोजना संसद-विधानसभाओं के गलियारों से या फिर अस्मितावाद-व्यवहारवाद और आरक्षण की राजनीति की अन्धी गलियों से नहीं बल्कि एक आमूलगामी क्रान्तिकारी राजनीति के रास्ते ही सम्भव है। निश्चित तौर पर, ऐसी राजनीति के प्राधिकार को स्थापित करने के लिए भी व्यापक मेहनतकश आबादी के बीच सतत् और निरन्तर जातिवाद और ब्राह्मणवाद-विरोधी प्रचार और संघर्ष चलाना होगा। लेकिन तय यह करना है कि यह विरोध केवल प्रतीकों और अस्मितावाद के स्तर पर होगा या फिर यह विरोध वास्तविक मुद्दों पर आम ग़रीब दलित आबादी को आम मेहनतकश आबादी के साथ जुझारू तरीके से गोलबन्द और संगठित करके होगा। जो भी नौजवान, बुद्धिजीवी, दलित आन्दोलन में सक्रिय ईमानदार आम कार्यकर्ता इस सवाल की अहमियत को समझ रहे हैं उन्हें साहसपूर्ण ढंग से आलोचना का हथियार उठाना होगा और दलित आन्दोलन में मौजूद अस्मितावाद और व्यवहारवाद को कठघरे में खड़ा करना होगा, उसकी आलोचना करनी होगी और उससे छुटकारा पाना होगा। केवल और केवल तभी हम इस मामले में एक भी कदम आगे बढ़ा पायेंगे।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2014
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